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Tuesday, July 19, 2011

शराब के नतीजों की जिम्मेदारी लेने की कोई उम्र नहीं हो सकती

पिछले दिनों महाराष्ट्र में 25 साल से कम उम्र के युवाओं को शराब पीने की मनाही कर दी है। इससे पहले पाबंदी 21 साल से कम उम्र के किशोरों पर ही लागू की थी। अब 21 साल के युवाओं को सिर्फ बियर और वाइन खरीदने और पीने की इजाजत है। महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि कम उम्र में नशे की तरफ रुझान और मित्र-वर्ग का दबाव भी ज्यादा होता है। इसलिए कम उम्र में ही शराब की लत पर रोक लगाने की कोशिश में यह नियम बनाया गया है। शराब पर आबकारी कर से राज्य सरकारों को खासी आमदनी होती है। यह नुकसान झेलकर भी महाराष्ट्र में यह पाबंदी लगाई गई है। मणिपुर, मिजोरम और गुजरात में पूरी तरह शराबबंदी लागू है। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश जैसे कई और राज्यों में भी समय-समय पर थोड़ी-पूरी शराबबंदी लागू रही है।

देश में 30 फीसदी तक अल्कोहल की खपत 25 साल से कम उम्र के युवाओं में ही होती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में शराब की औसत खपत 10 लीटर प्रति माह है। इनमें हार्ड लिकर की खपत सबसे ज्यादा है। बीयर जैसे हल्के अल्कोहल की कुल खपत एक फीसदी से भी कम है। मजदूरों, कामगारों, खेतिहर किसानों में अल्कोहल की खपत सबसे ज्यादा है। और शराब की लत से इन्हें दूर रखने की ही सबसे ज्यादा जरूरत है।

शराब पीने के लिए उम्र की सीमा 25 साल कर दिए जाने का घोर विरोध हुआ है। अमिताभ बच्चन और कई दूसरे फिल्मी सितारों ने फेसबुक-ट्विटर पर ऐलानिया विरोध किया और उम्र बढ़ाने के इस नए नियम के खिलाफ मुहिम सी छेड़ दी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी इट्स माई लाइफ नाम से एक कैंपेन चला दिया । इसका कोई ठोस नतीजा तो नहीं निकला, लेकिन ये साफ हो गया कि युवा इससे खुश नहीं हैं। उनका तर्क है कि जब वे 25 की उम्र के पहले वोट डालने, अपना प्रतिनिधि चुनने, वाहन चलाने, शादी करने यहां तक कि सेना में भर्ती होने और देश के लिए लड़ाई पर जाने लायक जिम्मेदार और समझदार मान लिए गए हैं तो फिर उनकी शराब पीने की जिम्मेदारी और समझदारी पर शक क्यों?

सोचने की बात यह है कि अल्कोहल शरीर पर बुरा असर डालता ही है, तो उसके उपभोग में समझदारी कैसी। और जब शरीर और सेहत पर तत्काल और लंबे समय में होने वाले उसके असर पर अपना जरा सा बस भी नहीं है तो उसकी जिम्मेदारी कैसे ले कोई?

अल्कोलह पीने के इसके समर्थन में वे योरोप-अमरीका का उदाहरण भी देते हैं। लेकिन वहां भी अल्कोहल को लेकर कई तरह की और कड़ी पाबंदियां हैं, सिर्फ दिखावे के नियम वहां नहीं। ज्यादातर देशों में उपभोग के लिए कम से कम 18 साल और कुछेक देशों में अल्कोहल खरीदने के लिए 20-24 साल तक की उम्र की न्यूनतम सीमा है। इसके बरअक्स एक और स्थिति को रखें तो 18 की उम्र में शराब पीने की छूट चाहने वाले किशोर उन विदेशी किशोरों की तरह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होते हैं। यानी वे अपनी जिम्मेदारी खुद नहीं उठा सकते हैं। इसके साथ इस तथ्य पर भी विचार करना चाहिए कि कई देशों में अल्कोहल पिए जाने की मात्रा पर पाबंदी है। आयरलैंड में पुरुष सप्ताह में 14 पिंट से अधिक शराब नहीं पी सकते तो अमरीका में महिलाओं का हफ्ते का कोटा अधिकतम 7 पिंट अल्कोहल तक का है। भारत में ऐसी कोई रोक नहीं है।

इस स्तर पर तो ये एक लंबी बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन कनाडा की मेडिकल एसोसिएशन जर्नल की चिंता यह है कि ये सारी पाबंदियां कैंसर को रोकने के लिए कतई नाकाफी हैं। डॉक्टर साफ कहते हैं कि ऐसी कोई सुरक्षित सीमा नहीं है, जिससे कम अल्कोहल नुकसानरहित हो। हाल ही में कई ऐसी रपटों से पता चला है कि रोजाना एक पेग अल्कोहल भी मुंह, गले, ईसोफेगस, लिवर, कोलोन, रेक्टम, स्तन के कैंसर को जगाने के लिए काफी है। पत्रिका में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर के मुताबिक यूरोप में पुरुषों के 10 फीसदी और महिलाओं के 3 फीसदी कैंसरों का कारण मात्र अल्कोहल का सेवन है।

हालांकि कुछ रिपोर्टों में बताया गया है कि रेड वाइन की चुस्कियों से दिल के मर्ज दूर रहते हैं, पर यह भी एक भ्रम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी लगातार कहता है कि जितना कम हो उतना ही बेहतर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल की बीमारियों सहित नौ बीमारियां हैं जिनका एकमात्र कारण शराबखोरी हो सकती है। इनके अलावा सैकड़ों तकलीफें हैं, जिनको बढ़ाने में शराब मदद करती है। इस अध्ययन में कैंसर पर गहराई से आंकड़े जुटाए गए हैं।

सबसे बड़ी बात यह है कि किसी भी देश में बीमार होना व्यक्ति की सिर्फ अपनी नहीं बल्कि पूरे देश की चिंता है, क्योंकि सब मिलाकर देश की कुल स्वास्थ्य व्यवस्था और इतनी बड़ी आबादी के लिए उपलब्ध सीमित संसाधनों पर बोझ पड़ता है। खर्च व्यक्ति का अकेले का नहीं, पर पूरे देश के साझा संसाधनों का होता है। इसमें एक व्यक्ति के डॉक्टरी पढ़ने के सरकार के खर्च से लेकर दवा या उपकरणों पर सब्सिडी या सीमित संख्या में उपलब्ध अस्पताल के बेड को पा लेने तक बहुत से खर्च और संसाधन शामिल हैं।

कनाडा में पुरुषों के लिए हफ्ते में 14 ड्रिंक और महिलाओं के लिए 9 ड्रिंक की सीमा को सेहत के लिहाज से कम रिस्क वाला बताया गया है। ध्यान रहे कि इसे “लो रिस्क” कहा गया है, “नो रिस्क” नहीं।

आप शराब पीने के लिए बिना कारण कितना रिस्क लेने को तैयार हैं? औऱ उसकी जिम्मेदारी...?

Saturday, April 23, 2011

हर हाल में खराब है शराब


हाल के एक रिसर्च से पता चला है कि ‘सीमित मात्रा में’ शराब पीना भी कैंसर को बढ़ावा देता है। और अगर कोई कम ही सही, पर लंबे समय तक नियमित शराब पीता रहा तो उसे कैंसर होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। और यह खतरा उस समय भी रहता है, जबकि उसने अब यह आदत छोड़ दी हो। ब्रिटेन में 10 में से एक पुरुष और 33 में से एक महिला को शराब के कारण कैंसर होने का खतरा होता है। और यह संख्या तेजी से बढ़ रही है। वहां हर साल 13,000 लोगों को शराब पीने के कारण कैंसर हो रहा है, जिसमें स्तन, मुंह, खाने की नली का ऊपरी हिस्सा, स्वर यंत्र, जिगर और मलाशय के कैंसर शामिल हैं। महिलाएं एक यूनिट या 125 मिली लीटर वाइन, आधा पिंट बियर या सिंगल व्हिस्की के बराबर और पुरुष इससे दोगुनी शराब यदि नियमित पीते हैं तो उन्हें अल्कोहल से जुड़े कैंसर का खतरा बताया जाता है।

1992 से चल रहा ईपीआईसी (एपिक)कार्यक्रम पूरे यूरोप में खाने-पीने और कैंसर के संबंधों का अध्ययन करता है। इस अध्ययन में यूरोप में पिछले 10 साल से शराब पीने की आदतों और कैंसर के संबंध पर रिसर्च चल रहा है। इसमें 35 से 70 साल के 3.6 लाख लोग शामिल हुए। रिसर्च से पता चला है कि ज्यादातर लोग कैंसर और शराब के इस मारक संबंध से अनजान हैं। अनेकों का तो मानना है कि शराब पीने से उनकी सेहत बेहतर होती है। जबकि वास्तविकता यह सामने आई है कि एक पेग रोज पीने वाले भी अपने लिए कैंसर को निमंत्रण दे रहे हैं। यह भी भ्रम है कि ठंड में और ठंडे इलाकों में शराब पीना शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है। जबकि यह अध्ययन ऐसे सभी भ्रमों के जाले साफ कर रहा है।

Thursday, November 12, 2009

सिगरेट पीना हॉट है या कूल?

वैसे तो धुआं पीना कई जगहों पर मना हो गया है। फिर भी पीने वाले को तो सिगरेट-बिड़ी पीनी ही होती है। भई, जिसको पीना है, वो कहीं भी जाकर अपनी तलब पूरी करेगा। भले ही कड़ी सर्दी में बाहर मैदान में खड़े होना पड़े या फिर कड़ी तपती गर्मी में मैदान में या सड़क पर पेड़ की एक पत्ता छांव भी न मिले। भले ही अपने मित्रों का झुंड छोड़कर अजनबियों के बीच खड़ा होना पड़े या फिर नो-स्मोकिंग जोन के अंदर पकड़े जाने पर इज्जत जाती रहे। और ये सब एक दिन की नहीं, रोज-ब-रोज की बात है।

एक जमाना था जब सिगरेट पीना स्टाइल माना जाता था, शान की निशानी मानी जाती थी। फिल्मों के हीरो स्टाइल से धुआं छोड़ते हुए ‘अदाएं’ दिखाते थे और दर्शक फिदा हुए जाते थे। पर आज समय बदल गया है। अब फिल्मों में सिगरेट पीना टशन नहीं बल्कि टेंशन की निशानी बन गया है। या तो विलेन पिएगा या फिर परेशान-हाल हीरो। कोई स्वस्थ-प्रसन्न चरित्र फिल्मों में धुआं करता कम ही दिखता है।

आज भी सोचिए कोई लती बुजुर्ग धुंए की तलब में अपने दफ्तर से निकल कर दूर चला जाता है, काम-काज, दफ्तर के भीतर के अनुकूलत वातावरण को छोड़कर। छुपकर जिंदगी को धुंए में उड़ाने के लिए। और वहां से लौटता है, एक बदबू का भभका लेकर जिसे हर कोई पास से गुजर कर महसूस कर सकता है, नाक भौं सिकोड़ सकता है।

कोलंबस के जमाने से भी पहले से अमरीकी रेड इंडयन नशे के लिए तंबाकू की पत्तियां जलाकर धुंआ पीना जानते थे। लेकिन उसी अमरीका में मार्लबोरो सिगरेट कंपनी के अभिमानी मालिक की जान उसी की कंपनी की बनाई सिगरेट के धुंए ने ले ली। हमारे देश में पुरुषों के कैंसर के मामलों में 45 फीसदी मुंह, श्वास नली या फेफड़ों का कैंसर होता है। इनमें 95 फीसदी बीमारी का कारण तंबाकू और धूम्रपान है।

अब सिगरेट से लोगों का तिरस्कार ही मिलता है, और ज्यादा समय होने पर लती होते देर नहीं लगती और लोग उसे निरीह, बीमार समझने लगते हैं। यानी सिगरेट पीने वाला न तो ‘हॉट’ लगता है, और न यह कोई ‘कूल’ अदा है।

इस बारे में आपकी राय क्या है, जरूर बताएं।

नवंबर फेफड़ों के कैंसर की जागरूकता का महीना है।

Monday, April 20, 2009

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-4)

खान-पान और कैंसर

अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को जीवन भर सेहतमंद खान-पान और सामान्य कसरत के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ बोहतर खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यूआईसीसी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।

भोजन के खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।

खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा, दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है तो विकासशील देशों में कुपोषण की। जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता तो शरीर कैंसर का आसान शिकार बन जाता है।

मांसाहार बनाम शाकाहार-

सेहतमंद खानपान की बात हो तो ये मुद्दा आना ही है कि मांसाहार बेहतर है कि शाकाहार। मेरा अपना विवेक शाकाहार के पक्ष में तर्क देता है। नीचे कुछ तथ्य हैं जो मैंने शाकाहार के समर्थन में ढूंढ निकाले हैं। मांसाहार के पक्ष में आपकी राय हो तो जरूर बताएं, चर्चा ज्यादा समृद्ध होगी।

*जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था।

*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतन 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।

* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।

* 2006 में हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1,35,000 लोगों में से अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाने वालों को मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।

शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है-

* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।

* मांस को हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।

* मांस-मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं। थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।

* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं।

* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोशा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते। खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।

* फलों और सब्जियों में एंटी-ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसरकारी रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।

* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल कर बीमारी नहीं पैदा कर पातीं। शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।

Sunday, October 19, 2008

थुल-थुल मोटापे से तौबा!

जिराफ कभी मोटा नहीं होता।इसीलिए अव्वल तो उसे कैंसर होता नहीं। और खुदा-न-खास्ता कभी हो भी गया तो उसके बचने के चांसेस काफी मोटे होंगे क्योंकि वह खुद मोटा नहीं होता।

मोटे और थुल-थुल शरीर वाले कैंसर मरीजों की ठीक होने की संभावना कम होती है। यह ताजा नतीजा हाल के एक रिसर्च के बाद सामने आया है। लान्सेट ऑन्कोलॉजी पत्रिका में छपे लेख के मुताबिक वैज्ञानिकों ने पाया कि मोटे लेकिन कमज़ोर मांस-पेशियों वाले लोगों में इलाज के लिए दी जाने वाली कीमोथेरेपी का वितरण पूरे शरीर में आसानी से नहीं हो पाता। इस कारण दवाओं का पूरा फायदा शरीर को नहीं मिल पाता।

मोटे लोगों में भी उपापचय की दर, पेशियों और मांस का अनुपात शरीर के गठन के मुताबिक अलग-अलग होता है। इसलिए उनको दी गई समान कीमोथेरेपी का पूरे शरीर में वितरण और असर होने का समय अलग-अलग हो सकता है। इसलिए इलाज के दौरान शरीर की सक्रियता, खान-पान और मोटापे का असर इलाज के कुल फायदे पर भी पड़ता है।

कनाडा में हुए एक क्लीनिकल ट्रायल में कैंसर के कमजोर मांस-पेशियों वाले मोटे मरीजों (सार्कोपीनिक ओबीज़) पर दवाओं के असर और उनकी ठीक होने की संभावना का अध्ययन किया गया। इसमें 250 मोटे मरीजों को शामिल किया गया , जिनमें से 38 फीसदी सार्कोपीनिक ओबीज़ माने गये।

इस अध्ययन के कुछ नतीजे थे-
• सार्कोपीनिक ओबेसिटी वाले मरीज़ों की मृत्यु दर दूसरे ओबीज़ मरीजों के मुकाबले चार गुना ज्यादा थी।

• सार्कोपीनिक ओबीज़ मरीजों की सक्रियता यानी अपना रोज़ का काम करने और अपनी देखभाल कर पाने की क्षमता दूसरे मोटे मरीजों के मुकाबले बहुत कम थी।

• शरीर में कीमोथेरेपी के असमान वितरण के कारण सार्कोपीनिक ओबीज़ में कीमो के साइड इफेक्ट पर भी नकारात्मक असर पड़ा।

वैज्ञानिकों ने निश्कर्ष निकाला कि शरीर की रचना और गठन, खास तौरपर सार्कोपीनिक ओबेसिटी का मरीज़ की उत्तरजीविता, सामान्य जीवन, कीमोथेरेपी के जहरीले बुरे असर आदि से गहरा संबंध है। यह भी पाया गया कि ऐसे मरीजों में समान शारीरिक वजन और ऊंचाई के बावजूद उपयुक्त दवा की मात्रा में तीन-गुने तक का अंतर आ सकता है।

इस ट्रायल पर ज्यादा अध्ययन के बाद हो सकता है भविष्य में सार्कोपीनिक ओबेसिटी से पीड़ित कैंसर मरीजों के लिए दवा की मात्रा तय करते समय इन कारकों को भी गिनती में लिया जाए।

कुल मिला कर सबक यही है कि हर कीमत पर मोटापे से बचा जाए, चाहे हम सार्कोपीनिक ओबीज़ हों या नहीं, चाहे हम कैंसर के मरीज़ हों या नहीं।

Saturday, October 4, 2008

धूम्रपान पर कड़ी पाबंदी

दो अक्टूबर से सभी सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान पर पाबंदी लग गई है। इसे न मानने पर सज़ा का भी प्रावधान है। यह सभी की सेहत के लिए अच्छा है। खास बात यह है कि कई सर्वेक्षणों में लोगों ने समान रूप से इस पाबंदी का समर्थन किया है।
इस मसले पर घोस्ट बस्टर ने अपने ब्लॉग पर एक शानदार पोस्ट डाली है। उसके सुंदर चित्र, प्रवाहमय भाषा, खूबसूरत अभिव्यक्ति और रिच कंटेंट पढ़ कर मैं आपको भी उससे परिचित करवाने के लालच से बच नहीं पाई।

वे लिखते हैं- "आम जनता की और से सरकार के इस कदम का जबरदस्त स्वागत हुआ है. मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ९२% लोगों ने धूम्रपान निषेध के लिए कड़े क़दमों का स्वागत किया है

फ़िर भी इस बात को लेकर एक बड़ी बहस छिडी हुई है. बैन के पक्षधर और विरोधी तमाम तरह के तर्क दे देकर मैसेज बॉक्स और फोरम्स के पन्नों पर पन्ने रंगे जा रहे हैं. अपन तो बस इस बैन को जल्द से जल्द और सख्ती से लागू किए जाते देखना चाहते हैं. एक कम्युनिटी के रूप में स्मोकर्स के लिए अपने मन में जरा भी इज्जत नहीं. क्योंकि,

१. ये जानते हैं कि धूम्रपान इनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है. मगर इन्हें परवाह नहीं.
२. इन्हें पता है कि ये इनके घर के अन्य सदस्यों, जो स्मोक नहीं भी करते, के लिए भी बुरा है, मगर ये आदत से मजबूर हैं.
३. स्मोकिंग से होने वाली विषैली गैसों का उत्पादन पूरे विश्व के पर्यावरण के लिए नुक्सान ही पहुँचाने वाला है, होता रहे इनकी बला से.
४. सार्वजनिक स्थानों पर किसी स्मोकर को धुंआ उडाते देखने का दृश्य अभद्रता का खुला प्रदर्शन लगता है...."

पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Thursday, September 4, 2008

युवावस्था में भी दिख जाते हैं स्तन कैंसर के लक्षण


ज्यदातर लोग जानते हैं कि फैमिली हिस्ट्री, ज्यादा उम्र जैसे कारक स्तन कैंसर के जोखिम को बढ़ाते हैं।

ताजा खबर ये है कि महिलाओं में होने वाले स्तन कैंसर के खतरे का आकलन उनकी युवावस्था में भी काफी हद तक किया जा सकता है।

ताजा रिसर्च बताता है कि कुछ सामान्य और कैंसर से जुड़े न लगने वाले कम उम्र के लक्षण भी किसी को स्तन कैंसर होने की संभावना को आंकने में मदद कर सकते हैं। यहां तक कि उनके ट्यूमर के प्रकार का भी अंदाजा भी देते है। इसलिए अपनी कुछ आदतों में बदलाव करके वे महिलाएं ज्यादा आक्रामक प्रकार के कैंसर की संभावना को कम आक्रामक कैंसर में बदलने की कोशिश भी कर सकती हैं।

इसीलिए डॉक्टर हमेशा कहते हैं कि शरीर का ज्यादा वज़न, खास तौर पर युवावस्था में अचानक बढ़ने वाला वज़न हमेशा खतरे की घंटी होता है, इसे अनसुना करना खतरनाक है।

कुछ महिलाओं के कैंसर का इलाज आसानी से हो जाता है जबकि दूसरों का स्तन कैंसर ज्यादा खतरनाक होता है, क्यों? इसमें जीन और अनुवांशिकता का हाथ जरूर होता है। लेकिन वैज्ञानिकों ने पाया है कि महिलाओं की पर्सनल हिस्ट्री से भी उनके कैंसर का प्रकार काफी हद तक निर्धारित होता है।

फ्रेड हचिंसन कैंसर रिसर्च सेंटर के डॉक्टरों ने 1100 विभिन्न प्रकार के स्तन कैंसरों की मरीज महिलाओं और 1500 स्वस्थ महिलाओं में युवावस्था के दौरान कुछ खास लक्षणों और आदतों की तुलना की। उन्होंने पाया कि जिन महिलाओं ने अपने बच्चों को कम से कम 6 माह तक स्तनपान कराया था उन्हें ज्यादा खतरनाक कैंसर का खतरा दूसरों के मुकाबले आधा था।

इसके अलावा जिन महिलाओं के पीरियड जल्दी शुरू होते हैं उनके ट्यूमर का इलाज, देर से रजस्वला होने वाली महिलाओं के कैंसर की तुलना में दो गुना ज्यादा कठिन होता है। देर से रजस्वला होने वाली महिलाओं का ट्यूमर ईस्ट्रोजन सेंसिटिव होने की संभावना ज्यादा होती है। इसका सीधा सरल मतलब यह है कि उन्हें अगर कैंसर हो तो उसका इलाज ज्यादा सरल और सफल होता है।

अभी इससे आगे का रिसर्च जारी है इसलिए यहां जानकारी का अंत नहीं होता। हम सब इंतज़ार करें, इस क्षेत्र में किसी ब्रेकथ्रू का जो इस मानवीय त्रासदी से निबटने का रास्ता दिखाए।

Tuesday, July 22, 2008

कैंसर पहेली - 1

कैंसर के बारे में आप कितना जानते हैं? इन सवालों का जबाव दीजिए और लीजिए अपने कैंसर ज्ञान की परीक्षा।

सवालों के जवाब अंत में दिए गए हैं। खास बात ये है कि इस पहेली में चोरी से जवाब देख लेने की पूरी छूट है। तो हैं तैयार?

1. कम उम्र की खान-पान, सिगरेट-तंबाकू की बुरी आदतों का बड़ी उम्र में कोई असर नहीं पड़ता।
* सही
* गलत

2. सर्जरी से कैंसर का इलाज करने से वह फैलता है
* सही
* गलत

3. विशेषज्ञ कैंसर का पुख्ता इलाज ढू़ढ चुके हैं। लेकिन महंगे, लंबे इलाज से वे ज्यादा धन कमाना चाहते हैं।
* सही
* गलत

4. ग्रिल्ड मीट नियमित रूप से खाने से कैंसर का कोई संबंध नहीं है।
* सही
* गलत

5. घरेलू कीटनाशक स्प्रे से कैंसर नहीं होता।
* सही
* गलत

6. पुरुषों को स्तन कैंसर नहीं होता।
* सही
* गलत

7. स्तन कैंसर शहरी महिलाओं में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है।
* सही
* गलत

8. स्तन कैंसर की जांच के लिए विशेषज्ञ किस उम्र से नियमित मैमोग्राम कराने की सलाह देते हैं?
* 40 साल
* 50 साल

जवाब:

1. ज्यादातर मामलों में लंबे समय से काम कर रहे कई कारक मिलकर कैंसर को जन्म देते हैं। इसलिए युवावस्था के खान-पान, धूम्रपान, शारीरिक गतिविधियों का असर शरीर पर बाद के जीवन में भी दिखाई पड़ता है।

2. कैंसर के विशेषज्ञ सर्जन जानते हैं कि किस तरह सुरक्षित डंग से बायोप्सी या ऑपरेशन किया जाए कि कंसर न फैले। कई तरह के कैंसरों में तो सर्जरी ही सबसे पक्का इलाज है।

3. यह लोगों का वहम है। जरा खुद सोचिए, डॉक्टरों के अपने रिश्तेदार कैंसर का वही इलाज करवा रहे हैं जो बाकी लोग। उनमें से कई मर भी रहे हैं। ऐसे में क्या यह सही हो सकता है कि कोई भी डॉक्टर इलाज जानबूझ कर न करे? कैंसर एक नहीं बल्कि कई तरह का होता है और सबका इलाज अलग-अलग होता है। इनमें से कुछ का इलाज ढूंढा जा चुका है।

4. बार्बेक्यू के ज्यादा इस्तेमाल से कैंसर का रिस्क बढ़ जाता है। मीट को ग्रिल करने, कास तौर पर ज्यादा पकाने या जलाने से उसमें कैंसरकारी तत्व बन जाते हैं। ज्यादा अनाज, फल और सब्जियां काना इसका अच्छा विकल्प है।

5. मौजूदा रिसर्च साबित नहीं करते कि घरेलू कीटनाशक स्प्रे और कैंसर में सीधा संबंध है। लेकिन इनका फेफड़ों में जाना या सीधे संपर्क में आना खतरनाक है। हालांकि पेड़-पौधों में डाले जाने वाले कीटनाशक कई तरह के कैंसरों को बढ़ावा देते हैं।

6. स्तन कैंसर के हर 200 मरीजों में से एक पुरुष हो सकता है।

7. दुनिया में महिलाओं को सबसे ज्यादा स्तन कैंसर ही हो रहा है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि हिंदुस्तान में हर एक लाख औरतों में 32 स्तन कैंसर से पीड़ित हैं। बड़े शहरों में दस में से एक महिला को स्तन कैंसर होने की संभावना है।

8. अमरीका की नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट, अमेरिकन कैंसर सोसाइटी और अमेरिकन मेडीकल एसोसिएशन के मुताबिक 40 की उम्र के बाद महिलाओं को एक या दो साल में मैमोग्राम करवाना चाहिए।

Thursday, June 19, 2008

कैंसर के होने का अंदाजा खुद भी लगा सकते हैं

खुद को आइने में हम रोज देखते हैं- लेकिन आम तौर पर श्रृंगार के लिए। क्यों न सेहत के लिए भी खुद को देखने की आदत डाल लें। जैसा कि पहले भी जिक्र आ चुका है- कैंसर बड़ी बीमारी है लेकिन अपनी सजगता से हम इसके इलाज को सफल और सरल बना सकते हैं- बीमारी का जल्द से जल्द पता लगा कर। कई बार डॉक्टर से पहले हमें ही पता लग जाता है कि हमारे शरीर में कुछ बदलाव है, कुछ गड़बड़ है। शरीर का मुआयना इस बदलाव को सचेत ढंग से पहचानने का एक जरिया है।

त्वचा के कैंसर का पता अपनी जांच कर के लगाया जा सकता है। खूब रौशनी वाली जगह में आइने के सामने अपने पूरे शरीर की त्वचा का मुआयना कीजिए। नाखूनों के नीचे, खोपड़ी, हथेली, पैरों के तलवे जैसी छुपी जगहों का भी।

कहीं कोई नया तिल, मस्सा या रंगीन चकत्ता तो नहीं उभर आया?

कोई पुराना तिल या मस्सा आकार-प्रकार में बड़ा या कड़ा तो नहीं हो गया?

मस्से या तिल का रंग तो नहीं बदला, उससे खून तो नहीं निकलता?

किसी जगह कोई असामान्य गिल्टी या उभार दिखता या महसूस होता है?

त्वचा पर कोई कटन या घाव जो ठीक नहीं हो रहा हो, बल्कि बढ़ रहा हो?


इनमें से किसी भी सवाल का जवाब अगर अपनी जांच के बाद 'हां' में मिलता है तो फौरन डॉक्टर से बात करनी चाहिए।

तंबाकू खाने की आदतों के कारण मुंह का कैंसर भारतीय पुरुषों में सबसे ज्यादा होने वाला कैंसर है। मुंह के भीतर और आसपास का नियमित मुआयना कैंसर की जल्दी पहचान करने में मदद करता है। इस तरह कई बार तो कैंसर होने के पहले की स्टेज पर भी इसे पहचाना जा सकता है। मुंह के कैंसर के लक्षण कैंसर होने के काफी पहले ही दिखने लगते हैं। इसलिए उन्हें पहचान कर अगर जल्द इलाज कराया जाए और तंबाकू सेवन छोड़ने जैसे उपाय किए जाएं तो इससे बचा भी जा सकता है। मुंह के भीतर कहीं भी- मसूढ़ों, जीभ, तालु, होंठ, गाल, गले के पास लाल या सफेद चकत्ते या दाग या छोटी-बड़ी गांठ दिखें तो सचेत हो जाना चाहिए।

मेरी एक मित्र के पिता न सिगरेट शराब पीते थे न तंबाकू उन्होंने कभी चखा। पर कोई 65 की उम्र में अचानक उन्हें मिर्च या नमक तक खाने में मसूढ़ों में जलन महसूस होने लगी। डॉक्टर के पास जांच करवाई तो पता लगा उन्हें मसूढ़ों का कैंसर था। सब हैरान थे कि बिना किसी गलत शौक के भी कैसे उन्हें कैंसर हुआ। फिर पता लगा, वे लंबे समय से नकली दांतों के सेट का इस्तेमाल कर रहे थे, जो जबड़ों पर ठीक से नहीं बैठता था। और वही था जिम्मेदार उनके मुंह में कैंसर पैदा करने के लिए।

मुंह की जांच भी हर दिन करना चाहिए, खास तौर पर तंबाकू का किसी भी रूप में सेवन करने वालों और मुंह में नकली दांत लगाने वालों, दांतों को ठीक करने वाले स्थाई तार आदि लगाने वालों, टेढ़े-मेढ़े दांतों वालों, गाल चबाने की आदत वालों को भी। दरअसल कोई भी बाहरी चीज जब मुंह की नाजुक त्वचा को लगातार चोट पहुंचाती है तो एक सीमा के बाद शरीर उसे झेलने से मना कर देता है। नतीजा होता है उस जगह चमड़ी का मोटा होना, छिल जाना, लाल या सफेद हो जाना आदि। यही बाद में कैंसर बनकर फैल जाता है।

मुंह की जांच करने सा सबसे अच्छा समय है, सुबह ब्रश करके मुंह अच्छी तरह धो लेने के बाद। उस समय मुंह में खाने का कोई बचा हुआ अंश नहीं होगा जो जांच में रुकावट डाले।

अच्छी रौशनी वाली जगह में आइने खड़े हो जाएं जहां पर मुंह खोलने पर उसके भीतरी भाग को आसानी से देख सकते हों।

मुंह के हिस्सों को क्रम से देखते चलें-
1. मुंह बंद रखकर अंगुलियों के सिरों से पकड़ कर होठों को उठाएं और उन पर भरपूर नजर डालें।
2. ओठों को उठा कर पीछे कर दें और दांतों को साथ रख कर मसूढ़ों को सावधानी से देखें।
3. मुंह को पूरा खोल कर जीभ के ऊपरी हिस्से को देखें।
4. तालू यानी मुंह की छत पर और जीभ के नीचे भरपूर नजर डालें।
5. गालों के भीतरी हिस्सों को भी अच्छी रौशनी में ठीक से देखें।

कहीं भी कोई घाव, या चकत्ता नजर आता है? चकत्ता सफेद या लाल भी हो सकता है।

मसूढ़ों से खून तो नहीं निकलता? कोई मसूढ़ा किसी जगह सामान्य मसूढ़ों से ज्यादा मोटा तो नहीं हो गया है?

कोई दांत अचानक तो ढ़ीला होकर गिर नहीं गया?

क्या जीभ उतनी ही बाहर निकाल पाते हैं जितनी पहले, या इसमें कोई अड़चन महसूस होती है?

मुंह के भीतर कहीं भी कोई गांठ या असामान्य बात नजर आती है?


अगर इनमें से एक भी सवाल का जवाब 'हां' में पाते हैं तो फौरन डॉक्टर से जांच करवाएं। इसके अलावा आवाज में बदलाव, लगातार खांसी, निगलने में तकलीफ, गले में खराश को भी नजरअंदाज कतई नहीं करना चाहिए।

Thursday, June 5, 2008

बेआवाज़ शैतान की आहट सुनना सीखें हम

अब मेरे पसंदीदा विषय पर कुछ बात हो जाए। ज्यादा जगह बर्बाद किए बिना मुद्दे पर आते हैं। भारत में स्तन कैंसर के मामले बढ़ने की रफ्तार तेजी पकड़ती जा रही है। अमरीका में हर 9 में से एक महिला को स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। इसके मुकाबले भारत में अनुमान है कि हर 22 वीं महिला को अपने जीवनकाल में कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना है। इस तरह अगर हर परिवार में न्यूनतम दो महिलाएं हों तो हर ग्यारहवां परिवार स्तन कैंसर को झेलने के लिए तैयार रहे। यह आंकड़ा शहरों में और ज्यादा है। पर इस तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि गांवों में ऐसे कई मामले रिपोर्ट भी नहीं होते।

कुल मिला कर शहरी महिलाओं में स्तन का कैंसर सबसे आम है। कुछ समय पहले तक बच्चेदानी के मुंह यानी सर्वाइकल कैंसर के मामले ज्यादा होते थे, लेकिन अब स्तन कैंसर ने आंकड़ों में इसे पछाड़ दिया है। गांव भी इस आंकड़ा-पलट को करीब आता देख रहे हैं।

आंकड़ों को जाने दें तो भी हमारे यहां स्तन कैंसर का परिदृष्य भयावह है। इसके बारे में जागरूकता की और इसके निदान और इलाज की सिरे से कमी के कारण ज्यादातर मामलों में एक तो मरीज इलाज के लिए सही समय पर सही जगह नहीं पहुंच पाता। दूसरे इसके महंगे और बड़े शहरों तक ही सीमित इलाज के साधनों तक पहुंचना भी हर मरीज के लिए संभव नहीं।

यानी ज्यादातर मरीजों के बारे में सच यह है कि न इलाज इन तक पहुंच पाता है, न ये इलाज तक पहुंच पाते हैं। और जो पहुंच जाता है, उसका कैंसर तब तक बेकाबू हो गया रहता है। और अगर नहीं, तो पैसे की कमी के कारण वह इलाज बीच में ही बंद कर देता है। कई बार तो समय पर सही अस्पताल पहुंच कर पूरा खर्च करने के बाद भी कैंसर ठीक नहीं हो पाता। कारण- हमारे देश में विशेषज्ञता और इलाज की सुविधाओं की कमी।

ऐसे में सवाल यही आता है कि क्या करें कि हालात बेहतर हों। तो, हम समस्या की शुरुआत में ही बहुत कुछ कर सकते हैं। और यही सबसे जरूरी भी है कैंसर को काबू में करने के लिए। कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान। कैंसर की खासियत है कि यह दबे पांव आता है, बिना आहट के, बिना बड़े लक्षणों के। फिर भी कुछ तो सामान्य लगने वाले बदलाव कैंसर के मरीज में होते हैं, जो कैंसर की ओर संकेत करते हैं और अगर वह मरीज सतर्क, जागरूक हो तो वहीं पर मर्ज को दबोच सकता है। वरना थोड़ी छूट मिलते ही यह शैतान बेकाबू होकर बस, कहर ही ढाता है।

अपने स्तन और निप्पल को आइने में देखिए। स्तन को नीचे ब्रालाइन से ऊपर कॉलर बोन यानी गले के निचले सिरे तक और बगलों में भी अपनी तीन या चारों अंगुलियां मिला कर थोड़ा दबा कर महसूस करके देखिए। अंगुलियों का चलना नियमित गति और दिशाओं में हो।




(यह जांच शावर में या लेट कर भी कर सकते हैं।) कहीं ये बदलाव तो नहीं हैं-

1. स्तन या निप्पल के आकार में कोई असामान्य बदलाव।

2. कहीं कोई गांठ, चाहे वह मूंग की दाल के बराबर ही क्यों न हो। इसमें अक्सर दर्द नहीं रहता है।

3. इस पूरे इलाके में कहीं भी त्वचा में सूजन, लाली, खिंचाव या गड्ढे पड़ना या त्वचा में संतरे के छिलके के समान छोटे-छोटे छेद या दाने से बनना।

4. एक स्तन पर खून की नलियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगें।

5. निप्पल भीतर को खिंच गया हो या उसमें से दूध के अलावा कोई भी स्त्राव- सफेद, गुलाबी, लाल, भूरा, पनीला या किसी और रंग का, हो रहा हो।

6. स्तन में कही भी लगातार दर्द हो रहा हो तो भी डॉक्टर से सलाह लेनी चाहिए।

और ध्यान रहे, ये जांच हर महीने पीरियड के बाद नियम से करनी है। वैसे कई युवा महिलाओं को हर्मोनों में बदलाव की वजह से नियमित रूप से स्तन में सूजन, भारीपन या दर्द जैसे लक्षण होते हैं, जो कि सामान्य बात है। बल्कि स्तन में हुई गांठों में से 90 फीसदी गांठें कैंसर-रहित ही होती हैं। लेकिन इसकी आड़ में 10 फीसदी को अनदेखा तो नहीं किया जा सकता न!

Sunday, May 18, 2008

कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू

शाकाहार और मांसाहार पर बहस लंबी चल सकती है लेकिन एक शाकाहार, बल्कि पत्ता है जिसका सेवन किसी भी रूप में कैंसरकारी है। यह मेरी पिछली पोस्ट का विरोधाभास लग सकता है लेकिन तंबाकू के बारे में यही सच है।

मुंह का कैंसर उन गिने-चुने कैंसरों में से है जिन्हें पूरी तरह रोका जा सकता है। यह ज्यादातर बाहरी कारणों से ही होता है जिनकी लगभग पूरी फेहरिस्त डॉक्टरों के पास है। अफसोस की बात है कि जानकारी की कमी से मुंह के कैंसर के मामले हमारे देश में लगातार बढ़ रहे हैं। योरोप और अमरीका में मुंह का कैंसर कुल मामलों में से 4-5 फीसदी है तो हिंदुस्तान में यह 45 फीसदी से ज्यादा। इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा मामलों में कारण तंबाकू और उससे बने उत्पाद हैं।

यह स्थापित हो चुका है कि तंबाकू का लंबे समय तक सेवन कैंसर को खुला निमंत्रण है। पान मसाला जो तंबाकू सेवन का सबसे नया और तेजी से लोकप्रिय होता रूप है, सबसे ज्यादा कैंसरकारी साबित हुआ है। कुछ समय पहले गुजरात के एक कैंसर अस्पताल में 25 वर्ष तक की उम्र के युवाओं में मुंह के कैंसर का सर्वे किया गया। पता चला कि उनमें से हर पांच में से तीन पान मसाला खाने के आदी थे। उनमें से कुछ ने चार या पांच साल पहले पान मसाला खाना शुरू किया था तो कुछ को दो साल के व्यसन ने ही बीमार बना दिया।

तंबाकू में 45 तरह के कैंसरकारी तत्व पाए गए हैं। पान मसाला बनाने के लिए जब इसमें स्वाद और सुगंध के लिए दूसरी चीजें मिलाई जाती हैं तो उसमें कार्सिनोजेन्स की संख्या कई दहाइयों में बढ़ जाती है। दरअसल ये रसायन मुंह की नाजुक त्वचा को लगातार चोट पहुंचाते रहते हैं और कोशिकाओं के सामान्य विकास में रुकावट डालते हैं। ये व्यथित कोशिकाएं खुद में कुछ बदलाव लाकर उन पदार्थों के बुरे असर से बचने की कोशिश करती हैं। यह बदलाव ही उनके लिए मारक साबित होता है। बदलाव के बाद बनी कोशिकाओं का विकास, जाहिर है, असामान्य और अनियंत्रित होता है।
इस तरह बनी गांठ में कैंसर होने की संभावना होती है जो इलाज में देर होने पर फेफड़ों, जिगर, हड्डियों और शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल कर जानलेवा हो जाता है।
सिगरेट, पान, तंबाकू, पान मसाला के अलावा पोषण में कमी, टेढ़े या नुकीले दांतों या गालों की भीतरी नरम चमड़ी को चबाने की आदत के कारण भी मुंह का कैंसर हो सकता है। लेकिन गले या श्वासनली के कैंसर का कारण अनिवार्यत: धूम्रपान और शराब ही है।

मुंह के कैंसर के लक्षण कैंसर होने के काफी पहले ही दिखने लगते हैं। इसलिए उन्हें पहचान कर अगर इलाज कराया जाए और तंबाकू सेवन छोड़ने जैसे उपाय किए जाएं तो इससे बचा भी जा सकता है। मुंह के भीतर कहीं भी- मसूढ़ों, जीभ, तालु, होंठ, गाल, गले के पास लाल या सफेद चकत्ते या दाग दिखें तो सचेत हो जाना चाहिए। इसके अलावा आवाज में बदलाव, लगातार खांसी, निगलने में तकलीफ, गले में खराश, कोई बेवजह हुआ घाव जो ठीक न हो रहा हो जैसे बदलावों पर भी ध्यान देना चाहिए। खूब फल-सब्जियां और अंकुरित अनाज तो हैं ही ऐंटी-ऑक्सिडेंट और विटामिनों के भंडार जो हमारी उपापचय प्रणाली में आजाद घूम रहे कैंसरकारी तत्वों की बेजा हरकतों पर लगाम लगाते हैं।

दुनिया भर में मुंह के कैंसर का प्राथमिक कारण तंबाकू और शराब ही हैं। अगर यह खत्म हो जाए तो मुंह का कैंसर भी लगभग पूरी तरह खत्म हो जाएगा।

Friday, May 16, 2008

शाकाहार बनाम मांसाहार: कैंसर के बर-अक्स

खान-पान संबंधी पिछली पोस्ट पर एक टिप्पणी में स्वप्नदर्शी ने कहा- "मेरी जानकारी मे संतुलित आहार मे मांस का होना अच्छा है और मांस खाने का कैंसर से कोई सीधा सम्बन्ध नही है।"

नीचे लिखे कुछ तथ्यों पर नजर डालें-

कुछ वैज्ञानिक अध्ययन:

* जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था। जापान और स्वीडन में भी सर्वेक्षणों के मिलते-जुलते नतीजे मिले।

*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि ज्यादा मांस खाने वालों के मुकाबले कम मांस खाने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर की संभावना कम होती है। जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतर 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।

* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।

* 2006 अमेरिकन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रीशन में प्रकाशित हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1, 35,000 लोगों में से जिन्होंने अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाया, उन्हें मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।

शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है:

* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।

* मांस को हजम करने में ज्यादा पाचक एंजाइम और समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।

* इसके अलावा मांस- मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैसर को बढ़ावा देते हैं। इसे ऐसे समझें कि थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए उन्हें खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।

* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ने लगते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं। ऐसे में शरीर कैंसर से लड़ने और जीतने में नाकाम हो जाता है।

* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोषा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते।

* खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।

फलों और सब्जियों में एंटी ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसर पैदा करने वाले रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।

* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल नहीं पातीं।

* शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।

Monday, May 12, 2008

खाने और खोने का संबंध

पिछली एक पोस्ट पर टिप्पणी में पद्मावती ने बड़े पते की बात कही -

" इस ब्लॉग के जरिए जो फायदा में सबसे ज्यादा देख रही हूं- युवा वर्ग के खान-पान और लाइफ स्टाइल का सही होना, जो कि बुरी तरह से बिगड़ता जा रहा है। हम बड़े भी (या ही?) जिम्मेदार हैं। स्कूल की कैंटीन से लेकर शॉपिंग और मूवी प्रेग्राम का अंत चटपटा खाने से होता है। मुझे याद है मेरी मां ऐसे किसी प्रोग्राम के दिन खाने की पूरी तैयारी करके जाती थी। खोमचे वाले पर हमारी नजर पड़ते ही कहतीं- घर में कोफ्ते बने हैं। और बस, हम सब घर चल पड़ते। हमारी जिम्मेदारी है बच्चों को सही खानपान और रहन-सहन के तरीके सिखाने की।"

तो आज इसी मुद्दे पर बात आगे बढ़ाते हैं। आखिर हम खाना खाते ही क्यों हैं, हम जो खाते हैं उसका क्या होता है और खाने का कैंसर से क्या रिश्ता है। हर इंसान एक साल में औसतन 500 किलोग्राम खाना खाता है यानी हर दिन कोई सवा किलोग्राम। यह खाना हमारे शरीर की बढ़त में, कहीं टूट-फूट हो तो उसकी मरम्मत में और दिन भर के कामों में शरीर को चालू रखने के लिए ईंधन के तौर पर काम आता है। बढ़त औत चोट भरने के लिए प्रोटीन ज्यादा काम आता है और ईंधन के तौर पर ज्यादा कैलोरी वाले खाद्य पदार्थ - वसा, चीनी यानी फैट और कार्बोहाइड्रेट।


हम जो भी खाते हैं, वह पेट में हज़म होकर ऊर्जा बनाता है। जरूरत से ज्यादा ऊर्जा शरीर में रह नहीं सकती इसलिए शरीर अतिरिक्त कार्बोहाइड्रेट को फैट में बदलकर आड़े वक्त के लिए बचा कर कई जगहों पर जमा करके रख देता है। यही होती है चर्बी या मोटापा।

खाने में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट और चर्बी के अलावा रेशे, अनेक विटामिन, लवण जैसे कई हिस्से होते हैं जिनकी क्रियाएं आपस में संबंधित और एक-दूसरे पर निर्भर हैं। इनकी गतिविधियां कोशिकाओं के भीतर रासायनिक क्रियाओं के रूप में होती हैं और कैंसर भी कोशिका के भीतर रासायनिक गड़बड़ियों से पैदा होने वाली बीमारी है। यानी खान-पान का हमारे शरीर में कैंसर होने से सीधा संबंध है।

अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को लगातार सेहतमंद खान-पान के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन फिर ध्यान दिला दूं, कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ सुधरे खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यू आई सी सी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। उनकी खासियत का संबंध कैंसर के प्रकार से भी होता है। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, वृहदांत्र (कोलोन) और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।

खाने की सामग्री में शामिल खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल करके), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।

यानी खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है जबकि विकासशील देशों में कुपोषण की जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता। यह स्थिति शरीर को ज्यादा कैंसर प्रवण बना देती है।
यू आई सी सी की गाइडलाइंस के मुताबिक-


1. जीवन भर पेड़-पौधों से बना विविधता भरा, रेशेदार खाना- फल, सब्जियां, अनाज खाइये।

2. चर्बी वाली खाने की चीजों से परहेज करिए। मांस, तला हुआ खाना या ऊपर से घी-तेल लेने से बचना चाहिए।

3. शराब का सेवन करना हो तो सीमित हो।

4. खाना इस तरह पकाया और संरक्षित किया जाए कि उसमें कैंसरकारी तत्व, फफूंद, जीवाणु न पैदा हो सकें।

5. खाना बनाते और खाते समय अतिरिक्त नमक डालने से बचें।

6. शरीर का वज़न सामान्य से बहुत ज्यादा या कम न हो, इसके लिए खाने और कैलोरी खर्च करने में संतुलन हो। ज्यादा कैलोरी वाली चीजें कम मात्रा में खाएं, नियमित कसरत करें।

7. विटामिन और मिनरल की गोलियां संतुलित और परिपूर्ण भोजन का विकल्प कभी नहीं हो सकतीं। विटामिन और मिनरल की प्रचुरता वाले विविध खाद्य पदार्थ ही इस जरूरत को पूरा कर सकते हैं।

8. इन सबके साथ पर्यावरण से कैंसरकारी जहरीले पदार्थों को हटाने, कैंसर की जल्द पहचान, तंबाकू का सेवन किसी भी रूप में पूरी तरह खत्म करने, दर्द निवारक और दूसरी दवाइयां खुद ही, बेवजह खाते रहने की आदत छोड़ने जैसे अभियानों की भी सख्त जरूरत है, अगर हम कैंसर से बचना चाहते हैं।
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