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Sunday, February 9, 2014

सर्दियों की एक और सुबह


सांस की नली में कुछ अटकने के अहसास के साथ गहरी, दर्द निवारक से ठहराई नींद उचट जाती है। गला दो-तीन बार खांस कर सांस के लिए रास्ता साफ कर सुकून पा लेता है। ऐसा हमेशा सांस की नली के दाहिने हिस्से में होता लगता है, पर डॉक्टर भाई इस अवलोकन पर हंस देता है कि फेफड़ों के ऊपर दाहिना-बायां कुछ नहीं होता।

कड़ी ठंड के अंधेरे कमरे में समय का पता नहीं चलता। गर्दन के नीचे एक खास तरीके से दबी सहारा देती सी दाहिने हाथ की अंगुलियों को वहां से निकालकर धीरे से हिलाती-डुलाती हूं। दूसरे हाथ की अंगुलियां दोनों घुटनों के ठीक ऊपर पैरों के बीच दबी हैं, गर्माहट पाने के लिए। उन्हें भी तत्काल महसूस करने का ख्याल आता है। सुन्न होने के बावजूद वे चल तो रही हैं, हिलती तो हैं। पैरों के पंजे भी रोज कई बार होने वाली इस कवायद से खुश तो होते होंगे। दाहिनी करवट सोई मैं हाथ के नीचे रखे नर्म छोटे तकिए पर हाथ का जोर देकर उठती हूं ताकि रीढ़ पर जोर न पड़े।

प्यास न होने पर भी उठती हूं, दो गिलास उबला पानी पी जाती हूं क्योंकि रात-दिन कुछ नियमतः पीते रहना शरीर की जरूरत बन गया है। तभी पास की सड़क पर एक बस के ब्रेक लगने और रुकने की तेज तीखी बेसुरी किर्र-चूं की दोहरी चीखें गूंजती हैं और मैं समझ जाती हूं कि सुबह का कोई समय हो गया है। 

पानी पीकर, बाकी नींद को पकड़ने की इच्छा से बिस्तर पर लौटते-लौटते दूर कहीं से लाउड स्पीकर से कानों में आती अजान की फूंक साफ बता देती है कि सुबह की पहली नमाज का वक्त है। इसके साथ ही पास के मंदिर का लाउडस्पीकर प्रतियोगी जुगलबंदी में उतर आता है- आरती से। कुछ ही मिनिटों में एक और लाउडस्पीकर पर अजान। आरती-मंत्रोच्चार खत्म होने के पहले एक जगह अजान खत्म हो चुकी होती है। कुछेक मिनट बाद दूसरी अजान भी शांत। सब तरफ सन्नाटा।


खिड़की पर नजर डालती हूं, सुबह की रोशनी को तौलने के लिए। बंद खिड़की के कांच के ऊपरी हिस्से का धूसर उजलापन अहसास कराता है कि पौ फटने को है, जबकि कांच के निचले हिस्से से आती पीली रोशनी साफ-साफ स्ट्रीट लाइट की तेजी को दिखाती है। यानी अंधेरा कायम है। कांच से आने वाली रोशनी की तीव्रता में अंतर शायद ऊपरी हिस्से में जमे कोहरे के कारण है। पक्के तौर पर पता करने के लिए एक बार बाल्कनी की तरफ खुलने वाले दरवाजे के निचले सिरे पर नजर डालती हूं। दरवाजे का बार्डर अब भी काला है। उसमें उजास का कोई चिह्न नहीं बना है अभी।




बंद खिड़की के कांच पर एक कबूतर की चोंच की ठक-ठक- जैसे कोई करीने से दरवाजा खटखटा रहा हो। और फिर पंखों की तेज फड़फड़ाहट, जिसमें एक और कबूतर शामिल हो जाता है।

सुबह की उम्मीद वाले और उठने का समय फिलहाल न होने का ऐलान करते इन्हीं इशारों के आश्वासन के भरोसे धीरे-धीरे आंख लग जाती है। और इस तरह सर्दियों की एक और सुबह की शुरुआत होती है।

Friday, October 5, 2012

ज़िंदगी के एहसास का मौक़ा

हिंदी की महत्वपूर्ण पाक्षिक पत्रिका द पब्लिक एजेंडा के ताजा अंक में मेरा संस्मरण कैंसर के बावजूद कुछ कर जाने वाले लोगों पर विशेष आयोजन के तहत प्रकाशित हुआ है। वही आलेख शब्दशः--

ज़िंदगी के एहसास का मौक़ा

इसे मैं मौका कहूंगी- जीने का, जिंदा होने के एहसास का तीसरा मौका। किसी कैंसर के मरीज को तीन मौके कम ही मिलते हैं- खास तौर पर उसे, जिसका ट्यूमर चौथे स्टेज का और बीमारी एडवांस करार दी गयी हो। डॉक्टर ने मुझे भाग्यशाली कहा, जब मैंने कैंसर के बाद पांच साल की खतरे की रेखा पार की थी। मगर सात साल होते-न-होते मैं फिर उसी जगह खड़ी थी, जहां कैंसर के रास्ते पर मेरी यात्रा शुरू हुई थी। 


इलाज के उन्हीं दुर्गम रास्तों से दोबारा गुजरने के सात साल बाद फिर तीसरी बार अब। सिर्फ जिंदा रहना भी अपने आप में एक नेमत है। वैसा सहज नहीं, जैसा हम आम तौर पर सोचते हैं। जीना तभी समझ में आता है जब जीवन पर खतरा महसूस होता है। जीने का एहसास होने पर इंसान तीन तरह से जीता है- बिसूरते हुए कि हाय, मुझे जिंदगी कितनी छोटी मिली, मेरे साथ अन्याय हुआ। जैसे कोई अपने घाव को लगातार खरोंचता रहे और दर्द से छटपटाता भी रहे। दूसरी स्थिति है कि वह सोचे, कम ही दिन रह गये हैं, चलो जल्दी-जल्दी जिया जाये, बहुत कुछ कर लिया जाये। और तीसरी स्थिति - जब वह बाकी बचे अनिश्चित समय को इत्मीनान से जीना चाहता हो, आने वाले समय का बिना खयाल किये। वह कई मामलों में तदर्थ हो जाता है कि बाद किसने देखा है, अभी समय बेहतर कटे, बस। मैं इस समय बाद वाली दोनों स्थितियों में एक साथ जी रही हूं।


हम अपने शरीर की बनावट-सजावट भले ही रोजाना करते हों, लेकिन हम इसकी जरूरतों और गड़बड़ियों का ध्यान कम ही रखते हैं। जब तक समय साथ देता है, हम कद्र नहीं करते। जब बिगड़ जाता है, तब फौरी राहत देकर छूटने की कोशिश में रहते हैं। अपने शरीर की साज-संभाल करने और जानकारी होने की जरूरत पहली बार महसूस हुई 14 साल पहले, जब स्तन कैंसर होने का पता चला। संतान जन्म के समय या ऐसी ही किसी जांच-मुलाकात में अगर किसी डॉक्टर ने कभी मुझे स्तन स्वयं-परीक्षा का मुफ्त, सरल-सा तरीका बता दिया होता तो स्थिति शायद खराब न होती। 


कैंसर इंसान को ढंग से जीना सिखा देता है। इसका इलाज बहुत जानकारी की मांग करता है, सहज ज्ञान और समझदारी के अलावा भी। इलाज लंबा, कई स्तरों पर होने वाला, जटिल और मारक होता है। इस दौरान मरीज बेहतर महसूस करने की बजाय इलाज के बुरे प्रभावों के कारण ज्यादा बीमार हो जाता है। कीमोथेरापी में इस्तेमाल होने वाली दवाएं मूलतः जहरीले रसायन हैं जो कभी हिटलर के नात्सी गैस-चेंबरों में यहूदियों को मारने के लिए इस्तेमाल किये जाते थे। इलाज में इनका मकसद बीमार, कमजोर कैंसर कोशिकाओं को मारना है, लेकिन इस दौरान ढेर सारी स्वस्थ कोशिकाएं भी मारी जाती हैं। रेडियोथेरेपी में रेडियो-सक्रिय किरणें स्वस्थ कोशिकाओं को भी उसी शिद्दत से जला डालती हैं। ऐसे समय में शरीर का स्वस्थ हिस्सा कमजोर न पड़ जाये, इस कोशिश में लगना पड़ता है। यह जिम्मेदारी मरीज की होती है। यह स्थिति सभी के लिए बराबर कठिन होती हो, ऐसा नहीं है, फिर भी शरीर के भीतर इलाज की चाल जानना लाजिमी होता है।


कुल मिला कर युद्ध सी स्थिति होती है। स्तन कैंसर पर चौतरफा हमले में सर्जरी, कीमो, रेडिएशन के 8-10 महीने लंबे इलाज के बाद कैंसर को रोके रखने के लिए पांच साल तक हार्मोन का इलाज दिया जाता है ताकि ओवरी, पैंक्रियाज और शरीर में कहीं और बन रहे स्त्री हार्मोनों को दबा कर रखा जा सके। कई मामलों में यही हार्मोन कैंसर को उकसाते हैं। इलाज के इन हमलों में स्वस्थ कोशिकाएं बची रहें और फलती-फूलती रहें, इसके लिए जानकारी से ही रणनीति बनाने की शुरुआत होती है। तत्काल और विस्तृत जानकारी पाने के कई साधन मेरी पहुंच में रहे, यह महत्वपूर्ण था। चौदह साल पहले जब इंटरनेट महानगरों के समृद्ध संस्थानों तक ही था, पत्र सूचना कार्यालय के मुख्यालय में नियुक्ति होने के कारण मेरी उस तक पहुंच और उसे इस्तेमाल करने की दक्षता सहज ही थी। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाएं भी मिल जाती थीं जिनमें तब कैंसर के चिकित्सकीय और गैर-चिकित्सकीय पक्षों पर विमर्श छपता था। इन सबसे मेरी जानकारी लगातार बढ़ती गयी। इलाज सरकारी अस्पताल एम्स में हो रहा था, जहां देश भर के मरीज आते हैं। ऐसे में कैंसर, खास तौर पर महिलाओं से जुड़े स्तन कैंसर की विविध स्थितियों को सुनने-जानने का मौका मिला। उनके साथ मैं अपने अनुभवों, ज्ञान और बेहतर जीवन जीने के नुस्खे साझा करती थी।


वहां एक बड़ी बात मुझे समझ में आयी कि लोगों में कैंसर, उसके इलाज, साइड इफेक्ट्स की जानकारी बहुत कम है और थोड़ी-बहुत जानकारी भी उनके जीवन में अंतर लाने में सक्षम थी। यहीं से यह विचार आया कि स्तन कैंसर पर क्यों न जानकारीपरक एक पुस्तक लिखी जाये। इसके दो मकसद थे, एक मेहनत से इकट्ठा की गयी जानकारियां और दूसरी महिलाओं के अलग-अलग अनुभव लोगों को सहज ही, उनकी अपनी भाषा में मिल जायें। दूसरे, इस विषय पर बार-बार वही बातें कहने की बजाय उन्हें लिख कर ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाये। मैं डॉक्टर तो थी नहीं, लेकिन इस बारे में कुछ सघन निजी अनुभव थे, जो आम तौर पर मरीजों को ज्यादा प्रभावित करते हैं। 


कुल मिला कर पुस्तक लिखने का उद्देश्य इस कठिन दौर से गुजर रहे लोगों का जीवन आसान बनाने के अपने अनुभव बताना था। यह पुस्तक "इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी' मार्च 2005 में छप कर आयी, जब मैं कैंसर से दूसरी लड़ाई की तैयारी कर रही थी। जाहिर है, इस स्थिति के बारे में पुस्तक छपने के पहले सोचा भी नहीं था! 


(लेखिका ने कैंसर से जूझने की कहानी पुस्तक "इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी' में लिखी है। वे प्रकाशन विभाग में संपादक हैं।)


Saturday, March 3, 2012

कुछ दिनों से सोच में हूं

कुछ दिनों से सोच में हूं। एक नव-परिचिता, 'कैंसर-बड्डी' का कैंसर दोबारा उभर आया है। पहली बार उन्हें कैसर का पता लगा था पिछले साल लगभग इसी समय। उसके बाद उन्होंने जम कर इलाज करवाया और अक्तूबर में फारिग होकर फिर से काम-काज में मन लगाया। इसी बीमारी-इलाज के बीच उनकी बेटी की धूम-धाम से शादी भी हो गई। हालांकि इलाज सफदरजंग अस्पताल, नई दिल्ली में कराया, जो कि केंद्रीय सरकार के बड़े अस्पतालों में गिना जाता है।

उनसे मुलाकात के ठीक पांचवें दिन उनका फोन आया कि कैंसर उनके शरीर के कई हिस्सों में फैल गया है- लिवर सहित। यह मुलाकात भी संयोग ही रही। मेरा एक आत्मकथात्मक आलेख नवभारत टाइम्स में छपा। वहां के नंबर पर फोन करके उन्होंने संबंधित विभाग में संबंधित व्यक्ति से बात की, जिन्होंने मुझसे पूछ कर मेरा फोन नंबर उन्हें दिया और इस तरह हमारी पहली बात-चीत फोन पर हुई।

उसके दो ही दिन बाद वे मेरे दफ्तर पर मिलने आईं। वैसे दफ्तर में समय कम ही मिलता है, फिर भी उस दिन करते-न-करते वो करीब 40 मिनट साथ रहीं। उनसे कई तरह की बातें हुईं। कैंसर की, कैंसर के साथ और उसके बाद जीवन की, खाने पीने, सोने जागने की। फिर विदा, संपर्क में रहने, फिर मिलने के वादे के साथ। और इस के पांच ही दिन बाद उन्होंने कैंसर के शरीर के कई अंगों में फैल जाने की खबर अचानक दी। यह उनके लिए भी सदमे की तरह था, क्योंकि उन्हें कोई दर्द या तकलीफ नहीं हो रही थी, महज रूटीन चेक-अप में ही की गई कुछेक जाचों से इसका पता चला।

एक समय मैं मानती थी कि कैंसर लौट आने का मतलब है- मौत के करीब खड़े हो जाना। पर अपनी जानकारी और दूसरों के अनुभवों से जाना कि यह हमेशा सही नहीं होता। मेरे साथ खुद यह हुआ था- कोई 7साल पहले। दोबारा, दूसरे स्तन में फिर से तीसरी स्टेज का कैंसर,जो बड़ी तेजी से फैला था, या ऐसा मुझे लगा था, क्योंकि अचानक ही उस बड़ी गांठ पर ध्यान गया था। लेकिन उस इलाज के बीच और बाद में कई महिलाओं से मुलाकातें हुईं जिन्होंने पिछले कई बरसों से कैंसर के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था, उनका इलाज लगातार जारी था- कभी यहां, तो कभी वहां।

लेकिन इस नव-परिचिता का कैंसर लिवर, पसलियों आदि पेट के कई महत्वपूर्ण अंगों तक फैल चुका है, जहां यह जानलेवा भी हो सकता है। इस स्थिति को वे अच्छी तरह समझती हैं। इनके साथ बातचीत में दो बातें मुझे असहज करती हैं- पहली कि उन्हें इस नए, प्राइवेट, विशेषज्ञता वाले अस्पताल के डॉक्टरों ने समझा दिया है इसलिए वे लगातार यह मानती हैं, कि पिछली बार सरकारी अस्पताल के इलाज में डॉक्टरों द्वारा भयानक लापरवाही और कोताही बरती गई, इसीलिए उनका कैंसर खत्म होने के बजाए फिर उभरा है। वे डॉक्टरों और सरकारी अस्पताल पर मामला ठोक देने की धमकी देते हुए बार-बार कहती हैं कि उनको जो कीमो दी गई उससे कैंसर खत्म नहीं हुआ बल्कि उसके ‘जर्म्स’ गांठ में से निकलकर पूरे शरीर में ‘भाग कर फैल गए और यहां-वहां छुप गए’। केस बिगाड़ दिया गया है। कोई एक टेस्ट जो एक बार नेगेटिव और फिर एक बार माइल्डली पॉजिटिव आया था, उसे ‘फिर’ नहीं कराया गया। इलाज खत्म होते ही सीटी स्कैन आदि नहीं करवाया गया। इत्यादि। ये सारी बातें उन्हें निजी अस्पताल के डॉक्टरों ने ऐसी अच्छी तरह समझा दी है कि वे दोबारा कभी इलाज के सरकारी तंत्र में जाना चाहेंगी ही नहीं, हालांकि वे खुद सरकारी नौकरी में हैं।

कितना आसान है किसी अनुभवी,पढ़े-लिखे मरीज तक को भी डराकर, प्यार से, अपने दिखावटी नरम व्यवहार से फुसला ले जाना कि वह इलाजके निजी तंत्र में ही उलझा रहे, सरकारी तंत्र के आजमाए हुए रूखे और मशीनी-से लगने वाले प्रोटोकॉल में विश्वास न करे। दर असल तथ्य यह है कि कैंसर के जर्म्स नहीं होते, यह शरीर के, कोशिकाओं के भीतर ही बनता है और इन कोशिकाओं की प्रवृत्ति छिटककर खून के साथ दूर जाकर नई बस्तियां बसाने की होती है। अगर किसी कीमो से एक जगह का ट्यूमर खत्म होता है तो वह खून के सहारे पूरे शरीर में हर कोने में जाकर उसकी हर बिखरी कोशिका को खत्म करने की प्रवृत्ति रखता है। यह नहीं होता कि कोशिकाएं एक जगह से भागकर कहीं और जाकर छिप जाती हैं। कीमोथेरेपी सिस्टमिक यानी पूरे शरीर में एक साथ, रक्त के बहाव के जरिए किया जाने वाला इलाज है।

फिर उनका वह हॉर्मोन जांच का पॉजिटिव या नेगेटिव नतीजा इलाज की दिशा को कतई प्रभावित नहीं करता है, सिर्फ इलाज की सफलता का अंदाजा लगाने में मदद देता। हर स्तन कैंसर के मरीज को पांच साल तक खाने के लिए ईस्ट्रोजन हॉर्मोन-निरोधक गोलियां खाने को दी जाती हैं ताकि अगर उस कैंसर के होने में हॉर्मोन का जरा भी हाथ हो तो वह हॉर्मोन के असर को खत्म करके इसके दोबारा होने को रोक पाए। और यह साबित बात है कि वह हॉर्मोन जांच कई साधारण कारणों से गलत भी आती है, इसलिए इसे दो-तीन बार भी कराया जाता है। तो, इस अर्थ में उनका इलाज पूरा किया गया, पांच साल के लिए हॉर्मोन की गोली के प्रिस्क्रिप्शन सहित।

दूसरा मसला जो इनके दोबारा कैंसर होने और उसके फैलाव के बारे में जानने के बाद मेरे सामने आता है, कि मैं उनसे बातें करना चाहती हूं, उनकी व्यग्रता, उद्विग्नता, आशा-निराशा को साझा करना चाहती हूं ताकि उन्हें अच्छा लगे और मुझे भी उनके हालात को समझने का मौका मिले। हालांकि वे खुद बार-बार कहती हैंकि वे फाइटकरेंगी और इसमें जीतें या हारें, मन को नहीं हारने देंगी। लेकिन ठीक होने का उन्हें कतई भरोसा नहीं है, और अपने जल्द ही इस दुनिया से कूचकर जाने की भी पूरी-पूरी आशंका देख रही हैं। ऐसे कठिन समय में उनकी आशंका में आप यह दिलासा नहीं दे सकते कि चिंता न करें, जल्द ही ठीक हो जाएंगे। खास तौर पर ऐसे वक्त में, जब उन्हें भी पता है कि शायद यह बीमारी अब ठीक न होने की जद पर आ पहुंची है। सोच ही रही हूं।

Wednesday, October 19, 2011

स्टीव जॉब्स- दुनिया को कैंसर से ऐसा नुकसान शायद न होता अगर...

ऐप्पल डॉट कॉम के मुखपृष्ठ पर सिर्फ उस कंपनी के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स का चित्र है। उनका इस महीने के सुरू में निधन हो गया। मुखपृष्ठ का चित्र ऐसा है-

इस व्यक्ति को हर अखबार पढ़ने वाला, टीवी देखने वाला व्यक्ति पहचनता है, भले ही उसके पास आईफोन, आईपॉड, आईमैक, आईपैड,... या कोई और 'आई' हो या नहीं। इतनी जल्दी, अपने सबसे ज्यादा प्रोडक्टिव समय में इस व्यक्ति का जाना न्यू मीडिया की दुनिया को कई औजारों से वंचित कर देगा/रहा है, यह तय है। हालांकि और बहुत से लोग एपल से सस्ते, उसी तरह के उत्पाद बना रहे हैं, लेकिन आई में जो बात है (कीमत सहित, जो कि और भी उत्सुकता, ललक पैदा करती है, मेरे जैसे लोगों के मन में, जो उन्हें नहीं खरीद पाते।) वह किसी और में कहां। खैर।

फिलहाल तकनीक की नहीं, स्टीव का जीवन लेने वाली बीमारी कैंसर की बात हो रही है।

ठीक 8 साल पहले, अक्टूबर 2003 में स्टाव जॉब्स को एक खास तरह के पैंक्रियास का कैंसर होने का पता चला, जो कि सर्जरी से ठीक हो सकता था। लेकिन स्टीव ने अपने शाकाहार और प्राकृतिक चिकित्सा पर ज्यादा भरोसा किया और खान-पान के जरिए ही अपने कैंसर का इलाज करने की कोशिश करने लगे।

इस प्राकृतिक खान-पान चिकित्सा में उन्होंने नौ सबसे महत्वपूर्ण, कीमती शुरुआती महीने बर्बाद कर दिए जबकि व्यवस्थित इलाज का बेहतरीन परिणाम उन्हें मिल सकता था। जब आखिर उन्होंने अपना इलाज एलोपैथी पद्यति से कराने का फैसला किया, तब तक उनका कैंसर शरीर में फैल चुका था। जुलाई 2004 में उन्होंने सर्जरी भी करा ही ली। लेकिन बीच के इन नौ महीनों में सर्जरी या कहें, उचित इलाज से भागने का नतीजा यह रहा कि उनकी जिंदगी जरा छोटी हो गई।

कोई गारंटी तो नहीं थी कि वे कैंसर का इलाज कराकर पूरी तरह स्वस्थ हो जाते या उसके साथ ही दसियों साल और जीवित रहते, लेकिन निश्चित रूप से उनका सर्वाइवल लंबा और बेहतर होता। उनकी लंबी जिंदगी पूरी दुनिया के लिए नेमत होती। और अपनी जिंदगी को कौन ज़ाया करना चाहता है? कौन चाहता है कि वह ऐसे बेवक्त मरे?

अब हम स्टीव को सिर्फ अलविदा ही कह सकते हैं।

Monday, November 2, 2009

दस साल में कितना कुछ बदल गया!

पहली बार मई 1998 में पता चला कि मुझे कैसर है। तब इलाज का वह 10 महीने लंबा समय खुद से परिचय कराते-कराते ही तेजी से उड़ गया। ये कठिन 10 महीने भी कितनी जल्दी बीत गए थे। उतने लंबे नहीं लगे। जैसे आइंस्टाइन का सापेक्षतावाद कहता है कि अगर किसी आदमी को सुंदर महिला के सामने बैठा दो तो उसे दो घंटे भी दो मिनट की तरह लगेंगे। और अगर उसे गर्म तवे पर बैठाया जाए तो उसके दो मिनट भी दो घंटे की तरह गुजरेंगे।

लेकिन उस गर्म तवे पर बैठ कर, गर्मी का एहसास करते हुए भी मुझे वह वक्त उतना लंबा नहीं लगता। कारण शायद यह रहा हो कि उस समय हर अगले पल के अनुभव से अनजान थी, नहीं जानती थी कि आगे क्या होने वाला है, क्या होगा, क्या अपेक्षा करूं। इसके साथ ही उत्सुकता, कि अब क्या होगा, कैसे होगा, क्या करूं कि मेरा हर वार एकदम सटीक बैठे क्योंकि पता नहीं, उस कैंसर रूपी दुश्मन पर दूसरा वार करने का मौका भी मिले कि नहीं।

साथ में यह भरोसा भी रहता था कि बस, यह एक पल कठिन है, गुजर जाए तो बस। फिर तो तकलीफ खत्म। और इसी उम्मीद और भरोसे के साथ वह पूरा समय कट गया क्योंकि नीचे गर्म तवा होने के बावजूद आस-पास फुलवारी थी, सुंदर लोग, तितलियां, भंवरे, फूल-पत्ते, सुगंध थे जो लगातार मन को लुभाते रहे, उस जलन-गर्मी के तकलीफदेह एहसास से दूर ले जाते रहे।

फिर दूसरी बार मार्च-अप्रैल 2005 में मुझे पता लगा कि मैं फिर से युद्ध के मैदान में हूं, उसी पुराने दुश्मन के साथ दो-दो हाथ करने के लिए। इस बार मैं जानकारी के हथियार से लैस थी। डॉक्टर ने भी चुटकी ली कि अब तो मैं ‘वैटरन’ हो गई हूं, डरने, चिंता करने की कोई बात नहीं है।

और यहीं सब मार खा गए।

इस बार जब मुझे पता था कि क्या-क्या बुरा हो सकता है, और उससे बचने के लिए मैं क्या-क्या कर सकती हूं और क्या-क्या मुझे करना पड़ेगा तो मुझे शुरुआत में ही लगा कि थक गई। उफ! फिर से वही मशक्कत लंबे समय तक करनी पड़ेगी! और इस बार हर कष्ट और उसको झेलने की संभावना का ख्याल तक मुझे कष्ट देने लगा, हर कष्ट मुझे ज्यादा कष्टकारी लगा। क्योंकि मैं जानती थी, इसलिए होने के पहले भी अपने दिल-दिमाग में अनुभव कर लेती थी, कि यह होना है। और इस बार क्योंकि कोई नयापन नहीं था, कोई उत्सुकता नहीं थी, इसलिए आठ महीने चला इलाज भी बहुत लंबा और उबाऊ लगा।

खैर, यह मेरा भावनात्मक अनुभव था। लेकिन अब के समय के ज्यादातर कैंसर मरीजों के लिए शारीरिक अनुभव निश्चय ही 10 साल पहले के अनुभव के मुकाबले ज्यादा सहनीय हो गए हैं। अब कैंसर का पता लगना मौत का फरमान नहीं लगता। अपने आस-पास कैंसर के मरीजों और इलाज करा रहे या करा चुके विजेताओं को देखते, उनसे चर्चा करते, समाज अब इस बीमारी के प्रति अपेक्षाकृत सहज है। इस जागरूकता के बाद अब लोग जल्दी डॉक्टर और इलाज तक पहुंचने लगे हैं।

नई तकनीकों के कारण कैंसर की पहचान जल्द और आसान हो गई है। और बायोप्सी के बाद डॉक्टर बीमारी के प्रकार, आकार, फैलाव और ‘गुणों’ के बारे में ज्यादा जान पाते हैं जो निश्चित रूप से इलाज में मददगार साबित होते हैं। और जिन मरीजों के कैंसर की पहचान उतने ‘समय’ पर नहीं हो पाती, उनके लिए भी कई तकनीकें आ गईं हैं जो उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी, सहज और कम तकलीफदेह बना देती हैं।

....जारी, अगली पोस्ट में
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