फेफड़ों और त्वचा के कैंसरों के जीववैज्ञानिक इतिहास का पता लगा लिया गया है। इंग्लैंड के सेंगर इंस्टीट्यूट में कैंसर जीनोम परियोजना में लगे वैज्ञानिकदल ने इन दोनों प्रकार के कैंसरों के मरीजों की बीमार कोशिकाओं के जीन में पाए जाने वाले अंतरों को ढूंढ लिया है जो कैंसर के कारण पैदा होते हैं। सेंगर इंस्ट्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने पहली बार त्वचा और फेफड़ों के कैंसर के मरीजों की कोशिकाओं के हर म्यूटेशन को पहचाना है जो स्वस्थ कोशिका को कैंसर की स्थिति की ओर धकेलते हैं। यह खोज कैंसर के सटीक इलाज के रास्ते में मील का पत्थर है। अब कैसर कोशिकाओं के साथ-साथ शरीर की तेजी से बढ़ती स्वस्थ कोशिकाओं को भी खत्म कर देने वाली कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी की जगह सिर्फ कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को खत्म करने के तरीके ढूंढने में मदद मिलेगी।
वैज्ञानिकों ने 45 साल के मेलानोमा (त्वचा का कैंसर) से पीड़ित और 55 साल के स्मॉल सेल लंग कैंसर से पीड़ित पुरुषों की बीमार कोशिकाओं का उन्हीं की स्वस्थ कोशिकाओं के साथ मिलान किया और दोनों में अंतर ढूंढते गए। इस तरह दोनों प्रकार की कैंसर कोशाओं के जीन में म्यूटेशन (अचानक आए असामान्य बदलाव) को दर्ज किया। यह शोध त्वचा और फेफड़ों के कैंसर पर ही किया गया क्योंकि इन दोनों के होने में पर्यावरण के हाथ का पता लग चुका है। ज्यादातर मेलानोमा बचपन में ज्यादा अल्ट्रावॉयलट किरणों को झेलने से और स्मॉल-सेल लंग कैंसर बीड़ी-सिगरेट के धुएं से होता है।
पाया गया कि लंग कैंसर की कोशिकाओं में 23 हजार तरह के म्यूटेशन होते हैं जो सिर्फ लंग कैंसर पीड़ित कोशाओं में ही होते हैं और स्वस्थ कोशाओं में कभी नहीं पाए जाते। त्वचा के कैंसर, मेलानोमा की बीमार कोशिका में 32 हजार प्रकार के म्यूटेशन पाए गए। लंग कैंसर के सभी म्यूटेशन यानी कोशिकाओँ के जीन में बदलाव सिगरेट में पाए जाने वाले 60 तरह के रसायनों के कारण होते हैं जो डीएनए के साथ जुड़ कर उसे अपना सामान्य कामकाज करने से रोकते हैं और उसकी संरचना को बिगाड़ देते हैं। लंग कैंसर पर शोधदल का नेतृत्व करने वाले डॉ. पीटर कैंपबेल के मुताबिक - “ हर 15 सिगरेटों का धुआं स्वस्थ कोशिका के जीनोम में एक म्यूटेशन लाता हैं। और यह असर पहली सिगरेट से ही शुरू हो जाता है। यह तथ्य भयानक है क्योंकि कई लोग हैं जो हर दिन एक पैकेट सिगरेट का धुंआ पी जाते हैं।”
खास बात यह है कि हमारे देश में मुंह, गले और फेफड़ों के कैंसर के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। यहां मुंह का कैंसर कुल मामलों में से 45 फीसदी से ज्यादा है। इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा मामलों में कारण तंबाकू और उससे बने उत्पाद हैं। जबकि योरोप के देशों में जागरूकता के कारण यह आंकड़ा लगातार घट रहा है और 4-5 फीसदी के आस-पास तक पहुंच गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर साल 13 लाख से ज्यादा लोग फेफड़ों के कैंसर से मर जाते हैं।
मानव कोशिकाओं में क्रोमोसोम के 23 जोड़े होते हैं जिनमें जेनेटिक मटीरियल या जनन द्रव्य अक्षरों (A,G,C और T प्रोटीनों ) के तीन अरब जोड़ों के रूप में होता है। ये सभी अक्षर जिगसॉ-पजल के जोड़ों की तरह होते हैं जो किसी खास अक्षर से किसी खास तरफ से ही जुड़ते हैं। इन अक्षरों के जोड़ों में से किसी एक जोड़े में बदलाव आता है तो इसे म्यूटेशन कहा जाता हैं। एक अक्षर का जोड़ा दूसरे अक्षर से जुड़ जाए, या किसी का जोड़ा ही न मिले या किसी के दो जोड़े हो जाएं, किसी परफेक्ट जोड़ी का डुप्लिकेट ही बन जाए या फिर किसी क्रोमोसोम श्रृंखला का कोई हिस्सा टूट जाए या फिर गलत तरीके से जुड़े हो तो यह म्यूटेशन हुआ।
.
10 साल तक चलने वाली इस कैंसर जीनोम परियोजना में 50 तरह के कैंसरों के जीनोम और कोशिकाओं के म्यूटेशन का नक्शा बनाने की योजना है। आम कैंसरों के इस स्तर तक खुलासे के बाद इनका इलाज आसान हो जाएगा। हालांकि इलाज के पहले हर मरीज की अलग-अलग जेनेटिक मैपिंग करनी पड़ेगी जिसका फिलहाल खर्च कोई एक लाख डॉलर है, और डेढ़-दो साल बाद इसके करीब 20 हजार डॉलर हो जाने की उम्मीद है। और 10 साल बाद जबकि इस तरह का टारगेटेड इलाज बाजार में आ जाएगा, इस तरह की जेनेटिक मैपिंग भी सस्ती हो जाएगी।
पर कितनी? अगर मान लें कि एक हजार रुपए तक भी सस्ती हो जाए तो भी....क्या किसी भी कीमत पर जिंदगी इतनी सस्ती है कि उस पर कुछेक पैकेट सिगरेट-बिड़ी के खर्च किए जाएं और यह तमाम हो जाए!?? नहीं न!!
सिगरेट-बिड़ी-पान मसाला-तंबाकू पर पैसे, समय, ऊर्जा और आखिरकार पूरी जिंदगी खर्च कर देना कहां की अक्लमंदी है? इन सबसे तो आसान होता है, सिगरेट के साथ-साथ कैंसर की जांच और इलाज के पैसे बचाना और इस तरह अपनी जान को जोखिम में डालने से बचाना। क्या सोच रहे हैं??
This blog is of all those whose lives or hearts have been touched by cancer. यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी ज़िंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।
Saturday, December 19, 2009
Thursday, November 12, 2009
सिगरेट पीना हॉट है या कूल?
वैसे तो धुआं पीना कई जगहों पर मना हो गया है। फिर भी पीने वाले को तो सिगरेट-बिड़ी पीनी ही होती है। भई, जिसको पीना है, वो कहीं भी जाकर अपनी तलब पूरी करेगा। भले ही कड़ी सर्दी में बाहर मैदान में खड़े होना पड़े या फिर कड़ी तपती गर्मी में मैदान में या सड़क पर पेड़ की एक पत्ता छांव भी न मिले। भले ही अपने मित्रों का झुंड छोड़कर अजनबियों के बीच खड़ा होना पड़े या फिर नो-स्मोकिंग जोन के अंदर पकड़े जाने पर इज्जत जाती रहे। और ये सब एक दिन की नहीं, रोज-ब-रोज की बात है।
एक जमाना था जब सिगरेट पीना स्टाइल माना जाता था, शान की निशानी मानी जाती थी। फिल्मों के हीरो स्टाइल से धुआं छोड़ते हुए ‘अदाएं’ दिखाते थे और दर्शक फिदा हुए जाते थे। पर आज समय बदल गया है। अब फिल्मों में सिगरेट पीना टशन नहीं बल्कि टेंशन की निशानी बन गया है। या तो विलेन पिएगा या फिर परेशान-हाल हीरो। कोई स्वस्थ-प्रसन्न चरित्र फिल्मों में धुआं करता कम ही दिखता है।
आज भी सोचिए कोई लती बुजुर्ग धुंए की तलब में अपने दफ्तर से निकल कर दूर चला जाता है, काम-काज, दफ्तर के भीतर के अनुकूलत वातावरण को छोड़कर। छुपकर जिंदगी को धुंए में उड़ाने के लिए। और वहां से लौटता है, एक बदबू का भभका लेकर जिसे हर कोई पास से गुजर कर महसूस कर सकता है, नाक भौं सिकोड़ सकता है।
कोलंबस के जमाने से भी पहले से अमरीकी रेड इंडयन नशे के लिए तंबाकू की पत्तियां जलाकर धुंआ पीना जानते थे। लेकिन उसी अमरीका में मार्लबोरो सिगरेट कंपनी के अभिमानी मालिक की जान उसी की कंपनी की बनाई सिगरेट के धुंए ने ले ली। हमारे देश में पुरुषों के कैंसर के मामलों में 45 फीसदी मुंह, श्वास नली या फेफड़ों का कैंसर होता है। इनमें 95 फीसदी बीमारी का कारण तंबाकू और धूम्रपान है।
अब सिगरेट से लोगों का तिरस्कार ही मिलता है, और ज्यादा समय होने पर लती होते देर नहीं लगती और लोग उसे निरीह, बीमार समझने लगते हैं। यानी सिगरेट पीने वाला न तो ‘हॉट’ लगता है, और न यह कोई ‘कूल’ अदा है।
इस बारे में आपकी राय क्या है, जरूर बताएं।
नवंबर फेफड़ों के कैंसर की जागरूकता का महीना है।
एक जमाना था जब सिगरेट पीना स्टाइल माना जाता था, शान की निशानी मानी जाती थी। फिल्मों के हीरो स्टाइल से धुआं छोड़ते हुए ‘अदाएं’ दिखाते थे और दर्शक फिदा हुए जाते थे। पर आज समय बदल गया है। अब फिल्मों में सिगरेट पीना टशन नहीं बल्कि टेंशन की निशानी बन गया है। या तो विलेन पिएगा या फिर परेशान-हाल हीरो। कोई स्वस्थ-प्रसन्न चरित्र फिल्मों में धुआं करता कम ही दिखता है।
आज भी सोचिए कोई लती बुजुर्ग धुंए की तलब में अपने दफ्तर से निकल कर दूर चला जाता है, काम-काज, दफ्तर के भीतर के अनुकूलत वातावरण को छोड़कर। छुपकर जिंदगी को धुंए में उड़ाने के लिए। और वहां से लौटता है, एक बदबू का भभका लेकर जिसे हर कोई पास से गुजर कर महसूस कर सकता है, नाक भौं सिकोड़ सकता है।
कोलंबस के जमाने से भी पहले से अमरीकी रेड इंडयन नशे के लिए तंबाकू की पत्तियां जलाकर धुंआ पीना जानते थे। लेकिन उसी अमरीका में मार्लबोरो सिगरेट कंपनी के अभिमानी मालिक की जान उसी की कंपनी की बनाई सिगरेट के धुंए ने ले ली। हमारे देश में पुरुषों के कैंसर के मामलों में 45 फीसदी मुंह, श्वास नली या फेफड़ों का कैंसर होता है। इनमें 95 फीसदी बीमारी का कारण तंबाकू और धूम्रपान है।
अब सिगरेट से लोगों का तिरस्कार ही मिलता है, और ज्यादा समय होने पर लती होते देर नहीं लगती और लोग उसे निरीह, बीमार समझने लगते हैं। यानी सिगरेट पीने वाला न तो ‘हॉट’ लगता है, और न यह कोई ‘कूल’ अदा है।
इस बारे में आपकी राय क्या है, जरूर बताएं।
नवंबर फेफड़ों के कैंसर की जागरूकता का महीना है।
Saturday, November 7, 2009
सर्वाइकल कैंसर की वैक्सीन कितनी कारगर होगी?
दिल्ली में कई सरकार और गैर-सरकारी अस्पतालों में कैंसर विभाग या महिला रोग और प्रसूती विभाग की दीवारों पर सर्वाइकल कैंसर को रोकने की वैक्सीन के पोस्टर लगे मिल जाते हैं जो कि एक कंपनी के अपने उत्पाद का विज्ञापन है। इसमें एक 22-25 साल की महिला इस वैक्सीन को लगवाने की वकालत कर रही है जिससे सर्वाइकल कैंसर को रोका जा सकता है।
मेरी एक परिचता ने भी इस बारे में मुझसे चर्चा की। उसे लंबे समय से गर्भाशय के मुंह में संक्रमण की समस्या रही। गर्भाशय और अंडाशय (ओवरी) से जुड़ी कुछ दूसरी तकलीफें भी रहीं। लंबे समय से लगातार इलाज करवा रही मेरी सखी को किसी क्लीनिक में यही- वैक्सीन वाला विज्ञापन देखने को मिला। इसके बाद से वह बेचैन हो रही है इस वैक्सीन का कोर्स करवाने के लिए। उसे लग रहा है, जैसे बादल वाले किसी दिन बाहर निकलने के छतरी लिए बिना नहीं निकलती, उसी तरह उस वैक्सीन की सुरक्षा से वह अपने को संभावित सर्वाइकल कैंसर से आसानी से बचा सकती है। उसे डर है कि यह कसर पूरी किए बिना उसे खुदा न खास्ता सर्वाइकल कैंसर हो गया तो वह खुद को माफ नहीं कर पाएगी।
इस बारे में कुछ जानने की इच्छा से मैंने थोड़ी-बहुत खोज की तो पता चला कि इंग्लैंड के नैशनल हेल्थ स्कीम के तहत सर्वाइकल कैंसर के लिए वैक्सिनेशन प्लान चल रहा है। वहां राष्ट्रीय वैक्सिनेशन कार्यक्रम के तहत 12 से 18 साल की लड़कियों को यह दवा स्कूलों में मुफ्त दी जा रही है।
वहां बड़ी उम्र की महिलाएं भी इसकी मांग कर रही हैं लेकिन सरकारी फार्मेसी में उनके लिए यह दवा नहीं रखी गई है। और इसका ठोस कारण है। हालांकि बाजार इस बेकार मांग की पूर्ति में भी अपना मुनाफा काटने के लिए तैयार है। दुकानों में प्राइवेट कंपनियों की वैक्सीन 18 से 54 साल की महिलाओं के लिए उपलब्ध है। इस तीन इंजेक्शन वाले इस पूरे कोर्स की कीमत है- 405 पौंड।
महिलाओं को होने वाले सर्विक्स (बच्चेदानी के मुंह) के कैंसर का सबसे बड़ा कारण (80 फीसदी से ज्यादा) ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) है जिसके खिलाफ इस वैक्सीन का इस्तेमाल होने लगा है। वैज्ञानिकों ने कम उम्र की लड़कयों के लिए यह वैक्सीन लंबे दौर में कारगर बताई है। उनकी सिफारिश है कि 12 साल तक की हर लड़की को वैक्सीन दी जाए। जो छूट जाएं उन्हें भी हर हाल में 18 वर्ष तक की उम्र तक वैक्सीन जरूर दे दी जाए।
वैज्ञानकों का मानना है कि इस उम्र के बाद एच पी वी वैक्सीन देने की खर्चीली योजना का ज्यादा फायदा नहीं मिल पाता। ह्यूमन पैपिलोमा वायरस, सेक्शुअली फैलने वाला वायरस है और इस उम्र तक लड़कियां सेक्शुअली एक्टिव हो जाती हैं। इसलिए इसके बाद वैक्सीन लगाने का ज्यादा फायदा नहीं, क्योंकि तब तक वायरस का संक्रमण सर्विक्स में पहुंच जाने की काफी संभावना होती है।
कई देशों में इस वैक्सीन के इस्तेमाल के लिए दिशानिर्देश हैं। अमरीका की मेयो क्लीनिक के मुताबिक 11 से 12 वर्ष की उम्र में छह माह के भीतर इस वैक्सीन के तीनों डोज़ दे दिए जाने चाहिए। पहले डोज़ के दो महीने बाद दूसरा और उसके चार महीने बाद तीसरा। अगर कोई महिला उस वक्त वैक्सीन न ले पाए या तीन डोज़ का यह कोर्स बीच में छूट जाए तो 13 से 26 साल की महिलाओं को कैच-अप डोज दिया जा सकता है।
इंग्लैंड में एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 20 से 29 वर्ष की 10 में से एक महिला में एचपीवी संक्रमण है। इन महिलाओं को वैक्सीन का फायदा नहीं होगा क्योंकि संक्रमण हो जाने के बाद वैक्सीन सर्वाइकल कैंसर से बचने में मदद नहीं करती। इस तरह उनमें इस बीमारी से बचने की झूठी सुरक्षा भावना जागेगी और वे खुद को वैक्सीन से सुरक्षित मान कर सर्वाइकल कैंसर की जांच के लिए होने वाली नियमित पैप-स्मीयर जांच भी नहीं करवाएंगी। नतीजा वैक्सीन के पहले के समय से ज्यादा भयावह होगा। हालांकि सफल वैक्सिनेशन के बाद भी विशेषज्ञ रूटीन जांच के महत्व को कम नहीं आंकते।
वैक्सीन बनने के पहले भी इंग्लैंड में नैशनल हेल्थ स्कीम के तहत सर्वाइकल स्क्रीनिंग कार्यक्रम 1988 से चल रहा है जिसमें क्लीनिकल जांच के अलावा मुख्यतह पैप स्मीयर जांच की जाती है जिससे अब तक वहां एक लाख से ज्यादा महिलाएं मरने से बच सकी हैं।
आंकड़े कहते हैं कि दुनिया की पांच लाख सर्वाइकल कैंसर की मरीजों में से एक लाख सिर्फ भारत में हैं यानी दुनिया की 1/5 सर्वाइकल कैंसर का बोझ भारतीय महिलाएं उठा रही हैं। दक्षिण भारत में यह महिलाओं में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है। सर्वाइकल कैंसर सीधे तौर पर निर्धनता और अज्ञानता से जुड़ा हुआ है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसे रोका जा सकता है, सेक्शुआल हाइजीन और कंडोम जैसे बैरियर गर्भनिरोधक जैसे आसान तरीकों से। लेकिन इसके साथ ही लोगों के सामान्य स्वास्थ्य, रोग-निरोधक शक्ति खान-पान, और जीवन स्तर को भी सुधारने की जरूरत है।
हमारे देश में लड़कियां जल्दी सेक्शुअली एक्टिव हो जाती हैं। इसका कारण कम उम्र में लड़कियों की शादी हो जाना है। इससे उनमें सर्वाइकल कैंसर होने की संभावना भी ज्यादा होती है। ऐसी स्थिति में हमारे देश में भी अगर कोई एचपीवी के खिलाफ वैक्सीनेशन करवाना चाहे तो किशोरावस्था में ही करवाना होगा। ध्यान देने की बात है कि यह वैक्सीन कैंसर को सिर्फ रोक सकती है, संक्रमण हो जाने के बाद इसका इलाज नहीं कर सकती। बड़ी उम्र की महिलाओं के वैक्सीनेशन का कोई फायदा नहीं रह जाता। और इस महंगे वैक्सीनेशन के बाद महिलाएँ झूठे ही सुरक्षित महसूस करके इस तरफ से लापरवाह हो जाएं और पैप स्मीयर जैसी सरल, सुरक्षित जांच भी न करवाएं, यह ज्यादा खतरनाक है।
एक बहुराष्ट्रीय कंपनी एमएसडी ने अक्टूबर 2008 में सर्वाइकल कैंसर के खिलाफ भारत में पहली वैक्सीन बाजार में उतारी। इसके साथ ही कई नैतिकता और व्यावहारिक प्रश्नों से जुड़े विवाद भी उठ खड़े हुए। इस वैक्सीन के पुख्ता परीक्षण, साइड इफेक्ट, दूरगामी प्रभावों, नौ-दस साल की कच्ची उम्र में सर्वाइकल कैंसर के खिलाफ वैक्सीन देने, समाज में इसके बारे में जानकारी की कमी, इसकी कीमत आदि के अलावा इसके टीवी विज्ञापनों में सूचना देने के बजाए लोगों में डर पैदा करने की कोशिश पर काफी बवाल मचा है।
इधर भारत में एक और नामी कंपनी ग्लैक्सोस्मिथक्लीन ने सर्वाइकल कैंसर के लिए वैक्सीन उतारी है जिसे वे 10 से 40 साल की उम्र तक की महिलाओं को दे सकने लायक बताते हैं। इन कंपनियों ने अपनी वैक्सीन के समर्थन में आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ (एम्स) और ऑब्स्टेट्रिक एंड गाइनेकोलॉजिकल सोसाइटीज़ जैसे स्वीकृत संस्थानों के प्रतिष्ठित विशेषज्ञों तक से कहलवाया है। हालांकि इनके कथनों से साफ पता चलता है कि सभी उपलब्ध आंकड़े दूसरे, विकसित देशों को हैं और भारत जैसे विकासशील देश में इनका कोई ट्रायल नहीं हुआ है।
भारत में सर्वाइकल कैंसर के लिए वैक्सीन को मान्यता देने, इसकी जरूरत और उपयोगिता पर वैज्ञानिक-सामाजिक जगत में चर्चा जारी है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे यहां सर्वाइकल कैंसर और साफ-सफाई से जुड़ी दूसरी बीमारियों से बचने के लिए कम उम्र में स्कूलों, आंगनबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए लड़कियों, और लड़कों को भी, शरीर की साफ-सफाई, संक्रमणों और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए उचित पोषण के बारे में बताने की बहुत ज्यादा जरूरत है। चिकित्सा व्यवस्था में महिलाओं की पैप स्मीयर जैसी सरल और सस्ती जांच के जरिए नियमित स्क्रनिंग को सुनिश्चित करना भी उतना ही जरूरी है ताकि हर साल कोई सवा लाख महिलाएं सर्वाइकल कैंसर और उसके इलाज की पीड़ा को झेलने से बच सकें और 75 हजार महिलाओँ की मौत को रोका जा सके।
इसी विषय पर मेरा एक लेख 'कितनी उपयोगी होगी सर्वाइकल कैंसर की वैक्सीन'- आज के नवभारत टाइम्स में छपा है। नवभारत टाइम्स ऑनलाइन पर लेख है- महिलाओं में फैल रहा है सर्वाइकल कैंसर
मेरी एक परिचता ने भी इस बारे में मुझसे चर्चा की। उसे लंबे समय से गर्भाशय के मुंह में संक्रमण की समस्या रही। गर्भाशय और अंडाशय (ओवरी) से जुड़ी कुछ दूसरी तकलीफें भी रहीं। लंबे समय से लगातार इलाज करवा रही मेरी सखी को किसी क्लीनिक में यही- वैक्सीन वाला विज्ञापन देखने को मिला। इसके बाद से वह बेचैन हो रही है इस वैक्सीन का कोर्स करवाने के लिए। उसे लग रहा है, जैसे बादल वाले किसी दिन बाहर निकलने के छतरी लिए बिना नहीं निकलती, उसी तरह उस वैक्सीन की सुरक्षा से वह अपने को संभावित सर्वाइकल कैंसर से आसानी से बचा सकती है। उसे डर है कि यह कसर पूरी किए बिना उसे खुदा न खास्ता सर्वाइकल कैंसर हो गया तो वह खुद को माफ नहीं कर पाएगी।
इस बारे में कुछ जानने की इच्छा से मैंने थोड़ी-बहुत खोज की तो पता चला कि इंग्लैंड के नैशनल हेल्थ स्कीम के तहत सर्वाइकल कैंसर के लिए वैक्सिनेशन प्लान चल रहा है। वहां राष्ट्रीय वैक्सिनेशन कार्यक्रम के तहत 12 से 18 साल की लड़कियों को यह दवा स्कूलों में मुफ्त दी जा रही है।
वहां बड़ी उम्र की महिलाएं भी इसकी मांग कर रही हैं लेकिन सरकारी फार्मेसी में उनके लिए यह दवा नहीं रखी गई है। और इसका ठोस कारण है। हालांकि बाजार इस बेकार मांग की पूर्ति में भी अपना मुनाफा काटने के लिए तैयार है। दुकानों में प्राइवेट कंपनियों की वैक्सीन 18 से 54 साल की महिलाओं के लिए उपलब्ध है। इस तीन इंजेक्शन वाले इस पूरे कोर्स की कीमत है- 405 पौंड।
महिलाओं को होने वाले सर्विक्स (बच्चेदानी के मुंह) के कैंसर का सबसे बड़ा कारण (80 फीसदी से ज्यादा) ह्यूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) है जिसके खिलाफ इस वैक्सीन का इस्तेमाल होने लगा है। वैज्ञानिकों ने कम उम्र की लड़कयों के लिए यह वैक्सीन लंबे दौर में कारगर बताई है। उनकी सिफारिश है कि 12 साल तक की हर लड़की को वैक्सीन दी जाए। जो छूट जाएं उन्हें भी हर हाल में 18 वर्ष तक की उम्र तक वैक्सीन जरूर दे दी जाए।
वैज्ञानकों का मानना है कि इस उम्र के बाद एच पी वी वैक्सीन देने की खर्चीली योजना का ज्यादा फायदा नहीं मिल पाता। ह्यूमन पैपिलोमा वायरस, सेक्शुअली फैलने वाला वायरस है और इस उम्र तक लड़कियां सेक्शुअली एक्टिव हो जाती हैं। इसलिए इसके बाद वैक्सीन लगाने का ज्यादा फायदा नहीं, क्योंकि तब तक वायरस का संक्रमण सर्विक्स में पहुंच जाने की काफी संभावना होती है।
कई देशों में इस वैक्सीन के इस्तेमाल के लिए दिशानिर्देश हैं। अमरीका की मेयो क्लीनिक के मुताबिक 11 से 12 वर्ष की उम्र में छह माह के भीतर इस वैक्सीन के तीनों डोज़ दे दिए जाने चाहिए। पहले डोज़ के दो महीने बाद दूसरा और उसके चार महीने बाद तीसरा। अगर कोई महिला उस वक्त वैक्सीन न ले पाए या तीन डोज़ का यह कोर्स बीच में छूट जाए तो 13 से 26 साल की महिलाओं को कैच-अप डोज दिया जा सकता है।
इंग्लैंड में एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 20 से 29 वर्ष की 10 में से एक महिला में एचपीवी संक्रमण है। इन महिलाओं को वैक्सीन का फायदा नहीं होगा क्योंकि संक्रमण हो जाने के बाद वैक्सीन सर्वाइकल कैंसर से बचने में मदद नहीं करती। इस तरह उनमें इस बीमारी से बचने की झूठी सुरक्षा भावना जागेगी और वे खुद को वैक्सीन से सुरक्षित मान कर सर्वाइकल कैंसर की जांच के लिए होने वाली नियमित पैप-स्मीयर जांच भी नहीं करवाएंगी। नतीजा वैक्सीन के पहले के समय से ज्यादा भयावह होगा। हालांकि सफल वैक्सिनेशन के बाद भी विशेषज्ञ रूटीन जांच के महत्व को कम नहीं आंकते।
वैक्सीन बनने के पहले भी इंग्लैंड में नैशनल हेल्थ स्कीम के तहत सर्वाइकल स्क्रीनिंग कार्यक्रम 1988 से चल रहा है जिसमें क्लीनिकल जांच के अलावा मुख्यतह पैप स्मीयर जांच की जाती है जिससे अब तक वहां एक लाख से ज्यादा महिलाएं मरने से बच सकी हैं।
आंकड़े कहते हैं कि दुनिया की पांच लाख सर्वाइकल कैंसर की मरीजों में से एक लाख सिर्फ भारत में हैं यानी दुनिया की 1/5 सर्वाइकल कैंसर का बोझ भारतीय महिलाएं उठा रही हैं। दक्षिण भारत में यह महिलाओं में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है। सर्वाइकल कैंसर सीधे तौर पर निर्धनता और अज्ञानता से जुड़ा हुआ है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसे रोका जा सकता है, सेक्शुआल हाइजीन और कंडोम जैसे बैरियर गर्भनिरोधक जैसे आसान तरीकों से। लेकिन इसके साथ ही लोगों के सामान्य स्वास्थ्य, रोग-निरोधक शक्ति खान-पान, और जीवन स्तर को भी सुधारने की जरूरत है।
हमारे देश में लड़कियां जल्दी सेक्शुअली एक्टिव हो जाती हैं। इसका कारण कम उम्र में लड़कियों की शादी हो जाना है। इससे उनमें सर्वाइकल कैंसर होने की संभावना भी ज्यादा होती है। ऐसी स्थिति में हमारे देश में भी अगर कोई एचपीवी के खिलाफ वैक्सीनेशन करवाना चाहे तो किशोरावस्था में ही करवाना होगा। ध्यान देने की बात है कि यह वैक्सीन कैंसर को सिर्फ रोक सकती है, संक्रमण हो जाने के बाद इसका इलाज नहीं कर सकती। बड़ी उम्र की महिलाओं के वैक्सीनेशन का कोई फायदा नहीं रह जाता। और इस महंगे वैक्सीनेशन के बाद महिलाएँ झूठे ही सुरक्षित महसूस करके इस तरफ से लापरवाह हो जाएं और पैप स्मीयर जैसी सरल, सुरक्षित जांच भी न करवाएं, यह ज्यादा खतरनाक है।
एक बहुराष्ट्रीय कंपनी एमएसडी ने अक्टूबर 2008 में सर्वाइकल कैंसर के खिलाफ भारत में पहली वैक्सीन बाजार में उतारी। इसके साथ ही कई नैतिकता और व्यावहारिक प्रश्नों से जुड़े विवाद भी उठ खड़े हुए। इस वैक्सीन के पुख्ता परीक्षण, साइड इफेक्ट, दूरगामी प्रभावों, नौ-दस साल की कच्ची उम्र में सर्वाइकल कैंसर के खिलाफ वैक्सीन देने, समाज में इसके बारे में जानकारी की कमी, इसकी कीमत आदि के अलावा इसके टीवी विज्ञापनों में सूचना देने के बजाए लोगों में डर पैदा करने की कोशिश पर काफी बवाल मचा है।
इधर भारत में एक और नामी कंपनी ग्लैक्सोस्मिथक्लीन ने सर्वाइकल कैंसर के लिए वैक्सीन उतारी है जिसे वे 10 से 40 साल की उम्र तक की महिलाओं को दे सकने लायक बताते हैं। इन कंपनियों ने अपनी वैक्सीन के समर्थन में आल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज़ (एम्स) और ऑब्स्टेट्रिक एंड गाइनेकोलॉजिकल सोसाइटीज़ जैसे स्वीकृत संस्थानों के प्रतिष्ठित विशेषज्ञों तक से कहलवाया है। हालांकि इनके कथनों से साफ पता चलता है कि सभी उपलब्ध आंकड़े दूसरे, विकसित देशों को हैं और भारत जैसे विकासशील देश में इनका कोई ट्रायल नहीं हुआ है।
भारत में सर्वाइकल कैंसर के लिए वैक्सीन को मान्यता देने, इसकी जरूरत और उपयोगिता पर वैज्ञानिक-सामाजिक जगत में चर्चा जारी है। लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे यहां सर्वाइकल कैंसर और साफ-सफाई से जुड़ी दूसरी बीमारियों से बचने के लिए कम उम्र में स्कूलों, आंगनबाड़ी, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के जरिए लड़कियों, और लड़कों को भी, शरीर की साफ-सफाई, संक्रमणों और शरीर को स्वस्थ रखने के लिए उचित पोषण के बारे में बताने की बहुत ज्यादा जरूरत है। चिकित्सा व्यवस्था में महिलाओं की पैप स्मीयर जैसी सरल और सस्ती जांच के जरिए नियमित स्क्रनिंग को सुनिश्चित करना भी उतना ही जरूरी है ताकि हर साल कोई सवा लाख महिलाएं सर्वाइकल कैंसर और उसके इलाज की पीड़ा को झेलने से बच सकें और 75 हजार महिलाओँ की मौत को रोका जा सके।
इसी विषय पर मेरा एक लेख 'कितनी उपयोगी होगी सर्वाइकल कैंसर की वैक्सीन'- आज के नवभारत टाइम्स में छपा है। नवभारत टाइम्स ऑनलाइन पर लेख है- महिलाओं में फैल रहा है सर्वाइकल कैंसर
Thursday, November 5, 2009
अब कौन डरता है कैंसर से!
दस साल में कितना कुछ बदल गया! का आगे का भाग-
अब के समय के ज्यादातर कैंसर मरीजों के लिए शारीरिक अनुभव निश्चय ही 10 साल पहले के अनुभव के मुकाबले ज्यादा सहनीय हो गए हैं। अब कैंसर का पता लगना मौत का फरमान नहीं लगता। अपने आस-पास कैंसर के मरीजों और इलाज करा रहे या करा चुके विजेताओं को देखते, उनसे चर्चा करते, समाज अब इस बीमारी के प्रति अपेक्षाकृत सहज है। इस जागरूकता के बाद अब लोग जल्दी डॉक्टर और इलाज तक पहुंचने लगे हैं।
नई तकनीकों के कारण कैंसर की पहचान जल्द और आसान हो गई है। और बायोप्सी के बाद डॉक्टर बीमारी के प्रकार, आकार, फैलाव और ‘गुणों’ के बारे में ज्यादा जान पाते हैं जो निश्चित रूप से इलाज में मददगार साबित होते हैं। और जिन मरीजों के कैंसर की पहचान उतने ‘समय’ पर नहीं हो पाती, उनके लिए भी कई तकनीकें आ गईं हैं जो उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी, सहज और कम तकलीफदेह बना देती हैं।
इमेंजिंग तकनीकें यानी जांच की मशीनें: मेमोग्राम और अल्ट्रासोनोग्राफी अब ज्यादा आम और लोगों की जेबों की पहुंच के भीतर हो गई हैं। इनके अलावा एमआरआई, सीटी स्कैन मशीनें कई जगहों पर लग गई हैं। इस बीच भारत में एक नई मशीन आई है- पेट स्कैन जो सीटी स्कैन और एमआरआई से भी ज्यादा बारीकी से बीमारी को देख कर जांच करके पाती है। इससे कुछ ज्यादा छोटे ट्यमरों को भी देखा जा सकता है।
कीमोथेरेपी: इस क्षेत्र में कई नई दवाएं बाजार में आई हैं जो ज्यादा टारगेटेड हैं यानी किसी खास प्रकार के कैंसर के लिए ज्यादा प्रभावी हो सकती हैं। इसके अलावा अब दवाओं के साइड इफेक्ट कम हैं और अगर हैं भी तो उन्हें कम करने के लिए बेहतर दवाएं उपलब्ध हैं। कीमोथेरेपी के बाद बाल झड़ने की समस्या (अगर इसे समस्या मानें तो) अब भी वैसी ही है, लेकन उल्टी की परेशानी से निबटने के लिए डॉक्टर बेहतर दवाएं दे पाते हैं।
कीमोथेरेपी का एक आम साइड इफेक्ट है- खून में सफेद और लाल रक्त कणों और प्लेटलेट्स की कमी। लाल रक्त कणों की कमी तो पहले की ही तरह खून चढ़ा कर पूरी की जाती है लेकिन अब खून के अवयवों को अलग करने की तकनीक ज्यादा विकसित है। इसके कारण एक रक्तदाता से मिले रक्त को अब सिर्फ एक की बजाए चार मरीजों के लिए या चार तरह की कमियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
लाल कण हीमोग्लोबिन की कमी वाले मरीज को, प्लेटलेट्स की कमी होने पर प्लेटलेट्स, रक्त प्लाज्मा उनको जिनका खून जल्दी गाढ़ा हो जाता है और एल्ब्यूमिन और इम्यून सीरम ग्लोब्यूलिन कोशिकीय और एंटीबॉडी प्रकृति की वजह से दिया जा सकता है। और रक्त के ये अवयव ज्यादा समय तक संरक्षित किए जा सकते हैं और इन्हें अलग-अलग कर लेने के बाद रक्त के ब्लडग्रुप आदि मैच न करने की दिक्कतें अब न्यूनतम हैं।
हालांकि रोग-प्रतिरोधक सफेद रक्त कणों, जो कि कीमोथेरेपी के दौरान खास तौर पर जरूरी होते हैं, को खून के बाकी अवयवों की तरह एक से निकाल कर दूसरे को नहीं दिया जा सकता। फिर भी अब लैबोरेटरी में बने एंटीबॉडी इंजेक्शन के रूप में बाजार में उपलब्ध हैं जो शरीर में स्वयं सफेद रक्त कण और एंटीबॉडी बनने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। 10 साल पहले ये दवाएं भारतीय बाजारों में दुर्लभ थीं। आज इनके कारण कीमो के दौरान रोगी की जान साधारण संक्रमण से नहीं जा सकती।
कीमो के साइड-इफेक्ट झेल पाना अब ज्यादा नहीं, पर थोड़ा आसान हो गया है। आखिर झेलना तो मरीज को पड़ता ही है।कीमोथेरेपी देने के तरीकों में भी बदलाव आया है। अब अस्पताल में भर्ती होकर ड्रिप के जरए कई दिनों तक कीमो लेने की लाचारी नहीं रही। उसक जगह कुछेक घंटों में ओपीडी में ही कीमो ली जा सकती है।इसके अलावा कई मरीजों को जरूरत पड़ने पर एक स्थाई नली यानी कीमोपोर्ट गर्दन या बांह में लगा दी जाती है जिससे जब चाहे दवा भी दी जा सकती है और खून आदि निकाला भी जा सकता है। यह उन मरीजों के लिए फायदेमंद है, जिनके हाथ या पैर में शिराएं ढूंढना डॉक्टर और नर्स के लिए एक चुनौती और मरीज के लिए दर्दनाक प्रक्रिया बनी रहती है।
रेडिएशन: अब कैंसर के मरीजों को रेडिएशन देने के लिए कोबॉल्ट की जगह लीनियर एक्सेलेरेटर मशीनें ज्यादा संख्या में दिखाई पड़ती हैं जिनसे रेडिएशन यानी सिकाई सिर्फ जरूरत की जगह पर ही होती है, उसके परे उसकी नुकसानदेह किरणें कम फैलती हैं। साथ ही अब सिकाई का शरीर के बाकी हिस्सों पर असर कम-से-कम है।
इसके अलावा ब्रैकीथेरेपी में रेडियोएक्टिव सिकाई की बजाए रेडयोएक्टिव पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़ों यानी ‘सीड्स’ को ट्यूमर की जगह पर रख दिया जाता है जिसमें से धीरे-धीरे लगातार विकिरण निकलकर कैंसर की कोशिकाओं को नष्ट कर देती है और आस-पास के ऊतकों को नुकसान नहीं पहुंचता।
सर्जरी: ज्यादातर कैंसरों का आधारभूत इलाज सर्जरी ही है। इस लिहाज से सर्जरी की तकनीकों में सुधार होना अपने आप में कैंसर के इलाज में सुधार होना भी है। सर्जरी अब ज्यादा सटीक, सीमित, सुरक्षित, कम तकलीफदेह, कम समय लेने वाली, जल्द ठीक होने वाली और इन सबके बावजूद ज्यादा फायदेमंद हो गई है।
इन बदलावों के साथ-साथ अब उम्मीद कर सकते हैं कि कुछेक साल में मानव जीनोम यानी अलग-अलग लोगों के जीनों की संरचनाओं को जान कर डॉक्टर उसी के मुताबिक हर मरीज के लिए सिर्फ उसी के लिए बना ‘डिजाइनर’ इलाज भी कर पाएंगे।
अब के समय के ज्यादातर कैंसर मरीजों के लिए शारीरिक अनुभव निश्चय ही 10 साल पहले के अनुभव के मुकाबले ज्यादा सहनीय हो गए हैं। अब कैंसर का पता लगना मौत का फरमान नहीं लगता। अपने आस-पास कैंसर के मरीजों और इलाज करा रहे या करा चुके विजेताओं को देखते, उनसे चर्चा करते, समाज अब इस बीमारी के प्रति अपेक्षाकृत सहज है। इस जागरूकता के बाद अब लोग जल्दी डॉक्टर और इलाज तक पहुंचने लगे हैं।
नई तकनीकों के कारण कैंसर की पहचान जल्द और आसान हो गई है। और बायोप्सी के बाद डॉक्टर बीमारी के प्रकार, आकार, फैलाव और ‘गुणों’ के बारे में ज्यादा जान पाते हैं जो निश्चित रूप से इलाज में मददगार साबित होते हैं। और जिन मरीजों के कैंसर की पहचान उतने ‘समय’ पर नहीं हो पाती, उनके लिए भी कई तकनीकें आ गईं हैं जो उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी, सहज और कम तकलीफदेह बना देती हैं।
इमेंजिंग तकनीकें यानी जांच की मशीनें: मेमोग्राम और अल्ट्रासोनोग्राफी अब ज्यादा आम और लोगों की जेबों की पहुंच के भीतर हो गई हैं। इनके अलावा एमआरआई, सीटी स्कैन मशीनें कई जगहों पर लग गई हैं। इस बीच भारत में एक नई मशीन आई है- पेट स्कैन जो सीटी स्कैन और एमआरआई से भी ज्यादा बारीकी से बीमारी को देख कर जांच करके पाती है। इससे कुछ ज्यादा छोटे ट्यमरों को भी देखा जा सकता है।
कीमोथेरेपी: इस क्षेत्र में कई नई दवाएं बाजार में आई हैं जो ज्यादा टारगेटेड हैं यानी किसी खास प्रकार के कैंसर के लिए ज्यादा प्रभावी हो सकती हैं। इसके अलावा अब दवाओं के साइड इफेक्ट कम हैं और अगर हैं भी तो उन्हें कम करने के लिए बेहतर दवाएं उपलब्ध हैं। कीमोथेरेपी के बाद बाल झड़ने की समस्या (अगर इसे समस्या मानें तो) अब भी वैसी ही है, लेकन उल्टी की परेशानी से निबटने के लिए डॉक्टर बेहतर दवाएं दे पाते हैं।
कीमोथेरेपी का एक आम साइड इफेक्ट है- खून में सफेद और लाल रक्त कणों और प्लेटलेट्स की कमी। लाल रक्त कणों की कमी तो पहले की ही तरह खून चढ़ा कर पूरी की जाती है लेकिन अब खून के अवयवों को अलग करने की तकनीक ज्यादा विकसित है। इसके कारण एक रक्तदाता से मिले रक्त को अब सिर्फ एक की बजाए चार मरीजों के लिए या चार तरह की कमियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।
लाल कण हीमोग्लोबिन की कमी वाले मरीज को, प्लेटलेट्स की कमी होने पर प्लेटलेट्स, रक्त प्लाज्मा उनको जिनका खून जल्दी गाढ़ा हो जाता है और एल्ब्यूमिन और इम्यून सीरम ग्लोब्यूलिन कोशिकीय और एंटीबॉडी प्रकृति की वजह से दिया जा सकता है। और रक्त के ये अवयव ज्यादा समय तक संरक्षित किए जा सकते हैं और इन्हें अलग-अलग कर लेने के बाद रक्त के ब्लडग्रुप आदि मैच न करने की दिक्कतें अब न्यूनतम हैं।
हालांकि रोग-प्रतिरोधक सफेद रक्त कणों, जो कि कीमोथेरेपी के दौरान खास तौर पर जरूरी होते हैं, को खून के बाकी अवयवों की तरह एक से निकाल कर दूसरे को नहीं दिया जा सकता। फिर भी अब लैबोरेटरी में बने एंटीबॉडी इंजेक्शन के रूप में बाजार में उपलब्ध हैं जो शरीर में स्वयं सफेद रक्त कण और एंटीबॉडी बनने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। 10 साल पहले ये दवाएं भारतीय बाजारों में दुर्लभ थीं। आज इनके कारण कीमो के दौरान रोगी की जान साधारण संक्रमण से नहीं जा सकती।
कीमो के साइड-इफेक्ट झेल पाना अब ज्यादा नहीं, पर थोड़ा आसान हो गया है। आखिर झेलना तो मरीज को पड़ता ही है।कीमोथेरेपी देने के तरीकों में भी बदलाव आया है। अब अस्पताल में भर्ती होकर ड्रिप के जरए कई दिनों तक कीमो लेने की लाचारी नहीं रही। उसक जगह कुछेक घंटों में ओपीडी में ही कीमो ली जा सकती है।इसके अलावा कई मरीजों को जरूरत पड़ने पर एक स्थाई नली यानी कीमोपोर्ट गर्दन या बांह में लगा दी जाती है जिससे जब चाहे दवा भी दी जा सकती है और खून आदि निकाला भी जा सकता है। यह उन मरीजों के लिए फायदेमंद है, जिनके हाथ या पैर में शिराएं ढूंढना डॉक्टर और नर्स के लिए एक चुनौती और मरीज के लिए दर्दनाक प्रक्रिया बनी रहती है।
रेडिएशन: अब कैंसर के मरीजों को रेडिएशन देने के लिए कोबॉल्ट की जगह लीनियर एक्सेलेरेटर मशीनें ज्यादा संख्या में दिखाई पड़ती हैं जिनसे रेडिएशन यानी सिकाई सिर्फ जरूरत की जगह पर ही होती है, उसके परे उसकी नुकसानदेह किरणें कम फैलती हैं। साथ ही अब सिकाई का शरीर के बाकी हिस्सों पर असर कम-से-कम है।
इसके अलावा ब्रैकीथेरेपी में रेडियोएक्टिव सिकाई की बजाए रेडयोएक्टिव पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़ों यानी ‘सीड्स’ को ट्यूमर की जगह पर रख दिया जाता है जिसमें से धीरे-धीरे लगातार विकिरण निकलकर कैंसर की कोशिकाओं को नष्ट कर देती है और आस-पास के ऊतकों को नुकसान नहीं पहुंचता।
सर्जरी: ज्यादातर कैंसरों का आधारभूत इलाज सर्जरी ही है। इस लिहाज से सर्जरी की तकनीकों में सुधार होना अपने आप में कैंसर के इलाज में सुधार होना भी है। सर्जरी अब ज्यादा सटीक, सीमित, सुरक्षित, कम तकलीफदेह, कम समय लेने वाली, जल्द ठीक होने वाली और इन सबके बावजूद ज्यादा फायदेमंद हो गई है।
इन बदलावों के साथ-साथ अब उम्मीद कर सकते हैं कि कुछेक साल में मानव जीनोम यानी अलग-अलग लोगों के जीनों की संरचनाओं को जान कर डॉक्टर उसी के मुताबिक हर मरीज के लिए सिर्फ उसी के लिए बना ‘डिजाइनर’ इलाज भी कर पाएंगे।
Monday, November 2, 2009
दस साल में कितना कुछ बदल गया!
पहली बार मई 1998 में पता चला कि मुझे कैसर है। तब इलाज का वह 10 महीने लंबा समय खुद से परिचय कराते-कराते ही तेजी से उड़ गया। ये कठिन 10 महीने भी कितनी जल्दी बीत गए थे। उतने लंबे नहीं लगे। जैसे आइंस्टाइन का सापेक्षतावाद कहता है कि अगर किसी आदमी को सुंदर महिला के सामने बैठा दो तो उसे दो घंटे भी दो मिनट की तरह लगेंगे। और अगर उसे गर्म तवे पर बैठाया जाए तो उसके दो मिनट भी दो घंटे की तरह गुजरेंगे।
लेकिन उस गर्म तवे पर बैठ कर, गर्मी का एहसास करते हुए भी मुझे वह वक्त उतना लंबा नहीं लगता। कारण शायद यह रहा हो कि उस समय हर अगले पल के अनुभव से अनजान थी, नहीं जानती थी कि आगे क्या होने वाला है, क्या होगा, क्या अपेक्षा करूं। इसके साथ ही उत्सुकता, कि अब क्या होगा, कैसे होगा, क्या करूं कि मेरा हर वार एकदम सटीक बैठे क्योंकि पता नहीं, उस कैंसर रूपी दुश्मन पर दूसरा वार करने का मौका भी मिले कि नहीं।
साथ में यह भरोसा भी रहता था कि बस, यह एक पल कठिन है, गुजर जाए तो बस। फिर तो तकलीफ खत्म। और इसी उम्मीद और भरोसे के साथ वह पूरा समय कट गया क्योंकि नीचे गर्म तवा होने के बावजूद आस-पास फुलवारी थी, सुंदर लोग, तितलियां, भंवरे, फूल-पत्ते, सुगंध थे जो लगातार मन को लुभाते रहे, उस जलन-गर्मी के तकलीफदेह एहसास से दूर ले जाते रहे।
फिर दूसरी बार मार्च-अप्रैल 2005 में मुझे पता लगा कि मैं फिर से युद्ध के मैदान में हूं, उसी पुराने दुश्मन के साथ दो-दो हाथ करने के लिए। इस बार मैं जानकारी के हथियार से लैस थी। डॉक्टर ने भी चुटकी ली कि अब तो मैं ‘वैटरन’ हो गई हूं, डरने, चिंता करने की कोई बात नहीं है।
और यहीं सब मार खा गए।
इस बार जब मुझे पता था कि क्या-क्या बुरा हो सकता है, और उससे बचने के लिए मैं क्या-क्या कर सकती हूं और क्या-क्या मुझे करना पड़ेगा तो मुझे शुरुआत में ही लगा कि थक गई। उफ! फिर से वही मशक्कत लंबे समय तक करनी पड़ेगी! और इस बार हर कष्ट और उसको झेलने की संभावना का ख्याल तक मुझे कष्ट देने लगा, हर कष्ट मुझे ज्यादा कष्टकारी लगा। क्योंकि मैं जानती थी, इसलिए होने के पहले भी अपने दिल-दिमाग में अनुभव कर लेती थी, कि यह होना है। और इस बार क्योंकि कोई नयापन नहीं था, कोई उत्सुकता नहीं थी, इसलिए आठ महीने चला इलाज भी बहुत लंबा और उबाऊ लगा।
खैर, यह मेरा भावनात्मक अनुभव था। लेकिन अब के समय के ज्यादातर कैंसर मरीजों के लिए शारीरिक अनुभव निश्चय ही 10 साल पहले के अनुभव के मुकाबले ज्यादा सहनीय हो गए हैं। अब कैंसर का पता लगना मौत का फरमान नहीं लगता। अपने आस-पास कैंसर के मरीजों और इलाज करा रहे या करा चुके विजेताओं को देखते, उनसे चर्चा करते, समाज अब इस बीमारी के प्रति अपेक्षाकृत सहज है। इस जागरूकता के बाद अब लोग जल्दी डॉक्टर और इलाज तक पहुंचने लगे हैं।
नई तकनीकों के कारण कैंसर की पहचान जल्द और आसान हो गई है। और बायोप्सी के बाद डॉक्टर बीमारी के प्रकार, आकार, फैलाव और ‘गुणों’ के बारे में ज्यादा जान पाते हैं जो निश्चित रूप से इलाज में मददगार साबित होते हैं। और जिन मरीजों के कैंसर की पहचान उतने ‘समय’ पर नहीं हो पाती, उनके लिए भी कई तकनीकें आ गईं हैं जो उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी, सहज और कम तकलीफदेह बना देती हैं।
....जारी, अगली पोस्ट में
लेकिन उस गर्म तवे पर बैठ कर, गर्मी का एहसास करते हुए भी मुझे वह वक्त उतना लंबा नहीं लगता। कारण शायद यह रहा हो कि उस समय हर अगले पल के अनुभव से अनजान थी, नहीं जानती थी कि आगे क्या होने वाला है, क्या होगा, क्या अपेक्षा करूं। इसके साथ ही उत्सुकता, कि अब क्या होगा, कैसे होगा, क्या करूं कि मेरा हर वार एकदम सटीक बैठे क्योंकि पता नहीं, उस कैंसर रूपी दुश्मन पर दूसरा वार करने का मौका भी मिले कि नहीं।
साथ में यह भरोसा भी रहता था कि बस, यह एक पल कठिन है, गुजर जाए तो बस। फिर तो तकलीफ खत्म। और इसी उम्मीद और भरोसे के साथ वह पूरा समय कट गया क्योंकि नीचे गर्म तवा होने के बावजूद आस-पास फुलवारी थी, सुंदर लोग, तितलियां, भंवरे, फूल-पत्ते, सुगंध थे जो लगातार मन को लुभाते रहे, उस जलन-गर्मी के तकलीफदेह एहसास से दूर ले जाते रहे।
फिर दूसरी बार मार्च-अप्रैल 2005 में मुझे पता लगा कि मैं फिर से युद्ध के मैदान में हूं, उसी पुराने दुश्मन के साथ दो-दो हाथ करने के लिए। इस बार मैं जानकारी के हथियार से लैस थी। डॉक्टर ने भी चुटकी ली कि अब तो मैं ‘वैटरन’ हो गई हूं, डरने, चिंता करने की कोई बात नहीं है।
और यहीं सब मार खा गए।
इस बार जब मुझे पता था कि क्या-क्या बुरा हो सकता है, और उससे बचने के लिए मैं क्या-क्या कर सकती हूं और क्या-क्या मुझे करना पड़ेगा तो मुझे शुरुआत में ही लगा कि थक गई। उफ! फिर से वही मशक्कत लंबे समय तक करनी पड़ेगी! और इस बार हर कष्ट और उसको झेलने की संभावना का ख्याल तक मुझे कष्ट देने लगा, हर कष्ट मुझे ज्यादा कष्टकारी लगा। क्योंकि मैं जानती थी, इसलिए होने के पहले भी अपने दिल-दिमाग में अनुभव कर लेती थी, कि यह होना है। और इस बार क्योंकि कोई नयापन नहीं था, कोई उत्सुकता नहीं थी, इसलिए आठ महीने चला इलाज भी बहुत लंबा और उबाऊ लगा।
खैर, यह मेरा भावनात्मक अनुभव था। लेकिन अब के समय के ज्यादातर कैंसर मरीजों के लिए शारीरिक अनुभव निश्चय ही 10 साल पहले के अनुभव के मुकाबले ज्यादा सहनीय हो गए हैं। अब कैंसर का पता लगना मौत का फरमान नहीं लगता। अपने आस-पास कैंसर के मरीजों और इलाज करा रहे या करा चुके विजेताओं को देखते, उनसे चर्चा करते, समाज अब इस बीमारी के प्रति अपेक्षाकृत सहज है। इस जागरूकता के बाद अब लोग जल्दी डॉक्टर और इलाज तक पहुंचने लगे हैं।
नई तकनीकों के कारण कैंसर की पहचान जल्द और आसान हो गई है। और बायोप्सी के बाद डॉक्टर बीमारी के प्रकार, आकार, फैलाव और ‘गुणों’ के बारे में ज्यादा जान पाते हैं जो निश्चित रूप से इलाज में मददगार साबित होते हैं। और जिन मरीजों के कैंसर की पहचान उतने ‘समय’ पर नहीं हो पाती, उनके लिए भी कई तकनीकें आ गईं हैं जो उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी, सहज और कम तकलीफदेह बना देती हैं।
....जारी, अगली पोस्ट में
Wednesday, October 28, 2009
दस मिनट खर्च करके जान बचाएं
आज, बुधवार 28 अक्टबर, 2009 को दैनिक भास्कर के 'समय' पेज पर मेरा यह लेख छपा है। उसे नीचे दे रही हूं।
हमारे देश में एक लाख में से 30 से 33 महिलाओं को स्तन कैंसर हो रहा है और अनुमान है कि शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को यानी औसतन हर 22 वीं महिला को अपने जीवनकाल में कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। इस समय स्तन कैंसर के कोई एक लाख नए मामले हर साल दर्ज हो रहे हैं और इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) का अंदाज़ा है कि सन 2015 तक यह आंकड़ा ढाई लाख का होगा। इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि गांवों में ऐसे कई मामले रिपोर्ट भी नहीं होते।
पहले स्तन कैंसर विकसित देशों की, खाते-पीते परिवारों की महिलाओं की बीमारी मानी जाती थी, लेकिन अब हर वर्ग की महिलाओं में देखी जा रही है। बदले समय में शहरी भारतीय महिलाओं में भी स्तन का कैंसर सबसे आम हो गया है।इन संख्याओँ के बीच सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा यह है कि स्तन कैंसर के 50 फीसदी मरीजों को इलाज करवाने का मौका ही नहीं मिल पाता।
आंकड़ों को जाने दें तो भी हमारे यहां स्तन कैंसर का परिदृष्य भयावह है। इसके बारे में जागरूकता की और इसके निदान और इलाज की सिरे से कमी के कारण ज्यादातर मामलों में एक तो मरीज इलाज के लिए सही समय पर सही जगह नहीं पहुंच पाता। दूसरे इसके महंगे और बड़े शहरों तक ही सीमित इलाज के साधनों तक पहुंचना भी हर मरीज के लिए संभव नहीं।
यानी ज्यादातर मरीजों के बारे में सच यह है कि न इलाज इन तक पहुंच पाता है, न ये इलाज तक पहुंच पाते हैं। और जब तक मरीज कैंसर का इलाज दे सकने वाले अस्पताल तक पहुंचने में कामयाब होता है, उसका कैंसर बेकाबू हो गया रहता है। और अगर नहीं, तो पैसे की कमी के कारण वह इलाज बीच में ही बंद कर देता है। कई बार तो समय पर सही अस्पताल पहुंच कर पूरा खर्च करने के बाद भी कैंसर ठीक नहीं हो पाता। कारण- हमारे देश में कैंसर क विशेषज्ञता और इलाज की सुविधाओँ की बेतरह कमी।
ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या करें कि हालात बेहतर हों। तो, हम समस्या की शुरुआत में ही बहुत कुछ कर सकते हैं। और यही सबसे जरूरी भी है कैंसर को काबू में करने के लिए। कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है ।- जल्द पहचान। जितनी शुरुआती अवस्था में कैंसर की पहचान होगी, इलाज उतना ही सरल, सस्ता, छोटा और सफल होगा। इसकी पहचान के बारे में अगर व्यक्ति जागरूक हो, अपनी जांच नियमित समय पर खुद करे तो मशीनी जांचों से पहले ही उसे बीमारी के होने का अंदाजा हो सकता है।
कैंसर की खासियत है कि यह दबे पांव आता है, बिना आहट के, बिना बड़े लक्षणों के। फिर भी कुछ तो सामान्य लगने वाले बदलाव कैंसर के मरीज में होते हैं, जो कैंसर की ओर संकेत करते हैं और अगर वह मरीज सतर्क, जागरूक हो तो वहीं पर मर्ज को दबोच सकता है।
संपन्न देशों में क्लीनिकल जांच, स्तन स्वयं परीक्षा के अलावा 40 साल में और फिर उसके बाद हर दूसरे साल और 50 की उम्र के बाद हर साल मेमोग्राफी यानी मशीन से स्तन की जांच की जाती है जिससे छोटी-सी गांठ या बदलाव भी पकड़ में आ सके। लेकिन भारत में बहुत ही कम लोग हैं जो नियमित रूप से इस खर्च को वहन कर सकते हैं, वह भी कैंसर की महज संभावना को जानने के लिए। ध्यान देने की बात यह है कि मेमोग्राफी स्तन कैंसर को रोकने का तरका नहीं है, न ही इसका इलाज है। यह सिर्फ कैंसर को जल्द पहचानने का मशीनी तरीका है, जो कभी गलत रिपोर्ट भी दे सकता है।
मेमोग्राफी मशीन की सेंसिटिविटी औसतन 80 फीसदी होती है। यानी मशीन सौ में से बीस मामलों में कैंसर को नहीं पकड़ पाती, फॉल्स नेगेटिव रिपोर्ट देती है। अमरीका में नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि मेमोग्राम हर पांच में से एक कैंसर के मामले को पकड़ने में नाकाम रहता है। डॉक्टरों का एक स्कूल यहां तक मानता है कि मेमोग्राफी का खास फायदा नहीं है, क्योंकि जितनी बड़ी गांठ को उस मशीन से देखा जा सकता है, उस स्टेज पर तो महिलाएं अपनी जांच करके भी गांठ और बदलाव आदि का पता लगा सकती हैं। इसके अलावा उस मशीन से जो रेडिएशन निकलता है वही कई बार कैंसर की शुरुआत का कारण बन सकता है।
इस लिहाज से हमारे देश में और भी जरूरी हो जाता है कि सभी महिलाएं अपने स्तन की स्वयं परीक्षा करना सीख लें और महीने में सिर्फ दस मिनट खर्च करके यह जांच करें। कम सुविधाओं के बीच अपनी सेहत का इस तरह ख्याल रख कर महिलाएं अपनी जिंदगी बचा सकती हैं। पुरुषों के लिए भी जरूरी है कि वे इस बीमारी के बारे में जानें ताकि समाज में फैले सैकड़ों भ्रम दूर हो सकें। लोग इसे दुर्भाग्य, अपशकुन, किन्हीं कुकर्मों का फल या मारक बीमारी न समझ कर किसी भी दूसरी बीमारी की तरह देखें और इसके इलाज के लिए प्रस्तुत हों।
अमरीका में 1993 से अक्टूबर को स्तन कैंसर जागरूकता माह के रूप में मनाना शुरू किया और बाकी दुनिया ने भी इसे अपना लिया। दुनिया में गुलाबी रिबन स्तन कैंसर जागरूकता का प्रतीक मान लिया है। इसे भले ही कोई दिखावा या विदेशी रस्म कहे, लेकिन यह मानना ही पड़ेगा कि हमारे देश में गुलाबी रिबन की जरूरत सभी को है।
हमारे देश में एक लाख में से 30 से 33 महिलाओं को स्तन कैंसर हो रहा है और अनुमान है कि शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को यानी औसतन हर 22 वीं महिला को अपने जीवनकाल में कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। इस समय स्तन कैंसर के कोई एक लाख नए मामले हर साल दर्ज हो रहे हैं और इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) का अंदाज़ा है कि सन 2015 तक यह आंकड़ा ढाई लाख का होगा। इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि गांवों में ऐसे कई मामले रिपोर्ट भी नहीं होते।
पहले स्तन कैंसर विकसित देशों की, खाते-पीते परिवारों की महिलाओं की बीमारी मानी जाती थी, लेकिन अब हर वर्ग की महिलाओं में देखी जा रही है। बदले समय में शहरी भारतीय महिलाओं में भी स्तन का कैंसर सबसे आम हो गया है।इन संख्याओँ के बीच सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा यह है कि स्तन कैंसर के 50 फीसदी मरीजों को इलाज करवाने का मौका ही नहीं मिल पाता।
आंकड़ों को जाने दें तो भी हमारे यहां स्तन कैंसर का परिदृष्य भयावह है। इसके बारे में जागरूकता की और इसके निदान और इलाज की सिरे से कमी के कारण ज्यादातर मामलों में एक तो मरीज इलाज के लिए सही समय पर सही जगह नहीं पहुंच पाता। दूसरे इसके महंगे और बड़े शहरों तक ही सीमित इलाज के साधनों तक पहुंचना भी हर मरीज के लिए संभव नहीं।
यानी ज्यादातर मरीजों के बारे में सच यह है कि न इलाज इन तक पहुंच पाता है, न ये इलाज तक पहुंच पाते हैं। और जब तक मरीज कैंसर का इलाज दे सकने वाले अस्पताल तक पहुंचने में कामयाब होता है, उसका कैंसर बेकाबू हो गया रहता है। और अगर नहीं, तो पैसे की कमी के कारण वह इलाज बीच में ही बंद कर देता है। कई बार तो समय पर सही अस्पताल पहुंच कर पूरा खर्च करने के बाद भी कैंसर ठीक नहीं हो पाता। कारण- हमारे देश में कैंसर क विशेषज्ञता और इलाज की सुविधाओँ की बेतरह कमी।
ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या करें कि हालात बेहतर हों। तो, हम समस्या की शुरुआत में ही बहुत कुछ कर सकते हैं। और यही सबसे जरूरी भी है कैंसर को काबू में करने के लिए। कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है ।- जल्द पहचान। जितनी शुरुआती अवस्था में कैंसर की पहचान होगी, इलाज उतना ही सरल, सस्ता, छोटा और सफल होगा। इसकी पहचान के बारे में अगर व्यक्ति जागरूक हो, अपनी जांच नियमित समय पर खुद करे तो मशीनी जांचों से पहले ही उसे बीमारी के होने का अंदाजा हो सकता है।
कैंसर की खासियत है कि यह दबे पांव आता है, बिना आहट के, बिना बड़े लक्षणों के। फिर भी कुछ तो सामान्य लगने वाले बदलाव कैंसर के मरीज में होते हैं, जो कैंसर की ओर संकेत करते हैं और अगर वह मरीज सतर्क, जागरूक हो तो वहीं पर मर्ज को दबोच सकता है।
संपन्न देशों में क्लीनिकल जांच, स्तन स्वयं परीक्षा के अलावा 40 साल में और फिर उसके बाद हर दूसरे साल और 50 की उम्र के बाद हर साल मेमोग्राफी यानी मशीन से स्तन की जांच की जाती है जिससे छोटी-सी गांठ या बदलाव भी पकड़ में आ सके। लेकिन भारत में बहुत ही कम लोग हैं जो नियमित रूप से इस खर्च को वहन कर सकते हैं, वह भी कैंसर की महज संभावना को जानने के लिए। ध्यान देने की बात यह है कि मेमोग्राफी स्तन कैंसर को रोकने का तरका नहीं है, न ही इसका इलाज है। यह सिर्फ कैंसर को जल्द पहचानने का मशीनी तरीका है, जो कभी गलत रिपोर्ट भी दे सकता है।
मेमोग्राफी मशीन की सेंसिटिविटी औसतन 80 फीसदी होती है। यानी मशीन सौ में से बीस मामलों में कैंसर को नहीं पकड़ पाती, फॉल्स नेगेटिव रिपोर्ट देती है। अमरीका में नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि मेमोग्राम हर पांच में से एक कैंसर के मामले को पकड़ने में नाकाम रहता है। डॉक्टरों का एक स्कूल यहां तक मानता है कि मेमोग्राफी का खास फायदा नहीं है, क्योंकि जितनी बड़ी गांठ को उस मशीन से देखा जा सकता है, उस स्टेज पर तो महिलाएं अपनी जांच करके भी गांठ और बदलाव आदि का पता लगा सकती हैं। इसके अलावा उस मशीन से जो रेडिएशन निकलता है वही कई बार कैंसर की शुरुआत का कारण बन सकता है।
इस लिहाज से हमारे देश में और भी जरूरी हो जाता है कि सभी महिलाएं अपने स्तन की स्वयं परीक्षा करना सीख लें और महीने में सिर्फ दस मिनट खर्च करके यह जांच करें। कम सुविधाओं के बीच अपनी सेहत का इस तरह ख्याल रख कर महिलाएं अपनी जिंदगी बचा सकती हैं। पुरुषों के लिए भी जरूरी है कि वे इस बीमारी के बारे में जानें ताकि समाज में फैले सैकड़ों भ्रम दूर हो सकें। लोग इसे दुर्भाग्य, अपशकुन, किन्हीं कुकर्मों का फल या मारक बीमारी न समझ कर किसी भी दूसरी बीमारी की तरह देखें और इसके इलाज के लिए प्रस्तुत हों।
अमरीका में 1993 से अक्टूबर को स्तन कैंसर जागरूकता माह के रूप में मनाना शुरू किया और बाकी दुनिया ने भी इसे अपना लिया। दुनिया में गुलाबी रिबन स्तन कैंसर जागरूकता का प्रतीक मान लिया है। इसे भले ही कोई दिखावा या विदेशी रस्म कहे, लेकिन यह मानना ही पड़ेगा कि हमारे देश में गुलाबी रिबन की जरूरत सभी को है।
Sunday, October 25, 2009
केरल के कुट्टनाड इलाके में कैंसर की पैदावार?
केरल से एक चौंकाने वाला आंकड़ा मिला है। यहां अलप्पुड़ा मेडीकल कॉलेज अस्पताल के रेडियोलॉजी विभाग में इस साल जनवरी से मई के बीच 499 मरीजों ने इलाज करवाया जिनमें से ज्यादातर कुट्टनाड इलाके के थे। इसके मुकाबले पिछले साल यहां 355 मरीज आए थे जबकि उससे पहले साल 300 मरीजों ने इलाज करवाया। यह संख्या सिर्फ उन मरीजों की है जो उस अस्पताल तक पहुंचे। कई और रहे होंगे जिन्होंने निजी अस्पतालों में इलाज करवाया, या फिर करवाया ही नहीं। कोई 21 लाख की आबादी वाले इलाके में कैंसर के मरीजों की संख्या इस रफ्तार से बढ़ना खतरे की घंटी है।
केरल के अलप्पुड़ा जिले के कुट्टनाड इलाके को धान का कटोरा भी कहा जाता है। यहां जमीन नीची है, जिससे जल-भराव के कारण चावल के अलावा कोई और खेती नहीं हो सकती। यहां के 90 फीसदी किसान ज्यादा उपज वाली फसल बोते हैं जिसके लिए ज्यादा रसायनों की जरूरत पड़ती है। उस पर पानी-भरा इलाका होने के कारण यहां भूरे टिड्डे और फफूंदी का प्रकोप रहता है, जिसे काबू करने के लिए कीटनाशक और फफूंदीनाशक जरूरी हो जाते हैं।
चावल की फसल में कीटनाशक रसायनों के इस्तेमाल पर एक अध्ययन एक एनजीओ ‘सैंडी’ ने प्रायोजित किया। केरल कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अर्थशास्त्र की डॉ. पी इंदिरा देवी के इस रिसर्च की रिपोर्ट साउथ एशियन नेटवर्क फॉर डेवलपमेंट एंड एनवायर्नमेंटल इकॉनॉमिक्स (SANDEE) की पत्रिका में मार्च 2007 में छपी थी।
इसमें कहा गया कि कुट्टनाट में चावल की फसलों को भूरे टिड्डे, चावल कीट और पत्तों पर लगने वाली बीमारी से बचाने के लिए रसायनों का जरूरत से कई गुना ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। यहां कुल 19 तरह के रसायन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इस इलाके में हर साल 15 हजार टन रासायनिक उर्वरकों, 500 टन कीटनाशकों और 50 टन फफूंदनाशकों का इसेतेमाल किया जाता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इन रसायनों का छिड़काव सुरक्षित मशीनों से नहीं किया जाता। छिड़काव करने वाले अपने को रसायन से बचाने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा कोई कपड़ा नाक-मुंह पर बाध लेते हैं या अपने शर्ट की आस्तीन से ही काम चलाते हैं। जबकि ये रसायन बेहद खतरनाक और जानलेवा तक हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक केरल के कुट्टनाड इलाके में ओंठ, पेट, त्वचा और सिर के कैंसर, लिंफोमा, ल्यूकेमया और मायलोमा जैसे कैंसर के अनेक मामले सामने आए। एक अन्य सर्वेक्षण में पाया गया कि यहां मछलियों की संख्या में भी कमी आई है। स्थानीय मीडिया में खबरें भी आईं कि बड़ी संख्या में मछलियां अल्सर के कारण मर रही है। इन सभी घटनाओं को इस रिपोर्ट में रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल से जोड़ा गया।
इससे पहले भी 1980 और 90 के दशकों में केरल का कासरगोड़ जिला काजू की फसल पर कीटनाशकों के बेहिसाब इस्तेमाल के लिए खूब चर्चा में रहा है। एंडोसल्फान नाम के इस कीटनाशक के असुरक्षित छिड़काव की वजह से यहां अनेक मौंतें हुईं।
हाल में मीडिया में आई इन खबरों के बाद कुट्टनाड विकासन समति ब्लॉक और ग्राम पंचायत के साथ मिलकर ने इस इलाके में घर-घर जाकर स्क्रीनिंग करके कैंसर के लक्षणों वाले लोगों को जांच केंद्रों में भेजने और उनका इलाज करवाने की मुहिम शुरू की है। इस कार्यक्रम के निदेशक का भी मानना है कि इलाके के पानी में रसायन लगातार जमा होते जा रहे हैं जिनका असर लोगों की सेहत पर दिख रहा है। इसे रोकने की जरूरत है।
चावल की फसल में जरूरत से ज्यादा रसायनों के इस्तेमाल और इससे कैंसर की घटनाएं बढ़ने के बारे में हाल ही में राज्य की विधानसभा में भी सवाल उठ चुका है। सरकार ने इस बारे में सभी उपाय करने का वादा भी किया। स्थानीय डॉक्टरों की भी मांग है कि इस मुद्दे की पूरी जांच की जाए ताकि वास्तविक स्थिति सामने आ सके और रोकथाम के उपाय समय रहते किए जा सकें।
हालांकि किन्हीं रसायनों से कैंसर होने में 5-10 साल का समय लगता है लेकिन यह भी समझ में आ रहा है कि कैंसर होने की मौजूदा घटनाएं कुछेक साल पहले के रसायनों के असुरक्षित इस्तेमाल का नतीजा हैं और आगे की पीढ़ी को यह विकट स्थिति न देखनी पड़े इसके लिए जरूरी है कि अभी से सतर्क होकर ऐसे वैकल्पिक उपाय अपनाए जाएं जो हानिकारक न हों।
यहां बड़े पैमाने पर हो रही खेती के लिए जैविक खाद को बहुत व्यावहारिक नहीं बताया जा रहा है। लेकिन एक विकल्प है- एक फसल के बाद खेतों में एक मौसम मछलीपालन किया जाए जो घास-पात और खरपतवार को खाएंगी भी और साथ ही पानी में अपने मल के रूप में जैविक खाद भी उस जमीन में छोड़ेंगी। इससे जमीन फिर उपजाऊ हो जाएगी, खरपतवार खत्म होंगे और किसान को नुकसान भी नहीं उठाना पड़ेगा।
एक सरकारी सर्वेक्षण में देश के खाने की चीजों के 25 नमूनों में निर्धारित अधिकतम मात्रा की सीमा से अधिक खतरनाक रसायन पाए गए। शायद पूरे देश में खेती के लिए रसायनों की जगह वैकल्पक उपायों की जरूरत है ताकि भावी पीढ़ियों के लिए खान-पान और रोजगार के रूप में खेती सुरक्षित बनी रहे।
केरल के अलप्पुड़ा जिले के कुट्टनाड इलाके को धान का कटोरा भी कहा जाता है। यहां जमीन नीची है, जिससे जल-भराव के कारण चावल के अलावा कोई और खेती नहीं हो सकती। यहां के 90 फीसदी किसान ज्यादा उपज वाली फसल बोते हैं जिसके लिए ज्यादा रसायनों की जरूरत पड़ती है। उस पर पानी-भरा इलाका होने के कारण यहां भूरे टिड्डे और फफूंदी का प्रकोप रहता है, जिसे काबू करने के लिए कीटनाशक और फफूंदीनाशक जरूरी हो जाते हैं।
चावल की फसल में कीटनाशक रसायनों के इस्तेमाल पर एक अध्ययन एक एनजीओ ‘सैंडी’ ने प्रायोजित किया। केरल कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अर्थशास्त्र की डॉ. पी इंदिरा देवी के इस रिसर्च की रिपोर्ट साउथ एशियन नेटवर्क फॉर डेवलपमेंट एंड एनवायर्नमेंटल इकॉनॉमिक्स (SANDEE) की पत्रिका में मार्च 2007 में छपी थी।
इसमें कहा गया कि कुट्टनाट में चावल की फसलों को भूरे टिड्डे, चावल कीट और पत्तों पर लगने वाली बीमारी से बचाने के लिए रसायनों का जरूरत से कई गुना ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। यहां कुल 19 तरह के रसायन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इस इलाके में हर साल 15 हजार टन रासायनिक उर्वरकों, 500 टन कीटनाशकों और 50 टन फफूंदनाशकों का इसेतेमाल किया जाता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इन रसायनों का छिड़काव सुरक्षित मशीनों से नहीं किया जाता। छिड़काव करने वाले अपने को रसायन से बचाने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा कोई कपड़ा नाक-मुंह पर बाध लेते हैं या अपने शर्ट की आस्तीन से ही काम चलाते हैं। जबकि ये रसायन बेहद खतरनाक और जानलेवा तक हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक केरल के कुट्टनाड इलाके में ओंठ, पेट, त्वचा और सिर के कैंसर, लिंफोमा, ल्यूकेमया और मायलोमा जैसे कैंसर के अनेक मामले सामने आए। एक अन्य सर्वेक्षण में पाया गया कि यहां मछलियों की संख्या में भी कमी आई है। स्थानीय मीडिया में खबरें भी आईं कि बड़ी संख्या में मछलियां अल्सर के कारण मर रही है। इन सभी घटनाओं को इस रिपोर्ट में रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल से जोड़ा गया।
इससे पहले भी 1980 और 90 के दशकों में केरल का कासरगोड़ जिला काजू की फसल पर कीटनाशकों के बेहिसाब इस्तेमाल के लिए खूब चर्चा में रहा है। एंडोसल्फान नाम के इस कीटनाशक के असुरक्षित छिड़काव की वजह से यहां अनेक मौंतें हुईं।
हाल में मीडिया में आई इन खबरों के बाद कुट्टनाड विकासन समति ब्लॉक और ग्राम पंचायत के साथ मिलकर ने इस इलाके में घर-घर जाकर स्क्रीनिंग करके कैंसर के लक्षणों वाले लोगों को जांच केंद्रों में भेजने और उनका इलाज करवाने की मुहिम शुरू की है। इस कार्यक्रम के निदेशक का भी मानना है कि इलाके के पानी में रसायन लगातार जमा होते जा रहे हैं जिनका असर लोगों की सेहत पर दिख रहा है। इसे रोकने की जरूरत है।
चावल की फसल में जरूरत से ज्यादा रसायनों के इस्तेमाल और इससे कैंसर की घटनाएं बढ़ने के बारे में हाल ही में राज्य की विधानसभा में भी सवाल उठ चुका है। सरकार ने इस बारे में सभी उपाय करने का वादा भी किया। स्थानीय डॉक्टरों की भी मांग है कि इस मुद्दे की पूरी जांच की जाए ताकि वास्तविक स्थिति सामने आ सके और रोकथाम के उपाय समय रहते किए जा सकें।
हालांकि किन्हीं रसायनों से कैंसर होने में 5-10 साल का समय लगता है लेकिन यह भी समझ में आ रहा है कि कैंसर होने की मौजूदा घटनाएं कुछेक साल पहले के रसायनों के असुरक्षित इस्तेमाल का नतीजा हैं और आगे की पीढ़ी को यह विकट स्थिति न देखनी पड़े इसके लिए जरूरी है कि अभी से सतर्क होकर ऐसे वैकल्पिक उपाय अपनाए जाएं जो हानिकारक न हों।
यहां बड़े पैमाने पर हो रही खेती के लिए जैविक खाद को बहुत व्यावहारिक नहीं बताया जा रहा है। लेकिन एक विकल्प है- एक फसल के बाद खेतों में एक मौसम मछलीपालन किया जाए जो घास-पात और खरपतवार को खाएंगी भी और साथ ही पानी में अपने मल के रूप में जैविक खाद भी उस जमीन में छोड़ेंगी। इससे जमीन फिर उपजाऊ हो जाएगी, खरपतवार खत्म होंगे और किसान को नुकसान भी नहीं उठाना पड़ेगा।
एक सरकारी सर्वेक्षण में देश के खाने की चीजों के 25 नमूनों में निर्धारित अधिकतम मात्रा की सीमा से अधिक खतरनाक रसायन पाए गए। शायद पूरे देश में खेती के लिए रसायनों की जगह वैकल्पक उपायों की जरूरत है ताकि भावी पीढ़ियों के लिए खान-पान और रोजगार के रूप में खेती सुरक्षित बनी रहे।
Thursday, October 22, 2009
Sunday, September 13, 2009
'सेल फोन से ब्रेन ट्यूमर होता है?- गलत'
हम सभी को एक-न-एक बार वह फॉरवर्डेड मेल मिली होगी जिसमें कहा जाता है कि ज्यादा सेलफोन इस्तेमाल करने वालों को सिर का ट्यूमर होने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। इसलिए सेलफोन को सिर के पास न यानी कान पर रखें बल्कि ब्लू-टूथ उपकरणों का इस्तेमाल करें।
सेलफोन से ट्यूमर होने की बात सबसे पहले चर्चा में आई जब डेविड रेनार्ड ने 1993 में एक टीवी शो में अपनी पत्नी को ब्रेन ट्यूमर होने का कारण यह माना कि वह सिर से सेलफोन लगाकर काफी देर तक बातें करती थी। इसके समर्थन में कई न्यूरोसर्जन्स भी कह चुके हैं हालांकि वे भी इसका कोई पुख्ता कारण नहीं दे पाए कि यह कैसे होता है।
इसका जवाब मेडीकल साइंस के नहीं, भौतिकी के विशेषज्ञों से आया है। कोलैबोरेशन ऑफ इंटरनैशनल ईएमएफ एक्टिविस्ट्स नाम के इस ग्रुप ने सेलफोन से ब्रेन ट्यूमर होने की संभावना पर एक रपोर्ट जारी की है।
दरअसल कैंसर शरीर में होता है जब कोशिकीय डीएनए में गडबड़ होती है और उसमें म्यूटेशन आ जाता है, यानी उसकी संरचना में बदलाव आ जाता है। रसायनों, रेडएशन या वायरस से होने वाले ट्यूमर सभी में कोशिका में यह बदलाव आता है। सभी प्रकार के रेडएशन में फोटोन होते हैं और रेडिएशन की वेवलेंथ से उस फोटोन की ताकत तय होती है।
भौतिकशास्त्री एक आधारभूत तथ्य देते हैं कि साधारण बल्ब की रौशनी की फ्रीक्वेंसी 5x1014 हर्ट्ज़ होती है जिसमें हमारी कोशिका के डीएनए को तोड़ने या छेड़ने की ताकत नहीं होती, वरना आज हम सब या तो कैंसरों का पुलिंदा बने घूम रहे होते या अंधेरे में जी रहे होते।
इसके मुकाबले सेलफोन की फ्रीक्वेंसी 1 x 109 हर्ट्ज़ होती है और घरेलू इस्तेमाल के माइक्रोवेव ओवन की 2.45 x 1012 हर्ट्ज़। यानी बल्ब के मुकाबले माइक्रोवेव में ऊर्जा एक हजारवां और सेलफोन में दस लाखवां हिस्सा होती है। यानी सेलफोन की ऊर्जा से जीवित शरीर के भीतर किसी कोशिका के डीएनए को तोड़ना वैसा ही है जैसे कागज़ की कैंची से लोहे का तार काटना।
जर्नल ऑफ नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट ने 2001 के अंक में डेनमार्क के 5 लाख सेलफोन इस्तेमाल करने वालों के आंकड़ों का अध्ययन कर रिपोर्ट छापी है जिसमें उन्हें ब्रेन ट्यूमर होने के कोई लक्षण नहीं मिले।
मैरीलैंड विश्वविद्यालय के भौतिकशास्त्री रॉबर्ट एल पार्क का इसी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन ऐसे किसी तथ्य की पुष्टि नहीं करता।
और जहां तक फॉर्वर्डेड मेल्स में यूटू्यूब की सेलफोन से मक्के का पॉपकॉर्न बनने जैसी फिल्मों का सवाल है, तो थोड़ी सी कंप्यूटर कारीगरी से सेलफोन के ऊपर रखे मक्के दानों को नीचे टेबल पर गिरते ही पॉपकॉर्न में बदल देना कोई बड़ी बात नहीं। और यह वीडियो दरअसल एक ब्लू टूथ बनाने वाली कंपन का विज्ञापन है। नीचे बटन पर क्लिक करके देखा जा सकता है।
सेलफोन से ट्यूमर होने की बात सबसे पहले चर्चा में आई जब डेविड रेनार्ड ने 1993 में एक टीवी शो में अपनी पत्नी को ब्रेन ट्यूमर होने का कारण यह माना कि वह सिर से सेलफोन लगाकर काफी देर तक बातें करती थी। इसके समर्थन में कई न्यूरोसर्जन्स भी कह चुके हैं हालांकि वे भी इसका कोई पुख्ता कारण नहीं दे पाए कि यह कैसे होता है।
इसका जवाब मेडीकल साइंस के नहीं, भौतिकी के विशेषज्ञों से आया है। कोलैबोरेशन ऑफ इंटरनैशनल ईएमएफ एक्टिविस्ट्स नाम के इस ग्रुप ने सेलफोन से ब्रेन ट्यूमर होने की संभावना पर एक रपोर्ट जारी की है।
दरअसल कैंसर शरीर में होता है जब कोशिकीय डीएनए में गडबड़ होती है और उसमें म्यूटेशन आ जाता है, यानी उसकी संरचना में बदलाव आ जाता है। रसायनों, रेडएशन या वायरस से होने वाले ट्यूमर सभी में कोशिका में यह बदलाव आता है। सभी प्रकार के रेडएशन में फोटोन होते हैं और रेडिएशन की वेवलेंथ से उस फोटोन की ताकत तय होती है।
भौतिकशास्त्री एक आधारभूत तथ्य देते हैं कि साधारण बल्ब की रौशनी की फ्रीक्वेंसी 5x1014 हर्ट्ज़ होती है जिसमें हमारी कोशिका के डीएनए को तोड़ने या छेड़ने की ताकत नहीं होती, वरना आज हम सब या तो कैंसरों का पुलिंदा बने घूम रहे होते या अंधेरे में जी रहे होते।
इसके मुकाबले सेलफोन की फ्रीक्वेंसी 1 x 109 हर्ट्ज़ होती है और घरेलू इस्तेमाल के माइक्रोवेव ओवन की 2.45 x 1012 हर्ट्ज़। यानी बल्ब के मुकाबले माइक्रोवेव में ऊर्जा एक हजारवां और सेलफोन में दस लाखवां हिस्सा होती है। यानी सेलफोन की ऊर्जा से जीवित शरीर के भीतर किसी कोशिका के डीएनए को तोड़ना वैसा ही है जैसे कागज़ की कैंची से लोहे का तार काटना।
जर्नल ऑफ नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट ने 2001 के अंक में डेनमार्क के 5 लाख सेलफोन इस्तेमाल करने वालों के आंकड़ों का अध्ययन कर रिपोर्ट छापी है जिसमें उन्हें ब्रेन ट्यूमर होने के कोई लक्षण नहीं मिले।
मैरीलैंड विश्वविद्यालय के भौतिकशास्त्री रॉबर्ट एल पार्क का इसी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन ऐसे किसी तथ्य की पुष्टि नहीं करता।
और जहां तक फॉर्वर्डेड मेल्स में यूटू्यूब की सेलफोन से मक्के का पॉपकॉर्न बनने जैसी फिल्मों का सवाल है, तो थोड़ी सी कंप्यूटर कारीगरी से सेलफोन के ऊपर रखे मक्के दानों को नीचे टेबल पर गिरते ही पॉपकॉर्न में बदल देना कोई बड़ी बात नहीं। और यह वीडियो दरअसल एक ब्लू टूथ बनाने वाली कंपन का विज्ञापन है। नीचे बटन पर क्लिक करके देखा जा सकता है।
Monday, August 17, 2009
‘ऊंची नाक’ के कारण कैंसर से ज्यादा मारे जाते हैं पुरुष?!
कुछ दिनों पहले खबर आई है कि पुरुषों को अपनी अकड़ की कीमत कैंसर से मौत के रुप में भी देनी पड़ रही है। इंग्लैंड में हाल ही में हुए एक अध्ययन के हैरान करने वाले नतीजे निकले हैं। पता लगा है कि स्त्री-पुरुष दोनों को होने वाले कैंसरों से मरने वाले पुरुषों की संख्या महिलाओं के मुकाबले 60 फीसदी ज्यादा होती है। और दिलचस्प बात ये है कि यह अवलोकन बिना किसी अपवाद के इस कैटेगरी के हर तरह के कैंसर पर लागू होता है।
वैज्ञानिकों को इसका कोई बायोलॉजिकल कारण नहीं समझ में आया है।
वैज्ञानकों ने पाया कि पुरुषों के कैंसर से मरने की संभावना महिलाओं से 40 फीसदी तक ज्यादा है। लीड्स मेट्रोपोलिटन विश्वविद्यालय की इस रपोर्ट के लेखकों में से एक प्रो. ऐलन व्हाइट का मानना है कि पुरुषों की जीवनचर्या यानी लाइफ स्टाइल (सिगरेट, मद्यपान, पान मसाला आदि) ही इसका कारण है।
डॉक्टरों का मानना है कि पुरुष जानते हुए भी इस बात को नजरअंदाज करते हैं कि उनके शरीर के बीच के भाग का मोटापा यानी तोंद मोटापे से जुड़े कैंसर और उससे मौत तक होने की संभावना को कई गुना बढ़ा देती है। एक विचार यह भी है कि पुरुष डाक्टर के पास जाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि शायद इसीलिए समय पर निदान और इलाज न होना भी इसका एक कारण हो सकता है।
2006 और 2007 में कैंसर के मामलों और इसकी वजह से जान गंवा चुके लोगों के बारे में इकट्ठे किए गए आंकड़ों पर आधारित इस अध्ययन में पाया गया कि पुरुषों में किसी भी प्रकार का कैंसर होने की संभावना महिलाओं के मुकाबले 16 फीसदी ज्यादा है लेकिन उन्हें दोनों में होने वाले कैंसरों के होने की संभावना 60 फीसदी ज्यादा है।
और जैसा कि अक्सर होता है, इन नतीजों पर भी विवाद शुरू हो गया है। इंग्लैंड के जाने-माने कैंसर विशेषज्ञ कैरोल सिकोरा का मानना है कि पुरुषों में कैंसर से ज्यादा मौतों का कारण वहां की राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना (एन एच एस) का पुरुषों के खिलाफ भेद-भाव है। वे कहते हैं कि वहां एन एच एस बरसों से महिलाओं के हित में काम कर रही है जबकि पुरुषों की सेहत की लगातार अनदेखी होती रही है।
लब्बो-लुबाब ये कि इंग्लैंड में पढ़े-लिखे पुरुषों को भी कैंसर के बारे में पढ़ाने-सिखाने की जरूरत महसूस की जा रही है। महज लाइफस्टाइल में सुधार करके ही करीब 50 फीसदी कैंसरों का होना रोका जा सकता है। मगर चिंता की बात ये है कि इन सलाहों पर कोई कान नहीं दे रहा है।
सबक सीखना हो तो- कैंसर को छुपाना, उसके बारे में बात न करना शुतुरमुर्ग का रेत में चोंच छुपाना है। इससे सामने आया खतरा टल नहीं जाता। बल्कि ज्यादा आक्रामक, ताकतवर होकर हमला करता है। कैंसर पर अंग्रेजी में 30 करोड़ से ज्यादा वेबसाइट हैं। कोई यहां पहुंचे तो सही!
वैज्ञानिकों को इसका कोई बायोलॉजिकल कारण नहीं समझ में आया है।
वैज्ञानकों ने पाया कि पुरुषों के कैंसर से मरने की संभावना महिलाओं से 40 फीसदी तक ज्यादा है। लीड्स मेट्रोपोलिटन विश्वविद्यालय की इस रपोर्ट के लेखकों में से एक प्रो. ऐलन व्हाइट का मानना है कि पुरुषों की जीवनचर्या यानी लाइफ स्टाइल (सिगरेट, मद्यपान, पान मसाला आदि) ही इसका कारण है।
डॉक्टरों का मानना है कि पुरुष जानते हुए भी इस बात को नजरअंदाज करते हैं कि उनके शरीर के बीच के भाग का मोटापा यानी तोंद मोटापे से जुड़े कैंसर और उससे मौत तक होने की संभावना को कई गुना बढ़ा देती है। एक विचार यह भी है कि पुरुष डाक्टर के पास जाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि शायद इसीलिए समय पर निदान और इलाज न होना भी इसका एक कारण हो सकता है।
2006 और 2007 में कैंसर के मामलों और इसकी वजह से जान गंवा चुके लोगों के बारे में इकट्ठे किए गए आंकड़ों पर आधारित इस अध्ययन में पाया गया कि पुरुषों में किसी भी प्रकार का कैंसर होने की संभावना महिलाओं के मुकाबले 16 फीसदी ज्यादा है लेकिन उन्हें दोनों में होने वाले कैंसरों के होने की संभावना 60 फीसदी ज्यादा है।
और जैसा कि अक्सर होता है, इन नतीजों पर भी विवाद शुरू हो गया है। इंग्लैंड के जाने-माने कैंसर विशेषज्ञ कैरोल सिकोरा का मानना है कि पुरुषों में कैंसर से ज्यादा मौतों का कारण वहां की राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना (एन एच एस) का पुरुषों के खिलाफ भेद-भाव है। वे कहते हैं कि वहां एन एच एस बरसों से महिलाओं के हित में काम कर रही है जबकि पुरुषों की सेहत की लगातार अनदेखी होती रही है।
लब्बो-लुबाब ये कि इंग्लैंड में पढ़े-लिखे पुरुषों को भी कैंसर के बारे में पढ़ाने-सिखाने की जरूरत महसूस की जा रही है। महज लाइफस्टाइल में सुधार करके ही करीब 50 फीसदी कैंसरों का होना रोका जा सकता है। मगर चिंता की बात ये है कि इन सलाहों पर कोई कान नहीं दे रहा है।
सबक सीखना हो तो- कैंसर को छुपाना, उसके बारे में बात न करना शुतुरमुर्ग का रेत में चोंच छुपाना है। इससे सामने आया खतरा टल नहीं जाता। बल्कि ज्यादा आक्रामक, ताकतवर होकर हमला करता है। कैंसर पर अंग्रेजी में 30 करोड़ से ज्यादा वेबसाइट हैं। कोई यहां पहुंचे तो सही!
Sunday, May 31, 2009
इसके बावजूद तंबाकू का सेवन करने वाले, धूम्रपान करने वाले खोपड़ी से खाली हैं....
आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।
# “पता है, स्मोकिंग दरअसल आप नहीं करते। सिगरेट ही स्मोकिंग करती है। आप तो सिर्फ सिगरेट का छोड़ा हुआ धुंआ पीते हैं।“
# “अब यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि सिगरेट दुनिया में आंकड़ों के होने का एक प्रमुख कारण है।“
तंबाकू पर ज्यादा जानकारी के लिए 18 मई 2008 की पोस्ट देखें- कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू
# “पता है, स्मोकिंग दरअसल आप नहीं करते। सिगरेट ही स्मोकिंग करती है। आप तो सिर्फ सिगरेट का छोड़ा हुआ धुंआ पीते हैं।“
# “अब यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि सिगरेट दुनिया में आंकड़ों के होने का एक प्रमुख कारण है।“
तंबाकू पर ज्यादा जानकारी के लिए 18 मई 2008 की पोस्ट देखें- कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू
Thursday, May 28, 2009
चाहती हूं जीना एक दिन
जिंदगी उतनी लंबी होती है, जितनी आदमी जी लेता है।
उतनी नहीं जितनी आदमी जिंदा रह लेता है।
कोई एक में कई जिंदगियां जी लेता है तो कोई एक दिन भी नहीं जी पाता।
मैं जीना चाहती हूं। एक दिन में कई दिन- चाहती हूं जीना ऐसा एक दिन।
एक शाम- जब मैं जा सकूं साथी के साथ
सान्ता मोनिका पर नए साल के स्वागत के लिए।
कोई दिन- बिना दर्द, जलन, तकलीफ के।
एक दिन- जब मेरे हाथ में हो दिलचस्प किताब,
पास बजता हो मीठा संगीत और साथ हो अच्छा खाना।
दो दिन- जब मैं नताशा के साथ फुर्सत से बैठकर गपशप कर सकूं
बैठे-बैठे उसकी बिटिया को अपनी गोद में सुला सकूं।
दस दिन- जब मैं किसी बच्चे के साथ
जा सकूं एक छोटी सी पहाड़ी पर पर्वतारोहण के लिए।
एक महीना- जब मुझे अस्पताल या पैथोलॉजी लैब का
एक भी चक्कर न लगाना पड़े।
एक मौसम- जिसके हर दिन मैं पकाऊं कुछ नया, पहनूं कुछ नया
जो बनाए मुझे सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा।
एक साल- जिसमें लगा सकूं हर पखवाड़े एक
कैंसर जांच और जागरूकता कैंप दिल्ली भर में
पांच साल- बिना कैंसर की पुनरावृत्ति के।
एक जीवन- जब मैं परिवार और झुरमुटों-झरनों-जुगनुओं के बीच
रहूं दूर पहाड़ी पर कहीं।
मैं ये सारे दिन एक बार जीना चाहती हूं।
इजाजत है?
(PS: रचना ने इस तरफ द्यान खींचा कि बिना संदर्भ के इस कविता कई पाठकों को ठीक से समझ में नहीं आएगी। और संदर्भ इसे ज्यादा प्रभावी बना देगा। अस्तु-
संदर्भ: पिछले ग्यारह साल से हर दिन मेरे लिए कुछ आशंकाएं लिए आता है। मई 1998 में पहली कार मुझे कैंसर होने का पता चला। पूरा इलाज कोई 11 महीने चला। इसके बाद लगातार फॉलो-अप, चेक-अप, ढेरों तरह की जांचें, तय समयों पर और कई बार बिना तय समयों पर भी, जब भी कैंसर के लौट आने की जरा भी आशंका हुई। उसके बाद सारे एहतियात के बाद भी मार्च 2005 में कैंसर का दोबारा उभरना। इन सबके बीच इन छोटी-छोटी मोहलतों की हसरत बनी हुई है, जिनमें से कुछेक पूरी हुईं भी, लेकिन उस इत्मीनान के साथ नहीं, जो मैं दिल से चाहती हूं। इसलिए जिंदगी से इजाजत मांगने का मन है कि क्या कभी हो पाएगा। और मुझे उम्मीद है कि होगा।)
उतनी नहीं जितनी आदमी जिंदा रह लेता है।
कोई एक में कई जिंदगियां जी लेता है तो कोई एक दिन भी नहीं जी पाता।
मैं जीना चाहती हूं। एक दिन में कई दिन- चाहती हूं जीना ऐसा एक दिन।
एक शाम- जब मैं जा सकूं साथी के साथ
सान्ता मोनिका पर नए साल के स्वागत के लिए।
कोई दिन- बिना दर्द, जलन, तकलीफ के।
एक दिन- जब मेरे हाथ में हो दिलचस्प किताब,
पास बजता हो मीठा संगीत और साथ हो अच्छा खाना।
दो दिन- जब मैं नताशा के साथ फुर्सत से बैठकर गपशप कर सकूं
बैठे-बैठे उसकी बिटिया को अपनी गोद में सुला सकूं।
दस दिन- जब मैं किसी बच्चे के साथ
जा सकूं एक छोटी सी पहाड़ी पर पर्वतारोहण के लिए।
एक महीना- जब मुझे अस्पताल या पैथोलॉजी लैब का
एक भी चक्कर न लगाना पड़े।
एक मौसम- जिसके हर दिन मैं पकाऊं कुछ नया, पहनूं कुछ नया
जो बनाए मुझे सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा।
एक साल- जिसमें लगा सकूं हर पखवाड़े एक
कैंसर जांच और जागरूकता कैंप दिल्ली भर में
पांच साल- बिना कैंसर की पुनरावृत्ति के।
एक जीवन- जब मैं परिवार और झुरमुटों-झरनों-जुगनुओं के बीच
रहूं दूर पहाड़ी पर कहीं।
मैं ये सारे दिन एक बार जीना चाहती हूं।
इजाजत है?
(PS: रचना ने इस तरफ द्यान खींचा कि बिना संदर्भ के इस कविता कई पाठकों को ठीक से समझ में नहीं आएगी। और संदर्भ इसे ज्यादा प्रभावी बना देगा। अस्तु-
संदर्भ: पिछले ग्यारह साल से हर दिन मेरे लिए कुछ आशंकाएं लिए आता है। मई 1998 में पहली कार मुझे कैंसर होने का पता चला। पूरा इलाज कोई 11 महीने चला। इसके बाद लगातार फॉलो-अप, चेक-अप, ढेरों तरह की जांचें, तय समयों पर और कई बार बिना तय समयों पर भी, जब भी कैंसर के लौट आने की जरा भी आशंका हुई। उसके बाद सारे एहतियात के बाद भी मार्च 2005 में कैंसर का दोबारा उभरना। इन सबके बीच इन छोटी-छोटी मोहलतों की हसरत बनी हुई है, जिनमें से कुछेक पूरी हुईं भी, लेकिन उस इत्मीनान के साथ नहीं, जो मैं दिल से चाहती हूं। इसलिए जिंदगी से इजाजत मांगने का मन है कि क्या कभी हो पाएगा। और मुझे उम्मीद है कि होगा।)
Monday, April 20, 2009
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-4)
खान-पान और कैंसर
अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को जीवन भर सेहतमंद खान-पान और सामान्य कसरत के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ बोहतर खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यूआईसीसी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।
भोजन के खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।
खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा, दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है तो विकासशील देशों में कुपोषण की। जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता तो शरीर कैंसर का आसान शिकार बन जाता है।
मांसाहार बनाम शाकाहार-
सेहतमंद खानपान की बात हो तो ये मुद्दा आना ही है कि मांसाहार बेहतर है कि शाकाहार। मेरा अपना विवेक शाकाहार के पक्ष में तर्क देता है। नीचे कुछ तथ्य हैं जो मैंने शाकाहार के समर्थन में ढूंढ निकाले हैं। मांसाहार के पक्ष में आपकी राय हो तो जरूर बताएं, चर्चा ज्यादा समृद्ध होगी।
*जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था।
*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतन 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।
* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।
* 2006 में हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1,35,000 लोगों में से अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाने वालों को मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।
शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है-
* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।
* मांस को हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।
* मांस-मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं। थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।
* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं।
* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोशा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते। खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।
* फलों और सब्जियों में एंटी-ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसरकारी रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।
* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल कर बीमारी नहीं पैदा कर पातीं। शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।
अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को जीवन भर सेहतमंद खान-पान और सामान्य कसरत के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ बोहतर खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यूआईसीसी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।
भोजन के खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।
खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा, दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है तो विकासशील देशों में कुपोषण की। जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता तो शरीर कैंसर का आसान शिकार बन जाता है।
मांसाहार बनाम शाकाहार-
सेहतमंद खानपान की बात हो तो ये मुद्दा आना ही है कि मांसाहार बेहतर है कि शाकाहार। मेरा अपना विवेक शाकाहार के पक्ष में तर्क देता है। नीचे कुछ तथ्य हैं जो मैंने शाकाहार के समर्थन में ढूंढ निकाले हैं। मांसाहार के पक्ष में आपकी राय हो तो जरूर बताएं, चर्चा ज्यादा समृद्ध होगी।
*जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था।
*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतन 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।
* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।
* 2006 में हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1,35,000 लोगों में से अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाने वालों को मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।
शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है-
* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।
* मांस को हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।
* मांस-मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं। थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।
* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं।
* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोशा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते। खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।
* फलों और सब्जियों में एंटी-ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसरकारी रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।
* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल कर बीमारी नहीं पैदा कर पातीं। शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।
Saturday, April 18, 2009
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-3)
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-2)
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-1)
फ्री-रैडिकल्स और ऐंटी-ऑक्सीडेंट
ऑक्सीडेशन एक रासायनिक प्रक्रिया है जिससे लोहे में जंग लगती है और हमारे शरीर में भी। हमारे शरीर में मौजूद फ्री-रैडिकल्स ऐसे अणु हैं जिनमें एक इलेक्ट्रॉन कम होता है जिसकी पूर्ति के लिए वे दूसरे अणुओं की ओर जल्द आकर्षित होते हैं और उनके इलेक्ट्रॉन चुरा लेते हैं। अब जिस अणु का इलेक्ट्रॉन चोरी हुआ है वह किसी और का चुराने को उद्धत रहता है इस तरह यह चेन रिऐक्शन चलता रहता है जिससे कोशिका के भीतर कई तरह के अणु, यहां तक कि डीएनए भी प्रभावित होते है।
डीएनए का एक अणु भी अपनी जगह से हिला तो उसके जेनेटिक कोड में बदलाव आ जाता है और कोशिका का काम-काज प्रभावित होता है। तंबाकू, धुंए, रेडिएशन जैसी कई चीजों में फ्री-रैडिकल्स होते हैं जो कोशिका के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर भी पैदा कर सकते हैं।
फ्री-रैडिकल्स के लिए इलेक्ट्रॉन देने में शरीर में मौजूद ऑक्सीजन अव्वल होती है। इसलिए फ्री-रैडिकल्स को इलेक्ट्रॉन की पूर्ति होना ऑक्सिडेशन कहलाता है। जो अणु फ्री-रैडिकल्स के ऑक्सिडेशन को रोकते हैं उन्हें ऐंटी-ऑक्सीडेंट कहा जाता है।
ऐंटी-ऑक्सीडेंट, जैसे विटामिन ई और सी, फ्री रैडिकल्स के साथ रिऐक्शन करके उन्हें काबू में रखते हैं और इस तरह ऑक्सीडेशन की चेन रिऐक्शन को, यानी कैंसर पैदा होने की स्थितियों को रोकते हैं। पेड़-पौधों में ऐंटी-ऑक्सीडेंट काफी होते हैं। ये हमारे शरीर में भी पैदा होते हैं लेकिन काफी कम मात्रा में।
फाइटोकेमिकल्स यानी पौधों से मिलने वाले रसायन जो कैंसर को रोकते हैं, उसकी ग्रोथ को रोकते हैं या उसे ठीक करने में मदद करते हैं। अब तक कोई ऐसा फाइटोकेमिकल नहीं खोजा जा सका है जिससे कैंसर का इलाज हो जाए। हालांकि कैंसर को रोकने में कई फाइटोकेमिकल्स कामयाब पाए गए है।
ऐंथोसायनिन ऐसे रसायन हैं जो सब्जियों, साइट्रस फलों, बेरीज़ आदि को लाल, नीला और जामुनी रंग देते हैं। इनसे बढ़ी उम्र से जुड़ी तकलीफें, दिल की बीमारियां, मोटापे और कैंसर रोकने में मदद करते हैं। ये ऐंटी-ऑक्सीडेंट का काम करके डीएनए को नुकसान से बचाते हैं।
करक्यूमिन हल्दी को पीला रंग देने वाला रसायन है। यह ऐटी-ऑक्सीडेंट के साथ ही कीटीणु-नाशक, विष-नाशक भी है। यह स्वस्थ कोशाओं को छेड़े बिना ट्यूमर की बीमार कोशिकाओं के विकास को धीमा कर देता है।
ईजीसीजी या एपीगैलोकैचिन-3-गैलेट हरी चाय में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो त्वचा, कोलोन, स्तन, पेट, लिवर और पेफड़ों के कैंसर को रोकने में मदद करता है। पानी के बाद सबसे ज्यादा पिया जाने वाला पेय- चाय की पत्ती को जब फर्मेंट या प्रोसेस नहीं किया जाता तो उसके ज्यादातर गुण रह जाते हैं।
लाइकोपीन टमाटरों को लाल रंग देने वाला रसायन है। यह तरबूज़, अंगूर, अमरूद र पपीते में भी थोड़ी-बहुत मात्रा में मिलता है। इसका सेवन करने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा कम हो जाता है। साबित हो चुका है कि ताजे टमाटरों से मिलने वाला लाइकोपीन ज्यादा असरदार होता है, बजाए लाइकोपीन की गोलियों के।
ईस्ट्रोजन हार्मोंन जो मानव शरीर में अपने आप बनता है। इसके समान हार्मोन पौधों में भी होता है- फाइटोईस्ट्रोजन। सोया उत्पादों में यह बड़ी मात्रा में होता है। ईस्ट्रोजन हार्मोंन स्तन, बच्चेदानी की झिल्ली और प्रोस्टेट कैंसर का कारण है। जबकि फाइटोईस्ट्रोजन की मौजूदगी ईस्ट्रोजन के बुरे प्रभाव को कम कर देती है।
पिक्नोजेलोन फ्रांस में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ की छाल से मिलने वाला रसायन है। यह अंगूर और कोकोआ में भी पाया जाता है। इसके ऐंटी-ऑक्सीडेंट प्रभाव की पड़ताल जारी है।
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-1)
फ्री-रैडिकल्स और ऐंटी-ऑक्सीडेंट
ऑक्सीडेशन एक रासायनिक प्रक्रिया है जिससे लोहे में जंग लगती है और हमारे शरीर में भी। हमारे शरीर में मौजूद फ्री-रैडिकल्स ऐसे अणु हैं जिनमें एक इलेक्ट्रॉन कम होता है जिसकी पूर्ति के लिए वे दूसरे अणुओं की ओर जल्द आकर्षित होते हैं और उनके इलेक्ट्रॉन चुरा लेते हैं। अब जिस अणु का इलेक्ट्रॉन चोरी हुआ है वह किसी और का चुराने को उद्धत रहता है इस तरह यह चेन रिऐक्शन चलता रहता है जिससे कोशिका के भीतर कई तरह के अणु, यहां तक कि डीएनए भी प्रभावित होते है।
डीएनए का एक अणु भी अपनी जगह से हिला तो उसके जेनेटिक कोड में बदलाव आ जाता है और कोशिका का काम-काज प्रभावित होता है। तंबाकू, धुंए, रेडिएशन जैसी कई चीजों में फ्री-रैडिकल्स होते हैं जो कोशिका के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर भी पैदा कर सकते हैं।
फ्री-रैडिकल्स के लिए इलेक्ट्रॉन देने में शरीर में मौजूद ऑक्सीजन अव्वल होती है। इसलिए फ्री-रैडिकल्स को इलेक्ट्रॉन की पूर्ति होना ऑक्सिडेशन कहलाता है। जो अणु फ्री-रैडिकल्स के ऑक्सिडेशन को रोकते हैं उन्हें ऐंटी-ऑक्सीडेंट कहा जाता है।
ऐंटी-ऑक्सीडेंट, जैसे विटामिन ई और सी, फ्री रैडिकल्स के साथ रिऐक्शन करके उन्हें काबू में रखते हैं और इस तरह ऑक्सीडेशन की चेन रिऐक्शन को, यानी कैंसर पैदा होने की स्थितियों को रोकते हैं। पेड़-पौधों में ऐंटी-ऑक्सीडेंट काफी होते हैं। ये हमारे शरीर में भी पैदा होते हैं लेकिन काफी कम मात्रा में।
फाइटोकेमिकल्स यानी पौधों से मिलने वाले रसायन जो कैंसर को रोकते हैं, उसकी ग्रोथ को रोकते हैं या उसे ठीक करने में मदद करते हैं। अब तक कोई ऐसा फाइटोकेमिकल नहीं खोजा जा सका है जिससे कैंसर का इलाज हो जाए। हालांकि कैंसर को रोकने में कई फाइटोकेमिकल्स कामयाब पाए गए है।
ऐंथोसायनिन ऐसे रसायन हैं जो सब्जियों, साइट्रस फलों, बेरीज़ आदि को लाल, नीला और जामुनी रंग देते हैं। इनसे बढ़ी उम्र से जुड़ी तकलीफें, दिल की बीमारियां, मोटापे और कैंसर रोकने में मदद करते हैं। ये ऐंटी-ऑक्सीडेंट का काम करके डीएनए को नुकसान से बचाते हैं।
करक्यूमिन हल्दी को पीला रंग देने वाला रसायन है। यह ऐटी-ऑक्सीडेंट के साथ ही कीटीणु-नाशक, विष-नाशक भी है। यह स्वस्थ कोशाओं को छेड़े बिना ट्यूमर की बीमार कोशिकाओं के विकास को धीमा कर देता है।
ईजीसीजी या एपीगैलोकैचिन-3-गैलेट हरी चाय में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो त्वचा, कोलोन, स्तन, पेट, लिवर और पेफड़ों के कैंसर को रोकने में मदद करता है। पानी के बाद सबसे ज्यादा पिया जाने वाला पेय- चाय की पत्ती को जब फर्मेंट या प्रोसेस नहीं किया जाता तो उसके ज्यादातर गुण रह जाते हैं।
लाइकोपीन टमाटरों को लाल रंग देने वाला रसायन है। यह तरबूज़, अंगूर, अमरूद र पपीते में भी थोड़ी-बहुत मात्रा में मिलता है। इसका सेवन करने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा कम हो जाता है। साबित हो चुका है कि ताजे टमाटरों से मिलने वाला लाइकोपीन ज्यादा असरदार होता है, बजाए लाइकोपीन की गोलियों के।
ईस्ट्रोजन हार्मोंन जो मानव शरीर में अपने आप बनता है। इसके समान हार्मोन पौधों में भी होता है- फाइटोईस्ट्रोजन। सोया उत्पादों में यह बड़ी मात्रा में होता है। ईस्ट्रोजन हार्मोंन स्तन, बच्चेदानी की झिल्ली और प्रोस्टेट कैंसर का कारण है। जबकि फाइटोईस्ट्रोजन की मौजूदगी ईस्ट्रोजन के बुरे प्रभाव को कम कर देती है।
पिक्नोजेलोन फ्रांस में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ की छाल से मिलने वाला रसायन है। यह अंगूर और कोकोआ में भी पाया जाता है। इसके ऐंटी-ऑक्सीडेंट प्रभाव की पड़ताल जारी है।
Thursday, April 16, 2009
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-2)
इंटरनेट पर कैंसर के बारे में ढेरों जानकारी बिखरी पड़ी है। इनका सार आपके सामने रखने की कोशिश में यह सीरीज दे रही हूं। यह मेरे नवभारत टाइम्स में 6 अप्रैल को जस्ट-जिंदगी पेज पर छपे लेख पर आधारित है।
कैंसर को बढ़ावा देते हैं ये सब
1. तंबाकू का सेवन
हमारे देश में पुरुषों में 48 फीसदी और महिलाओं में 20 फीसदी कैंसर की इकलौती वजह तंबाकू है। अगर आप बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते, लेकिन मजबूरी में उसके धुएं में सांस लेनी पड़ती है तो भी आपको खतरा है। गुटखा (पान मसाला) चाहे तंबाकू वाला हो या बिना तंबाकू वाला, दोनों नुकसान करता है। हां, तंबाकू वाला गुटखा ज्यादा नुकसानदायक है। तंबाकू या पान मसाला चबाने वालों को मुंह का कैंसर ज्यादा होता है।
2. एक-दो पेग से ज्यादा शराब
रोज दो से ज्यादा पेग लेना मुंह, खाने की नली, गले, लिवर और ब्रेस्ट कैंसर को खुला न्योता है। ड्रिंक में अल्कोहल की ज्यादा मात्रा और साथ में तंबाकू का सेवन कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ा देता है। सबसे कम अल्कोहल बियर में, उससे ज्यादा वाइन में और उससे भी ज्यादा अल्कोहल विस्की व रम में होती है। बेस्ट है कि शराब न लें। अगर छोड़ना मुश्किल है तो एक-दो पेग से ज्यादा न लें।
3. ज्यादा चर्बी (फैट) वाला भोजन
तला हुआ खाना या ऊपर से घी-मक्खन लेने से बचना चाहिए। ज्यादा चर्बी खाने वाले लोगों में ब्रेस्ट, प्रॉस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं। अनुमान है कि कैंसर से होनेवाली 30 फीसदी मौतों को सही खानपान के जरिए रोका जा सकता है। प्रेजर्वेटिव वाले प्रॉसेस्ड फूड और तेज आंच पर देर तक पकी चीजें कम खाएं।
4. नॉन-वेज डिशेज
मीट हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा वक्त लगता है। ज्यादा देर तक बिना पचे भोजन से पेट में एसिड व दूसरे जहरीले रसायन बनते हैं जिनसे कैंसर बढ़ता है। जर्मनी में 11 साल तक चली स्टडी में पाया गया कि वेजिटेरियन लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। सब्जियों में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कैंसर सेल्स को बनने से रोकते हैं।
5. बार-बार एक्स-रे कराना
एक्स-रे, सीटी स्कैन आदि की किरणें हमारे शरीर में पहुंचकर सेल्स की रासायनिक गतिविधियां बढ़ा देती हैं जिससे स्किन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए अगर आप अलग-अलग डॉक्टरों से इलाज कराते हैं और हर डॉक्टर अलग एक्सरे कराने के लिए कहे, तो डॉक्टर को जरूर बताएं कि आप पहले कितनी बार एक्सरे करा चुके हैं।
6. हार्मोन थेरपी
हार्मोन थेरपी बहुत जरूरी होने पर ही लें। महिलाओं को मीनोपॉज़ के दौरान होनेवाली तकलीफों से बचने के लिए उन्हें इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टिन हार्मोन थेरपी दी जाती है। हाल की स्टडीज से पता चला है कि मीनोपॉजल हार्मोन थेरपी से ब्रेस्ट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। हार्मोन थेरपी लेने के पहले इसके खतरों पर जरूर गौर कर लेना चाहिए।
7. लगातार धूप में रहना
सूरज से निकलने वाली अल्ट्रावॉयलेट किरणों से स्किन कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। धूप में निकलना हो तो पूरी बाजू के कपड़े, कैप, अल्ट्रावॉयलेट किरणें रोकने वाला चश्मा और कम-से-कम 15 एसपीएफ वाले सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना चाहिए। वैसे, हम भारतीयों की स्किन में मेलानिन पिग्मेंट ज्यादा होता है, जो अल्ट्रावॉयलेट किरणों को रोकता है। इससे स्किन को कैंसर का खतरा कम होता है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं होता।
8. पेनकिलर दवाएं ज्यादा लेना
पेनकिलर और दूसरी दवाएं खुद ही बेवजह खाते रहने की आदत छोड़ें। डॉक्टर की सलाह के बिना दवाएं खाना शरीर के लिए घातक हो सकता है।
कैंसर को बढ़ावा देते हैं ये सब
1. तंबाकू का सेवन
हमारे देश में पुरुषों में 48 फीसदी और महिलाओं में 20 फीसदी कैंसर की इकलौती वजह तंबाकू है। अगर आप बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते, लेकिन मजबूरी में उसके धुएं में सांस लेनी पड़ती है तो भी आपको खतरा है। गुटखा (पान मसाला) चाहे तंबाकू वाला हो या बिना तंबाकू वाला, दोनों नुकसान करता है। हां, तंबाकू वाला गुटखा ज्यादा नुकसानदायक है। तंबाकू या पान मसाला चबाने वालों को मुंह का कैंसर ज्यादा होता है।
2. एक-दो पेग से ज्यादा शराब
रोज दो से ज्यादा पेग लेना मुंह, खाने की नली, गले, लिवर और ब्रेस्ट कैंसर को खुला न्योता है। ड्रिंक में अल्कोहल की ज्यादा मात्रा और साथ में तंबाकू का सेवन कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ा देता है। सबसे कम अल्कोहल बियर में, उससे ज्यादा वाइन में और उससे भी ज्यादा अल्कोहल विस्की व रम में होती है। बेस्ट है कि शराब न लें। अगर छोड़ना मुश्किल है तो एक-दो पेग से ज्यादा न लें।
3. ज्यादा चर्बी (फैट) वाला भोजन
तला हुआ खाना या ऊपर से घी-मक्खन लेने से बचना चाहिए। ज्यादा चर्बी खाने वाले लोगों में ब्रेस्ट, प्रॉस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं। अनुमान है कि कैंसर से होनेवाली 30 फीसदी मौतों को सही खानपान के जरिए रोका जा सकता है। प्रेजर्वेटिव वाले प्रॉसेस्ड फूड और तेज आंच पर देर तक पकी चीजें कम खाएं।
4. नॉन-वेज डिशेज
मीट हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा वक्त लगता है। ज्यादा देर तक बिना पचे भोजन से पेट में एसिड व दूसरे जहरीले रसायन बनते हैं जिनसे कैंसर बढ़ता है। जर्मनी में 11 साल तक चली स्टडी में पाया गया कि वेजिटेरियन लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। सब्जियों में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कैंसर सेल्स को बनने से रोकते हैं।
5. बार-बार एक्स-रे कराना
एक्स-रे, सीटी स्कैन आदि की किरणें हमारे शरीर में पहुंचकर सेल्स की रासायनिक गतिविधियां बढ़ा देती हैं जिससे स्किन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए अगर आप अलग-अलग डॉक्टरों से इलाज कराते हैं और हर डॉक्टर अलग एक्सरे कराने के लिए कहे, तो डॉक्टर को जरूर बताएं कि आप पहले कितनी बार एक्सरे करा चुके हैं।
6. हार्मोन थेरपी
हार्मोन थेरपी बहुत जरूरी होने पर ही लें। महिलाओं को मीनोपॉज़ के दौरान होनेवाली तकलीफों से बचने के लिए उन्हें इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टिन हार्मोन थेरपी दी जाती है। हाल की स्टडीज से पता चला है कि मीनोपॉजल हार्मोन थेरपी से ब्रेस्ट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। हार्मोन थेरपी लेने के पहले इसके खतरों पर जरूर गौर कर लेना चाहिए।
7. लगातार धूप में रहना
सूरज से निकलने वाली अल्ट्रावॉयलेट किरणों से स्किन कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। धूप में निकलना हो तो पूरी बाजू के कपड़े, कैप, अल्ट्रावॉयलेट किरणें रोकने वाला चश्मा और कम-से-कम 15 एसपीएफ वाले सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना चाहिए। वैसे, हम भारतीयों की स्किन में मेलानिन पिग्मेंट ज्यादा होता है, जो अल्ट्रावॉयलेट किरणों को रोकता है। इससे स्किन को कैंसर का खतरा कम होता है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं होता।
8. पेनकिलर दवाएं ज्यादा लेना
पेनकिलर और दूसरी दवाएं खुद ही बेवजह खाते रहने की आदत छोड़ें। डॉक्टर की सलाह के बिना दवाएं खाना शरीर के लिए घातक हो सकता है।
Tuesday, April 14, 2009
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (1)
इंटरनेट पर कैंसर के बारे में ढेरों जानकारी बिखरी पड़ी है। इनका सार आपके सामने रखने की कोशिश में यह सीरीज शुरू कर रही हूं। यह मेरे नव भारत टाइम्स में 6 अप्रैल को जस्ट-जिंदगी पेज पर छपे लेख पर आधारित है।
कैसे होता है कैंसर
हमारे शरीर की सबसे छोटी यूनिट (इकाई) सेल (कोशिका) है। शरीर में 100 से 1000 खरब सेल्स होते हैं। हर पल ढेरों नए सेल बनते रहते हैं और पुराने व खराब सेल खत्म होते जाते हैं। शरीर के किसी भी नॉर्मल टिश्यू में जितने नए सेल्स पैदा होते हैं, उतने ही पुराने सेल्स खत्म हो जाते हैं। इस तरह टिश्यू में संतुलन बना रहता है। कैंसर के मरीजों में यह संतुलन बिगड़ जाता है और उनमें सेल्स की बेलगाम बढ़ोतरी होती रहती है।
गलत लाइफस्टाइल और तंबाकू-शराब जैसी चीजें किसी सेल के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर पैदा कर देती हैं। आमतौर पर जब किसी सेल में किसी वजह से खराबी आ जाती है तो खराब सेल अपने जैसे खराब सेल्स पैदा नहीं करता। वह खुद को मार देता है। कैंसर सेल खराब होने के बावजूद खुद को नहीं मारता, बल्कि अपने जैसे सेल बेतरतीब तरीके से पैदा करता जाता है जो सही सेल्स के कामकाज में रुकावट डालने लगते हैं।
कैंसर सेल एक जगह टिककर नहीं रहते। अपने मूल अंग से निकलकर शरीर में किसी दूसरी जगह जमकर वहां भी अपने तरह के बीमार सेल्स का ढेर बना डालते हैं। इससे उस अंग के कामकाज में भी रुकावट आने लगती है। इन अधूरे बीमार सेल्स का समूह ही कैंसर है। ट्यूमर बनने में महीनों, बरसों, बल्कि कई बार तो दशकों लग जाते हैं। कम-से-कम एक अरब सेल्स के जमा होने पर ही ट्यूमर पहचानने लायक हालत में आता है।
बिनाइन ट्यूमर और कैंसर में फर्क
ट्यूमर को गांठ या गिल्टी भी कहते हैं। यह कैंसर-रहित (नॉन मेलिग्नेंट या बिाइन) भी हो सकती है और कैंसर वाली (मेलिग्नेंट) भी। यानी हर ट्यूमर कैंसर ही हो, जरूरी नहीं। कई बार पुराना कैंसर-रहित ट्यूमर भी बाद में जाकर कैंसर बन सकता है। इसलिए यदि शरीर में कहीं गांठ या गिल्टी हो, तो समय-समय पर उसकी जांच करवाना सेफ रहता है। इसके लिए बायोप्सी कराई जाती है।
कैसे होता है कैंसर
हमारे शरीर की सबसे छोटी यूनिट (इकाई) सेल (कोशिका) है। शरीर में 100 से 1000 खरब सेल्स होते हैं। हर पल ढेरों नए सेल बनते रहते हैं और पुराने व खराब सेल खत्म होते जाते हैं। शरीर के किसी भी नॉर्मल टिश्यू में जितने नए सेल्स पैदा होते हैं, उतने ही पुराने सेल्स खत्म हो जाते हैं। इस तरह टिश्यू में संतुलन बना रहता है। कैंसर के मरीजों में यह संतुलन बिगड़ जाता है और उनमें सेल्स की बेलगाम बढ़ोतरी होती रहती है।
गलत लाइफस्टाइल और तंबाकू-शराब जैसी चीजें किसी सेल के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर पैदा कर देती हैं। आमतौर पर जब किसी सेल में किसी वजह से खराबी आ जाती है तो खराब सेल अपने जैसे खराब सेल्स पैदा नहीं करता। वह खुद को मार देता है। कैंसर सेल खराब होने के बावजूद खुद को नहीं मारता, बल्कि अपने जैसे सेल बेतरतीब तरीके से पैदा करता जाता है जो सही सेल्स के कामकाज में रुकावट डालने लगते हैं।
कैंसर सेल एक जगह टिककर नहीं रहते। अपने मूल अंग से निकलकर शरीर में किसी दूसरी जगह जमकर वहां भी अपने तरह के बीमार सेल्स का ढेर बना डालते हैं। इससे उस अंग के कामकाज में भी रुकावट आने लगती है। इन अधूरे बीमार सेल्स का समूह ही कैंसर है। ट्यूमर बनने में महीनों, बरसों, बल्कि कई बार तो दशकों लग जाते हैं। कम-से-कम एक अरब सेल्स के जमा होने पर ही ट्यूमर पहचानने लायक हालत में आता है।
बिनाइन ट्यूमर और कैंसर में फर्क
ट्यूमर को गांठ या गिल्टी भी कहते हैं। यह कैंसर-रहित (नॉन मेलिग्नेंट या बिाइन) भी हो सकती है और कैंसर वाली (मेलिग्नेंट) भी। यानी हर ट्यूमर कैंसर ही हो, जरूरी नहीं। कई बार पुराना कैंसर-रहित ट्यूमर भी बाद में जाकर कैंसर बन सकता है। इसलिए यदि शरीर में कहीं गांठ या गिल्टी हो, तो समय-समय पर उसकी जांच करवाना सेफ रहता है। इसके लिए बायोप्सी कराई जाती है।
Sunday, April 5, 2009
आसां है कैंसर के डंक से बचे रहना
कैंसर का नाम सुनते ही कुछ बरसों पहले तक मन में एक डर-सा पैदा हो जाता था। वजह, इस बीमारी का लाइलाज होना। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब न सिर्फ कैंसर का इलाज मुमकिन है, बल्कि ठीक होने के बाद सामान्य जिंदगी भी जी जा सकती है। शर्त यह है कि शुरुआती स्टेज पर बीमारी की पहचान हो जाए और फिर उसका मुकम्मल इलाज कराया जाए। वैसे, अगर कुछ चीजों से बचें और लाइफस्टाइल को सुधार लें तो कैंसर के शिकंजे में आने की आशंका भी काफी कम हो जाती है।
कैंसर से बचाव और जांच के विभिन्न पहलुओं पर मेरी ये रिपोर्ट : आसां है कैंसर के डंक से बचे रहना
साथियो
ये मेरा ताजा लेख है जो आज के नवभारत टाइम्स के जस्ट जिंदगी पेज (पेज 9) पर छपा है। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें।
कैंसर से बचाव और जांच के विभिन्न पहलुओं पर मेरी ये रिपोर्ट : आसां है कैंसर के डंक से बचे रहना
साथियो
ये मेरा ताजा लेख है जो आज के नवभारत टाइम्स के जस्ट जिंदगी पेज (पेज 9) पर छपा है। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें।
Tuesday, March 24, 2009
हमारा घर
रजिया मिर्जा इस ब्लॉग की नई पाठक और कॉन्ट्रीब्यूटर हैं। उन्होंने यह कविता भेजी तो मैं एक मिनट भी रुक नहीं पाई उसे ब्लॉग पर लगाने से। उनकी स्थिति को हम सब समझते हैं और उम्मीद और दुआ करते हैं कि मां जल्द ही इलाज पूरा करके, उसकी तकलीफों से उबर कर फिर स्वस्थ हो जाएंगी।
मेरा घर, हमारा घर, हम सब का घर।
बडी, मंझली, छोटी और मुन्ने का घर ।
जहाँ हम पले, जहाँ हमने अपनी पहली सांस ली।
जिसमें हमारा वजूद बना।
जिस से हमारे ताने-बाने जुडे हुए थे,
वो हमारा घर।
पर आज….हमारे उसी घर को,
घेर रख़ा है दीमक ने।
दीमक ने अपना जाल खूब फैला रख़ा है,
हमारे उसी घर पर।
लोग कहते हैं “निकाल दो इस दीमक को”।
पर कैसे? कैसे निकाल सकते हैं हम इसे?
इस से जो हमारी “मा” जुडी है।
उसका इस घर से पचत्तर साल का नाता है।
और फिर वो कमजोर भी तो है।
उस बेचारी को तो पता भी नहीं कि..
दीमक ने घेर रख़ा है उसके घर को।
पर हाँ…!इलाज जारी है, दीमक के फैलते हुए जाल को
रोकने का…।
“ कीमोथेरेपी और रेडिएशन ” के ज़रीए।
ताकि बच जाए हमारी “माँ”
मेरा घर, हमारा घर, हम सब का घर।
बडी, मंझली, छोटी और मुन्ने का घर ।
जहाँ हम पले, जहाँ हमने अपनी पहली सांस ली।
जिसमें हमारा वजूद बना।
जिस से हमारे ताने-बाने जुडे हुए थे,
वो हमारा घर।
पर आज….हमारे उसी घर को,
घेर रख़ा है दीमक ने।
दीमक ने अपना जाल खूब फैला रख़ा है,
हमारे उसी घर पर।
लोग कहते हैं “निकाल दो इस दीमक को”।
पर कैसे? कैसे निकाल सकते हैं हम इसे?
इस से जो हमारी “मा” जुडी है।
उसका इस घर से पचत्तर साल का नाता है।
और फिर वो कमजोर भी तो है।
उस बेचारी को तो पता भी नहीं कि..
दीमक ने घेर रख़ा है उसके घर को।
पर हाँ…!इलाज जारी है, दीमक के फैलते हुए जाल को
रोकने का…।
“ कीमोथेरेपी और रेडिएशन ” के ज़रीए।
ताकि बच जाए हमारी “माँ”
Sunday, March 8, 2009
संक्षेप में जो आप जानना चाहते हैं स्तन कैंसर के बारे में
बदले समय में भारतीय महिलाओं में भी स्तन का कैंसर सबसे आम हो गया है। हर 22 वीं महिला को कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। शहरी महिलाओँ में यह संख्या और भी ज्यादा है।
खुद पहचानें
स्तन कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान। आइने के सामने और शावर में या लेट कर स्तनों की हर महीने पीरियड के बाद खुद जांच करके देखें-
- स्तन या निप्पल के आकार में कोई असामान्य बदलाव।
- कोई गांठ, चाहे वह मूंग की दाल के बराबर ही क्यों न हो।
- स्तन में सूजन, लाली, खिंचाव या गड्ढे पड़ना, संतरे के छिलके के समान छोटे-छोटे छेद या दाने-से बनना।
- एक स्तन पर खून की नलियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगना।
- निप्पल भीतर को खिंचना, उसमें से दूध के अलावा कोई भी स्त्राव- सफेद, गुलाबी, लाल, भूरा, पनीला या किसी और रंग का, होना ।
- स्तन में कही भी लगातार दर्द होना।
जांच
• 40 की उम्र में एक बार और फिर हर दो साल में मेमोग्राफी करवानी चाहिए ताकि शुरुआती स्टेज में ही स्तन कैंसर का पता लग सके।
• ब्रेस्ट स्क्रीनिंग के लिए एमआरआई, अल्ट्रासोनोग्राफी भी की जाती है।
• एफएनएसी- किसी ठोस गांठ की जांच सुई से वहां की कोशिकाएं निकालकर की जाती है।
बचाव
- कसरत: हर हफ्ते सवा तीन घंटे दौड़ लगाने या 13 घंटे पैदल चलने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर की संभावना 23 फीसदी कम होती है।
- मातृत्व: बच्चे पैदा करना, वह भी सही उम्र में, और उसे स्तनपान कराना स्तन कैंसर को टालने का कारगर तरीका है।
- व्यसन: गुटका, तंबाकू और धूम्रपान ही नहीं, अल्कोहल भी स्तन कैंसर के रिस्क को बढ़ाता है। हर ड्रिंक का अर्थ है, कैंसर के खतरे में इजाफा।
- धूपस्नान: विटामिन डी की कमी का सीधा संबंध स्तन कैंसर से है। शरीर को हर दिन 1000 मिलिग्राम कैल्शियम और 350 यूनिट विटामिन डी मिलना चाहिए। 5-10 मिनट का धूपस्नान शरीर में विटामिन डी बनाने में मदद करेगा।
- कैलोरी में कटौती: रेड मीट और प्रोसेस्ड भोजन कम, होल ग्रेन, फल-सब्जियां ज्यादा खाना कैंसर से बचाव का रास्ता है। चर्बी से मिलने वाली कैलोरी कुल कैलोरी की 20 फीसदी तक रहे तो स्तन कैंसर की संभावना में 24 फीसदी की कटौती हो सकती है।
- छरहरी काया: शरीर पर छाई चर्बी ईस्ट्रोजन हॉर्मोन बनाती है जो स्तन कैंसर का कारण है। दुबला लेकिन सुपोषित होना आदर्श स्थिति है।
भ्रम न पालें
• कैंसर छूत की, संक्रमण से होने वाली बीमारी नहीं है। मधुमेह और उच्च रक्तचाप की तरह शरीर में खुद ही पैदा होती है।
• चोट या धक्का लगने से स्तन कैंसर नहीं होता। बल्कि कई बार चोट लगने पर इसकी तरफ ध्यान जाता है।
• 20 साल की युवती से लेकर मृत्यु की चौखट पर खड़ी बूढ़ी महिला तक किसी को भी स्तन कैंसर हो सकता है।
• स्तन कैंसर पुरुषों को भी होता है। 200 में से एक स्तन कैंसर का मरीज पुरुष हो सकता है।
• खान-पान और जीवनचर्या में सकारात्मक बदलाव करके कैंसर की संभावना को कम किया जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद इसका प्रामाणिक इलाज ऐलोपैथी ही है।
• 93 फीसदी मामलों में स्तन कैंसर वंशानुगत बीमारी नहीं है।
• स्तन की 90 फीसदी गांठें कैंसररहित होती हैं, सिर्फ 10 फीसदी गांठों में कैंसर की संभावना होती है। फिर भी हर गांठ की फौरन जांच करानी चाहिए।
खुद पहचानें
स्तन कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान। आइने के सामने और शावर में या लेट कर स्तनों की हर महीने पीरियड के बाद खुद जांच करके देखें-
- स्तन या निप्पल के आकार में कोई असामान्य बदलाव।
- कोई गांठ, चाहे वह मूंग की दाल के बराबर ही क्यों न हो।
- स्तन में सूजन, लाली, खिंचाव या गड्ढे पड़ना, संतरे के छिलके के समान छोटे-छोटे छेद या दाने-से बनना।
- एक स्तन पर खून की नलियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगना।
- निप्पल भीतर को खिंचना, उसमें से दूध के अलावा कोई भी स्त्राव- सफेद, गुलाबी, लाल, भूरा, पनीला या किसी और रंग का, होना ।
- स्तन में कही भी लगातार दर्द होना।
जांच
• 40 की उम्र में एक बार और फिर हर दो साल में मेमोग्राफी करवानी चाहिए ताकि शुरुआती स्टेज में ही स्तन कैंसर का पता लग सके।
• ब्रेस्ट स्क्रीनिंग के लिए एमआरआई, अल्ट्रासोनोग्राफी भी की जाती है।
• एफएनएसी- किसी ठोस गांठ की जांच सुई से वहां की कोशिकाएं निकालकर की जाती है।
बचाव
- कसरत: हर हफ्ते सवा तीन घंटे दौड़ लगाने या 13 घंटे पैदल चलने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर की संभावना 23 फीसदी कम होती है।
- मातृत्व: बच्चे पैदा करना, वह भी सही उम्र में, और उसे स्तनपान कराना स्तन कैंसर को टालने का कारगर तरीका है।
- व्यसन: गुटका, तंबाकू और धूम्रपान ही नहीं, अल्कोहल भी स्तन कैंसर के रिस्क को बढ़ाता है। हर ड्रिंक का अर्थ है, कैंसर के खतरे में इजाफा।
- धूपस्नान: विटामिन डी की कमी का सीधा संबंध स्तन कैंसर से है। शरीर को हर दिन 1000 मिलिग्राम कैल्शियम और 350 यूनिट विटामिन डी मिलना चाहिए। 5-10 मिनट का धूपस्नान शरीर में विटामिन डी बनाने में मदद करेगा।
- कैलोरी में कटौती: रेड मीट और प्रोसेस्ड भोजन कम, होल ग्रेन, फल-सब्जियां ज्यादा खाना कैंसर से बचाव का रास्ता है। चर्बी से मिलने वाली कैलोरी कुल कैलोरी की 20 फीसदी तक रहे तो स्तन कैंसर की संभावना में 24 फीसदी की कटौती हो सकती है।
- छरहरी काया: शरीर पर छाई चर्बी ईस्ट्रोजन हॉर्मोन बनाती है जो स्तन कैंसर का कारण है। दुबला लेकिन सुपोषित होना आदर्श स्थिति है।
भ्रम न पालें
• कैंसर छूत की, संक्रमण से होने वाली बीमारी नहीं है। मधुमेह और उच्च रक्तचाप की तरह शरीर में खुद ही पैदा होती है।
• चोट या धक्का लगने से स्तन कैंसर नहीं होता। बल्कि कई बार चोट लगने पर इसकी तरफ ध्यान जाता है।
• 20 साल की युवती से लेकर मृत्यु की चौखट पर खड़ी बूढ़ी महिला तक किसी को भी स्तन कैंसर हो सकता है।
• स्तन कैंसर पुरुषों को भी होता है। 200 में से एक स्तन कैंसर का मरीज पुरुष हो सकता है।
• खान-पान और जीवनचर्या में सकारात्मक बदलाव करके कैंसर की संभावना को कम किया जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद इसका प्रामाणिक इलाज ऐलोपैथी ही है।
• 93 फीसदी मामलों में स्तन कैंसर वंशानुगत बीमारी नहीं है।
• स्तन की 90 फीसदी गांठें कैंसररहित होती हैं, सिर्फ 10 फीसदी गांठों में कैंसर की संभावना होती है। फिर भी हर गांठ की फौरन जांच करानी चाहिए।
Thursday, February 26, 2009
एक पहेली- बूझो तो जाने!
(इलाज पक्का था, मरीज ने पूरा करवाया भी, फिर भी बच न पाई?! बहुत नाइंसाफी है ये।
एक महिला डॉक्टर के पास अपनी जांच करवाने गई। तभी पता लगा कि उसे कैंसर हुआ है। डॉक्टर ने कहा कि कोई चिंता की बात नहीं है। उसने अपने मरीज को स्तन कैंसर का ताजातरीन इलाज तस्कीद कर दिया। इस इलाज के बारे में साबित हो चुका था कि यह स्तन कैंसर का सौ फीसदी प्रभावी, शर्तिया इलाज है। आम जनता और दुनिया भर के डॉक्टर भी इससे सहमत थे।
डॉक्टर ने उस महिला को बताया कि यह बिना साइड-इफेक्ट वाला, सुरक्षित, सस्ता और प्रभावी इलाज है। और उसकी सारी बातें सच भी थीं। उस महिला का अगले दिन से ही इलाज शुरू हो गया, उसी नयी दवा से। लेकिन पूरे इलाज के बावजूद कुछ समय बाद उस महिला की कैंसर से मौत हो गई।
वह इलाज सौ-फीसदी प्रभावी और जांचा-परखा था। फिर उस मरीज की मौत क्यों हो गई?
जवाब: वह इलाज स्तन कैंसर के लिए सौ फीसदी प्रभावी था, पर दूसरे प्रकार के कैंसरों के लिए नहीं। पहेली में कहीं नहीं कहा गया है कि उस महिला को स्तन कैंसर था। दरअसल उसे किसी और जगह का कैंसर था।
एक महिला डॉक्टर के पास अपनी जांच करवाने गई। तभी पता लगा कि उसे कैंसर हुआ है। डॉक्टर ने कहा कि कोई चिंता की बात नहीं है। उसने अपने मरीज को स्तन कैंसर का ताजातरीन इलाज तस्कीद कर दिया। इस इलाज के बारे में साबित हो चुका था कि यह स्तन कैंसर का सौ फीसदी प्रभावी, शर्तिया इलाज है। आम जनता और दुनिया भर के डॉक्टर भी इससे सहमत थे।
डॉक्टर ने उस महिला को बताया कि यह बिना साइड-इफेक्ट वाला, सुरक्षित, सस्ता और प्रभावी इलाज है। और उसकी सारी बातें सच भी थीं। उस महिला का अगले दिन से ही इलाज शुरू हो गया, उसी नयी दवा से। लेकिन पूरे इलाज के बावजूद कुछ समय बाद उस महिला की कैंसर से मौत हो गई।
वह इलाज सौ-फीसदी प्रभावी और जांचा-परखा था। फिर उस मरीज की मौत क्यों हो गई?
जवाब: वह इलाज स्तन कैंसर के लिए सौ फीसदी प्रभावी था, पर दूसरे प्रकार के कैंसरों के लिए नहीं। पहेली में कहीं नहीं कहा गया है कि उस महिला को स्तन कैंसर था। दरअसल उसे किसी और जगह का कैंसर था।
Sunday, February 22, 2009
जेड गुडी की शादी की चर्चा हम क्यों करें?
आज के दिन हर जगह जेड गुडी की चर्चा है। आज का दिन उसके लिए खास है- उसने आज शादी कर ली है। उसकी शादी के पहले इंग्लैंड और वेल्स के रोमन कैथोलिक चर्च ने जेड को शुभकामनाएं दीं और उनके लिए प्रार्थना की।
शादी के पहले खास मीडिया के लिए जेड और उसके होने वाले पति ने यह जीवंत पोज दिया
पर दुनिया के लिए 27 वर्षीय जेड गुडी की शादी इतनी खास क्यों है? इसका जवाब पाने के लिए उसकी पूरी कहानी जाननी पड़ेगी।
जेड के जिक्र/ परिचय का सिरा जोड़ने के लिए याद दिला दूं कि हिंदुस्तानी मीडिया में जेड की चर्चा पहली बार जनवरी 2007 में हुई जब इंगलैंड के रियलिटी टीवी शो सेलेब्रिटी बिग ब्रदर में शिल्पा शेट्टी पर रेसिस्ट टिप्पणियां करने का इल्जाम उस पर लगा। इसके बाद वे शो से बाहर हो गईं और आखिरकार शिल्पा जीत गईं। हालांकि इसके लिए बाद में जेड ने कई बार माफी मांगी और सफाई दी कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था।
दिलचस्प बात यह है कि फिर अगस्त 2008 में भारत में बिग ब्रदर की ही तर्ज पर शिल्पा के कार्यक्रम बिग बॉस में जेड शामिल हुईं। बिग बॉस के घर में अपने दूसरे ही दिन जेड को फोन पर पता चला कि उन्हें बच्चेदानी के मुंह का कैंसर है जो काफी विकसित अवस्था में है जिसका फौरन इलाज जरूरी है। जाहिर है, जेड कार्यक्रम छोड़ कर चली गईं और तब से लगातार कैंसर से लड़ रही हैं। ताजा समाचार यह है कि डॉक्टरों का कहना है कि “उसके पास इस दुनिया में ज्यादा समय नहीं है”।
कोई भी किसी के इस दुनिया में रहने या न रहने के समय को कैसे तय कर सकता है, जब तक कि व्यक्ति के दिल-दिमाग ने काम करना बंद न कर दिया हो? खास तौर पर कैंसर के मरीजों के बारे में ऐसी ‘भविष्यवाणियां’ मैंने भी कई बार सुनी हैं। और, यकीन मानिए, डॉक्टरों की ऐसी भविष्यवाणियों को भी अनेक मरीजों ने मेरे सामने ही झूठा साबित कर दिया है। सबका जिक्र जरूरी नहीं है, लेकिन दो-चार या आठ-दस महीनों को चार-पांच साल में बदलते मैंने कई बार देखा है। इसलिए जब सुन रही हूं कि जेड के पास कुछेक हफ्तों या महीनों का ही समय है तो चुपचाप यकीन नहीं करना चाहती। और अगर यह सच हो भी जाए तो बड़ी बात यह होगी कि जेड ने अपने 27 साल के जीवन को कितना जिया। महत्वपूर्ण सवाल यह होगा कि अपने छोटे से समय में उसने क्या किया।
उसने बहुत कुछ किया, खूब किया। पांच जून 1981 को जन्मी एक टूटे परिवार की लड़की जेड सेरिसा लॉराइन गुडी को पहली बार दुनिया ने जाना जब वह 2002 में ब्रिटेन के चैनल 4 के रियलिटी शो बिग ब्रदर के परिवार में शामिल हुईं। इस ‘परिवार’ से निकाले जाने के बाद उसने अपने टीवी कार्यक्रम बनाना शुरू किया। साथ ही अपने सौंदर्य प्रसाधन भी बाजार में उतारे।
जेड गुडी शादी के एक दिन पहले ब्राइड्स मेड्स के साथ
सोलह साल की उम्र में पहली बार उसे पता लगा कि उसके शरीर में कई ऐसी कोशिकाएं हैं जो कैंसर बना सकती हैं। इन बीमार कोशिकाओं का इलाज कर दिया गया। फिर सन 2004 उसे अंडाशय (ओवरी) का कैंसर और फिर 2006 में मलाशय का कैंसर बताया गया। दोनो बार इलाज के बाद उसे डॉक्टरों ने ‘ठीक हो गई’ माना। मगर ऐसा था नहीं। अगस्त 2008 के शुरू में फिर कैंसर की आशंका में उसने कुछ जांचें करवाईं जिनकी रिपोर्ट उन्हें हिंदुस्तान में बिग बॉस के घर पर मिली। इस दौरान दो मई 2006 को जेड ने अपनी पहली आत्मकथा- 'जेड: माई ऑटोबायोग्राफी' छपवाई और उसी साल जून में अपना इत्र- 'श्..जेड गुडी' जारी किया जो खासा लोकप्रिय हुआ।
नवंबर 2006 तक उसने नाउ पत्रिका के लिए साप्ताहिक कॉलम भी लिखा। फिर अगस्त 2008 में तीसरी बार कैंसर होने का पता लगने के बाद अक्टूबर 2008 में एक और आत्मकथा लिखी- 'जेड: कैच अ फॉलिंग स्टार' जिसमें 2007 में बिग ब्रदर कार्यक्रम के दौरान के अनुभवों को समेटा है। उस पर एक टीवी डॉक्युमेंटरी ‘लिविंग विथ जेड गुडी’ का प्रसारण सितंबर में हुआ तो दिसंबर में एक और फिल्म ‘जेड’स कैंसर बैटल’ दिखाई गई। अक्टूबर में उसने अपना दूसरा ब्यूटी सैलोन खोला। फिर क्रिसमस के दौरान थिएटर रॉयल में स्नो व्हाइट नाटक में बिगड़ैल रानी का किरदार निभाया। इस हालत में भी अपनी जीजीविषा को जिलाए रखने और अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना सब कर पाने के लिए उसकी खूब तारीफ हुई। पर जनवरी में उसे इस शो से हटना पड़ा, शरीर साथ नहीं दे पाया।
शुक्रवार, 6 फरवरी को उनके मलाशय से गेंद के बराबर ट्यूमर ऑपरेशन के जरिए निकाला गया। आज उसने अपनी बीमारी की हालत में, मौत के करीब खड़े होकर भी शादी की है जिसे फिल्माने का ठेका भी उन्होंने महंगे में बेचा। इस ईवेंट के एक्सक्लूसिव कवरेज के लिए एक पत्रिका के साथ भी उनका सौदा हुआ, एक मोटी रकम के बदले। और कीमोथेरेपी से गंजी हुई अपनी खोपड़ी को दिखाने के लिए शादी में घूंघट न पहनने का फैसला भी चौंकाने वाला, पर बिकाऊ रहा।
अपनी जिंदगी के आखिरी चंद दिन कैमरे में कैद करवाने वाली यह बीमार सेलेब्रिटी अब अपनी मौत को भी भुनाना चाहती है? लोग यही कह रहे हैं और वह खुद भी कहती है कि वह मरने के पहले ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा कर लेना चाहती है, अपने पांच और चार साल के दो बच्चों के लिए। इस बारे में कुछ लोगों का कहना है कि यह जेड का शोषण है। किसी की मौत को टीवी पर लाइव देखना- दिखाना क्रूर और अमानवीय है। पर जेड का कहना है कि उनकी जिंदगी कैमरे के सामने बीती है, इसलिए मौत भी कैमरे के सामने ही हो। उधर डॉक्टर मान रहे हैं कि टीवी पर यह सब देख रहे हजारों दर्शक इसी बहाने कैंसर के बारे में जानेंगे और जागरूक बनेंगे।
शादी के पहले खास मीडिया के लिए जेड और उसके होने वाले पति ने यह जीवंत पोज दिया
पर दुनिया के लिए 27 वर्षीय जेड गुडी की शादी इतनी खास क्यों है? इसका जवाब पाने के लिए उसकी पूरी कहानी जाननी पड़ेगी।
जेड के जिक्र/ परिचय का सिरा जोड़ने के लिए याद दिला दूं कि हिंदुस्तानी मीडिया में जेड की चर्चा पहली बार जनवरी 2007 में हुई जब इंगलैंड के रियलिटी टीवी शो सेलेब्रिटी बिग ब्रदर में शिल्पा शेट्टी पर रेसिस्ट टिप्पणियां करने का इल्जाम उस पर लगा। इसके बाद वे शो से बाहर हो गईं और आखिरकार शिल्पा जीत गईं। हालांकि इसके लिए बाद में जेड ने कई बार माफी मांगी और सफाई दी कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था।
दिलचस्प बात यह है कि फिर अगस्त 2008 में भारत में बिग ब्रदर की ही तर्ज पर शिल्पा के कार्यक्रम बिग बॉस में जेड शामिल हुईं। बिग बॉस के घर में अपने दूसरे ही दिन जेड को फोन पर पता चला कि उन्हें बच्चेदानी के मुंह का कैंसर है जो काफी विकसित अवस्था में है जिसका फौरन इलाज जरूरी है। जाहिर है, जेड कार्यक्रम छोड़ कर चली गईं और तब से लगातार कैंसर से लड़ रही हैं। ताजा समाचार यह है कि डॉक्टरों का कहना है कि “उसके पास इस दुनिया में ज्यादा समय नहीं है”।
कोई भी किसी के इस दुनिया में रहने या न रहने के समय को कैसे तय कर सकता है, जब तक कि व्यक्ति के दिल-दिमाग ने काम करना बंद न कर दिया हो? खास तौर पर कैंसर के मरीजों के बारे में ऐसी ‘भविष्यवाणियां’ मैंने भी कई बार सुनी हैं। और, यकीन मानिए, डॉक्टरों की ऐसी भविष्यवाणियों को भी अनेक मरीजों ने मेरे सामने ही झूठा साबित कर दिया है। सबका जिक्र जरूरी नहीं है, लेकिन दो-चार या आठ-दस महीनों को चार-पांच साल में बदलते मैंने कई बार देखा है। इसलिए जब सुन रही हूं कि जेड के पास कुछेक हफ्तों या महीनों का ही समय है तो चुपचाप यकीन नहीं करना चाहती। और अगर यह सच हो भी जाए तो बड़ी बात यह होगी कि जेड ने अपने 27 साल के जीवन को कितना जिया। महत्वपूर्ण सवाल यह होगा कि अपने छोटे से समय में उसने क्या किया।
उसने बहुत कुछ किया, खूब किया। पांच जून 1981 को जन्मी एक टूटे परिवार की लड़की जेड सेरिसा लॉराइन गुडी को पहली बार दुनिया ने जाना जब वह 2002 में ब्रिटेन के चैनल 4 के रियलिटी शो बिग ब्रदर के परिवार में शामिल हुईं। इस ‘परिवार’ से निकाले जाने के बाद उसने अपने टीवी कार्यक्रम बनाना शुरू किया। साथ ही अपने सौंदर्य प्रसाधन भी बाजार में उतारे।
जेड गुडी शादी के एक दिन पहले ब्राइड्स मेड्स के साथ
सोलह साल की उम्र में पहली बार उसे पता लगा कि उसके शरीर में कई ऐसी कोशिकाएं हैं जो कैंसर बना सकती हैं। इन बीमार कोशिकाओं का इलाज कर दिया गया। फिर सन 2004 उसे अंडाशय (ओवरी) का कैंसर और फिर 2006 में मलाशय का कैंसर बताया गया। दोनो बार इलाज के बाद उसे डॉक्टरों ने ‘ठीक हो गई’ माना। मगर ऐसा था नहीं। अगस्त 2008 के शुरू में फिर कैंसर की आशंका में उसने कुछ जांचें करवाईं जिनकी रिपोर्ट उन्हें हिंदुस्तान में बिग बॉस के घर पर मिली। इस दौरान दो मई 2006 को जेड ने अपनी पहली आत्मकथा- 'जेड: माई ऑटोबायोग्राफी' छपवाई और उसी साल जून में अपना इत्र- 'श्..जेड गुडी' जारी किया जो खासा लोकप्रिय हुआ।
नवंबर 2006 तक उसने नाउ पत्रिका के लिए साप्ताहिक कॉलम भी लिखा। फिर अगस्त 2008 में तीसरी बार कैंसर होने का पता लगने के बाद अक्टूबर 2008 में एक और आत्मकथा लिखी- 'जेड: कैच अ फॉलिंग स्टार' जिसमें 2007 में बिग ब्रदर कार्यक्रम के दौरान के अनुभवों को समेटा है। उस पर एक टीवी डॉक्युमेंटरी ‘लिविंग विथ जेड गुडी’ का प्रसारण सितंबर में हुआ तो दिसंबर में एक और फिल्म ‘जेड’स कैंसर बैटल’ दिखाई गई। अक्टूबर में उसने अपना दूसरा ब्यूटी सैलोन खोला। फिर क्रिसमस के दौरान थिएटर रॉयल में स्नो व्हाइट नाटक में बिगड़ैल रानी का किरदार निभाया। इस हालत में भी अपनी जीजीविषा को जिलाए रखने और अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना सब कर पाने के लिए उसकी खूब तारीफ हुई। पर जनवरी में उसे इस शो से हटना पड़ा, शरीर साथ नहीं दे पाया।
शुक्रवार, 6 फरवरी को उनके मलाशय से गेंद के बराबर ट्यूमर ऑपरेशन के जरिए निकाला गया। आज उसने अपनी बीमारी की हालत में, मौत के करीब खड़े होकर भी शादी की है जिसे फिल्माने का ठेका भी उन्होंने महंगे में बेचा। इस ईवेंट के एक्सक्लूसिव कवरेज के लिए एक पत्रिका के साथ भी उनका सौदा हुआ, एक मोटी रकम के बदले। और कीमोथेरेपी से गंजी हुई अपनी खोपड़ी को दिखाने के लिए शादी में घूंघट न पहनने का फैसला भी चौंकाने वाला, पर बिकाऊ रहा।
अपनी जिंदगी के आखिरी चंद दिन कैमरे में कैद करवाने वाली यह बीमार सेलेब्रिटी अब अपनी मौत को भी भुनाना चाहती है? लोग यही कह रहे हैं और वह खुद भी कहती है कि वह मरने के पहले ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा कर लेना चाहती है, अपने पांच और चार साल के दो बच्चों के लिए। इस बारे में कुछ लोगों का कहना है कि यह जेड का शोषण है। किसी की मौत को टीवी पर लाइव देखना- दिखाना क्रूर और अमानवीय है। पर जेड का कहना है कि उनकी जिंदगी कैमरे के सामने बीती है, इसलिए मौत भी कैमरे के सामने ही हो। उधर डॉक्टर मान रहे हैं कि टीवी पर यह सब देख रहे हजारों दर्शक इसी बहाने कैंसर के बारे में जानेंगे और जागरूक बनेंगे।
Wednesday, January 28, 2009
जिंदगी है यूं-यूं... रानी की कहानी (भाग-2)
ऐसा क्यों हुआ? (रानी की कहानी भाग-1)
अब हम सब दुखी हैं। कारण है रानी की तबीयत, जो दिन पर दिन बदतर होती जा रही है और डॉक्टरों ने जवाब तो नहीं दिया है, पर यह साफ है कि वो लाजवाब हैं। उसकी रीढ़ इतनी भुरभुरी हो चुकी है कि किसी भी समय, चलते-फिरते, हिलते-डुलते चूर-चूर होकर रीढ़ के भीतर की नर्व में चुभ जाएगी और तब उसके शरीर का कोई हिस्सा संवेदनहीन, लकवाग्रस्त हो जाएगा। अब वह बहुत ही धीरे-धीरे चलती-फिरती है। कमरे से बाथरूम तक जाना उसकी सबसे बड़ी वॉक है। अस्पताल तक लेजाने में डर लगा रहता है कि कोई झटका न लग जाए। पीठ को हमेशा सीधा रखना जरूरी है। खाने-पीने की जरूरत तो है पर भूख मर गई है।
सब उसकी देखभाल तो कर रहे हैं, लेकिन कोई उससे ज्यादा नहीं कर पा रहा है, डॉक्टर भी नहीं। इस स्टेज पर कैंसर ही विजेता होता है, हम उसके हाथ की कठपुतली। जब तक चलाएगा, चलेंगे, फिर...।
जब इस बीमारी यानी स्तन कैंसर के साथ रानी पहली बार रिपोर्ट आदि लेकर अस्पताल गई थी तो मैं भी उसके साथ थी, एक अनुभवी कैंसर रोगी (वैसे, दोबारा इलाज के बाद अभी तक ठीक हूं) के तौर पर। रिपोर्टों के आदार पर उसे चौथे स्टेज का कैंसर बताया गया जो स्तन के अलावा दूसरे हिस्सों, जैसे रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों में भी पैल गया था। उस समय मुझे महसूस हुआ था कि डॉक्टर रिपोर्ट देखने के बाद उसे ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं, जो एक सामान्य मरीज को मिलनी चाहिए। उसके बाद पहले कीमोथेरेपी का सुझाव दिया गया। कीमो के बाद कोई इलाज किए बिना उसे सिर्फ जांचें कराते रहने को कहा गया। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि उसका ऑपरेशन तक डॉक्टरों की योजना में नहीं था। बाद में मेरे उकसाने पर कोई छह महीने बाद रानी ने आगे इलाज के सवाल उठाए तो डॉक्टरों ने थोड़े आपसी विमर्श के बाद सर्जरी और रेडियोथेरेपी की तारीखें दीं।
उस समय डॉक्टरों के रवैये के बारे में जो महसूस किया था, वह सही था, यह हाल ही में एक लेख पढ़ कर समझ में आया। इंग्लैंड में बढ़ी अवस्था के कैंसर मरीजों के बीच हुए एक सर्वे में करीब आधे मरीजों ने बताया कि नामी विशेषज्ञों तक उनकी पहुंच नहीं थी या सहज नहीं थी। जबकि शुरुआती स्टेजों के मरीजों में से 98 फीसदी को यह सुविधा मिली। गंभीर मरीजों का कहना था कि उन्हें “अकेला छोड़ दिया गया”। उस हालत में इलाज कराने (या न कराने), इलाज के चुनाव, और जीवन के अंत को स्वीकारने जैसे फैसलों में विशेषज्ञ सलाहकारों का पूरा सहयोग नहीं मिला। जबकि सभी को जब जरूरत हो फौरन, और जब तक जरूरत हो, मॉरल सपोर्ट और देखभाल, सार-संभाल मिलनी चाहिए।
हमारे देश की बात करें तो ज्यादातर लोगों के पहुंच के भीतर सरकार अस्पताल ही हैं। इनमें अव्वल तो मेडीकल नर्सिंग ड्यूटी में मॉरल सपोर्ट की ड्यूटी शामिल ही नहीं होती। (कागजों पर हो तो पता नहीं।)। और अगर कोई नर्स या डॉक्टर मरीज को थोड़ा समय देना भी चाहे तो उसे ओपीडी के चार घंटों में करीब सौ मरीज देखने होते हैं। यानी लगातार काम करे तो हर घंटे 25 मरीज यानी हर मरीज के हिस्से कोई दो मिनट। इन दो मिनटों में वह मरीज की जांच करे, उसकी सुने, अपनी कहे, उसके साथ आए अटेंडेंट को समझे या पर्चा लिखे और उसको समझाए!
ऐसे में जाहिर है, जिंदगी बचाने जैसे सबसे गंभीर मसले पर ही ध्यान दिया जा सकता है। बाकी मसले प्राथमिकता सूची में नीचे आ जाते हैं, जिन तक मामला अक्सर पहुंच ही नहीं पाता।
लेकिन, अगर इन पर ध्यान देना नहीं हो पाता इसका मतलब यह कतई नहीं कि ये मसले हैं ही नहीं। कैंसर से हारते लोगों के लिए शारीरिक तौर पर सबसे जरूरी होता है- दर्द का निवारण और अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति। और मानसिक रूप से सबसे जरूरी होता है उन्हें अपने होने की सार्थकता का एहसास दिलाते रहना।
अमरीका के एक सर्वेक्षण में पता चला कि ज्यादातर मरीज आखिरी समय में अपने घर-परिवार के बीच रहना चाहते हैं। लेकिन उनकी यह इच्छा कई बार मजबूरी बन जाती है जब परिवार उन्हें बोझ और बेकार समझने लग जाता है। रिश्तेदार सोचते हैं कि अब इनकी सेवा करके कितने दिन जिलाए रखा जाए। ऐसे माहौल में मरीज अस्पताल में ही भर्ती रहना ज्यादा पसंद करते हैं, जहां उन्हें भरोसा होता है कि डॉक्टर और नर्सें कम से कम उन्हें जरूरत के समय फौरन मदद तो करेंगे। किसी भी वक्त मर जाने का विचार उनकी चिंता का और तनाव को खत्म नहीं होने देता।
बीसवीं सदी के मुकाबले अब कैंसर के मरीजों के जिंदा रहने और बेहतर, ज्यादा सामान्य जीवन जीने की संभावना कई गुना बढ़ गई है। चिकित्सा-जगत ने इतनी तरक्की कर ली है कि बढ़े हुए कैंसर के साथ भी कई लोग कई महीनों और वर्षों तक जीवित रहते हैं। ऐसे में उनके लिए पैलिएटिव केयर यानी उनका जीवन सुखमय बनाने और सेहत को जहां तक हो सके संभाले रखने का महत्व बढ़ गया है। ऐसे में पैरामेडिकल क्षेत्र के लोगों को इस विषय पर और ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।
अब हम सब दुखी हैं। कारण है रानी की तबीयत, जो दिन पर दिन बदतर होती जा रही है और डॉक्टरों ने जवाब तो नहीं दिया है, पर यह साफ है कि वो लाजवाब हैं। उसकी रीढ़ इतनी भुरभुरी हो चुकी है कि किसी भी समय, चलते-फिरते, हिलते-डुलते चूर-चूर होकर रीढ़ के भीतर की नर्व में चुभ जाएगी और तब उसके शरीर का कोई हिस्सा संवेदनहीन, लकवाग्रस्त हो जाएगा। अब वह बहुत ही धीरे-धीरे चलती-फिरती है। कमरे से बाथरूम तक जाना उसकी सबसे बड़ी वॉक है। अस्पताल तक लेजाने में डर लगा रहता है कि कोई झटका न लग जाए। पीठ को हमेशा सीधा रखना जरूरी है। खाने-पीने की जरूरत तो है पर भूख मर गई है।
सब उसकी देखभाल तो कर रहे हैं, लेकिन कोई उससे ज्यादा नहीं कर पा रहा है, डॉक्टर भी नहीं। इस स्टेज पर कैंसर ही विजेता होता है, हम उसके हाथ की कठपुतली। जब तक चलाएगा, चलेंगे, फिर...।
जब इस बीमारी यानी स्तन कैंसर के साथ रानी पहली बार रिपोर्ट आदि लेकर अस्पताल गई थी तो मैं भी उसके साथ थी, एक अनुभवी कैंसर रोगी (वैसे, दोबारा इलाज के बाद अभी तक ठीक हूं) के तौर पर। रिपोर्टों के आदार पर उसे चौथे स्टेज का कैंसर बताया गया जो स्तन के अलावा दूसरे हिस्सों, जैसे रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों में भी पैल गया था। उस समय मुझे महसूस हुआ था कि डॉक्टर रिपोर्ट देखने के बाद उसे ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं, जो एक सामान्य मरीज को मिलनी चाहिए। उसके बाद पहले कीमोथेरेपी का सुझाव दिया गया। कीमो के बाद कोई इलाज किए बिना उसे सिर्फ जांचें कराते रहने को कहा गया। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि उसका ऑपरेशन तक डॉक्टरों की योजना में नहीं था। बाद में मेरे उकसाने पर कोई छह महीने बाद रानी ने आगे इलाज के सवाल उठाए तो डॉक्टरों ने थोड़े आपसी विमर्श के बाद सर्जरी और रेडियोथेरेपी की तारीखें दीं।
उस समय डॉक्टरों के रवैये के बारे में जो महसूस किया था, वह सही था, यह हाल ही में एक लेख पढ़ कर समझ में आया। इंग्लैंड में बढ़ी अवस्था के कैंसर मरीजों के बीच हुए एक सर्वे में करीब आधे मरीजों ने बताया कि नामी विशेषज्ञों तक उनकी पहुंच नहीं थी या सहज नहीं थी। जबकि शुरुआती स्टेजों के मरीजों में से 98 फीसदी को यह सुविधा मिली। गंभीर मरीजों का कहना था कि उन्हें “अकेला छोड़ दिया गया”। उस हालत में इलाज कराने (या न कराने), इलाज के चुनाव, और जीवन के अंत को स्वीकारने जैसे फैसलों में विशेषज्ञ सलाहकारों का पूरा सहयोग नहीं मिला। जबकि सभी को जब जरूरत हो फौरन, और जब तक जरूरत हो, मॉरल सपोर्ट और देखभाल, सार-संभाल मिलनी चाहिए।
हमारे देश की बात करें तो ज्यादातर लोगों के पहुंच के भीतर सरकार अस्पताल ही हैं। इनमें अव्वल तो मेडीकल नर्सिंग ड्यूटी में मॉरल सपोर्ट की ड्यूटी शामिल ही नहीं होती। (कागजों पर हो तो पता नहीं।)। और अगर कोई नर्स या डॉक्टर मरीज को थोड़ा समय देना भी चाहे तो उसे ओपीडी के चार घंटों में करीब सौ मरीज देखने होते हैं। यानी लगातार काम करे तो हर घंटे 25 मरीज यानी हर मरीज के हिस्से कोई दो मिनट। इन दो मिनटों में वह मरीज की जांच करे, उसकी सुने, अपनी कहे, उसके साथ आए अटेंडेंट को समझे या पर्चा लिखे और उसको समझाए!
ऐसे में जाहिर है, जिंदगी बचाने जैसे सबसे गंभीर मसले पर ही ध्यान दिया जा सकता है। बाकी मसले प्राथमिकता सूची में नीचे आ जाते हैं, जिन तक मामला अक्सर पहुंच ही नहीं पाता।
लेकिन, अगर इन पर ध्यान देना नहीं हो पाता इसका मतलब यह कतई नहीं कि ये मसले हैं ही नहीं। कैंसर से हारते लोगों के लिए शारीरिक तौर पर सबसे जरूरी होता है- दर्द का निवारण और अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति। और मानसिक रूप से सबसे जरूरी होता है उन्हें अपने होने की सार्थकता का एहसास दिलाते रहना।
अमरीका के एक सर्वेक्षण में पता चला कि ज्यादातर मरीज आखिरी समय में अपने घर-परिवार के बीच रहना चाहते हैं। लेकिन उनकी यह इच्छा कई बार मजबूरी बन जाती है जब परिवार उन्हें बोझ और बेकार समझने लग जाता है। रिश्तेदार सोचते हैं कि अब इनकी सेवा करके कितने दिन जिलाए रखा जाए। ऐसे माहौल में मरीज अस्पताल में ही भर्ती रहना ज्यादा पसंद करते हैं, जहां उन्हें भरोसा होता है कि डॉक्टर और नर्सें कम से कम उन्हें जरूरत के समय फौरन मदद तो करेंगे। किसी भी वक्त मर जाने का विचार उनकी चिंता का और तनाव को खत्म नहीं होने देता।
बीसवीं सदी के मुकाबले अब कैंसर के मरीजों के जिंदा रहने और बेहतर, ज्यादा सामान्य जीवन जीने की संभावना कई गुना बढ़ गई है। चिकित्सा-जगत ने इतनी तरक्की कर ली है कि बढ़े हुए कैंसर के साथ भी कई लोग कई महीनों और वर्षों तक जीवित रहते हैं। ऐसे में उनके लिए पैलिएटिव केयर यानी उनका जीवन सुखमय बनाने और सेहत को जहां तक हो सके संभाले रखने का महत्व बढ़ गया है। ऐसे में पैरामेडिकल क्षेत्र के लोगों को इस विषय पर और ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।
Saturday, January 24, 2009
ऐसा क्यों हुआ?
मेरी एक मित्र, नहीं, बल्कि दफ्तर में सहकर्मी- नाम से क्या फर्क पड़ता है, सुविधा के लिए रानी कह लेते हैं- के करीबी सहयोगी ने कोई ढाई साल पहले मुझे एक दिन बताया कि रानी को मेरी सलाह की जरूरत है, मुझे उससे बात करनी चाहिए। मैं उससे मिली तो पता चला कि उसे भी स्तन कैंसर की आशंका में अस्पताल में कई टेस्ट करवाए गए हैं और रिपोर्ट ले-जाकर डॉक्टर को दिखाने में वह घबरा रही है। साथ ही वह उन रिपोर्ट्स की तफसील जानना चाहती थी।
मैंने रिपोर्ट्स पढ़ कर सुनाई, और जितना समझ में आया, उनका अर्थ भी बताया। संक्षेप में- उसे स्तन का कैंसर है जो कई अंगों में छुट-पुट फैल चुका है। मुझसे काफी देर तक वह बात करती रही। उसने अपनी इस और इससे पहले भी किसी आमो-खास तकलीफ की चर्चा किसी से नहीं की थी। वह है ह हिम्मती। यह उसका आत्मविश्वास था, जिसकी सभी तारीफ करते हैं। उस समय भी वह आत्मविश्वास से भरी थी और अपनी सेहत को लेकर उसे विश्वास था कि कुछ समय की बात है, वह फिर से स्वस्थ हो जाएगी।
आत्मविशवास अच्छा है, लेकिन अज्ञानी का आत्मविश्वास खतरा सामने देखकर आंखें बंद कर लेने जितना ही खतरनाक है, दुस्साहसिक है। मैं उसके साथ अस्पताल गई। डॉक्टर ने चौथी अवस्था का कैंसर बताया। इलाज के लिए कीमोथेरेपी का सुझाव दिया और कहा कि उसके नतीजे देखने के बाद आगे के इलाज की योजना बनाई जाएगी।
उसे सामान्य, छह साइकिल कीमोथेरेपी दी गई। उसके बाद डॉक्टरों का कहना था कि कैंसर अब भी काफी फैला हुआ है, इसलिए सर्जरी की सफलता पर संदेह है। फिर भी उसकी सर्जरी और रेडियोथेरेपी भी हुई, जो थोड़े विकसित स्तन कैंसर के पूरे इलाज का सामान्य हिस्सा है। फिर उसे पहले एक महीने और फिर हर तीन महीने में फॉलो-अप के लिए आने को कहा गया।
मेरा उस दफ्तर से तबादला हो गया। बीच-बीच में जब भी फोन पर रानी से या अपने किसी और पुराने सहयोगी से बातचीत होती तो यही समाचार मिलता कि वह ठीक है। मैं हमेशा संतोष महसूस करती कि इतने बुरे हालात के बाद भी इलाज से उसकी तबीयत काफी संभल गई है। मैं यह मान कर चल रही थी कि वह नियम से फॉलो-अप में जा रही है। न मानने का कारण ही नहीं था। इतना पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपनी सेहत के प्रति इतनी गंभीर लापरवाही बरतेगा!
मगर मामला कुछ और था। इलाज ‘खत्म होने’ का अर्थ उसे यही समझ में आया कि वह ठीक हो गई है। इसलिए जब कोई आठ महीने बाद उसकी कमर और रीढ़ के निचले हिस्से में बर्दाश्त से बाहर दर्द होने लगा तब वह अस्पताल पहुंची। वहां, स्वाभाविक था, डॉक्टरों ने उसे डांट पिलाई और ढेर सारी जांचें फिर करवाने को कहीं। और तब पता चला कि कैंसर उसे भीतर तक खा चुका है, रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों को सबसे ज्यादा।
इस समय उसकी हालत जानकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है। उसका आत्मविश्वास भी कैंसर को काबू करने में नाकाम रहा। अब हम सब दौड़-भाग कर रहे हैं। सरकारी अस्पताल की अनंत भीड़ में उसकी जांचें, इलाज- यानी पहले रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों के लिए पैलिएटिव रेडियोथेरेपी और फिर हल्की कीमोथेरेपी और दूसरी दवाइयां आदि जल्द-से-जल्द करवाने के लिए संबंधित लोगों और विभागों में याचना से लेकर उसके बैंक खाते, तनख्वाह, ग्रैच्युटी आदि में किसी को नामांकित करवाने तक। मैं शायद जिक्र करना भूल गई, उसने शादी नहीं की है और अपने खातों में किसी को नामांकित तक नहीं किया है, जो उसके जाने के बाद (भगवान न करे) उसके पैसे पा सके।
मुझे गुस्सा आ रहा है उसके आत्मविश्वास पर। बल्कि मुझे तो लग रहा है कि वह उसकी मूर्खता थी। क्या कोई इंसान अपनी सेहत की तरफ से इतना लापरवाह हो सकता है? शुरू में जब उसे अपने स्तन में गांठ का पता चला तो वह उसे लेकर निश्चिंत बैठी रही, जब तक वह न भरने वाला घाव बदबूदार और दर्दनाक न हो गया। इतना कि उसके काफी करीब जाने पर दूसरों को भी गंध महसूस होने लगी।
माना, उसमें सहनशीलता है, पर ऐसी सहनशीलता! दूर से ही सलाम।
उसके बाद? सारा महंगा और लंबा और तकलीफदेह इलाज करवाने के बाद वह फिर वही अज्ञानी-आत्मविश्वासी रानी बन गई।
नतीजा? आठ महीने की निश्चिंत जिंदगी बिताकर फिर उस दलदल में कूद पड़ी है रानी, जिसे वह अपने और अपने चाहनेवालों के लिए समतल सड़क न सही, पर चलने लायक तो बनाए रख सकती थी।
सच है, जिस स्टेज में वह पहली बार अस्पताल गई थी, उसके बाद यह स्थिति तो आनी ही थी, पर इतनी जल्दी और इतनी दर्दनाक! किसी ने नहीं सोचा था।
मैंने रिपोर्ट्स पढ़ कर सुनाई, और जितना समझ में आया, उनका अर्थ भी बताया। संक्षेप में- उसे स्तन का कैंसर है जो कई अंगों में छुट-पुट फैल चुका है। मुझसे काफी देर तक वह बात करती रही। उसने अपनी इस और इससे पहले भी किसी आमो-खास तकलीफ की चर्चा किसी से नहीं की थी। वह है ह हिम्मती। यह उसका आत्मविश्वास था, जिसकी सभी तारीफ करते हैं। उस समय भी वह आत्मविश्वास से भरी थी और अपनी सेहत को लेकर उसे विश्वास था कि कुछ समय की बात है, वह फिर से स्वस्थ हो जाएगी।
आत्मविशवास अच्छा है, लेकिन अज्ञानी का आत्मविश्वास खतरा सामने देखकर आंखें बंद कर लेने जितना ही खतरनाक है, दुस्साहसिक है। मैं उसके साथ अस्पताल गई। डॉक्टर ने चौथी अवस्था का कैंसर बताया। इलाज के लिए कीमोथेरेपी का सुझाव दिया और कहा कि उसके नतीजे देखने के बाद आगे के इलाज की योजना बनाई जाएगी।
उसे सामान्य, छह साइकिल कीमोथेरेपी दी गई। उसके बाद डॉक्टरों का कहना था कि कैंसर अब भी काफी फैला हुआ है, इसलिए सर्जरी की सफलता पर संदेह है। फिर भी उसकी सर्जरी और रेडियोथेरेपी भी हुई, जो थोड़े विकसित स्तन कैंसर के पूरे इलाज का सामान्य हिस्सा है। फिर उसे पहले एक महीने और फिर हर तीन महीने में फॉलो-अप के लिए आने को कहा गया।
मेरा उस दफ्तर से तबादला हो गया। बीच-बीच में जब भी फोन पर रानी से या अपने किसी और पुराने सहयोगी से बातचीत होती तो यही समाचार मिलता कि वह ठीक है। मैं हमेशा संतोष महसूस करती कि इतने बुरे हालात के बाद भी इलाज से उसकी तबीयत काफी संभल गई है। मैं यह मान कर चल रही थी कि वह नियम से फॉलो-अप में जा रही है। न मानने का कारण ही नहीं था। इतना पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपनी सेहत के प्रति इतनी गंभीर लापरवाही बरतेगा!
मगर मामला कुछ और था। इलाज ‘खत्म होने’ का अर्थ उसे यही समझ में आया कि वह ठीक हो गई है। इसलिए जब कोई आठ महीने बाद उसकी कमर और रीढ़ के निचले हिस्से में बर्दाश्त से बाहर दर्द होने लगा तब वह अस्पताल पहुंची। वहां, स्वाभाविक था, डॉक्टरों ने उसे डांट पिलाई और ढेर सारी जांचें फिर करवाने को कहीं। और तब पता चला कि कैंसर उसे भीतर तक खा चुका है, रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों को सबसे ज्यादा।
इस समय उसकी हालत जानकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है। उसका आत्मविश्वास भी कैंसर को काबू करने में नाकाम रहा। अब हम सब दौड़-भाग कर रहे हैं। सरकारी अस्पताल की अनंत भीड़ में उसकी जांचें, इलाज- यानी पहले रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों के लिए पैलिएटिव रेडियोथेरेपी और फिर हल्की कीमोथेरेपी और दूसरी दवाइयां आदि जल्द-से-जल्द करवाने के लिए संबंधित लोगों और विभागों में याचना से लेकर उसके बैंक खाते, तनख्वाह, ग्रैच्युटी आदि में किसी को नामांकित करवाने तक। मैं शायद जिक्र करना भूल गई, उसने शादी नहीं की है और अपने खातों में किसी को नामांकित तक नहीं किया है, जो उसके जाने के बाद (भगवान न करे) उसके पैसे पा सके।
मुझे गुस्सा आ रहा है उसके आत्मविश्वास पर। बल्कि मुझे तो लग रहा है कि वह उसकी मूर्खता थी। क्या कोई इंसान अपनी सेहत की तरफ से इतना लापरवाह हो सकता है? शुरू में जब उसे अपने स्तन में गांठ का पता चला तो वह उसे लेकर निश्चिंत बैठी रही, जब तक वह न भरने वाला घाव बदबूदार और दर्दनाक न हो गया। इतना कि उसके काफी करीब जाने पर दूसरों को भी गंध महसूस होने लगी।
माना, उसमें सहनशीलता है, पर ऐसी सहनशीलता! दूर से ही सलाम।
उसके बाद? सारा महंगा और लंबा और तकलीफदेह इलाज करवाने के बाद वह फिर वही अज्ञानी-आत्मविश्वासी रानी बन गई।
नतीजा? आठ महीने की निश्चिंत जिंदगी बिताकर फिर उस दलदल में कूद पड़ी है रानी, जिसे वह अपने और अपने चाहनेवालों के लिए समतल सड़क न सही, पर चलने लायक तो बनाए रख सकती थी।
सच है, जिस स्टेज में वह पहली बार अस्पताल गई थी, उसके बाद यह स्थिति तो आनी ही थी, पर इतनी जल्दी और इतनी दर्दनाक! किसी ने नहीं सोचा था।
Subscribe to:
Posts (Atom)
Custom Search