Showing posts with label About Cancer. Show all posts
Showing posts with label About Cancer. Show all posts

Sunday, February 19, 2012

जिम्मेदार होना कैंसर के बारे में

राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप में 4 फरवरी 2012 को विश्व कैंसर दिवस पर मेरा यह आलेख छपा था। चित्र के नीचे पूरा लेख संलग्न है।



पीछे मुड़कर देखूं तो अपने ही जीवन की घटनाएं चलचित्र-सी, किसी और के साथ घटी लगती हैं। महज 30 की उम्र में स्तन कैंसर होने के बारे में कौन सोच पाता है? चौदह साल पहले जब मुझे पहली बार कैंसर होने का पता चला तब तक वह तीसरे स्टेज की विकसित अवस्था में पहुंच चुका था। अच्छी बात बस यह थी कि वह छिटक कर किसी दूसरे महत्वपूर्ण अंग तक नहीं पहुंच पाया था। इस बीमारी या इसके कारण, बचाव, निदान, इलाज के बारे में कुछ भी नहीं पता था। इसलिए जब इलाज शुरू हुआ तो मेरे लिए एक ही सूत्र वाक्य था- इसके बारे में जानो, जानो और ज्यादा जानो। और जानने की इस प्रक्रिया ने दिमाग और मन को लगातार व्यस्त और उलझाकर रखा। जानने की इस लगन ने ग्यारह महीने लंबे कठिन इलाज के बीच किसी वक्त उकता कर रुक जाने का ख्याल भी न आने दिया।

कैंसर के बारे में हर संभव स्रोत से खोज-खोज कर पढ़ने-जानने की उत्सुकता ने मुझे उन कठिन अपरिचित रास्तों के कई बड़े-छोटे रोड़ों से पहले ही परिचित करा दिया। जानकारी ने मुझे जीने का भरोसा दिया और और डॉक्टरों से अपने हित में बीमारी के बारे में, उसके इलाज और बुरे नतीजों के बारे में सवाल करने आत्मविश्वास भी। कई तरह की सुनी-सुनाई बातों की सच्चाई-झुठाई समझ में आने लगी। दवाओं के संभावित साइड इफेक्ट्स के लिए काफी हद तक तैयारी कर पाने और मानसिक रूप से तैयार रहने का मौका दिया। कम उम्र मेरा भरपूर साथ दे रही थी लेकिन इसे संतुलित करने के लिए नकारात्मक पक्ष भी मौजूद था- उस कड़े इलाज के प्रति जरूरत से ज्यादा संवेदनशील और प्रतिक्रियावादी मेरा शरीर।

पूरी जिंदगी की साधः लड़ाई के दो मोर्चे

इलाज के दौरान बाल सारे झड़ गए, सर्जरी के बाद शरीर बेडौल हो गया। लेकिन ये छोटी बातें थीं और अस्थायी भी। ज्यादा जरूरी था- जीवन को बनाए रखना ताकि इन बाहरी कमियों के बाद भी जिंदगी के ज्यादा महत्वपूर्ण, दिलचस्प हिस्सों को बरकरार रख पाऊं। इन छोटे दिखावटी हिस्सों को खोकर अगर एक अधूरी जिंदगी को पूरी लंबाई तक ले जाने में मदद मिलती है तो उन्हें मैं सौ बार गंवाने को तैयार थी।

इलाज पूरा हुआ। उसके बाद पहले तीन महीने पर, फिर छह और फिर 12 महीने पर फॉलो-अप, डॉक्टरी और तरह-तरह की लैबोरेटरी में जांचों और स्कैन इत्यादि का सिलसिला। लेकिन बड़ी बात यह थी कि मैं जिंदा थी और जीना चाहती थी। इसके सामने बाकी सारी बातें नजरअंदाज करने लायक थीं। खुद अपने लिए नहीं बल्कि अपने लोगों के लिए जीना, जिनको मेरी परवाह थी। दरअसल कैंसर के खिलाफ लड़ाई कभी अकेले की नहीं होती। यह साझा लड़ाई होती है जिसमें डॉक्टर-नर्स, परिवार के लोग मित्र-शुभचिंतक सभी शामिल होते हैं। बीमार के शरीर को मैदान बनाकर लड़ी जा रही इस लड़ाई में कोई आयुध पहुंचाता है तो कोई रसद। कोई शुभकामनाएं देकर ही मनोबल बनाए रखता है। दुश्मन यानी इस बीमारी की कमजोरियों और ताकतों के बारे में जागरूकता लड़ाई में जीत की संभावना को बढ़ा देते हैं।

कैंसर होने का पता चलने के बाद पांच साल जी लेना किसी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। डॉक्टर आम तौर पर इसके बाद जीवन को सुरक्षित, कैंसर को ठीक हुआ मान लेते हैं। मेरे पांच साल पूरे होने पर डॉक्टरों की बधाई मिली। लगा मुक्ति मिली। एक आत्मकथात्मक किताब भी छप कर आ गई। मैंने सोचा, मेरे जीवन की एक कठिन कहानी खत्म हुई।

मगर नहीं। दो और साल बीते तो पता चला कि वह तो जीवन की एक लंबी किताब का सिर्फ एक अध्याय था। दूसरा अध्याय अभी बाकी था। यह एक और लड़ाई थी मेरी, कैंसर के खिलाफ जिसमें मैं फिर से अनचाहे ही धकेल दी गई थी। उसी अस्पताल में उन्हीं डॉक्टरों के पास मैं फिर पहुंच गई अपनी कहानी के इस नए अध्याय की भूमिका लेकर। डॉक्टरों ने मुझे ‘वेटरन’ करार दिया, इस बिनाह पर कि पिछले अनुभवों के बाद मेरे लिए कुछ भी नया नहीं होगा और आसानी से मैं इसके इलाज को दोबारा भी झेल पाऊंगी। लेकिन अनुभवी हो जाने भर से दर्द की अनुभूति कम तो नहीं हो जाती। इस बार भी वही इलाज- सर्जरी, 25 दिन रेडियोथेरेपी और छह साइकिल कीमोथेरेपी- बिना किसी छूट, कोताही या राहत के।

सीखने होंगे कुछ गुर बेहतर जिंदगी के

दूसरे अध्याय को भी कोई सात साल बीत चुके हैं। इन चौदह वर्षों में जीवन के उतार-चढ़ावों से गुजरकर मैंने जीने के कुछ गुर सीख लिए हैं। बेहतर जिंदगी पाने का पहला गुर है- अपने को जानना, अपने शरीर को पहचानना, समझना, कहीं पर आए बदलावों पर नजर रखना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना। बदलाव या बीमारी का पता लगते ही उसके इलाज का उपाय करना पहला महत्वपूर्ण कदम है। ठोस कैंसर की गांठों का पता आम तौर पर मरीज को ही सबसे पहले चलता है। डॉक्टर भले ही न पहचान पाए, लेकिन व्यक्ति अगर नियमित रूप से सही तरीके से अपने शरीर को जांचे तो उसमें आ रहे बदलावों को पहचान सकता है। कैंसर के मामले में जल्दी पहचान उसके सफल इलाज की कुंजी है। हमारे देश में कोई 70 फीसदी कैंसर के मामले जब तक सही अस्पताल तक पहुंचकर इलाज की स्थिति में आते हैं, ठीक होने की संभावना से काफी आगे निकल चुके होते हैं। देरी हो चुकी होती है और ट्यूमर फैल चुका होता है। इसलिए बीमारी का पता जितनी जल्दी लग जाए, इलाज उतना ही कामयाब और सरल होता है।

हालांकि पिछले समय में कैंसर के नए-नए कम साइड इफेक्ट वाले इलाज खोजे गए हैं, जो पहले के इलाज से ज्यादा कारगर हैं। टार्गेटेड थेरेपी कैंसर के मरीज की जरूरत के अनुसार डिजाइनर दवाओं से इलाज की पद्यति है, जो स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान किए बिना सिर्फ कैंसर कोशिकाओं को खत्म करती है, जबकि पारंपरिक इलाज में कैंसर के साथ-साथ स्वस्थ कोशिकाएं भी बुरी तरह प्रभावित होती हैं। कुछ प्रकार के कैंसरों में टार्गेटेड थेरेपी शुरुआती परीक्षणों के स्तर पर सफल साबित हो रही है।

उम्मीद की लौ में है जिंदगी

विकसित देशों में कैंसर के पुख्ता इलाज की खोज में लगातार अनुसंधान चल रहे हैं, हालांकि पिछले कुछ दशकों में जितना समय और धन इस पर खर्च किया गया है, उसके मुताबिक परिणाम नहीं मिल पाए हैं। विकसित अवस्था के ज्यादातर कैंसर अब भी ठीक नहीं हो पाते, फिर भी कैंसर के साथ जीवन अब पहले से कहीं ज्यादा लंबा और ज्यादा आसान हो गया है। वैसे भी कैंसर मूलतः शरीर के भीतर की रासायनिक संरचनाओं में गड़बड़ी के कारण होने वाली बीमारी है। ऐसे में सेहतमंद खान-पान, शारीरिक क्रियाशीलता, बेहतर जीवनचर्या सभी के लिए महत्वपूर्ण है, ताकि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता इतनी मजबूत हो कि कैंसर दूर रहे या कुछ ज्यादा समय तक शरीर इसके खिलाफ लड़ पाए।

अपने शरीर और मन की क्षमताओं की सीमाओं को टटोलना और बढ़ाते जाने की लगातार कोशिश करते रहना भी जीने की कला है जो कैंसर जैसी शरीर के भीतर पैदा होने वाली गड़बड़ियों पर लगाम रखती है। साथ ही जरूरी है- जीवन की उम्मीद बनाए रखना और इसे आगे बढ़ाना, उन सब तक, जिनके जीवन में बस इसी एक लौ की सख्त जरूरत है।
-आर अनुराधा

Sunday, October 30, 2011

कैंसर रिसर्च फंडिंग और सपोर्ट का फंडाः व्यंग्य की नज़र से

अमरीका के नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट का कैंसर अनुसंधान पर सालाना बजट कोई 5 अरब डॉलर का है। इसके अलावा सूज़न के. कोमेन फॉर क्योर नाम की संस्था हर साल अनेक लोगों और एजेंसियों को लाखों डॉलर देती है ताकि स्तन कैंसर का इलाज ढ़ूंढा जा सके। बीसियों साल से दुनिया भर की लैबोरेटरीज़ में ये रिसर्च चल रहे हैं, लेकिन अभी तक कैंसर के इलाज के नाम पर 99 फीसदी वही इलाज हैं जो 20 साल पहले थे, थोड़े-बहुत फाइन-ट्यूनिंग के साथ। मरीज को इस रिसर्च का कुछ भी हिस्सा नहीं मिला है। इसके पीछे क्या पॉलिटिक्स हैं, भ्रष्टाचार है? न उसका इलाज का खर्च कम हुआ, न कैंसर से बचाव और न ही इलाज की सफलता का भरोसा।

इन कार्टूनों से कुछ समझ सकें तो बताएं।



Monday, April 25, 2011

क्या कहते हैं आंकड़े कैंसर के बारे में


दुनिया में
# हर साल एक करोड़ नए कैंसर के मामले सामने आ रहे हैं।

# हर साल 60 लाख से ज्यादा कैंसर मरीज जान से हाथ धो बैठते हैं। ये कुल होने वाली मौतों का 12 फीसदी है।

# 2020 तक हर साल नए कैंसर मरीजों की संख्या में डेढ़ करोड़ और सालाना मौतों की संख्या एक करोड़ तक हो जाने का अंदेशा है।

# नैशनल कैंसर कंट्रोल प्रोग्राम के मुताबिक वर्ष 2000 में विकसित देशों में कैंसर रोगियों की संख्या 54 लाख और विकासशील देशों में 47 लाख थी। 2020 तक ये आंकड़ा उलट कर 60 लाख और 93 लाख हो जाने की संभावना है।

#1950 के मुकाबले आज पेट के कैंसर के मामले आधे रह गए हैं जबकि फेफड़ों के कैंसर के मामले बेतरह बढ़े हैं।

# 1980 के बाद विकसित देशों में धूम्रपान से होने वाले नुकसान के बारे में जागरूकता की वजह से पुरुषों में फेफड़ों के कैंसर में कमी आई है जबकि विकासशील देशों में और महिलाओं में यह अब भी बढ़ ही रहा है।

# स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि देश में आज की तारीख में कोई 20-25 लाख कैंसर के मरीज हैं। हर साल सात लाख से ज्यादा नए मरीज इस लिस्ट में जुड़ रहे हैं और इनमें से तीन लाख हर साल दम तोड़ देते हैं।
देश में हर लाख में 70-90 लोगों को कैंसर होने की आशंका है।

भारत में पुरुषों में फेफड़ों का कैंसर सबसे आम हैं। इसके बाद पेट और मुंह के कैंसर आते हैं।

महिलाओं में स्तन कैंसर के मामले सबसे ज्यादा हैं। शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को स्तन कैंसर होने की संभावना है।

इसके बाद बच्चेदानी के मुंह के (सर्वाइकल) कैंसर का नंबर आता है। कुछेक साल पहले तक महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर के मामले सबसे ज्यादा थे।

Sunday, September 13, 2009

'सेल फोन से ब्रेन ट्यूमर होता है?- गलत'

हम सभी को एक-न-एक बार वह फॉरवर्डेड मेल मिली होगी जिसमें कहा जाता है कि ज्यादा सेलफोन इस्तेमाल करने वालों को सिर का ट्यूमर होने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। इसलिए सेलफोन को सिर के पास न यानी कान पर रखें बल्कि ब्लू-टूथ उपकरणों का इस्तेमाल करें।

सेलफोन से ट्यूमर होने की बात सबसे पहले चर्चा में आई जब डेविड रेनार्ड ने 1993 में एक टीवी शो में अपनी पत्नी को ब्रेन ट्यूमर होने का कारण यह माना कि वह सिर से सेलफोन लगाकर काफी देर तक बातें करती थी। इसके समर्थन में कई न्यूरोसर्जन्स भी कह चुके हैं हालांकि वे भी इसका कोई पुख्ता कारण नहीं दे पाए कि यह कैसे होता है।

इसका जवाब मेडीकल साइंस के नहीं, भौतिकी के विशेषज्ञों से आया है। कोलैबोरेशन ऑफ इंटरनैशनल ईएमएफ एक्टिविस्ट्स नाम के इस ग्रुप ने सेलफोन से ब्रेन ट्यूमर होने की संभावना पर एक रपोर्ट जारी की है।

दरअसल कैंसर शरीर में होता है जब कोशिकीय डीएनए में गडबड़ होती है और उसमें म्यूटेशन आ जाता है, यानी उसकी संरचना में बदलाव आ जाता है। रसायनों, रेडएशन या वायरस से होने वाले ट्यूमर सभी में कोशिका में यह बदलाव आता है। सभी प्रकार के रेडएशन में फोटोन होते हैं और रेडिएशन की वेवलेंथ से उस फोटोन की ताकत तय होती है।

भौतिकशास्त्री एक आधारभूत तथ्य देते हैं कि साधारण बल्ब की रौशनी की फ्रीक्वेंसी 5x1014 हर्ट्ज़ होती है जिसमें हमारी कोशिका के डीएनए को तोड़ने या छेड़ने की ताकत नहीं होती, वरना आज हम सब या तो कैंसरों का पुलिंदा बने घूम रहे होते या अंधेरे में जी रहे होते।

इसके मुकाबले सेलफोन की फ्रीक्वेंसी 1 x 109 हर्ट्ज़ होती है और घरेलू इस्तेमाल के माइक्रोवेव ओवन की 2.45 x 1012 हर्ट्ज़। यानी बल्ब के मुकाबले माइक्रोवेव में ऊर्जा एक हजारवां और सेलफोन में दस लाखवां हिस्सा होती है। यानी सेलफोन की ऊर्जा से जीवित शरीर के भीतर किसी कोशिका के डीएनए को तोड़ना वैसा ही है जैसे कागज़ की कैंची से लोहे का तार काटना।

जर्नल ऑफ नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट ने 2001 के अंक में डेनमार्क के 5 लाख सेलफोन इस्तेमाल करने वालों के आंकड़ों का अध्ययन कर रिपोर्ट छापी है जिसमें उन्हें ब्रेन ट्यूमर होने के कोई लक्षण नहीं मिले।

मैरीलैंड विश्वविद्यालय के भौतिकशास्त्री रॉबर्ट एल पार्क का इसी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन ऐसे किसी तथ्य की पुष्टि नहीं करता।

और जहां तक फॉर्वर्डेड मेल्स में यूटू्यूब की सेलफोन से मक्के का पॉपकॉर्न बनने जैसी फिल्मों का सवाल है, तो थोड़ी सी कंप्यूटर कारीगरी से सेलफोन के ऊपर रखे मक्के दानों को नीचे टेबल पर गिरते ही पॉपकॉर्न में बदल देना कोई बड़ी बात नहीं। और यह वीडियो दरअसल एक ब्लू टूथ बनाने वाली कंपन का विज्ञापन है। नीचे बटन पर क्लिक करके देखा जा सकता है।

Monday, April 20, 2009

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-4)

खान-पान और कैंसर

अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को जीवन भर सेहतमंद खान-पान और सामान्य कसरत के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ बोहतर खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यूआईसीसी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।

भोजन के खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।

खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा, दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है तो विकासशील देशों में कुपोषण की। जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता तो शरीर कैंसर का आसान शिकार बन जाता है।

मांसाहार बनाम शाकाहार-

सेहतमंद खानपान की बात हो तो ये मुद्दा आना ही है कि मांसाहार बेहतर है कि शाकाहार। मेरा अपना विवेक शाकाहार के पक्ष में तर्क देता है। नीचे कुछ तथ्य हैं जो मैंने शाकाहार के समर्थन में ढूंढ निकाले हैं। मांसाहार के पक्ष में आपकी राय हो तो जरूर बताएं, चर्चा ज्यादा समृद्ध होगी।

*जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था।

*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतन 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।

* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।

* 2006 में हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1,35,000 लोगों में से अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाने वालों को मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।

शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है-

* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।

* मांस को हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।

* मांस-मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं। थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।

* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं।

* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोशा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते। खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।

* फलों और सब्जियों में एंटी-ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसरकारी रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।

* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल कर बीमारी नहीं पैदा कर पातीं। शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।

Thursday, April 16, 2009

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-2)

इंटरनेट पर कैंसर के बारे में ढेरों जानकारी बिखरी पड़ी है। इनका सार आपके सामने रखने की कोशिश में यह सीरीज दे रही हूं। यह मेरे नवभारत टाइम्स में 6 अप्रैल को जस्ट-जिंदगी पेज पर छपे लेख पर आधारित है।

कैंसर को बढ़ावा देते हैं ये सब

1. तंबाकू का सेवन

हमारे देश में पुरुषों में 48 फीसदी और महिलाओं में 20 फीसदी कैंसर की इकलौती वजह तंबाकू है। अगर आप बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते, लेकिन मजबूरी में उसके धुएं में सांस लेनी पड़ती है तो भी आपको खतरा है। गुटखा (पान मसाला) चाहे तंबाकू वाला हो या बिना तंबाकू वाला, दोनों नुकसान करता है। हां, तंबाकू वाला गुटखा ज्यादा नुकसानदायक है। तंबाकू या पान मसाला चबाने वालों को मुंह का कैंसर ज्यादा होता है।

2. एक-दो पेग से ज्यादा शराब

रोज दो से ज्यादा पेग लेना मुंह, खाने की नली, गले, लिवर और ब्रेस्ट कैंसर को खुला न्योता है। ड्रिंक में अल्कोहल की ज्यादा मात्रा और साथ में तंबाकू का सेवन कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ा देता है। सबसे कम अल्कोहल बियर में, उससे ज्यादा वाइन में और उससे भी ज्यादा अल्कोहल विस्की व रम में होती है। बेस्ट है कि शराब न लें। अगर छोड़ना मुश्किल है तो एक-दो पेग से ज्यादा न लें।

3. ज्यादा चर्बी (फैट) वाला भोजन

तला हुआ खाना या ऊपर से घी-मक्खन लेने से बचना चाहिए। ज्यादा चर्बी खाने वाले लोगों में ब्रेस्ट, प्रॉस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं। अनुमान है कि कैंसर से होनेवाली 30 फीसदी मौतों को सही खानपान के जरिए रोका जा सकता है। प्रेजर्वेटिव वाले प्रॉसेस्ड फूड और तेज आंच पर देर तक पकी चीजें कम खाएं।

4. नॉन-वेज डिशेज

मीट हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा वक्त लगता है। ज्यादा देर तक बिना पचे भोजन से पेट में एसिड व दूसरे जहरीले रसायन बनते हैं जिनसे कैंसर बढ़ता है। जर्मनी में 11 साल तक चली स्टडी में पाया गया कि वेजिटेरियन लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। सब्जियों में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कैंसर सेल्स को बनने से रोकते हैं।

5. बार-बार एक्स-रे कराना

एक्स-रे, सीटी स्कैन आदि की किरणें हमारे शरीर में पहुंचकर सेल्स की रासायनिक गतिविधियां बढ़ा देती हैं जिससे स्किन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए अगर आप अलग-अलग डॉक्टरों से इलाज कराते हैं और हर डॉक्टर अलग एक्सरे कराने के लिए कहे, तो डॉक्टर को जरूर बताएं कि आप पहले कितनी बार एक्सरे करा चुके हैं।

6. हार्मोन थेरपी

हार्मोन थेरपी बहुत जरूरी होने पर ही लें। महिलाओं को मीनोपॉज़ के दौरान होनेवाली तकलीफों से बचने के लिए उन्हें इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टिन हार्मोन थेरपी दी जाती है। हाल की स्टडीज से पता चला है कि मीनोपॉजल हार्मोन थेरपी से ब्रेस्ट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। हार्मोन थेरपी लेने के पहले इसके खतरों पर जरूर गौर कर लेना चाहिए।

7. लगातार धूप में रहना

सूरज से निकलने वाली अल्ट्रावॉयलेट किरणों से स्किन कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। धूप में निकलना हो तो पूरी बाजू के कपड़े, कैप, अल्ट्रावॉयलेट किरणें रोकने वाला चश्मा और कम-से-कम 15 एसपीएफ वाले सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना चाहिए। वैसे, हम भारतीयों की स्किन में मेलानिन पिग्मेंट ज्यादा होता है, जो अल्ट्रावॉयलेट किरणों को रोकता है। इससे स्किन को कैंसर का खतरा कम होता है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं होता।

8. पेनकिलर दवाएं ज्यादा लेना

पेनकिलर और दूसरी दवाएं खुद ही बेवजह खाते रहने की आदत छोड़ें। डॉक्टर की सलाह के बिना दवाएं खाना शरीर के लिए घातक हो सकता है।

Tuesday, April 14, 2009

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (1)

इंटरनेट पर कैंसर के बारे में ढेरों जानकारी बिखरी पड़ी है। इनका सार आपके सामने रखने की कोशिश में यह सीरीज शुरू कर रही हूं। यह मेरे नव भारत टाइम्स में 6 अप्रैल को जस्ट-जिंदगी पेज पर छपे लेख पर आधारित है।

कैसे होता है कैंसर

हमारे शरीर की सबसे छोटी यूनिट (इकाई) सेल (कोशिका) है। शरीर में 100 से 1000 खरब सेल्स होते हैं। हर पल ढेरों नए सेल बनते रहते हैं और पुराने व खराब सेल खत्म होते जाते हैं। शरीर के किसी भी नॉर्मल टिश्यू में जितने नए सेल्स पैदा होते हैं, उतने ही पुराने सेल्स खत्म हो जाते हैं। इस तरह टिश्यू में संतुलन बना रहता है। कैंसर के मरीजों में यह संतुलन बिगड़ जाता है और उनमें सेल्स की बेलगाम बढ़ोतरी होती रहती है।

गलत लाइफस्टाइल और तंबाकू-शराब जैसी चीजें किसी सेल के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर पैदा कर देती हैं। आमतौर पर जब किसी सेल में किसी वजह से खराबी आ जाती है तो खराब सेल अपने जैसे खराब सेल्स पैदा नहीं करता। वह खुद को मार देता है। कैंसर सेल खराब होने के बावजूद खुद को नहीं मारता, बल्कि अपने जैसे सेल बेतरतीब तरीके से पैदा करता जाता है जो सही सेल्स के कामकाज में रुकावट डालने लगते हैं।

कैंसर सेल एक जगह टिककर नहीं रहते। अपने मूल अंग से निकलकर शरीर में किसी दूसरी जगह जमकर वहां भी अपने तरह के बीमार सेल्स का ढेर बना डालते हैं। इससे उस अंग के कामकाज में भी रुकावट आने लगती है। इन अधूरे बीमार सेल्स का समूह ही कैंसर है। ट्यूमर बनने में महीनों, बरसों, बल्कि कई बार तो दशकों लग जाते हैं। कम-से-कम एक अरब सेल्स के जमा होने पर ही ट्यूमर पहचानने लायक हालत में आता है।

बिनाइन ट्यूमर और कैंसर में फर्क

ट्यूमर को गांठ या गिल्टी भी कहते हैं। यह कैंसर-रहित (नॉन मेलिग्नेंट या बिाइन) भी हो सकती है और कैंसर वाली (मेलिग्नेंट) भी। यानी हर ट्यूमर कैंसर ही हो, जरूरी नहीं। कई बार पुराना कैंसर-रहित ट्यूमर भी बाद में जाकर कैंसर बन सकता है। इसलिए यदि शरीर में कहीं गांठ या गिल्टी हो, तो समय-समय पर उसकी जांच करवाना सेफ रहता है। इसके लिए बायोप्सी कराई जाती है।

Sunday, March 8, 2009

संक्षेप में जो आप जानना चाहते हैं स्तन कैंसर के बारे में

बदले समय में भारतीय महिलाओं में भी स्तन का कैंसर सबसे आम हो गया है। हर 22 वीं महिला को कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। शहरी महिलाओँ में यह संख्या और भी ज्यादा है।

खुद पहचानें
स्तन कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान। आइने के सामने और शावर में या लेट कर स्तनों की हर महीने पीरियड के बाद खुद जांच करके देखें-

- स्तन या निप्पल के आकार में कोई असामान्य बदलाव।
- कोई गांठ, चाहे वह मूंग की दाल के बराबर ही क्यों न हो।
- स्तन में सूजन, लाली, खिंचाव या गड्ढे पड़ना, संतरे के छिलके के समान छोटे-छोटे छेद या दाने-से बनना।
- एक स्तन पर खून की नलियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगना।
- निप्पल भीतर को खिंचना, उसमें से दूध के अलावा कोई भी स्त्राव- सफेद, गुलाबी, लाल, भूरा, पनीला या किसी और रंग का, होना ।
- स्तन में कही भी लगातार दर्द होना।

जांच
• 40 की उम्र में एक बार और फिर हर दो साल में मेमोग्राफी करवानी चाहिए ताकि शुरुआती स्टेज में ही स्तन कैंसर का पता लग सके।
• ब्रेस्ट स्क्रीनिंग के लिए एमआरआई, अल्ट्रासोनोग्राफी भी की जाती है।
• एफएनएसी- किसी ठोस गांठ की जांच सुई से वहां की कोशिकाएं निकालकर की जाती है।

बचाव
- कसरत: हर हफ्ते सवा तीन घंटे दौड़ लगाने या 13 घंटे पैदल चलने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर की संभावना 23 फीसदी कम होती है।
- मातृत्व: बच्चे पैदा करना, वह भी सही उम्र में, और उसे स्तनपान कराना स्तन कैंसर को टालने का कारगर तरीका है।
- व्यसन: गुटका, तंबाकू और धूम्रपान ही नहीं, अल्कोहल भी स्तन कैंसर के रिस्क को बढ़ाता है। हर ड्रिंक का अर्थ है, कैंसर के खतरे में इजाफा।
- धूपस्नान: विटामिन डी की कमी का सीधा संबंध स्तन कैंसर से है। शरीर को हर दिन 1000 मिलिग्राम कैल्शियम और 350 यूनिट विटामिन डी मिलना चाहिए। 5-10 मिनट का धूपस्नान शरीर में विटामिन डी बनाने में मदद करेगा।
- कैलोरी में कटौती: रेड मीट और प्रोसेस्ड भोजन कम, होल ग्रेन, फल-सब्जियां ज्यादा खाना कैंसर से बचाव का रास्ता है। चर्बी से मिलने वाली कैलोरी कुल कैलोरी की 20 फीसदी तक रहे तो स्तन कैंसर की संभावना में 24 फीसदी की कटौती हो सकती है।
- छरहरी काया: शरीर पर छाई चर्बी ईस्ट्रोजन हॉर्मोन बनाती है जो स्तन कैंसर का कारण है। दुबला लेकिन सुपोषित होना आदर्श स्थिति है।

भ्रम न पालें
• कैंसर छूत की, संक्रमण से होने वाली बीमारी नहीं है। मधुमेह और उच्च रक्तचाप की तरह शरीर में खुद ही पैदा होती है।
• चोट या धक्का लगने से स्तन कैंसर नहीं होता। बल्कि कई बार चोट लगने पर इसकी तरफ ध्यान जाता है।
• 20 साल की युवती से लेकर मृत्यु की चौखट पर खड़ी बूढ़ी महिला तक किसी को भी स्तन कैंसर हो सकता है।
• स्तन कैंसर पुरुषों को भी होता है। 200 में से एक स्तन कैंसर का मरीज पुरुष हो सकता है।
• खान-पान और जीवनचर्या में सकारात्मक बदलाव करके कैंसर की संभावना को कम किया जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद इसका प्रामाणिक इलाज ऐलोपैथी ही है।
• 93 फीसदी मामलों में स्तन कैंसर वंशानुगत बीमारी नहीं है।
• स्तन की 90 फीसदी गांठें कैंसररहित होती हैं, सिर्फ 10 फीसदी गांठों में कैंसर की संभावना होती है। फिर भी हर गांठ की फौरन जांच करानी चाहिए।

Saturday, October 25, 2008

क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है?

क्या आपने आज कुछ गुलाबी पहना है? गुलाबी कपड़े, जूते, मोज़े, कड़े, रुमाल, रिबन... कुछ भी। अगर नहीं तो मेरी गुज़ारिश है कि जरूर पहनें। यह स्तन कैंसर का प्रतीक रंग है। आज का दिन गुलाबी पहनने के लिए खास इसलिए है कि, कहते हैं न, जब जागे, तभी सवेरा। जागरूकता के लिए तो कोई भी दिन अच्छा है। आप सोच रहे हैं, कि एक दिन एक खास रंग पहनने से क्या हो जाएगा! तो जनाब, इस लेख को पूरा पढ़ जाइए, आपको जवाब मिल जाएगा।

अक्टूबर का महीना स्तन कैंसर जागरूकता को समर्पित है। अक्टूबर को नैशनल ब्रेस्ट कैंसर अवेयरनेस मंथ के रूप में मनाने की शुरुआत अमरीका में हुई। अब इसे कई देशों ने अपना लिया है।

गुलाबी रंगत में व्हाइट हाउस, अक्टूबर 2008





पिंक रिबन का इतिहास

स्तन कैंसर की मरीज सूज़न जी. कोमेन को मौत के करीब पहुंची हालत में देखकर बहन नैंसी जी. ब्रिकनर ने उससे वादा किया कि वह इस बीमारी के बारे में जागरुकता फैलाने की हर कोशिश करेगी। इसी वादे को निभाने के लिए 1982 में ‘सूज़न जी. कोमेन फॉर क्योर’ नाम की संस्था बनी। इसके जरिए नैंसी ने स्तन कैंसर के खिलाफ अभियान छेड़ दिया। आज यह स्तन कैंसर के मरीजों, विजेताओं और कार्यकर्ताओं का संभवतः दुनिया का सबसे बड़ा नेटवर्क है।

अक्टूबर 2007- स्तन कैंसर जागरूकता माह, गुलाबी रोशनी में नहाया टोकियो टावर

1991 में इस संस्था ने न्यूयॉर्क में आयोजित कैंसर जागरूकता दौड़ में सहभागियों को प्रतीक के रूप में गुलाबी रिबन बांटे। तब से गुलाबी रिबन दुनिया भर में स्तन कैंसर का प्रतीक चिन्ह बन गया है।




गुलाबी रंगत

सामाजिक संस्थाओं को जोड़ने वाली कड़ी के रूप में गुलाबी रिबन कामयाब रहा है। इसके नाम पर ‘पिंक रिबन इंटरैशनल’ जैसी संस्थाएं और ‘वियर इट पिंक’ और ‘इन द पिंक’ जैसी स्तन कैंसर से जुड़ी परियोजनाएँ खासा बड़ा काम समाज के लिए कर रही हैं। गुलाबी रिबन के अलावा इस रंग के दूसरे उत्पाद भी इस कैंसर जागरूकता माह में खूब बेचे और खरीदे जाते हैं और इससे तथा दान में मिले धन का इस्तेमाल स्तन कैंसर जागरूकता, इलाज और अनुसंधान के लिए किया जाता है।

स्तन कैंसर पर सार्वजनिक आयोजनों के अलावा एक दिन तय किया जाता है जब संस्था से जुड़े सभी लोग और यहां तक कि उसे प्रायोजित करने वाली कंपनियों के कर्मचारी भी गुलाबी पहनते हैं। इसे ‘पिंक डे’ कहा जाता है।

'पिंक फॉर अक्टोबर' पिंक फॉर अक्टोबर का लोगो

एक और अभियान है जिसके तहत स्तन कैंसर जागरूकता अभियान का समर्थन करने वाले सभी वेबसाइट इस महीने अपने पृष्ठों पर गुलाबी रंग बिखेर देते हैं। (आप भी बिखेर सकते हैं)

अक्टूबर 2006 में मैथ्यू ओलीफैंट का मज़ाक-मज़ाक में बनाया गुलाबी रंग से भरा मज़ाहिया वेबसाइट कैसे स्तन कैंसर जागरूकता अभियान के लिए प्रेरणा बन गया, यह कहानी भी दिलचस्प है।

कैंसर की दवाएं बनाने वाली कंपनियों ने भी आदतन इस चिन्ह को व्यावसायिक फायदे के लिए खूब इस्तेमाल किया है। दरअसल शुरू में गुलाबी रिबन को बड़े पैमाने पर प्रायोजित करने वाली संस्था खुद एक रसायन कंपनी थी, जिसके उत्पाद स्तन कैंसर को बढ़ावा देते हैं। इसी तरह की परिघटनाओं के लिए ‘पिंकवाशिंग’ शब्द निकला है। यानी अपने बुरे कर्मों (ज़हरीले रसायनों का उत्पादन) की कालिख को (कैंसर के उपचार, जागरूकता आदि अभियानों के लिए खुले आम धन दे कर) धोने की कोशिश।

इन आलोचनाओं से परे सोचने की बात यह है कि स्तन और दूसरे कैंसरों के बारे में जानने की जरूरत लगातार बढ़ रही है। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि देश में आज की तारीख में कोई 20-25 लाख कैंसर के मरीज हैं। हर साल सात लाख से ज्यादा नए मरीज इस लिस्ट में जुड़ रहे हैं और इनमें से तीन लाख हर साल दम तोड़ देते हैं।

स्तन कैंसर की बात करें तो हर साल शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को स्तन कैंसर होने की संभावना है।


क्या अब तक आप समझ पाए कि मैंने आज के दिन आपसे गुलाबी पहनने की गुज़ारिश क्यों की? जवाब बहुत सरल है। जब आप गुलाबी पहनेंगे तो इस बारे में सोचेंगे भी, क्योंकि आपका गुलाबी पहनना स्वतःस्फूर्त नहीं है, बल्कि ऐसा करने को आपसे कहा गया है। और उसी सोच के दौरान यह भी जानने को उत्सुक होंगे कि आखिर गुलाबी रंग और स्तन कैंसर का क्या रिश्ता है। और इस प्रक्रिया में आप कैंसर के बारे में कुछ नया जानें या नहीं, पर यह आपकी विचार-प्रक्रिया में शामिल जरूर हुआ। है न! बस, इससे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए। स्तन कैंसर के प्रति जागरूकता अभियान में शामिल होने के लिए शुक्रिया।

Sunday, October 19, 2008

थुल-थुल मोटापे से तौबा!

जिराफ कभी मोटा नहीं होता।इसीलिए अव्वल तो उसे कैंसर होता नहीं। और खुदा-न-खास्ता कभी हो भी गया तो उसके बचने के चांसेस काफी मोटे होंगे क्योंकि वह खुद मोटा नहीं होता।

मोटे और थुल-थुल शरीर वाले कैंसर मरीजों की ठीक होने की संभावना कम होती है। यह ताजा नतीजा हाल के एक रिसर्च के बाद सामने आया है। लान्सेट ऑन्कोलॉजी पत्रिका में छपे लेख के मुताबिक वैज्ञानिकों ने पाया कि मोटे लेकिन कमज़ोर मांस-पेशियों वाले लोगों में इलाज के लिए दी जाने वाली कीमोथेरेपी का वितरण पूरे शरीर में आसानी से नहीं हो पाता। इस कारण दवाओं का पूरा फायदा शरीर को नहीं मिल पाता।

मोटे लोगों में भी उपापचय की दर, पेशियों और मांस का अनुपात शरीर के गठन के मुताबिक अलग-अलग होता है। इसलिए उनको दी गई समान कीमोथेरेपी का पूरे शरीर में वितरण और असर होने का समय अलग-अलग हो सकता है। इसलिए इलाज के दौरान शरीर की सक्रियता, खान-पान और मोटापे का असर इलाज के कुल फायदे पर भी पड़ता है।

कनाडा में हुए एक क्लीनिकल ट्रायल में कैंसर के कमजोर मांस-पेशियों वाले मोटे मरीजों (सार्कोपीनिक ओबीज़) पर दवाओं के असर और उनकी ठीक होने की संभावना का अध्ययन किया गया। इसमें 250 मोटे मरीजों को शामिल किया गया , जिनमें से 38 फीसदी सार्कोपीनिक ओबीज़ माने गये।

इस अध्ययन के कुछ नतीजे थे-
• सार्कोपीनिक ओबेसिटी वाले मरीज़ों की मृत्यु दर दूसरे ओबीज़ मरीजों के मुकाबले चार गुना ज्यादा थी।

• सार्कोपीनिक ओबीज़ मरीजों की सक्रियता यानी अपना रोज़ का काम करने और अपनी देखभाल कर पाने की क्षमता दूसरे मोटे मरीजों के मुकाबले बहुत कम थी।

• शरीर में कीमोथेरेपी के असमान वितरण के कारण सार्कोपीनिक ओबीज़ में कीमो के साइड इफेक्ट पर भी नकारात्मक असर पड़ा।

वैज्ञानिकों ने निश्कर्ष निकाला कि शरीर की रचना और गठन, खास तौरपर सार्कोपीनिक ओबेसिटी का मरीज़ की उत्तरजीविता, सामान्य जीवन, कीमोथेरेपी के जहरीले बुरे असर आदि से गहरा संबंध है। यह भी पाया गया कि ऐसे मरीजों में समान शारीरिक वजन और ऊंचाई के बावजूद उपयुक्त दवा की मात्रा में तीन-गुने तक का अंतर आ सकता है।

इस ट्रायल पर ज्यादा अध्ययन के बाद हो सकता है भविष्य में सार्कोपीनिक ओबेसिटी से पीड़ित कैंसर मरीजों के लिए दवा की मात्रा तय करते समय इन कारकों को भी गिनती में लिया जाए।

कुल मिला कर सबक यही है कि हर कीमत पर मोटापे से बचा जाए, चाहे हम सार्कोपीनिक ओबीज़ हों या नहीं, चाहे हम कैंसर के मरीज़ हों या नहीं।

Thursday, October 16, 2008

खून की सरल जांच कैंसर होने का पता देगी

खून की जांच कराई और पता लगा लिया कि शरीर के किसी हिस्से में कैंसर की शुरुआत तो नहीं हो रही! आज की तारीख में सभी तरह के कैंसरों के लिए तो नहीं पर कुछेक के लिए यह जांच सुविधा उपलब्ध है। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि जल्दी ही बाकी तरह के कैंसर में भी ऐसी ही सरल जांच से काम बन जाएगा। कैंसर जैसी जटिल बीमारी के बारे में यह सोच पाना कठिन है कि सबसे सरल तरीका सबसे प्रभावी भी हो सकता है। कैंसर की पहचान के लिए ढेरों बड़ी-बड़ी महंगी मशीनें और दुरूह जांच हैं जो कुछेक गिने-चुने शहरों और अस्पतालों में ही उपलब्ध हैं। ऐसे में अमेरिकन सोसाइटी ऑफ क्लीनिकल ऑन्कोलॉजी के शिकागो में हुए हालिया सम्मेलन में रिसर्चरों ने राय जाहिर की है कि कैंसर का पता लगाने का सबसे अच्छा तरीका हैं, खून की कुछेक बूंदें लेकर जांच करना।

खून से कैंसर का हाल जानने की तकनीक नई नहीं है। जिस तरह किसी महिला के खून में मौजूद प्रोटीनों की जांच करके उसके 10 दिन का गर्भ होने का पता भी लगाया जा सकता है, उसी तरह कैंसर की बेहद शुरुआती अवस्था में खून की जांच से ट्यूमर द्वारा छोड़ी गई कोशिकाओं पर मौजूद कुछ खास प्रोटीन की जांच करके उसकी मौजूदगी का पता लगाया जा सकता है। ज्यादातर ट्यूमर पास-पास जुड़ी हुई कई परतों वाली ऐपीथीलियल कोशिकाओं से बने होते हैं। कैंसर कोशिकाओं की खास बात यह है कि वे एक जगह टिकती नहीं है और ट्यूमर से छिटक-छिटक कर तेजी से खून के जरिए दूसरी जगहों पर फैलने की कोशिश करती हैं। एक और दिलचस्प बात यह है कि कैंसर कोशिकाएं अविकसित, अधूरी, कमजोर और तेजी से विभाजित होने और उसी तेजी से मरते जाने वाली कोशिकाएं हैं। ऐसे में किसी जगह ट्यूमर बनने के पहले ही उससे निकल कर खून में आई ये अलग तरह की ऐपीथीलियल कोशिकाएं तुरंत पहचानी जा सकती हैं।

खून की जांच से कैंसर होने का पता देने वाली उसमें घूम रही अविकसित ऐपीथीलियल कोशिकाओं की मौजूदगी का पता लगा लेना काफी नहीं है। वैसे ही जैसे किसी जगह दुश्मन के सैनिकों की मौजूदगी का पता लगाना काफी नहीं। अगर उन्हें पकड़ कर पूछताछ भी की जा सके, उनके इरादों, योजनाओँ का भी खुलासा हो पाए तो बात बने। इसलिए नए तरह के परीक्षणों से वैज्ञानिक अब उन कोशिकाओं पर मौजूद प्रोटीन के प्रकार की पहचान करके यह भी पता लगा पा रहे है कि वह जिस ट्यूमर से निकल रहा है उसकी प्रकृति क्या है। क्या वह तेजी से बढ़ने वाला है, किसी और अंग में फैलने की स्टेज पर है, या धीरे-धीरे बढ़ रहा अपनी ही जगह पर बना हुआ है। इससे डॉक्टरों को हर मरीज की जरूरत के मुताबिक सही समय पर सही इलाज करने में मदद मिलेगी। ऐसी तरकीब इसलिए और भी जरूरी है कि कैंसर के सामान्य इलाज के जहरीले साइड इफेक्ट बहुत ज्यादा और मारक हैं। ऐसे में इलाज जितना सटीक होगा उतना ही कारगर, सस्ता, सुगम और कम साइड इफेक्ट पैदा करने वाला होगा।

ये जानना रोचक है कि अब ट्यूमर से निकली कोशिकाओं के डीएनए, आरएनए और प्रोटीन में मौजूद बदलावों की जांच करके ट्यूमर के भीतर की खबर लेना आसान हो गया है। इन जांचों की सबसे बड़ी खासियत है इनका आसान और सहज होना। आजकल सबसे आम जांच चलन में है फाइन नीडिल एस्पिरेशन साइटोलॉजी तकनीक या एफ एन ए सी। सरल शब्दों में कहें तो ट्यूमर की जगह से कुछ कोशिकाएँ सुई के जरिए खींच कर निकालना और फिर माइक्रोस्कोप के नीचे उनकी पड़ताल करके उनके आकार-प्रकार, रचना, संख्या आदि का पता लगाना। लेकिन यह जांच तभी की जा सकती है जबकि पहले ही कैंसर का अंदेशा हो, ट्यूमर की जगह का पता हो, वह कम-से-कम इतना बड़ा हो कि उसमें से कोशिकाएं सुई के जरिए निकाली जा सकें और सुई उस तक पहुंच सके। इस प्रक्रिया में एक खतरा कैंसर कोशिकाओं के जल्द फैलने का भी है। ट्यूमर के भीतर तक पहुंची सुई के सहारे कैंसर कोशिकाएं अब तक अनछुई परतों तक पहुंच कर आदतन वहां भी पैर जमाना शुरू कर सकती हैं। लेकिन रक्त निकालकर जांच करने में इस बात का कोई खतरा नहीं होता।

खून की जांच पर आधारित इन निदान तकनीकों से कैंसर की पहचान में कोई बड़ा बदलाव आ गया हो, ऐसा समझना अभी जल्दबाजी होगी। लेकिन डॉक्टरों को इनसे बहुत उम्मीदें हैं। कैंसर के बारे में बुनियादी बात यही है कि इसकी पहचान जितनी जल्दी होती है, इसका इलाज उतना ही सरल, कम खर्चीला और सफल होता है और इसके दोबारा होने की संभावना उतनी ही कम होती है। इसलिए इन तकनीकों के ज्यादा सटीक और भरोसेमंद बनाने की कोशिशें जारी हैं।

Thursday, September 4, 2008

युवावस्था में भी दिख जाते हैं स्तन कैंसर के लक्षण


ज्यदातर लोग जानते हैं कि फैमिली हिस्ट्री, ज्यादा उम्र जैसे कारक स्तन कैंसर के जोखिम को बढ़ाते हैं।

ताजा खबर ये है कि महिलाओं में होने वाले स्तन कैंसर के खतरे का आकलन उनकी युवावस्था में भी काफी हद तक किया जा सकता है।

ताजा रिसर्च बताता है कि कुछ सामान्य और कैंसर से जुड़े न लगने वाले कम उम्र के लक्षण भी किसी को स्तन कैंसर होने की संभावना को आंकने में मदद कर सकते हैं। यहां तक कि उनके ट्यूमर के प्रकार का भी अंदाजा भी देते है। इसलिए अपनी कुछ आदतों में बदलाव करके वे महिलाएं ज्यादा आक्रामक प्रकार के कैंसर की संभावना को कम आक्रामक कैंसर में बदलने की कोशिश भी कर सकती हैं।

इसीलिए डॉक्टर हमेशा कहते हैं कि शरीर का ज्यादा वज़न, खास तौर पर युवावस्था में अचानक बढ़ने वाला वज़न हमेशा खतरे की घंटी होता है, इसे अनसुना करना खतरनाक है।

कुछ महिलाओं के कैंसर का इलाज आसानी से हो जाता है जबकि दूसरों का स्तन कैंसर ज्यादा खतरनाक होता है, क्यों? इसमें जीन और अनुवांशिकता का हाथ जरूर होता है। लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया है कि महिलाओं की पर्सनल हिस्ट्री से भी उनके कैंसर का प्रकार काफी हद तक निर्धारित होता है।

फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च सेंटर के डॉक्टरों ने 1100 विभिन्न प्रकार के स्तन कैंसरों की मरीज महिलाओं और 1500 स्वस्थ महिलाओं में युवावस्था के दौरान कुछ खास लक्षणों और आदतों की तुलना की। उन्होंने पाया कि जिन महिलाओं ने अपने बच्चों को कम से कम 6 माह तक स्तनपान कराया था उन्हें ज्यादा खतरनाक कैंसर का खतरा दूसरों के मुकाबले आधा था।

इसके अलावा जिन महिलाओं के पीरियड जल्दी शुरू होते हैं उनके ट्यूमर का इलाज, देर से रजस्वला होने वाली महिलाओं के कैंसर की तुलना में दो गुना ज्यादा कठिन होता है। देर से रजस्वला होने वाली महिलाओं का ट्यूमर ईस्ट्रोजन सेंसिटिव होने की संभावना ज्यादा होती है। इसका सीधा सरल मतलब यह है कि उन्हें अगर कैंसर हो तो उसका इलाज ज्यादा सरल और सफल होता है।

अभी इससे आगे का रिसर्च जारी है इसलिए यहां जानकारी का अंत नहीं होता। हम सब इंतज़ार करें, इस क्षेत्र में किसी ब्रेकथ्रू का जो इस मानवीय त्रासदी से निबटने का रास्ता दिखाए।

Wednesday, August 27, 2008

कैंसर पहेली - 2

इस हिस्से में त्वचा, कोलोन, प्रोस्टेट के कैंसर से जुड़े सवाल-जवाब। जवाब अंत में दिए गए हैं।

9. कोलोन कैंसर का संबंध जेनेटिक बीमारियों से है।
O सही
O गलत

10. प्रोस्टेट कैंसर की नियमित जांच करवाने की कोई जरूरत नहीं है।
O सही
O गलत

11. खून की जांच से प्रोस्टेट कैंसर का पता लग सकता है।
O सही
O गलत

12. त्वचा का कैंसर गोरे लोगों को ही होता है, कालों को नहीं हो सकता।
O सही
O गलत

13. जन्म के समय त्वचा पर ज्यादा तिल हों तो त्वचा के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
O सही
O गलत

14. बचपन में ज्यादा धूप सेकने सा त्वचा के कैंसर से कोई संबंध नहीं है।
O सही
O गलत

9. परिवार में किसी को मधुमेह, अल्ज़ाइमर्स, ग्लैकोमा या कैंसर रहा हो तो कोलोन (मलाशय) कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है।

10. पुरुषों को 50 साल की उम्र से प्रोस्टेट कैंसर के लिए नियमित जांच करवानी चाहिए। परिवार में इसकी हिस्ट्री होने पर यह जांच 45 की उम्र में शुरू कर देनी चाहिए।

11. खून की पीएसए जांच से उसमें मौजूद एंटीजेन की मौजूदगी का पता लगता है। इस एंटीजेन के ज्यादा होने से प्रोस्टेट कैंसर का अंदेशा होता है।

12. त्वचा का कैंसर किसी को भी हो सकता है। गहरे रंग की त्वचा में मेलानिन पिगमेंट ज्यादा होता है जो सूर्य की पराबैंगनी (अल्ट्रावॉयलेट) किरणों को रोकता है। इसलिए त्वचा में ज्यादा मेलानिन हो तो कैंसर का खतरा कम हो जाता है लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं होता।

13. ज्यादातर तिल जन्म के बाद ही बनते हैं। लेकिन कुछ लोगों को जन्म से ही तिल होते हैं। पैदाइसी तिलों से त्वचा के कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।

14. लंबे समय तक खाई तेज धूप त्वचा पर स्थाई असर डाल सकती है। बचपन में ज्यादा धूप खाने से बड़े होने पर मेलानोमा का खतरा बढ़ जाता है।

Tuesday, July 22, 2008

कैंसर पहेली - 1

कैंसर के बारे में आप कितना जानते हैं? इन सवालों का जबाव दीजिए और लीजिए अपने कैंसर ज्ञान की परीक्षा।

सवालों के जवाब अंत में दिए गए हैं। खास बात ये है कि इस पहेली में चोरी से जवाब देख लेने की पूरी छूट है। तो हैं तैयार?

1. कम उम्र की खान-पान, सिगरेट-तंबाकू की बुरी आदतों का बड़ी उम्र में कोई असर नहीं पड़ता।
* सही
* गलत

2. सर्जरी से कैंसर का इलाज करने से वह फैलता है
* सही
* गलत

3. विशेषज्ञ कैंसर का पुख्ता इलाज ढू़ढ चुके हैं। लेकिन महंगे, लंबे इलाज से वे ज्यादा धन कमाना चाहते हैं।
* सही
* गलत

4. ग्रिल्ड मीट नियमित रूप से खाने से कैंसर का कोई संबंध नहीं है।
* सही
* गलत

5. घरेलू कीटनाशक स्प्रे से कैंसर नहीं होता।
* सही
* गलत

6. पुरुषों को स्तन कैंसर नहीं होता।
* सही
* गलत

7. स्तन कैंसर शहरी महिलाओं में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है।
* सही
* गलत

8. स्तन कैंसर की जांच के लिए विशेषज्ञ किस उम्र से नियमित मैमोग्राम कराने की सलाह देते हैं?
* 40 साल
* 50 साल

जवाब:

1. ज्यादातर मामलों में लंबे समय से काम कर रहे कई कारक मिलकर कैंसर को जन्म देते हैं। इसलिए युवावस्था के खान-पान, धूम्रपान, शारीरिक गतिविधियों का असर शरीर पर बाद के जीवन में भी दिखाई पड़ता है।

2. कैंसर के विशेषज्ञ सर्जन जानते हैं कि किस तरह सुरक्षित डंग से बायोप्सी या ऑपरेशन किया जाए कि कंसर न फैले। कई तरह के कैंसरों में तो सर्जरी ही सबसे पक्का इलाज है।

3. यह लोगों का वहम है। जरा खुद सोचिए, डॉक्टरों के अपने रिश्तेदार कैंसर का वही इलाज करवा रहे हैं जो बाकी लोग। उनमें से कई मर भी रहे हैं। ऐसे में क्या यह सही हो सकता है कि कोई भी डॉक्टर इलाज जानबूझ कर न करे? कैंसर एक नहीं बल्कि कई तरह का होता है और सबका इलाज अलग-अलग होता है। इनमें से कुछ का इलाज ढूंढा जा चुका है।

4. बार्बेक्यू के ज्यादा इस्तेमाल से कैंसर का रिस्क बढ़ जाता है। मीट को ग्रिल करने, कास तौर पर ज्यादा पकाने या जलाने से उसमें कैंसरकारी तत्व बन जाते हैं। ज्यादा अनाज, फल और सब्जियां काना इसका अच्छा विकल्प है।

5. मौजूदा रिसर्च साबित नहीं करते कि घरेलू कीटनाशक स्प्रे और कैंसर में सीधा संबंध है। लेकिन इनका फेफड़ों में जाना या सीधे संपर्क में आना खतरनाक है। हालांकि पेड़-पौधों में डाले जाने वाले कीटनाशक कई तरह के कैंसरों को बढ़ावा देते हैं।

6. स्तन कैंसर के हर 200 मरीजों में से एक पुरुष हो सकता है।

7. दुनिया में महिलाओं को सबसे ज्यादा स्तन कैंसर ही हो रहा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हिंदुस्तान में हर एक लाख औरतों में 32 स्तन कैंसर से पीड़ित हैं। बड़े शहरों में दस में से एक महिला को स्तन कैंसर होने की संभावना है।

8. अमरीका की नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट, अमेरिकन कैंसर सोसाइटी और अमेरिकन मेडीकल एसोसिएशन के मुताबिक 40 की उम्र के बाद महिलाओं को एक या दो साल में मैमोग्राम करवाना चाहिए।

Tuesday, July 8, 2008

आसान हो रहा है कैंसर के साथ जीना

# अब लोग कैंसर के साथ लंबा और बेहतर जीवन जी रहे हैं।

# नई दवाओं और इलाज के तरीकों ने माहौल और लोगों के सोचने का ढंग बदल दिया है।

# अस्पतालों में ऐसे कई कैंसर के मरीज आपको मिल जाएंगे जो पिछले 24-25 साल से तमाम आशंकाओं को नकारते हुए अपना सफर ज़िंदादिली के साथ तय कर रहे हैं। काफी संभव है कि जब मृत्यु आए तो उसकी वजह कैंसर न हो।

# मरीज़ के ठीक होने की अनिवार्यता की जगह उसका जीवन बेहतर बनाने की कोशिश को अहमियत दी जा रही है।

# चिकित्सा समाज में यह बदलाव क्रांतिकारी है।

# मेटास्टैटिक (शरीर के दूसरे हिस्सों में फैले) कैंसर के मरीजों में भी भविष्य को लेकर उम्मीद जाग रही है।

# कैंसर के मरीज़ों के लिए अच्छी तरह जीने का इससे बेहतर वक्त कभी नहीं रहा।

ये कुछ बिंदु मैंने लेख आखिरकार हार रहा है कैंसर में उठाए हैं। यह लेख 8 जुलाई 2008 को नवभारत टाइम्स के संपादकीय पृष्ठ पर मुख्य लेख के रूप में प्रकाशित हुआ है।

आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार है।

Thursday, June 19, 2008

कैंसर के होने का अंदाजा खुद भी लगा सकते हैं

खुद को आइने में हम रोज देखते हैं- लेकिन आम तौर पर श्रृंगार के लिए। क्यों न सेहत के लिए भी खुद को देखने की आदत डाल लें। जैसा कि पहले भी जिक्र आ चुका है- कैंसर बड़ी बीमारी है लेकिन अपनी सजगता से हम इसके इलाज को सफल और सरल बना सकते हैं- बीमारी का जल्द से जल्द पता लगा कर। कई बार डॉक्टर से पहले हमें ही पता लग जाता है कि हमारे शरीर में कुछ बदलाव है, कुछ गड़बड़ है। शरीर का मुआयना इस बदलाव को सचेत ढंग से पहचानने का एक जरिया है।

त्वचा के कैंसर का पता अपनी जांच कर के लगाया जा सकता है। खूब रौशनी वाली जगह में आइने के सामने अपने पूरे शरीर की त्वचा का मुआयना कीजिए। नाखूनों के नीचे, खोपड़ी, हथेली, पैरों के तलवे जैसी छुपी जगहों का भी।

कहीं कोई नया तिल, मस्सा या रंगीन चकत्ता तो नहीं उभर आया?

कोई पुराना तिल या मस्सा आकार-प्रकार में बड़ा या कड़ा तो नहीं हो गया?

मस्से या तिल का रंग तो नहीं बदला, उससे खून तो नहीं निकलता?

किसी जगह कोई असामान्य गिल्टी या उभार दिखता या महसूस होता है?

त्वचा पर कोई कटन या घाव जो ठीक नहीं हो रहा हो, बल्कि बढ़ रहा हो?


इनमें से किसी भी सवाल का जवाब अगर अपनी जांच के बाद 'हां' में मिलता है तो फौरन डॉक्टर से बात करनी चाहिए।

तंबाकू खाने की आदतों के कारण मुंह का कैंसर भारतीय पुरुषों में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है। मुंह के भीतर और आसपास का नियमित मुआयना कैंसर की जल्दी पहचान करने में मदद करता है। इस तरह कई बार तो कैंसर होने के पहले की स्टेज पर भी इसे पहचाना जा सकता है। मुंह के कैंसर के लक्षण कैंसर होने के काफी पहले ही दिखने लगते हैं। इसलिए उन्हें पहचान कर अगर जल्द इलाज कराया जाए और तंबाकू सेवन छोड़ने जैसे उपाय किए जाएं तो इससे बचा भी जा सकता है। मुंह के भीतर कहीं भी- मसूढ़ों, जीभ, तालु, होंठ, गाल, गले के पास लाल या सफेद चकत्ते या दाग या छोटी-बड़ी गांठ दिखें तो सचेत हो जाना चाहिए।

मेरी एक मित्र के पिता न सिगरेट शराब पीते थे न तंबाकू उन्होंने कभी चखा। पर कोई 65 की उम्र में अचानक उन्हें मिर्च या नमक तक खाने में मसूढ़ों में जलन महसूस होने लगी। डॉक्टर के पास जांच करवाई तो पता लगा उन्हें मसूढ़ों का कैंसर था। सब हैरान थे कि बिना किसी गलत शौक के भी कैसे उन्हें कैंसर हुआ। फिर पता लगा, वे लंबे समय से नकली दांतों के सेट का इस्तेमाल कर रहे थे, जो जबड़ों पर ठीक से नहीं बैठता था। और वही था जिम्मेदार उनके मुंह में कैंसर पैदा करने के लिए।

मुंह की जांच भी हर दिन करना चाहिए, खास तौर पर तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन करने वालों और मुंह में नकली दांत लगाने वालों, दांतों को ठीक करने वाले स्थाई तार आदि लगाने वालों, टेढ़े-मेढ़े दांतों वालों, गाल चबाने की आदत वालों को भी। दरअसल कोई भी बाहरी चीज जब मुंह की नाजुक त्वचा को लगातार चोट पहुंचाती है तो एक सीमा के बाद शरीर उसे झेलने से मना कर देता है। नतीजा होता है उस जगह चमड़ी का मोटा होना, छिल जाना, लाल या सफेद हो जाना आदि। यही बाद में कैंसर बनकर फैल जाता है।

मुंह की जांच करने सा सबसे अच्छा समय है, सुबह ब्रश करके मुंह अच्छी तरह धो लेने के बाद। उस समय मुंह में खाने का कोई बचा हुआ अंश नहीं होगा जो जांच में रुकावट डाले।

अच्छी रौशनी वाली जगह में आइने खड़े हो जाएं जहां पर मुंह खोलने पर उसके भीतरी भाग को आसानी से देख सकते हों।

मुंह के हिस्सों को क्रम से देखते चलें-
1. मुंह बंद रखकर अंगुलियों के सिरों से पकड़ कर होठों को उठाएं और उन पर भरपूर नजर डालें।
2. ओठों को उठा कर पीछे कर दें और दांतों को साथ रख कर मसूढ़ों को सावधानी से देखें।
3. मुंह को पूरा खोल कर जीभ के ऊपरी हिस्से को देखें।
4. तालू यानी मुंह की छत पर और जीभ के नीचे भरपूर नजर डालें।
5. गालों के भीतरी हिस्सों को भी अच्छी रौशनी में ठीक से देखें।

कहीं भी कोई घाव, या चकत्ता नजर आता है? चकत्ता सफेद या लाल भी हो सकता है।

मसूढ़ों से खून तो नहीं निकलता? कोई मसूढ़ा किसी जगह सामान्य मसूढ़ों से ज्यादा मोटा तो नहीं हो गया है?

कोई दांत अचानक तो ढ़ीला होकर गिर नहीं गया?

क्या जीभ उतनी ही बाहर निकाल पाते हैं जितनी पहले, या इसमें कोई अड़चन महसूस होती है?

मुंह के भीतर कहीं भी कोई गांठ या असामान्य बात नजर आती है?


अगर इनमें से एक भी सवाल का जवाब 'हां' में पाते हैं तो फौरन डॉक्टर से जांच करवाएं। इसके अलावा आवाज में बदलाव, लगातार खांसी, निगलने में तकलीफ, गले में खराश को भी नजरअंदाज कतई नहीं करना चाहिए।

Thursday, June 5, 2008

बेआवाज़ शैतान की आहट सुनना सीखें हम

अब मेरे पसंदीदा विषय पर कुछ बात हो जाए। ज्यादा जगह बर्बाद किए बिना मुद्दे पर आते हैं। भारत में स्तन कैंसर के मामले बढ़ने की रफ्तार तेजी पकड़ती जा रही है। अमरीका में हर 9 में से एक महिला को स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। इसके मुकाबले भारत में अनुमान है कि हर 22 वीं महिला को अपने जीवनकाल में कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना है। इस तरह अगर हर परिवार में न्यूनतम दो महिलाएं हों तो हर ग्यारहवां परिवार स्तन कैंसर को झेलने के लिए तैयार रहे। यह आंकड़ा शहरों में और ज्यादा है। पर इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि गांवों में ऐसे कई मामले रिपोर्ट भी नहीं होते।

कुल मिला कर शहरी महिलाओं में स्तन का कैंसर सबसे आम है। कुछ समय पहले तक बच्चेदानी के मुंह यानी सर्वाइकल कैंसर के मामले ज्यादा होते थे, लेकिन अब स्तन कैंसर ने आंकड़ों में इसे पछाड़ दिया है। गांव भी इस आंकड़ा-पलट को करीब आता देख रहे हैं।

आंकड़ों को जाने दें तो भी हमारे यहां स्तन कैंसर का परिदृष्य भयावह है। इसके बारे में जागरूकता की और इसके निदान और इलाज की सिरे से कमी के कारण ज्यादातर मामलों में एक तो मरीज इलाज के लिए सही समय पर सही जगह नहीं पहुंच पाता। दूसरे इसके महंगे और बड़े शहरों तक ही सीमित इलाज के साधनों तक पहुंचना भी हर मरीज के लिए संभव नहीं।

यानी ज्यादातर मरीजों के बारे में सच यह है कि न इलाज इन तक पहुंच पाता है, न ये इलाज तक पहुंच पाते हैं। और जो पहुंच जाता है, उसका कैंसर तब तक बेकाबू हो गया रहता है। और अगर नहीं, तो पैसे की कमी के कारण वह इलाज बीच में ही बंद कर देता है। कई बार तो समय पर सही अस्पताल पहुंच कर पूरा खर्च करने के बाद भी कैंसर ठीक नहीं हो पाता। कारण- हमारे देश में विशेषज्ञता और इलाज की सुविधाओं की कमी।

ऐसे में सवाल यही आता है कि क्या करें कि हालात बेहतर हों। तो, हम समस्या की शुरुआत में ही बहुत कुछ कर सकते हैं। और यही सबसे जरूरी भी है कैंसर को काबू में करने के लिए। कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान। कैंसर की खासियत है कि यह दबे पांव आता है, बिना आहट के, बिना बड़े लक्षणों के। फिर भी कुछ तो सामान्य लगने वाले बदलाव कैंसर के मरीज में होते हैं, जो कैंसर की ओर संकेत करते हैं और अगर वह मरीज सतर्क, जागरूक हो तो वहीं पर मर्ज को दबोच सकता है। वरना थोड़ी छूट मिलते ही यह शैतान बेकाबू होकर बस, कहर ही ढाता है।

अपने स्तन और निप्पल को आइने में देखिए। स्तन को नीचे ब्रालाइन से ऊपर कॉलर बोन यानी गले के निचले सिरे तक और बगलों में भी अपनी तीन या चारों अंगुलियां मिला कर थोड़ा दबा कर महसूस करके देखिए। अंगुलियों का चलना नियमित गति और दिशाओं में हो।




(यह जांच शावर में या लेट कर भी कर सकते हैं।) कहीं ये बदलाव तो नहीं हैं-

1. स्तन या निप्पल के आकार में कोई असामान्य बदलाव।

2. कहीं कोई गांठ, चाहे वह मूंग की दाल के बराबर ही क्यों न हो। इसमें अक्सर दर्द नहीं रहता है।

3. इस पूरे इलाके में कहीं भी त्वचा में सूजन, लाली, खिंचाव या गड्ढे पड़ना या त्वचा में संतरे के छिलके के समान छोटे-छोटे छेद या दाने से बनना।

4. एक स्तन पर खून की नलियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगें।

5. निप्पल भीतर को खिंच गया हो या उसमें से दूध के अलावा कोई भी स्त्राव- सफेद, गुलाबी, लाल, भूरा, पनीला या किसी और रंग का, हो रहा हो।

6. स्तन में कही भी लगातार दर्द हो रहा हो तो भी डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।

और ध्यान रहे, ये जांच हर महीने पीरियड के बाद नियम से करनी है। वैसे कई युवा महिलाओं को हर्मोनों में बदलाव की वजह से नियमित रूप से स्तन में सूजन, भारीपन या दर्द जैसे लक्षण होते हैं, जो कि सामान्य बात है। बल्कि स्तन में हुई गांठों में से 90 फीसदी गांठें कैंसर-रहित ही होती हैं। लेकिन इसकी आड़ में 10 फीसदी को अनदेखा तो नहीं किया जा सकता न!

Wednesday, June 4, 2008

कैसे शक करें कि कैंसर हो सकता है?

हमारे पास किसी भी चीज के लिए वक्त कम है, महानगरों में तो बहुत ही कम। लेकिन जीने से ज्यादा हड़बड़ी किसी और काम की हो सकती है क्या? तो अपनी सेहत के लिए अपने पर भी थोड़ा ध्यान दें, नजर रखें अपने शरीर में हो रही छोटी-मोटी तकलीफों और बदलावों पर जो देर होने पर बड़ी मुसीबत भी बन सकते हैं।

कैंसर के शुरुआती लक्षण-
1. भूख कम या न लगना
2. यादाश्त में कमी या सोचने में दिक्कत
3. लगातार खांसी जो ठीक नहीं हो रही हो, और थूक में खून आना
4. पाखाने या पेशाब की आदतों में बिना कारण बदलाव
5. पाखाने या पेशाब में खून जाना
6. बिना कारण खून की कमी
7. स्तन में या शरीर में किसी जगह स्थाई गांठ बनना या सूजन
8. किसी जगह से अकारण खून, पानी या मवाद निकलना
9. आवाज में खरखराहट
10. तिल या मस्से में बदलाव
11. निगलने या खाना हजम करने में परेशानी
12. बिना कारण वजन कम होना या बुखार आना
13. किसी घाव का न भरना
14. सिर में दर्द
15. कमर या पीठ में लगातार दर्द

Sunday, June 1, 2008

मां मार्गदर्शक, मां आदर्श

निकिता गारिया अभी पत्रकारिता में स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। उनका लिखना सिर्फ शौक या कैरियर की जरूरत नहीं है। उन्होंने अपने ब्लॉग n life goes on में अपनी मां की आपबीती पर एक लेख लिखा है। मां का स्तन कैंसर से आमना-सामना और फिर उससे उबर कर सहज मानवीयता के तहत दूसरों को इस बीमारी के बारे में जागरुक करने की कोशिशें। बेटी सब देख रही है और यह सब उसकी सोच में दर्ज होता जा रहा है। उसने अपने ब्लॉग में मां पर यह पोस्ट डाली जिसे मैं उसकी इजाजत से यहां चेप रही हूं। मकसद हैं- बात, चाहे जिस माध्यम से हो, दूर तक, गहरे तक फैले ताकि कैंसर के खिलाफ मोर्चा मजबूत हो।


Cancer and beyond

It was 21st January 2002 when she was confronted with a reality, she did not want to accept. For a moment, her life came to a halt. She thought it was the end. With her translucent eyes, she saw her two little children. This was the day when she was told she had BREAST CANCER. She had never been so scared in her life, for her life. She only wanted God to answer her one question, “Why only me!”

****************

Five years hence, bearing the pain of countless therapies, she knows she is not alone. There are many like her and the number is only increasing. But the government has done little to spread awareness. Since, the most common sign of breast cancer is a new lump, which is painless; many women tend to ignore it. And in a society like ours, where talking about breasts is as much a taboo as sex, who will lead the awareness crusade?

It was then that she decided to take the plunge. So, she along with a friend(also a cancer patient) took upon themselves the onerous task of educating as many people as possible. They started out by informing people at kitty parties. It was tough to make the ladies ignore tambola and food, and make them listen to a lecture! However, they never gave up. For them, even if one woman gets motivated out of thirty, it’s a great achievement. As she says, “This is just the beginning.”

Thursday, May 22, 2008

कैंसर क्या है- एक अरब आवारा कोशिकाएं

कैंसर क्या नहीं है इस पर चर्चा होने के बाद जरूरी हो जाता है कि जाने, कैंसर क्या है। थोड़ी-बहुत पढ़ाई में मैंने जाना कि कैंसर दरअसल कुछ अधूरी कोशिकाओं का समूह है जो शरीर में कहीं भी बनकर बढ़ता है। इसकी शुरुआत एक कोशिका से होती है जो किन्हीं चयापचयिक (मेटाबॉलिक) कारणों से अचानक ही असंयमित व्यवहार करने लगती है। असामान्य तेजी से विभाजित होकर अपने जैसी बीमार कोशिकाओं का ढेर बना देने वाली इस कोशिका से ट्यूमर बनने में बरसों, कई बार तो दशकों लग जाते हैं। जब कम से कम एक अरब ऐसी कोशिकाएं इकट्ठा होती हैं तभी वह ट्यूमर पहचानने लायक आकार में आता है।


एक सामान्य कोशिका का कैंसरयुक्त कोशिका में बदलना
एक सामान्य सी लगने वाली कोशिका अपने विकास के किसी दौर में अचानक दिशाहीन क्यों हो जाती है, इस रहस्य को समझने में वैज्ञानिकों को बरसों लग गए। दरअसल हर कोशिका में निर्धारित संख्या में जीन होते हैं जो इसकी हर गतिविधि को निर्देशित करते हैं। इन्हीं में से कुछ जीन यह तय करते हैं कि कोशिका कब विभाजित हो और कब नहीं। इन्हें ऑन्कोजीन और ट्यूमर सप्रेसर जीन कहते हैं। जब इन जीनों की बनावट में कोई गड़बड़ी आती है तो इनसे कोशिका को उलटे-पुलटे निर्देश मिलने लगते हैं और उसी के अनुसार कोशिका में अनियमित और अनियंत्रित विभाजन शुरू हो जाता है।

वैज्ञानिकों ने बीसी-10 नाम का एक जीन खोजा है जो मूल रूप से एक पहरेदार का काम करता है और कोशिका के जरा बहकते ही उसे नष्ट कर देता है। लेकिन जब इसी जीन में गड़बड़ी आ जाती है तो वह कोशिका लक्ष्यहीन हो जाती है।
यह जानना दिलचस्प है कि हर कोशिका, चाहे वह कैंसर-युक्त हो या नहीं, अपने भीतर मृत्यु की कुंजी साथ लिए चलती है जिसे उत्तेजित किया जाए तो वह अपनी तरह की बाकी हमउम्र कोशिकाओं से जल्दी मर जाएगी। कोशिका में मौजूद आत्महत्या की इस मशीनरी को एपोप्टोसिस कहा जाता है।


एपोप्टोसिस यानी कोशिका करे आत्महत्या


एपोप्टोसिस कई आपस में संबंधित चरणों की एक श्रृंखला है। इसके शुरुआती बिंदु को छेड़ने भर की देर है और इसमें शामिल सभी प्रोटीन अपने आप क्रमश: सक्रिय हो जाते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे एक-दूसरे पर टिके ताश के पत्तों में से किनारे वाले पत्ते को छूते ही बाकी सभी पत्ते एक-के-बाद-एक उस पर गिरते जाते हैं।

कोशिकाओं की इस प्रवृत्ति का इस्तेमाल कई मौकों पर होता है। जैसे, शुरुआती समय में भ्रूण की अंगुलियों के बीच घना जाल मौजूद होता है। बाद में इस जाल की कोशिकाओं में एपोप्टोसिस की प्रक्रिया शुरू होती है और ये जाल नष्ट हो जाता है। शुरुआती अवस्था में कैंसर के खिलाफ शरीर भी इसी हथियार का इस्तेमाल करता है। जैसे ही कोई कोशिका असामान्य व्यवहार करने लगती है, उसमें मौजूद प्रहरी जीन किसी अज्ञात प्रक्रिया से उसे भांप लेता है और सदा सजग रहने वाली एपोप्टोसिस को सक्रिय होने का इशारा कर देता है। यह कैंसर के खिलाफ शरीर का पहला और सबसे जबर्दस्त युद्ध है।

वास्तव में हर व्यक्ति के जीवन क्रम में साधारण कैंसर के लाखों बेहद छोटे-छोटे ट्यूमर बनते और एपोप्टोसिस के जरिए खत्म भी होते रहते हैं। लेकिन कभी-कभार एकाध रोगी कोशिका अपने में कुछ बदलाव लाकर आत्महत्या की इस प्रक्रिया से बच निकलने में कामयाब हो जाती है और अपने जैसी असामान्य कोशिकाएं बनाना शुरू कर देती है। ये ही आखिर कैंसर के रूप में हमारे सामने आती हैं। यानी इस मौके पर जिंदगी और मौत के तराजू में कैंसर कोशिका की जिंदगी का पलड़ा ज्यादा भारी होता है। कैंसर को कोशिका के भीतर मौजूद अणुओं के स्तर तक जानने के बाद भी कैंसर की घटना के कई पहलू वैज्ञानिकों के लिए अबूझ पहेली हैं।

नोबेल पुरस्कार विजेता पॉल नर्से ने कोशिका के पूरे जीवन चक्र को चरणबद्ध किया है। इस जानकारी के बाद किन्हीं खास कोशिकाओं की वृद्धि को किसी खास चरण में रोकने की कोशिश की जा रही है। माना जा रहा है कि इस तरीके से कैंसर की रोगी कोशिकाओं को दवाओं के जरिए एक हद तक रोका जा सकेगा।

इस तरीके से कैंसर का पूरा इलाज भले ही अभी संभव न हो लेकिन मरीज की उम्र बढ़ाने का रास्ता जरूर दिखाई पड़ने लगा है। हालांकि हर प्रकार के कैंसर का पुख्ता इलाज ढ़ूढना वैज्ञानिकों के लिए अब भी एक कड़ी चुनौती है।
Custom Search