Showing posts with label स्तन कैंसर जागरूकता अभियान. Show all posts
Showing posts with label स्तन कैंसर जागरूकता अभियान. Show all posts

Sunday, October 13, 2013

जस्ट ज़िंदगी- इस गुलाबी महीने में स्तन कैंसर जागरूकता का रंग चढ़े तो बात है

अक्टूबर के इस महीने को पिंक्टोबर यानी गुलाबी अक्टूबर भी कहा जाता है। यह महीना दुनिया भर में ब्रेस्ट कैंसर के प्रति जागरूकता फैलाने के प्रति समर्पित है।

13 अक्टूबर का दिन खास तौर पर ब्रेस्ट कैंसर की चौथी स्टेज से निबटने संबंधी जागरूकता का है।

इस मौके पर संडे नवभारत टाइम्स के जस्ट ज़िंदगी पेज पर आज मेरा लेख-
ब्रेस्ट कैंसर- जल्द पहचान से बचती है जान

ई पेपरhttp://epaper.navbharattimes.com/paper/15-9-13@10@2013-1001.html

Wednesday, October 28, 2009

दस मिनट खर्च करके जान बचाएं

आज, बुधवार 28 अक्टबर, 2009 को दैनिक भास्कर के 'समय' पेज पर मेरा यह लेख छपा है। उसे नीचे दे रही हूं।

हमारे देश में एक लाख में से 30 से 33 महिलाओं को स्तन कैंसर हो रहा है और अनुमान है कि शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को यानी औसतन हर 22 वीं महिला को अपने जीवनकाल में कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। इस समय स्तन कैंसर के कोई एक लाख नए मामले हर साल दर्ज हो रहे हैं और इंडियन काउंसिल फॉर मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) का अंदाज़ा है कि सन 2015 तक यह आंकड़ा ढाई लाख का होगा। इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि गांवों में ऐसे कई मामले रिपोर्ट भी नहीं होते।

पहले स्तन कैंसर विकसित देशों की, खाते-पीते परिवारों की महिलाओं की बीमारी मानी जाती थी, लेकिन अब हर वर्ग की महिलाओं में देखी जा रही है। बदले समय में शहरी भारतीय महिलाओं में भी स्तन का कैंसर सबसे आम हो गया है।इन संख्याओँ के बीच सबसे महत्वपूर्ण आंकड़ा यह है कि स्तन कैंसर के 50 फीसदी मरीजों को इलाज करवाने का मौका ही नहीं मिल पाता।

आंकड़ों को जाने दें तो भी हमारे यहां स्तन कैंसर का परिदृष्य भयावह है। इसके बारे में जागरूकता की और इसके निदान और इलाज की सिरे से कमी के कारण ज्यादातर मामलों में एक तो मरीज इलाज के लिए सही समय पर सही जगह नहीं पहुंच पाता। दूसरे इसके महंगे और बड़े शहरों तक ही सीमित इलाज के साधनों तक पहुंचना भी हर मरीज के लिए संभव नहीं।

यानी ज्यादातर मरीजों के बारे में सच यह है कि न इलाज इन तक पहुंच पाता है, न ये इलाज तक पहुंच पाते हैं। और जब तक मरीज कैंसर का इलाज दे सकने वाले अस्पताल तक पहुंचने में कामयाब होता है, उसका कैंसर बेकाबू हो गया रहता है। और अगर नहीं, तो पैसे की कमी के कारण वह इलाज बीच में ही बंद कर देता है। कई बार तो समय पर सही अस्पताल पहुंच कर पूरा खर्च करने के बाद भी कैंसर ठीक नहीं हो पाता। कारण- हमारे देश में कैंसर क विशेषज्ञता और इलाज की सुविधाओँ की बेतरह कमी।

ऐसे में सवाल यही उठता है कि क्या करें कि हालात बेहतर हों। तो, हम समस्या की शुरुआत में ही बहुत कुछ कर सकते हैं। और यही सबसे जरूरी भी है कैंसर को काबू में करने के लिए। कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है ।- जल्द पहचान। जितनी शुरुआती अवस्था में कैंसर की पहचान होगी, इलाज उतना ही सरल, सस्ता, छोटा और सफल होगा। इसकी पहचान के बारे में अगर व्यक्ति जागरूक हो, अपनी जांच नियमित समय पर खुद करे तो मशीनी जांचों से पहले ही उसे बीमारी के होने का अंदाजा हो सकता है।

कैंसर की खासियत है कि यह दबे पांव आता है, बिना आहट के, बिना बड़े लक्षणों के। फिर भी कुछ तो सामान्य लगने वाले बदलाव कैंसर के मरीज में होते हैं, जो कैंसर की ओर संकेत करते हैं और अगर वह मरीज सतर्क, जागरूक हो तो वहीं पर मर्ज को दबोच सकता है।

संपन्न देशों में क्लीनिकल जांच, स्तन स्वयं परीक्षा के अलावा 40 साल में और फिर उसके बाद हर दूसरे साल और 50 की उम्र के बाद हर साल मेमोग्राफी यानी मशीन से स्तन की जांच की जाती है जिससे छोटी-सी गांठ या बदलाव भी पकड़ में आ सके। लेकिन भारत में बहुत ही कम लोग हैं जो नियमित रूप से इस खर्च को वहन कर सकते हैं, वह भी कैंसर की महज संभावना को जानने के लिए। ध्यान देने की बात यह है कि मेमोग्राफी स्तन कैंसर को रोकने का तरका नहीं है, न ही इसका इलाज है। यह सिर्फ कैंसर को जल्द पहचानने का मशीनी तरीका है, जो कभी गलत रिपोर्ट भी दे सकता है।

मेमोग्राफी मशीन की सेंसिटिविटी औसतन 80 फीसदी होती है। यानी मशीन सौ में से बीस मामलों में कैंसर को नहीं पकड़ पाती, फॉल्स नेगेटिव रिपोर्ट देती है। अमरीका में नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि मेमोग्राम हर पांच में से एक कैंसर के मामले को पकड़ने में नाकाम रहता है। डॉक्टरों का एक स्कूल यहां तक मानता है कि मेमोग्राफी का खास फायदा नहीं है, क्योंकि जितनी बड़ी गांठ को उस मशीन से देखा जा सकता है, उस स्टेज पर तो महिलाएं अपनी जांच करके भी गांठ और बदलाव आदि का पता लगा सकती हैं। इसके अलावा उस मशीन से जो रेडिएशन निकलता है वही कई बार कैंसर की शुरुआत का कारण बन सकता है।

इस लिहाज से हमारे देश में और भी जरूरी हो जाता है कि सभी महिलाएं अपने स्तन की स्वयं परीक्षा करना सीख लें और महीने में सिर्फ दस मिनट खर्च करके यह जांच करें। कम सुविधाओं के बीच अपनी सेहत का इस तरह ख्याल रख कर महिलाएं अपनी जिंदगी बचा सकती हैं। पुरुषों के लिए भी जरूरी है कि वे इस बीमारी के बारे में जानें ताकि समाज में फैले सैकड़ों भ्रम दूर हो सकें। लोग इसे दुर्भाग्य, अपशकुन, किन्हीं कुकर्मों का फल या मारक बीमारी न समझ कर किसी भी दूसरी बीमारी की तरह देखें और इसके इलाज के लिए प्रस्तुत हों।

अमरीका में 1993 से अक्टूबर को स्तन कैंसर जागरूकता माह के रूप में मनाना शुरू किया और बाकी दुनिया ने भी इसे अपना लिया। दुनिया में गुलाबी रिबन स्तन कैंसर जागरूकता का प्रतीक मान लिया है। इसे भले ही कोई दिखावा या विदेशी रस्म कहे, लेकिन यह मानना ही पड़ेगा कि हमारे देश में गुलाबी रिबन की जरूरत सभी को है।

Tuesday, April 14, 2009

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (1)

इंटरनेट पर कैंसर के बारे में ढेरों जानकारी बिखरी पड़ी है। इनका सार आपके सामने रखने की कोशिश में यह सीरीज शुरू कर रही हूं। यह मेरे नव भारत टाइम्स में 6 अप्रैल को जस्ट-जिंदगी पेज पर छपे लेख पर आधारित है।

कैसे होता है कैंसर

हमारे शरीर की सबसे छोटी यूनिट (इकाई) सेल (कोशिका) है। शरीर में 100 से 1000 खरब सेल्स होते हैं। हर पल ढेरों नए सेल बनते रहते हैं और पुराने व खराब सेल खत्म होते जाते हैं। शरीर के किसी भी नॉर्मल टिश्यू में जितने नए सेल्स पैदा होते हैं, उतने ही पुराने सेल्स खत्म हो जाते हैं। इस तरह टिश्यू में संतुलन बना रहता है। कैंसर के मरीजों में यह संतुलन बिगड़ जाता है और उनमें सेल्स की बेलगाम बढ़ोतरी होती रहती है।

गलत लाइफस्टाइल और तंबाकू-शराब जैसी चीजें किसी सेल के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर पैदा कर देती हैं। आमतौर पर जब किसी सेल में किसी वजह से खराबी आ जाती है तो खराब सेल अपने जैसे खराब सेल्स पैदा नहीं करता। वह खुद को मार देता है। कैंसर सेल खराब होने के बावजूद खुद को नहीं मारता, बल्कि अपने जैसे सेल बेतरतीब तरीके से पैदा करता जाता है जो सही सेल्स के कामकाज में रुकावट डालने लगते हैं।

कैंसर सेल एक जगह टिककर नहीं रहते। अपने मूल अंग से निकलकर शरीर में किसी दूसरी जगह जमकर वहां भी अपने तरह के बीमार सेल्स का ढेर बना डालते हैं। इससे उस अंग के कामकाज में भी रुकावट आने लगती है। इन अधूरे बीमार सेल्स का समूह ही कैंसर है। ट्यूमर बनने में महीनों, बरसों, बल्कि कई बार तो दशकों लग जाते हैं। कम-से-कम एक अरब सेल्स के जमा होने पर ही ट्यूमर पहचानने लायक हालत में आता है।

बिनाइन ट्यूमर और कैंसर में फर्क

ट्यूमर को गांठ या गिल्टी भी कहते हैं। यह कैंसर-रहित (नॉन मेलिग्नेंट या बिाइन) भी हो सकती है और कैंसर वाली (मेलिग्नेंट) भी। यानी हर ट्यूमर कैंसर ही हो, जरूरी नहीं। कई बार पुराना कैंसर-रहित ट्यूमर भी बाद में जाकर कैंसर बन सकता है। इसलिए यदि शरीर में कहीं गांठ या गिल्टी हो, तो समय-समय पर उसकी जांच करवाना सेफ रहता है। इसके लिए बायोप्सी कराई जाती है।

Wednesday, October 29, 2008

गुलाबी रिबन में पुरुष अजीब नहीं लगते

गुलाबी रिबन के बारे में पिछली पोस्ट क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है? पर एक टिप्पणी थी – ‘गुलाबी रंग में पुरुष - शायद कुछ अजीब लगे।‘ उसके जवाब में अपने ई-मेल बॉक्स पर मिली यह दिलचस्प और सार्थक कहानी आपके साथ बांट रही हूं।

एक अधेड़ उम्र का सुदर्शन पुरुष कैफे में पहुंचा और शांति से कोने की एक टेबल पर बैठ गया। कुछ देर में उसका ध्यान बगल वाली टेबल पर बैठे कुछ नौजवानों की तरफ गया जो उसे ही देख कर हंस रहे थे। फिर अचानक उसे कुछ ख्याल आया और वह समझ गया कि वे क्यों हंस रहे हैं। उसे याद आया कि उसने कोट के कॉलर वह गुलाबी रिबन टांका था, जिसे देख कर वे नौजवान उसका मज़ाक उड़ा रहे थे।

थोड़ी देर तो वह उनकी ठिठोली को नज़रअंदाज़ करता रहा। फिर रिबन पर अंगुली रखी और उनमें से सबसे उच्श्रृंखल लगने वाले लड़के की तरफ देख कर पूछा- “क्या इस पर हंस रहे हो?”

वह लड़का बोला,- “माफ करें, लेकिन नीले कोट पर यह गुलाबी रिबन बिल्कुल नहीं जंच रहा है।“

उस अधेड़ ने उसे इशारे से बुलाया और पास बैठने का न्यौता दिया। नौजवान असहज होकर उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गया। उस अधेड़ ने धीमी आवाज़ में कहा- “मैं स्तन कैंसर के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए, अपनी मां के सम्मान में इसे पहनता हूं।”

“मुझे अफसोस है। क्या स्तन कैंसर ने उनकी जान ले ली थी?”

“नहीं, वह मरी नहीं हैं। लेकिन शैशवकाल में उनके स्तनों से मेरा पोषण हुआ, और लड़कपन में जब भी मैं डर या अकेलापन महसूस करता था तो अपना सिर उन पर रख कर आश्वस्त हो जाता था। मैं उनका शुक्रगुज़ार हूं।”

“अच्छा!।”

“मैं यह रिबन अपनी पत्नी के सम्मान में भी पहनता हूं।”

“उम्मीद है, अब वे भी ठीक हो गई होंगी?”

“हां, उन स्तनों ने 23 साल पहले मेरी प्यारी सी बेटी को पोषित किया, दिलासा दिया। वे हमारे स्नेहिल संबंधों में खुशी का स्रोत रहे हैं। मैं उनका भी आभारी हूं।”

“और आप इसे अपनी बेटी के सम्मान में भी पहनते होंगे?” नौजवान ने उकता कर कहा।

“नहीं। उसके सम्मान में इसे पहनने के लिए बहुत देर हो चुकी है। मेरी बेटी एक माह पहले स्तन कैंसर से मर गई। उसका ख्याल था कि इस कम उम्र में उसे स्तन कैंसर नहीं हो सकता। इसलिए जब एक दिन अचानक उसने गांठ महसूस की तो भी वह चैतन्य नहीं हुई, उसे नज़रअंदाज़ करती रही। उसे लगा कि चूंकि उसे दर्द नहीं होता है, उसलिए चिंता की कोई बात नहीं है।”

इस कहानी से विचलित नौजवान बरबस बोल उठा- “ओह, मुझे बहुत दुख हुआ जानकर।“

अधेड़ बोला- “अब मैं अपनी बेटी की याद में गर्व से यह रिबन लगाता हूं। यह मुझे, दूसरों को इस बारे में सतर्क और जागरूक करने में मदद करता है। अब घर जाकर अपनी पत्नी, मां, बेटी, रिश्तेदारों और मित्रों को इस बारे में बताना।

और यह लो ”- कहते हुए उस अधेड़ ने अपनी कोट की जेब से एक गुलाबी रिबन निकाल कर उसे थमा दिया।

Saturday, October 25, 2008

क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है?

क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है? गुलाबी कपड़े, जूते, मोज़े, कड़े, रुमाल, रिबन... कुछ भी। अगर नहीं तो मेरी गुज़ारिश है कि जरूर पहनें। यह स्तन कैंसर का प्रतीक रंग है। आज का दिन गुलाबी पहनने के लिए खास इसलिए है कि, कहते हैं न, जब जागे, तभी सवेरा। जागरूकता के लिए तो कोई भी दिन अच्छा है। आप सोच रहे हैं, कि एक दिन एक खास रंग पहनने से क्या हो जाएगा! तो जनाब, इस लेख को पूरा पढ़ जाइए, आपको जवाब मिल जाएगा।

अक्टूबर का महीना स्तन कैंसर जागरूकता को समर्पित है। अक्टूबर को नैशनल ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस मंथ के रूप में मनाने की शुरुआत अमरीका में हुई। अब इसे कई देशों ने अपना लिया है।

गुलाबी रंगत में व्हाइट हाउस, अक्टूबर 2008





पिंक रिबन का इतिहास

स्तन कैंसर की मरीज सूज़न जी. कोमेन को मौत के करीब पहुंची हालत में देखकर बहन नैंसी जी. ब्रिकनर ने उससे वादा किया कि वह इस बीमारी के बारे में जागरुकता फैलाने की हर कोशिश करेगी। इसी वादे को निभाने के लिए 1982 में ‘सूज़न जी. कोमेन फॉर क्योर’ नाम की संस्था बनी। इसके जरिए नैंसी ने स्तन कैंसर के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। आज यह स्तन कैंसर के मरीजों, विजेताओं और कार्यकर्ताओं का संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा नेटवर्क है।

अक्टूबर 2007- स्तन कैंसर जागरूकता माह, गुलाबी रोशनी में नहाया टोकियो टावर

1991 में इस संस्था ने न्यूयॉर्क में आयोजित कैंसर जागरूकता दौड़ में सहभागियों को प्रतीक के रूप में गुलाबी रिबन बांटे। तब से गुलाबी रिबन दुनिया भर में स्तन कैंसर का प्रतीक चिन्ह बन गया है।




गुलाबी रंगत

सामाजिक संस्थाओं को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में गुलाबी रिबन कामयाब रहा है। इसके नाम पर ‘पिंक रिबन इंटरैशनल’ जैसी संस्थाएं और ‘वियर इट पिंक’ और ‘इन द पिंक’ जैसी स्तन कैंसर से जुड़ी परियोजनाएँ खासा बड़ा काम समाज के लिए कर रही हैं। गुलाबी रिबन के अलावा इस रंग के दूसरे उत्पाद भी इस कैंसर जागरूकता माह में खूब बेचे और खरीदे जाते हैं और इससे तथा दान में मिले धन का इस्तेमाल स्तन कैंसर जागरूकता, इलाज और अनुसंधान के लिए किया जाता है।

स्तन कैंसर पर सार्वजनिक आयोजनों के अलावा एक दिन तय किया जाता है जब संस्था से जुड़े सभी लोग और यहां तक कि उसे प्रायोजित करने वाली कंपनियों के कर्मचारी भी गुलाबी पहनते हैं। इसे ‘पिंक डे’ कहा जाता है।

'पिंक फॉर अक्टोबर' पिंक फॉर अक्टोबर का लोगो

एक और अभियान है जिसके तहत स्तन कैंसर जागरूकता अभियान का समर्थन करने वाले सभी वेबसाइट इस महीने अपने पृष्ठों पर गुलाबी रंग बिखेर देते हैं। (आप भी बिखेर सकते हैं)

अक्टूबर 2006 में मैथ्यू ओलीफैंट का मज़ाक-मज़ाक में बनाया गुलाबी रंग से भरा मज़ाहिया वेबसाइट कैसे स्तन कैंसर जागरूकता अभियान के लिए प्रेरणा बन गया, यह कहानी भी दिलचस्प है।

कैंसर की दवाएं बनाने वाली कंपनियों ने भी आदतन इस चिन्ह को व्यावसायिक फायदे के लिए खूब इस्तेमाल किया है। दरअसल शुरू में गुलाबी रिबन को बड़े पैमाने पर प्रायोजित करने वाली संस्था खुद एक रसायन कंपनी थी, जिसके उत्पाद स्तन कैंसर को बढ़ावा देते हैं। इसी तरह की परिघटनाओं के लिए ‘पिंकवाशिंग’ शब्द निकला है। यानी अपने बुरे कर्मों (ज़हरीले रसायनों का उत्पादन) की कालिख को (कैंसर के उपचार, जागरूकता आदि अभियानों के लिए खुले आम धन दे कर) धोने की कोशिश।

इन आलोचनाओं से परे सोचने की बात यह है कि स्तन और दूसरे कैंसरों के बारे में जानने की जरूरत लगातार बढ़ रही है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि देश में आज की तारीख में कोई 20-25 लाख कैंसर के मरीज हैं। हर साल सात लाख से ज्यादा नए मरीज इस लिस्ट में जुड़ रहे हैं और इनमें से तीन लाख हर साल दम तोड़ देते हैं।

स्तन कैंसर की बात करें तो हर साल शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को स्तन कैंसर होने की संभावना है।


क्या अब तक आप समझ पाए कि मैंने आज के दिन आपसे गुलाबी पहनने की गुज़ारिश क्यों की? जवाब बहुत सरल है। जब आप गुलाबी पहनेंगे तो इस बारे में सोचेंगे भी, क्योंकि आपका गुलाबी पहनना स्वतःस्फूर्त नहीं है, बल्कि ऐसा करने को आपसे कहा गया है। और उसी सोच के दौरान यह भी जानने को उत्सुक होंगे कि आखिर गुलाबी रंग और स्तन कैंसर का क्या रिश्ता है। और इस प्रक्रिया में आप कैंसर के बारे में कुछ नया जानें या नहीं, पर यह आपकी विचार-प्रक्रिया में शामिल जरूर हुआ। है न! बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। स्तन कैंसर के प्रति जागरूकता अभियान में शामिल होने के लिए शुक्रिया।
Custom Search