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Friday, October 5, 2012

ज़िंदगी के एहसास का मौक़ा

हिंदी की महत्वपूर्ण पाक्षिक पत्रिका द पब्लिक एजेंडा के ताजा अंक में मेरा संस्मरण कैंसर के बावजूद कुछ कर जाने वाले लोगों पर विशेष आयोजन के तहत प्रकाशित हुआ है। वही आलेख शब्दशः--

ज़िंदगी के एहसास का मौक़ा

इसे मैं मौका कहूंगी- जीने का, जिंदा होने के एहसास का तीसरा मौका। किसी कैंसर के मरीज को तीन मौके कम ही मिलते हैं- खास तौर पर उसे, जिसका ट्यूमर चौथे स्टेज का और बीमारी एडवांस करार दी गयी हो। डॉक्टर ने मुझे भाग्यशाली कहा, जब मैंने कैंसर के बाद पांच साल की खतरे की रेखा पार की थी। मगर सात साल होते-न-होते मैं फिर उसी जगह खड़ी थी, जहां कैंसर के रास्ते पर मेरी यात्रा शुरू हुई थी। 


इलाज के उन्हीं दुर्गम रास्तों से दोबारा गुजरने के सात साल बाद फिर तीसरी बार अब। सिर्फ जिंदा रहना भी अपने आप में एक नेमत है। वैसा सहज नहीं, जैसा हम आम तौर पर सोचते हैं। जीना तभी समझ में आता है जब जीवन पर खतरा महसूस होता है। जीने का एहसास होने पर इंसान तीन तरह से जीता है- बिसूरते हुए कि हाय, मुझे जिंदगी कितनी छोटी मिली, मेरे साथ अन्याय हुआ। जैसे कोई अपने घाव को लगातार खरोंचता रहे और दर्द से छटपटाता भी रहे। दूसरी स्थिति है कि वह सोचे, कम ही दिन रह गये हैं, चलो जल्दी-जल्दी जिया जाये, बहुत कुछ कर लिया जाये। और तीसरी स्थिति - जब वह बाकी बचे अनिश्चित समय को इत्मीनान से जीना चाहता हो, आने वाले समय का बिना खयाल किये। वह कई मामलों में तदर्थ हो जाता है कि बाद किसने देखा है, अभी समय बेहतर कटे, बस। मैं इस समय बाद वाली दोनों स्थितियों में एक साथ जी रही हूं।


हम अपने शरीर की बनावट-सजावट भले ही रोजाना करते हों, लेकिन हम इसकी जरूरतों और गड़बड़ियों का ध्यान कम ही रखते हैं। जब तक समय साथ देता है, हम कद्र नहीं करते। जब बिगड़ जाता है, तब फौरी राहत देकर छूटने की कोशिश में रहते हैं। अपने शरीर की साज-संभाल करने और जानकारी होने की जरूरत पहली बार महसूस हुई 14 साल पहले, जब स्तन कैंसर होने का पता चला। संतान जन्म के समय या ऐसी ही किसी जांच-मुलाकात में अगर किसी डॉक्टर ने कभी मुझे स्तन स्वयं-परीक्षा का मुफ्त, सरल-सा तरीका बता दिया होता तो स्थिति शायद खराब न होती। 


कैंसर इंसान को ढंग से जीना सिखा देता है। इसका इलाज बहुत जानकारी की मांग करता है, सहज ज्ञान और समझदारी के अलावा भी। इलाज लंबा, कई स्तरों पर होने वाला, जटिल और मारक होता है। इस दौरान मरीज बेहतर महसूस करने की बजाय इलाज के बुरे प्रभावों के कारण ज्यादा बीमार हो जाता है। कीमोथेरापी में इस्तेमाल होने वाली दवाएं मूलतः जहरीले रसायन हैं जो कभी हिटलर के नात्सी गैस-चेंबरों में यहूदियों को मारने के लिए इस्तेमाल किये जाते थे। इलाज में इनका मकसद बीमार, कमजोर कैंसर कोशिकाओं को मारना है, लेकिन इस दौरान ढेर सारी स्वस्थ कोशिकाएं भी मारी जाती हैं। रेडियोथेरेपी में रेडियो-सक्रिय किरणें स्वस्थ कोशिकाओं को भी उसी शिद्दत से जला डालती हैं। ऐसे समय में शरीर का स्वस्थ हिस्सा कमजोर न पड़ जाये, इस कोशिश में लगना पड़ता है। यह जिम्मेदारी मरीज की होती है। यह स्थिति सभी के लिए बराबर कठिन होती हो, ऐसा नहीं है, फिर भी शरीर के भीतर इलाज की चाल जानना लाजिमी होता है।


कुल मिला कर युद्ध सी स्थिति होती है। स्तन कैंसर पर चौतरफा हमले में सर्जरी, कीमो, रेडिएशन के 8-10 महीने लंबे इलाज के बाद कैंसर को रोके रखने के लिए पांच साल तक हार्मोन का इलाज दिया जाता है ताकि ओवरी, पैंक्रियाज और शरीर में कहीं और बन रहे स्त्री हार्मोनों को दबा कर रखा जा सके। कई मामलों में यही हार्मोन कैंसर को उकसाते हैं। इलाज के इन हमलों में स्वस्थ कोशिकाएं बची रहें और फलती-फूलती रहें, इसके लिए जानकारी से ही रणनीति बनाने की शुरुआत होती है। तत्काल और विस्तृत जानकारी पाने के कई साधन मेरी पहुंच में रहे, यह महत्वपूर्ण था। चौदह साल पहले जब इंटरनेट महानगरों के समृद्ध संस्थानों तक ही था, पत्र सूचना कार्यालय के मुख्यालय में नियुक्ति होने के कारण मेरी उस तक पहुंच और उसे इस्तेमाल करने की दक्षता सहज ही थी। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाएं भी मिल जाती थीं जिनमें तब कैंसर के चिकित्सकीय और गैर-चिकित्सकीय पक्षों पर विमर्श छपता था। इन सबसे मेरी जानकारी लगातार बढ़ती गयी। इलाज सरकारी अस्पताल एम्स में हो रहा था, जहां देश भर के मरीज आते हैं। ऐसे में कैंसर, खास तौर पर महिलाओं से जुड़े स्तन कैंसर की विविध स्थितियों को सुनने-जानने का मौका मिला। उनके साथ मैं अपने अनुभवों, ज्ञान और बेहतर जीवन जीने के नुस्खे साझा करती थी।


वहां एक बड़ी बात मुझे समझ में आयी कि लोगों में कैंसर, उसके इलाज, साइड इफेक्ट्स की जानकारी बहुत कम है और थोड़ी-बहुत जानकारी भी उनके जीवन में अंतर लाने में सक्षम थी। यहीं से यह विचार आया कि स्तन कैंसर पर क्यों न जानकारीपरक एक पुस्तक लिखी जाये। इसके दो मकसद थे, एक मेहनत से इकट्ठा की गयी जानकारियां और दूसरी महिलाओं के अलग-अलग अनुभव लोगों को सहज ही, उनकी अपनी भाषा में मिल जायें। दूसरे, इस विषय पर बार-बार वही बातें कहने की बजाय उन्हें लिख कर ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाये। मैं डॉक्टर तो थी नहीं, लेकिन इस बारे में कुछ सघन निजी अनुभव थे, जो आम तौर पर मरीजों को ज्यादा प्रभावित करते हैं। 


कुल मिला कर पुस्तक लिखने का उद्देश्य इस कठिन दौर से गुजर रहे लोगों का जीवन आसान बनाने के अपने अनुभव बताना था। यह पुस्तक "इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी' मार्च 2005 में छप कर आयी, जब मैं कैंसर से दूसरी लड़ाई की तैयारी कर रही थी। जाहिर है, इस स्थिति के बारे में पुस्तक छपने के पहले सोचा भी नहीं था! 


(लेखिका ने कैंसर से जूझने की कहानी पुस्तक "इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी' में लिखी है। वे प्रकाशन विभाग में संपादक हैं।)


Saturday, March 3, 2012

कुछ दिनों से सोच में हूं

कुछ दिनों से सोच में हूं। एक नव-परिचिता, 'कैंसर-बड्डी' का कैंसर दोबारा उभर आया है। पहली बार उन्हें कैसर का पता लगा था पिछले साल लगभग इसी समय। उसके बाद उन्होंने जम कर इलाज करवाया और अक्तूबर में फारिग होकर फिर से काम-काज में मन लगाया। इसी बीमारी-इलाज के बीच उनकी बेटी की धूम-धाम से शादी भी हो गई। हालांकि इलाज सफदरजंग अस्पताल, नई दिल्ली में कराया, जो कि केंद्रीय सरकार के बड़े अस्पतालों में गिना जाता है।

उनसे मुलाकात के ठीक पांचवें दिन उनका फोन आया कि कैंसर उनके शरीर के कई हिस्सों में फैल गया है- लिवर सहित। यह मुलाकात भी संयोग ही रही। मेरा एक आत्मकथात्मक आलेख नवभारत टाइम्स में छपा। वहां के नंबर पर फोन करके उन्होंने संबंधित विभाग में संबंधित व्यक्ति से बात की, जिन्होंने मुझसे पूछ कर मेरा फोन नंबर उन्हें दिया और इस तरह हमारी पहली बात-चीत फोन पर हुई।

उसके दो ही दिन बाद वे मेरे दफ्तर पर मिलने आईं। वैसे दफ्तर में समय कम ही मिलता है, फिर भी उस दिन करते-न-करते वो करीब 40 मिनट साथ रहीं। उनसे कई तरह की बातें हुईं। कैंसर की, कैंसर के साथ और उसके बाद जीवन की, खाने पीने, सोने जागने की। फिर विदा, संपर्क में रहने, फिर मिलने के वादे के साथ। और इस के पांच ही दिन बाद उन्होंने कैंसर के शरीर के कई अंगों में फैल जाने की खबर अचानक दी। यह उनके लिए भी सदमे की तरह था, क्योंकि उन्हें कोई दर्द या तकलीफ नहीं हो रही थी, महज रूटीन चेक-अप में ही की गई कुछेक जाचों से इसका पता चला।

एक समय मैं मानती थी कि कैंसर लौट आने का मतलब है- मौत के करीब खड़े हो जाना। पर अपनी जानकारी और दूसरों के अनुभवों से जाना कि यह हमेशा सही नहीं होता। मेरे साथ खुद यह हुआ था- कोई 7साल पहले। दोबारा, दूसरे स्तन में फिर से तीसरी स्टेज का कैंसर,जो बड़ी तेजी से फैला था, या ऐसा मुझे लगा था, क्योंकि अचानक ही उस बड़ी गांठ पर ध्यान गया था। लेकिन उस इलाज के बीच और बाद में कई महिलाओं से मुलाकातें हुईं जिन्होंने पिछले कई बरसों से कैंसर के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था, उनका इलाज लगातार जारी था- कभी यहां, तो कभी वहां।

लेकिन इस नव-परिचिता का कैंसर लिवर, पसलियों आदि पेट के कई महत्वपूर्ण अंगों तक फैल चुका है, जहां यह जानलेवा भी हो सकता है। इस स्थिति को वे अच्छी तरह समझती हैं। इनके साथ बातचीत में दो बातें मुझे असहज करती हैं- पहली कि उन्हें इस नए, प्राइवेट, विशेषज्ञता वाले अस्पताल के डॉक्टरों ने समझा दिया है इसलिए वे लगातार यह मानती हैं, कि पिछली बार सरकारी अस्पताल के इलाज में डॉक्टरों द्वारा भयानक लापरवाही और कोताही बरती गई, इसीलिए उनका कैंसर खत्म होने के बजाए फिर उभरा है। वे डॉक्टरों और सरकारी अस्पताल पर मामला ठोक देने की धमकी देते हुए बार-बार कहती हैं कि उनको जो कीमो दी गई उससे कैंसर खत्म नहीं हुआ बल्कि उसके ‘जर्म्स’ गांठ में से निकलकर पूरे शरीर में ‘भाग कर फैल गए और यहां-वहां छुप गए’। केस बिगाड़ दिया गया है। कोई एक टेस्ट जो एक बार नेगेटिव और फिर एक बार माइल्डली पॉजिटिव आया था, उसे ‘फिर’ नहीं कराया गया। इलाज खत्म होते ही सीटी स्कैन आदि नहीं करवाया गया। इत्यादि। ये सारी बातें उन्हें निजी अस्पताल के डॉक्टरों ने ऐसी अच्छी तरह समझा दी है कि वे दोबारा कभी इलाज के सरकारी तंत्र में जाना चाहेंगी ही नहीं, हालांकि वे खुद सरकारी नौकरी में हैं।

कितना आसान है किसी अनुभवी,पढ़े-लिखे मरीज तक को भी डराकर, प्यार से, अपने दिखावटी नरम व्यवहार से फुसला ले जाना कि वह इलाजके निजी तंत्र में ही उलझा रहे, सरकारी तंत्र के आजमाए हुए रूखे और मशीनी-से लगने वाले प्रोटोकॉल में विश्वास न करे। दर असल तथ्य यह है कि कैंसर के जर्म्स नहीं होते, यह शरीर के, कोशिकाओं के भीतर ही बनता है और इन कोशिकाओं की प्रवृत्ति छिटककर खून के साथ दूर जाकर नई बस्तियां बसाने की होती है। अगर किसी कीमो से एक जगह का ट्यूमर खत्म होता है तो वह खून के सहारे पूरे शरीर में हर कोने में जाकर उसकी हर बिखरी कोशिका को खत्म करने की प्रवृत्ति रखता है। यह नहीं होता कि कोशिकाएं एक जगह से भागकर कहीं और जाकर छिप जाती हैं। कीमोथेरेपी सिस्टमिक यानी पूरे शरीर में एक साथ, रक्त के बहाव के जरिए किया जाने वाला इलाज है।

फिर उनका वह हॉर्मोन जांच का पॉजिटिव या नेगेटिव नतीजा इलाज की दिशा को कतई प्रभावित नहीं करता है, सिर्फ इलाज की सफलता का अंदाजा लगाने में मदद देता। हर स्तन कैंसर के मरीज को पांच साल तक खाने के लिए ईस्ट्रोजन हॉर्मोन-निरोधक गोलियां खाने को दी जाती हैं ताकि अगर उस कैंसर के होने में हॉर्मोन का जरा भी हाथ हो तो वह हॉर्मोन के असर को खत्म करके इसके दोबारा होने को रोक पाए। और यह साबित बात है कि वह हॉर्मोन जांच कई साधारण कारणों से गलत भी आती है, इसलिए इसे दो-तीन बार भी कराया जाता है। तो, इस अर्थ में उनका इलाज पूरा किया गया, पांच साल के लिए हॉर्मोन की गोली के प्रिस्क्रिप्शन सहित।

दूसरा मसला जो इनके दोबारा कैंसर होने और उसके फैलाव के बारे में जानने के बाद मेरे सामने आता है, कि मैं उनसे बातें करना चाहती हूं, उनकी व्यग्रता, उद्विग्नता, आशा-निराशा को साझा करना चाहती हूं ताकि उन्हें अच्छा लगे और मुझे भी उनके हालात को समझने का मौका मिले। हालांकि वे खुद बार-बार कहती हैंकि वे फाइटकरेंगी और इसमें जीतें या हारें, मन को नहीं हारने देंगी। लेकिन ठीक होने का उन्हें कतई भरोसा नहीं है, और अपने जल्द ही इस दुनिया से कूचकर जाने की भी पूरी-पूरी आशंका देख रही हैं। ऐसे कठिन समय में उनकी आशंका में आप यह दिलासा नहीं दे सकते कि चिंता न करें, जल्द ही ठीक हो जाएंगे। खास तौर पर ऐसे वक्त में, जब उन्हें भी पता है कि शायद यह बीमारी अब ठीक न होने की जद पर आ पहुंची है। सोच ही रही हूं।

Monday, February 20, 2012

जरा और हंगामे की जरूरत है- युवराज के बहाने कैंसर


(यह आलेख शुक्रवार पत्रिका के 17-23 फरवरी के अंक में छपा है।)

वैसे तो पिछले साल से ऐसी आशंकाओं का सिलसिला चल रहा था कि क्रिकेटर युवराज सिंह को फेफड़ों में ट्यूमर है। लेकिन जनवरी के आखिरी हफ्ते में पक्की खबर आई कि युवराज सिंह को जर्म सेल ट्यूमर ऑफ मीडियास्टिनम या मीडियास्टिनल सेमिनोमा नाम का फेफड़ों का कैंसर है। हर तरफ सनसनी फैल गई। युवराज सिंह की कीमोथेरेपी यानी दवाओं से इलाज शुरू होने की खबरों के बीच उसके ठीक होने की संभावनाओं, अटकलों, माता-पिता से बातचीत, दूसरे क्रिकेटरों, दुनिया भर की सेलिब्रिटीज़ की शुभकामनाओं की खबरों से भी पूरी दुनिया का मीडिया पट गया। युवराज मीडिया के लिए इस समय खास तौर पर महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पिछले साल ही हमारी क्रिकेट टीम विश्वकप जीत लाई है, जिसमें युवराज मैन ऑफ द सीरीज रहे।

खबरों की कहानी के पहले इस कैंसर को समझ लें। मीडियास्टिनम मोटे तौर पर छाती के बीच की जगह है जहां दिल, इससे निलकने वाली खून की नलियां और संवेदी तंत्रिकाएं, श्वसन नलियां, खाने की नली का कुछ हिस्सा वगैरह होते हैं। इन नाजुक अंगों को सुरक्षित समेटे हुए इस हिस्से को घेरे एक झिल्ली होती है। युवराज का जर्म सेल ट्यूमर ऑफ मीडियास्टिनम दुर्लभ इसलिए है कि यह आम तौर पर जर्म सेल, यानी पुरुषों के शुक्राशय की कोशिकाओं में होता है। सेमीनोमा का मतलब ही है, शुक्राशय की सेमीनिफेरस नलिकाओं की सतह की कोशिकाओं का ट्यूमर। वैज्ञानिक समझ नहीं पाए हैं कि कैसे, पर कभी-कभार यह कैंसर शुक्राशय की बजाए छाती में या पेट की गुहा में बन जाता है। खास तौर पर पुरुषों में होने वाला यह कैंसर 20 से 35 की उम्र में सबसे ज्यादा होता है। और अच्छी बात यह है कि इसके लक्षण फौरन दिख जाते हैं और कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी का इन पर अच्छा असर होता है इसलिए ठीक होने की संभावना काफी ज्यादा होती है।

हमारे देश में जहां कैंसर के 25 लाख से ज्यादा मरीज हैं, उनमें हर साल आठ लाख और जुड़ते हैं और साढ़े पांच लाख लोग मर जाते हैं, जहां 70 फीसदी लोगों का कैंसर इतनी विकसित अवस्था में होता है कि डॉक्टर भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाते, वहां स्वाभाविक है कि इस बीमारी का नाम ही दिल दहला देता है। जानकारी की कमी भ्रम और आशंकाओं को बढ़ावा देती है। ऐसे में अच्छा है कि युवराज के बहाने ही सही, इस विषय पर चर्चा ने जोर तो पकड़ा।

वह समय अभी बीता नहीं है जब कैंसर का मतलब मौत का वारंट होता था, लोग जीने की उम्मीद छोड़ देते थे। ईश्वर की तरह आयुर्वेद आदि पर विश्वास होने के नाते लोग वैद्यों, हकीमों, होमियोपेथिक डॉक्टरों, “कैंसर से एड्स तक” हर मर्ज का इलाज करने का दावा करने वाले नींम चिकित्सकों के पास पहले जाते थे क्योंकि उनका विश्वास होता था कि एलोपेथी में कोई कारगर इलाज हो ही नहीं सकता। अस्पताल जाना तभी होता था, जब तकलीफ असहनीय हो जाती थी। इसके अलावा कैंसर के लिए अच्छे अस्पतालों की बेतरह कमी, लंबा, खर्चीला, तकलीफदेह और अनिश्चित परिणाम वाला इलाज करवा पाना आम हिंदुस्तानी के लिए आसान नहीं।

लेकिन पिछले कुछ साल में मीडिया ने कई सेलीब्रिटीज़ के कैंसर पर विशेष रूप से चर्चाएं छेड़ी हैं। सिंगर काइली मिनोग से लेकर बिग बॉस की जेड गुडी, लीसा रे और पर्सनल कंप्यूटर क्रांति शुरू करने वाले स्टीव जोब्स तक ने कैंसर पर लोगों की जागरूकता, जानकारी बढ़ाने के लिए मीडिया को उकसाया। एक ऐसा शब्द जिससे कई भ्रम और वर्जनाएं जुड़ी थीं, लोग उच्चारने से डरते थे, अब लोगों की जुबान पर चढ़ने लगा है। अखबार और न्यूज चैनल अपने हीरोज़ के साथ-साथ इस बीमारी के अलग-अलग पहलुओं को भी तरह-तरह से उभारते हैं। विशेषज्ञों का ज्ञान, कैंसर-साथियों के अनुभव लोगों तक आसानी से पहुंच रहे हैं। इंटरनेट और, खासकर सोशल मीडिया का भी इसमें बड़ा योगदान है।

हमारे देश में भी कैंसर की घटनाएं तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में इसके बारे में जागरूकता, इसकी जल्द पहचान और पूरा इलाज जरूरी है। कई तरह के कैंसरों को खुद पहचानने; धूम्रपान, नशा न करने; नियमित, सक्रिय जीवनचर्या; नियंत्रित और संतुलित खान-पान जैसी आधारभूत जानकारियां देने और इलाज के लिए प्रेरित करने जैसे काम मीडिया के जरिए संपन्न हो रहे हैं। युवराज के बहाने हम कई हस्तियों के अनुभवों को जान पा रहे हैं जिन्होंने इस बीमारी के बाद भी बहुत उपलब्धियां पाईं, नए आसमान छुए और कैंसर पीड़ितों और समाज के लिए प्रेरणा बने।

शहरों में कम से कम इतना असर हुआ है कि लोग कैंसर होने की बातें छुपाते नहीं हैं। वे जान रहे हैं कि हर तरह के लोगों को कैंसर हो सकता है। जानकारी से बीमारी की घटनाएं तो कम नहीं होतीं, लेकिन वे इलाज करवा रहे हैं और कई ठीक होकर या कैंसर के साथ ही, लंबा और बेहतर जीवन बिता रहे हैं। लोगों के भ्रम और डर खत्म हो रहे हैं, कैंसर से अपरिचय और सदमे का भाव कम हो रहा है। दूसरी तरफ मीडिया कैंसर के इलाज की कमियों को सामने लाकर व्यवस्था में सुधार लाने के लिए दबाव बनाने का काम भी जाने-अनजाने कर रहा है। आंखें बंद करके डॉक्टर की अंगुली पकड़ चलते जाने वाले लोगों को विकल्पों की पगडंडियां भी ये चर्चाएं दिखा रही हैं, नई खोजों, इलाजों, उनकी खामियों को सबके सामने रख रही हैं।

हालांकि मीडिया अति भी करता है और बीसीसीआई को अपील करनी पड़ती है कि युवराज की निजता का सम्मान करें। कैंसर के बहाने उसके निजी जीवन के हर मिनट की खबर देना समाचार मीडिया का काम नहीं है।

तो, युवराज सिंह, तुम्हें धन्यवाद और शुभकामनाएं। अपना इलाज करवाकर जल्द लौटो और उन सबके लिए एक और मिसाल बनो जिनके जीवन में उम्मीद की कमी है।

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Sunday, February 22, 2009

जेड गुडी की शादी की चर्चा हम क्यों करें?

आज के दिन हर जगह जेड गुडी की चर्चा है। आज का दिन उसके लिए खास है- उसने आज शादी कर ली है। उसकी शादी के पहले इंग्लैंड और वेल्स के रोमन कैथोलिक चर्च ने जेड को शुभकामनाएं दीं और उनके लिए प्रार्थना की।


शादी के पहले खास मीडिया के लिए जेड और उसके होने वाले पति ने यह जीवंत पोज दिया

पर दुनिया के लिए 27 वर्षीय जेड गुडी की शादी इतनी खास क्यों है? इसका जवाब पाने के लिए उसकी पूरी कहानी जाननी पड़ेगी।

जेड के जिक्र/ परिचय का सिरा जोड़ने के लिए याद दिला दूं कि हिंदुस्तानी मीडिया में जेड की चर्चा पहली बार जनवरी 2007 में हुई जब इंगलैंड के रियलिटी टीवी शो सेलेब्रिटी बिग ब्रदर में शिल्पा शेट्टी पर रेसिस्ट टिप्पणियां करने का इल्जाम उस पर लगा। इसके बाद वे शो से बाहर हो गईं और आखिरकार शिल्पा जीत गईं। हालांकि इसके लिए बाद में जेड ने कई बार माफी मांगी और सफाई दी कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था।

दिलचस्प बात यह है कि फिर अगस्त 2008 में भारत में बिग ब्रदर की ही तर्ज पर शिल्पा के कार्यक्रम बिग बॉस में जेड शामिल हुईं। बिग बॉस के घर में अपने दूसरे ही दिन जेड को फोन पर पता चला कि उन्हें बच्चेदानी के मुंह का कैंसर है जो काफी विकसित अवस्था में है जिसका फौरन इलाज जरूरी है। जाहिर है, जेड कार्यक्रम छोड़ कर चली गईं और तब से लगातार कैंसर से लड़ रही हैं। ताजा समाचार यह है कि डॉक्टरों का कहना है कि “उसके पास इस दुनिया में ज्यादा समय नहीं है”।

कोई भी किसी के इस दुनिया में रहने या न रहने के समय को कैसे तय कर सकता है, जब तक कि व्यक्ति के दिल-दिमाग ने काम करना बंद न कर दिया हो? खास तौर पर कैंसर के मरीजों के बारे में ऐसी ‘भविष्यवाणियां’ मैंने भी कई बार सुनी हैं। और, यकीन मानिए, डॉक्टरों की ऐसी भविष्यवाणियों को भी अनेक मरीजों ने मेरे सामने ही झूठा साबित कर दिया है। सबका जिक्र जरूरी नहीं है, लेकिन दो-चार या आठ-दस महीनों को चार-पांच साल में बदलते मैंने कई बार देखा है। इसलिए जब सुन रही हूं कि जेड के पास कुछेक हफ्तों या महीनों का ही समय है तो चुपचाप यकीन नहीं करना चाहती। और अगर यह सच हो भी जाए तो बड़ी बात यह होगी कि जेड ने अपने 27 साल के जीवन को कितना जिया। महत्वपूर्ण सवाल यह होगा कि अपने छोटे से समय में उसने क्या किया।

उसने बहुत कुछ किया, खूब किया। पांच जून 1981 को जन्मी एक टूटे परिवार की लड़की जेड सेरिसा लॉराइन गुडी को पहली बार दुनिया ने जाना जब वह 2002 में ब्रिटेन के चैनल 4 के रियलिटी शो बिग ब्रदर के परिवार में शामिल हुईं। इस ‘परिवार’ से निकाले जाने के बाद उसने अपने टीवी कार्यक्रम बनाना शुरू किया। साथ ही अपने सौंदर्य प्रसाधन भी बाजार में उतारे।


जेड गुडी शादी के एक दिन पहले ब्राइड्स मेड्स के साथ

सोलह साल की उम्र में पहली बार उसे पता लगा कि उसके शरीर में कई ऐसी कोशिकाएं हैं जो कैंसर बना सकती हैं। इन बीमार कोशिकाओं का इलाज कर दिया गया। फिर सन 2004 उसे अंडाशय (ओवरी) का कैंसर और फिर 2006 में मलाशय का कैंसर बताया गया। दोनो बार इलाज के बाद उसे डॉक्टरों ने ‘ठीक हो गई’ माना। मगर ऐसा था नहीं। अगस्त 2008 के शुरू में फिर कैंसर की आशंका में उसने कुछ जांचें करवाईं जिनकी रिपोर्ट उन्हें हिंदुस्तान में बिग बॉस के घर पर मिली। इस दौरान दो मई 2006 को जेड ने अपनी पहली आत्मकथा- 'जेड: माई ऑटोबायोग्राफी' छपवाई और उसी साल जून में अपना इत्र- 'श्..जेड गुडी' जारी किया जो खासा लोकप्रिय हुआ।

नवंबर 2006 तक उसने नाउ पत्रिका के लिए साप्ताहिक कॉलम भी लिखा। फिर अगस्त 2008 में तीसरी बार कैंसर होने का पता लगने के बाद अक्टूबर 2008 में एक और आत्मकथा लिखी- 'जेड: कैच अ फॉलिंग स्टार' जिसमें 2007 में बिग ब्रदर कार्यक्रम के दौरान के अनुभवों को समेटा है। उस पर एक टीवी डॉक्युमेंटरी ‘लिविंग विथ जेड गुडी’ का प्रसारण सितंबर में हुआ तो दिसंबर में एक और फिल्म ‘जेड’स कैंसर बैटल’ दिखाई गई। अक्टूबर में उसने अपना दूसरा ब्यूटी सैलोन खोला। फिर क्रिसमस के दौरान थिएटर रॉयल में स्नो व्हाइट नाटक में बिगड़ैल रानी का किरदार निभाया। इस हालत में भी अपनी जीजीविषा को जिलाए रखने और अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना सब कर पाने के लिए उसकी खूब तारीफ हुई। पर जनवरी में उसे इस शो से हटना पड़ा, शरीर साथ नहीं दे पाया।

शुक्रवार, 6 फरवरी को उनके मलाशय से गेंद के बराबर ट्यूमर ऑपरेशन के जरिए निकाला गया। आज उसने अपनी बीमारी की हालत में, मौत के करीब खड़े होकर भी शादी की है जिसे फिल्माने का ठेका भी उन्होंने महंगे में बेचा। इस ईवेंट के एक्सक्लूसिव कवरेज के लिए एक पत्रिका के साथ भी उनका सौदा हुआ, एक मोटी रकम के बदले। और कीमोथेरेपी से गंजी हुई अपनी खोपड़ी को दिखाने के लिए शादी में घूंघट न पहनने का फैसला भी चौंकाने वाला, पर बिकाऊ रहा।

अपनी जिंदगी के आखिरी चंद दिन कैमरे में कैद करवाने वाली यह बीमार सेलेब्रिटी अब अपनी मौत को भी भुनाना चाहती है? लोग यही कह रहे हैं और वह खुद भी कहती है कि वह मरने के पहले ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा कर लेना चाहती है, अपने पांच और चार साल के दो बच्चों के लिए। इस बारे में कुछ लोगों का कहना है कि यह जेड का शोषण है। किसी की मौत को टीवी पर लाइव देखना- दिखाना क्रूर और अमानवीय है। पर जेड का कहना है कि उनकी जिंदगी कैमरे के सामने बीती है, इसलिए मौत भी कैमरे के सामने ही हो। उधर डॉक्टर मान रहे हैं कि टीवी पर यह सब देख रहे हजारों दर्शक इसी बहाने कैंसर के बारे में जानेंगे और जागरूक बनेंगे।

Saturday, September 6, 2008

कैंसर हार रहा है

इंदौर में कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें कभी कैंसर ने दबोचा था लेकिन उनमें ऐसा कुछ था जिसके चलते उन्होंने न केवल इसे हराया बल्कि वापस जीवन में लौटकर वे फिर हंसते-गाते देखे जा सकते हैं। जीवन के रस से सराबोर, हर पल को अमूल्य समझते हुए अपने परिजनों और मित्रों के साथ खिलखिलाते हुए। उनके जीवन में आस्था के फूल खिले हैं और उनकी खुशबू में अपनी जिजीविषा को वे नए अर्थ दे रहे हैं। वेब दुनिया के रवींद्र व्यास ने 2002 में यह लेख लिखा था, लेकिन यह आज भी बराबर सामयिक और सार्थक है।- अनुराधा

गुडबाय कैंसर

रवींद्र व्यास

पता नहीं वह किस दिशा से आता है। कब आता है। बिना कोई आहट किए...देब पांव। धीरे-धीरे, चुपचाप। और आकर ऐसे दबोचता है कि जीवन का रस सूखने लगता है और जीवन के वसंत में पतझड़ का सन्नाटा पसर जाता है। लगता है जैसे वह किसी केकड़े की तरह सरकता हुआ भरे-पूरे जीवन को अपने जबड़ों जकड़ लेता है। उसका नाम सुनते ही भय पैदा होता है। सिहरन-सी दौड़ जाती है...कंपकंपी पैदा होती है....कैंसर।

मेरे शहर इंदौर मे कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें कैंसर ने कभी दबोचा था लेकिन उनमें ऐसा कुछ माद्दा था जिसके चलते उन्होंने न केवल कैंसर को हराया बल्कि जीवन में वापस लौटकर वे फिर हंसते-गाते देखे जा सकते हैं। जीवन के रस से सराबोर, हर पल को अमूल्य समझते हुए। अपने परिजनों और मित्रों के साथ खिलखिलाते हुए। उनके जीवन में आस्था के फूल खिले हैं और उनकी खुशबू में अपनी जिजीविषा को वे नए अर्थ दे रहे हैं।

अपने आत्मबल, आत्मविश्वास, अदम्य और अथक संघर्ष के साथ वे एक भरा-पूरा जीवन जी रहे हैं। कुछ मित्र-परिजनों का आत्मीय साथ, हमेशा हिम्मत बंधाता हुआ। और मौन के समुद्र में प्रार्थना के मोती झिलमिला रहे हैं जिनसे निकलती रोशनी की किरणें उनके जीवन को सुनहरा बना रही हैं। श्रीमती सीमा नातू को सन् 98 में पता चला कि उन्हें कैंसर है। वे कहती हैं-तब मेरे सामने मेरा दो साल का बेटा था। मैंने ज्यादा सोचा नहीं क्योंकि आदमी सोच-सोचकर ही आधा मर जाता है। बेटे को देख-देखकर ही मैंने ठाना कि कि मुझे जीना है। स्वस्थ रहना है। मैंने कई शारीरिक और मानसिक तकलीफों को सहा और भोगा लेकिन हार नहीं मानी। आज मैं स्वस्थ हूं।

सुगम संगीत की शौकीन श्रीमती नातू अब सामान्य जीवन बिता रही हैं। वे कहती हैं-मैं जीवन का हर पल जीना चाहती हूं। हर पल का सदुपयोग करना चाहती हूं।

एक युवा हैं नितीन शुक्ल। हट्टे-कट्टे। हमेशा हंसते-खिलखिलाते। उन्हें देखकर कल्पना करना मुश्किल है कि उन्हें कैंसर हुआ था। उनका हंसमुख व्यक्तित्व बरबस ही आकर्षित करता है। वे बहुत ही मार्मिक बात कहते हैं-यह जानकर कि मुझे कैंसर है, मैं डरा नहीं। निराश भी नहीं हुआ। मुझे लगता है कैंसर रोगी उतना प्रभावित नहीं होता जितना उसके परिवार वाले। उनके चेहरों पर हमेशा दुःख और भय की परछाइयां देखी-महसूस की जा सकती हैं। इसलिए मैंने तय किया कि मैं कैंसर से फाइट करूंगा और अपने परिवार को बचा लूंगा। दो बेटियों के पिता नितीन कहते हैं मैं अपने छोटे भाई के साथ मुंबई अकेला गया। सारी टेस्ट कराईं। इलाज कराया। मैंने हिम्मत नहीं हारी औऱ आज आप मुझे अपने परिवार के साथ हंसता-खेलता देख रहे हैं।

कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने कैंसर पर विजय पाकर अपने जीवन को दूसरों के लिए समर्पित कर दिया है। इनमें से एक हैं श्रीमती विशाखा मराठे। वे इंदौर के एक वृद्धाश्रम में बुजुर्गों की सेवा करती हैं। उन्हें सन् 96 स्तन कैंसर हुआ था। पहला आपरेशन बिगड़ गया वे दुःखी थीं लेकिन टूटी नहीं, हारी नहीं। वे कहती हैं-मेरे तीन आपरेशन हुए और ठीक होने के बाद मैंने तय किया कि असहाय लोगों के लिए काम करूंगी। मुंबई में टाटा इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग ली, गाड़ी चलाना सीखा और आज मैं घर और बाहर के अपने सारे काम करती हूं।

इसी तरह युवा आरती खेर का मामला भी बहुत विलक्षण है। परिवार में सबसे पहले उन्हें ही सन् 95 में पता लगा कि उन्हें ब्लड कैंसर है। वे कहती हैं- आप विश्वास नहीं करेंगे, मैं कतई दुःखी नहीं हुई। निराश भी नहीं। शारीरिक तकलीफ तो सहन करना ही पड़ती है। मुझे नहीं पता मुझे कहां से शक्ति आ गई थी। मैंने अपने डॉक्टर के निर्देशों का सख्ती से पालन किया। इसीलिए जल्दी अच्छे रिजल्ट्स मिलने लगे और एक दिन मैं ठीक हो गई। आरती ठीक हो गई हैं और पेंटिंग का अपना शौक बरकरार रखे हुए हैं। वे मनचाही तस्वीर बनाती हैं, मनचाहे रंग भरती हैं। वे बच्चों को पढ़ाती भी हैं।

श्रीमती आशा क्षीरसागर का मामला अलग है। उन्हें जब मालूम हुआ कि वे कैंसरग्रस्त हैं तो उन्हें धक्का लगा। वे बेहत हताश हो गईं। वे कहती हैं-मुझे लगा अब जिंदगी मेरे हाथ छूट गई है। मुंबई इलाज के लिए गई। वापस आई तो लगा जीवन ऐसे ही खत्म नहीं हो सकता। इसलिए अपने दुःख-निराशा को झाड़-पोंछकर फिर सामान्य जीवन में आ गई हूं। अब मैं घर के सारे काम बखूबी संभाल लेती हूं। खूब घुमती-फिरती हूं। फिल्में देखती हूं। लगता है कैंसर के बावजूद जीवन कितना सुंदर है।

बैंक के सेवानिवृत्त अधिकारी एम.एल. वर्मा को सन् 89 में इसोफेगस का कैंसर हुआ। उनकी आवाज चली गई थी। बोलने में बेहत तकलीफ होती थी। सांस लेने में जान जाती लगती थी। वे कहती हैं-मेरी चार लड़कियां हैं। मुझे ठीक होना ही था। मैं ठीक हुआ। कैंसर से लड़ने की ताकत मुझे अपनी बेटियों से मिली। मैं तीन की शादी कर चुका हूं, चौथी की तैयारी है। श्री वर्मा का स्वर यंत्र निकलने के बावजूद वे अब ठीक से बोल पाते हैं। खाने-पीने में शुरुआती तकलीफ के बाद अब इसमें कोई समस्या नहीं आती। वे कहते हैं-मौत एक बार आनी ही है लेकिन विल पावर के चलते आप बड़ी से बड़ी प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ सकते हैं। दो-तीन कीमो-थैरेपी और 30 रेडिएशन के बाद उनके गले में छेद किया गया था जिसके बदौलत वे बोल पाते हैं। पेट से हवा खींचकर वे अपने स्पीच को इम्प्रूव कर रहे हैं। यानी बिना स्वर यंत्र के जीवन से सुर मिला रहे हैं। वे कहते हैं-कैंसर होने के आठ साल तक यानी सेवानिवृत्त होने तक ईमानदारी से नौकरी की। आज मैं अपने जीवन से संतुष्ट हूं।

तो ये वे लोग हैं जो कैंसर को पूरी तरह जीत चुके हैं। कहने की जरूरत नहीं, जीवन जीने की की अदम्य चाह के कारण ही वे एक बड़े रोग से गुजरकर, जीवन के वसंत में सांसें ले रहे हैं। जहां उनके स्वप्न हैं, उनकी आकांक्षाएं हैं, छोटे-छोटे सुख हैं और है एक भरा-पूरा संसार जो लगातार उन्हें कुछ सार्थक करने की प्रेरणा और उत्साह देता रहता है। क्या इनका जीवन दूसरे लोगों के लिए प्रेरणा नहीं बन सकता?
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