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Sunday, October 16, 2011

आप भी हैं अपने हक में एक बड़े अभियान के हिस्सेदार

पिंक हो या ब्ल्यू, अपने को जानना, जागरूक होना सबसे महत्वपूर्ण है

अक्तूबर स्तन कैंसर माह के तौर पर दुनिया भर में मनाया जाता है, ताकि इसके बारे में जागरूकता फैलाई जा सके। अमरीका में महिलाओं के मरने का एक बड़ा कारण यह है। हमारा देश भी अब हर तरह के कैंसर जिसमें स्तन कैंसर भी जोर-शोर से शामिल है, के मामले में पीछे नहीं है, और इसका दायरा बढ़ता ही जा रहा है। जागरूकता हमारे यहां भी बेहद जरूरी है।

स्तन कैंसर के बारे में जागरूकता का पहचान का रंग गुलाबी है। इस पूरे महीने में कभी आप भी गुलाबी पहनें और अपने को इस बीमारी के बारे में जागरूक करें।

अपने शरीर को जानने-समझने और उसमें आए किसी भी बदलाव पर नजर रखने का एक अभियान चलाएं, जो कि कैंसर को जल्द पकड़ पाने और उसका इलाज सहज बनाने का सबसे कारगर और आसान तरीका है। सिर्फ एक दिन या एक महीने नहीं, जीवन भर। इसमें 'खर्च' होगा, सिर्फ आपका थोड़ा सा समय महीने- पंद्रह दिन में एक बार।

जरूर शामिल हों कैंसर जागरूकता, अपने प्रति जागरूकता के इस अभियान में। यह छोटा लगने वाला निजी प्रयास एक बड़े अभियान का हिस्सा है- याद रखिए।

Thursday, November 12, 2009

सिगरेट पीना हॉट है या कूल?

वैसे तो धुआं पीना कई जगहों पर मना हो गया है। फिर भी पीने वाले को तो सिगरेट-बिड़ी पीनी ही होती है। भई, जिसको पीना है, वो कहीं भी जाकर अपनी तलब पूरी करेगा। भले ही कड़ी सर्दी में बाहर मैदान में खड़े होना पड़े या फिर कड़ी तपती गर्मी में मैदान में या सड़क पर पेड़ की एक पत्ता छांव भी न मिले। भले ही अपने मित्रों का झुंड छोड़कर अजनबियों के बीच खड़ा होना पड़े या फिर नो-स्मोकिंग जोन के अंदर पकड़े जाने पर इज्जत जाती रहे। और ये सब एक दिन की नहीं, रोज-ब-रोज की बात है।

एक जमाना था जब सिगरेट पीना स्टाइल माना जाता था, शान की निशानी मानी जाती थी। फिल्मों के हीरो स्टाइल से धुआं छोड़ते हुए ‘अदाएं’ दिखाते थे और दर्शक फिदा हुए जाते थे। पर आज समय बदल गया है। अब फिल्मों में सिगरेट पीना टशन नहीं बल्कि टेंशन की निशानी बन गया है। या तो विलेन पिएगा या फिर परेशान-हाल हीरो। कोई स्वस्थ-प्रसन्न चरित्र फिल्मों में धुआं करता कम ही दिखता है।

आज भी सोचिए कोई लती बुजुर्ग धुंए की तलब में अपने दफ्तर से निकल कर दूर चला जाता है, काम-काज, दफ्तर के भीतर के अनुकूलत वातावरण को छोड़कर। छुपकर जिंदगी को धुंए में उड़ाने के लिए। और वहां से लौटता है, एक बदबू का भभका लेकर जिसे हर कोई पास से गुजर कर महसूस कर सकता है, नाक भौं सिकोड़ सकता है।

कोलंबस के जमाने से भी पहले से अमरीकी रेड इंडयन नशे के लिए तंबाकू की पत्तियां जलाकर धुंआ पीना जानते थे। लेकिन उसी अमरीका में मार्लबोरो सिगरेट कंपनी के अभिमानी मालिक की जान उसी की कंपनी की बनाई सिगरेट के धुंए ने ले ली। हमारे देश में पुरुषों के कैंसर के मामलों में 45 फीसदी मुंह, श्वास नली या फेफड़ों का कैंसर होता है। इनमें 95 फीसदी बीमारी का कारण तंबाकू और धूम्रपान है।

अब सिगरेट से लोगों का तिरस्कार ही मिलता है, और ज्यादा समय होने पर लती होते देर नहीं लगती और लोग उसे निरीह, बीमार समझने लगते हैं। यानी सिगरेट पीने वाला न तो ‘हॉट’ लगता है, और न यह कोई ‘कूल’ अदा है।

इस बारे में आपकी राय क्या है, जरूर बताएं।

नवंबर फेफड़ों के कैंसर की जागरूकता का महीना है।

Sunday, May 31, 2009

इसके बावजूद तंबाकू का सेवन करने वाले, धूम्रपान करने वाले खोपड़ी से खाली हैं....

आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।






# “पता है, स्मोकिंग दरअसल आप नहीं करते। सिगरेट ही स्मोकिंग करती है। आप तो सिर्फ सिगरेट का छोड़ा हुआ धुंआ पीते हैं।“


# “अब यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि सिगरेट दुनिया में आंकड़ों के होने का एक प्रमुख कारण है।“











तंबाकू पर ज्यादा जानकारी के लिए 18 मई 2008 की पोस्ट देखें- कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू

Monday, April 20, 2009

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-4)

खान-पान और कैंसर

अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को जीवन भर सेहतमंद खान-पान और सामान्य कसरत के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ बोहतर खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यूआईसीसी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।

भोजन के खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।

खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा, दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है तो विकासशील देशों में कुपोषण की। जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता तो शरीर कैंसर का आसान शिकार बन जाता है।

मांसाहार बनाम शाकाहार-

सेहतमंद खानपान की बात हो तो ये मुद्दा आना ही है कि मांसाहार बेहतर है कि शाकाहार। मेरा अपना विवेक शाकाहार के पक्ष में तर्क देता है। नीचे कुछ तथ्य हैं जो मैंने शाकाहार के समर्थन में ढूंढ निकाले हैं। मांसाहार के पक्ष में आपकी राय हो तो जरूर बताएं, चर्चा ज्यादा समृद्ध होगी।

*जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था।

*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतन 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।

* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।

* 2006 में हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1,35,000 लोगों में से अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाने वालों को मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।

शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है-

* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।

* मांस को हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।

* मांस-मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं। थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।

* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं।

* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोशा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते। खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।

* फलों और सब्जियों में एंटी-ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसरकारी रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।

* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल कर बीमारी नहीं पैदा कर पातीं। शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।

Sunday, April 5, 2009

आसां है कैंसर के डंक से बचे रहना

कैंसर का नाम सुनते ही कुछ बरसों पहले तक मन में एक डर-सा पैदा हो जाता था। वजह, इस बीमारी का लाइलाज होना। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब न सिर्फ कैंसर का इलाज मुमकिन है, बल्कि ठीक होने के बाद सामान्य जिंदगी भी जी जा सकती है। शर्त यह है कि शुरुआती स्टेज पर बीमारी की पहचान हो जाए और फिर उसका मुकम्मल इलाज कराया जाए। वैसे, अगर कुछ चीजों से बचें और लाइफस्टाइल को सुधार लें तो कैंसर के शिकंजे में आने की आशंका भी काफी कम हो जाती है।

कैंसर से बचाव और जांच के विभिन्न पहलुओं पर मेरी ये रिपोर्ट : आसां है कैंसर के डंक से बचे रहना

साथियो

ये मेरा ताजा लेख है जो आज के नवभारत टाइम्स के जस्ट जिंदगी पेज (पेज 9) पर छपा है। आप भी पढ़ें और अपनी राय दें।

Sunday, March 8, 2009

संक्षेप में जो आप जानना चाहते हैं स्तन कैंसर के बारे में

बदले समय में भारतीय महिलाओं में भी स्तन का कैंसर सबसे आम हो गया है। हर 22 वीं महिला को कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। शहरी महिलाओँ में यह संख्या और भी ज्यादा है।

खुद पहचानें
स्तन कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान। आइने के सामने और शावर में या लेट कर स्तनों की हर महीने पीरियड के बाद खुद जांच करके देखें-

- स्तन या निप्पल के आकार में कोई असामान्य बदलाव।
- कोई गांठ, चाहे वह मूंग की दाल के बराबर ही क्यों न हो।
- स्तन में सूजन, लाली, खिंचाव या गड्ढे पड़ना, संतरे के छिलके के समान छोटे-छोटे छेद या दाने-से बनना।
- एक स्तन पर खून की नलियां ज्यादा स्पष्ट दिखने लगना।
- निप्पल भीतर को खिंचना, उसमें से दूध के अलावा कोई भी स्त्राव- सफेद, गुलाबी, लाल, भूरा, पनीला या किसी और रंग का, होना ।
- स्तन में कही भी लगातार दर्द होना।

जांच
• 40 की उम्र में एक बार और फिर हर दो साल में मेमोग्राफी करवानी चाहिए ताकि शुरुआती स्टेज में ही स्तन कैंसर का पता लग सके।
• ब्रेस्ट स्क्रीनिंग के लिए एमआरआई, अल्ट्रासोनोग्राफी भी की जाती है।
• एफएनएसी- किसी ठोस गांठ की जांच सुई से वहां की कोशिकाएं निकालकर की जाती है।

बचाव
- कसरत: हर हफ्ते सवा तीन घंटे दौड़ लगाने या 13 घंटे पैदल चलने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर की संभावना 23 फीसदी कम होती है।
- मातृत्व: बच्चे पैदा करना, वह भी सही उम्र में, और उसे स्तनपान कराना स्तन कैंसर को टालने का कारगर तरीका है।
- व्यसन: गुटका, तंबाकू और धूम्रपान ही नहीं, अल्कोहल भी स्तन कैंसर के रिस्क को बढ़ाता है। हर ड्रिंक का अर्थ है, कैंसर के खतरे में इजाफा।
- धूपस्नान: विटामिन डी की कमी का सीधा संबंध स्तन कैंसर से है। शरीर को हर दिन 1000 मिलिग्राम कैल्शियम और 350 यूनिट विटामिन डी मिलना चाहिए। 5-10 मिनट का धूपस्नान शरीर में विटामिन डी बनाने में मदद करेगा।
- कैलोरी में कटौती: रेड मीट और प्रोसेस्ड भोजन कम, होल ग्रेन, फल-सब्जियां ज्यादा खाना कैंसर से बचाव का रास्ता है। चर्बी से मिलने वाली कैलोरी कुल कैलोरी की 20 फीसदी तक रहे तो स्तन कैंसर की संभावना में 24 फीसदी की कटौती हो सकती है।
- छरहरी काया: शरीर पर छाई चर्बी ईस्ट्रोजन हॉर्मोन बनाती है जो स्तन कैंसर का कारण है। दुबला लेकिन सुपोषित होना आदर्श स्थिति है।

भ्रम न पालें
• कैंसर छूत की, संक्रमण से होने वाली बीमारी नहीं है। मधुमेह और उच्च रक्तचाप की तरह शरीर में खुद ही पैदा होती है।
• चोट या धक्का लगने से स्तन कैंसर नहीं होता। बल्कि कई बार चोट लगने पर इसकी तरफ ध्यान जाता है।
• 20 साल की युवती से लेकर मृत्यु की चौखट पर खड़ी बूढ़ी महिला तक किसी को भी स्तन कैंसर हो सकता है।
• स्तन कैंसर पुरुषों को भी होता है। 200 में से एक स्तन कैंसर का मरीज पुरुष हो सकता है।
• खान-पान और जीवनचर्या में सकारात्मक बदलाव करके कैंसर की संभावना को कम किया जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद इसका प्रामाणिक इलाज ऐलोपैथी ही है।
• 93 फीसदी मामलों में स्तन कैंसर वंशानुगत बीमारी नहीं है।
• स्तन की 90 फीसदी गांठें कैंसररहित होती हैं, सिर्फ 10 फीसदी गांठों में कैंसर की संभावना होती है। फिर भी हर गांठ की फौरन जांच करानी चाहिए।

Wednesday, January 28, 2009

जिंदगी है यूं-यूं... रानी की कहानी (भाग-2)

ऐसा क्यों हुआ? (रानी की कहानी भाग-1)

अब हम सब दुखी हैं। कारण है रानी की तबीयत, जो दिन पर दिन बदतर होती जा रही है और डॉक्टरों ने जवाब तो नहीं दिया है, पर यह साफ है कि वो लाजवाब हैं। उसकी रीढ़ इतनी भुरभुरी हो चुकी है कि किसी भी समय, चलते-फिरते, हिलते-डुलते चूर-चूर होकर रीढ़ के भीतर की नर्व में चुभ जाएगी और तब उसके शरीर का कोई हिस्सा संवेदनहीन, लकवाग्रस्त हो जाएगा। अब वह बहुत ही धीरे-धीरे चलती-फिरती है। कमरे से बाथरूम तक जाना उसकी सबसे बड़ी वॉक है। अस्पताल तक लेजाने में डर लगा रहता है कि कोई झटका न लग जाए। पीठ को हमेशा सीधा रखना जरूरी है। खाने-पीने की जरूरत तो है पर भूख मर गई है।

सब उसकी देखभाल तो कर रहे हैं, लेकिन कोई उससे ज्यादा नहीं कर पा रहा है, डॉक्टर भी नहीं। इस स्टेज पर कैंसर ही विजेता होता है, हम उसके हाथ की कठपुतली। जब तक चलाएगा, चलेंगे, फिर...।

जब इस बीमारी यानी स्तन कैंसर के साथ रानी पहली बार रिपोर्ट आदि लेकर अस्पताल गई थी तो मैं भी उसके साथ थी, एक अनुभवी कैंसर रोगी (वैसे, दोबारा इलाज के बाद अभी तक ठीक हूं) के तौर पर। रिपोर्टों के आदार पर उसे चौथे स्टेज का कैंसर बताया गया जो स्तन के अलावा दूसरे हिस्सों, जैसे रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों में भी पैल गया था। उस समय मुझे महसूस हुआ था कि डॉक्टर रिपोर्ट देखने के बाद उसे ज्यादा तवज्जो नहीं दे रहे हैं, जो एक सामान्य मरीज को मिलनी चाहिए। उसके बाद पहले कीमोथेरेपी का सुझाव दिया गया। कीमो के बाद कोई इलाज किए बिना उसे सिर्फ जांचें कराते रहने को कहा गया। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि उसका ऑपरेशन तक डॉक्टरों की योजना में नहीं था। बाद में मेरे उकसाने पर कोई छह महीने बाद रानी ने आगे इलाज के सवाल उठाए तो डॉक्टरों ने थोड़े आपसी विमर्श के बाद सर्जरी और रेडियोथेरेपी की तारीखें दीं।

उस समय डॉक्टरों के रवैये के बारे में जो महसूस किया था, वह सही था, यह हाल ही में एक लेख पढ़ कर समझ में आया। इंग्लैंड में बढ़ी अवस्था के कैंसर मरीजों के बीच हुए एक सर्वे में करीब आधे मरीजों ने बताया कि नामी विशेषज्ञों तक उनकी पहुंच नहीं थी या सहज नहीं थी। जबकि शुरुआती स्टेजों के मरीजों में से 98 फीसदी को यह सुविधा मिली। गंभीर मरीजों का कहना था कि उन्हें “अकेला छोड़ दिया गया”। उस हालत में इलाज कराने (या न कराने), इलाज के चुनाव, और जीवन के अंत को स्वीकारने जैसे फैसलों में विशेषज्ञ सलाहकारों का पूरा सहयोग नहीं मिला। जबकि सभी को जब जरूरत हो फौरन, और जब तक जरूरत हो, मॉरल सपोर्ट और देखभाल, सार-संभाल मिलनी चाहिए।

हमारे देश की बात करें तो ज्यादातर लोगों के पहुंच के भीतर सरकार अस्पताल ही हैं। इनमें अव्वल तो मेडीकल नर्सिंग ड्यूटी में मॉरल सपोर्ट की ड्यूटी शामिल ही नहीं होती। (कागजों पर हो तो पता नहीं।)। और अगर कोई नर्स या डॉक्टर मरीज को थोड़ा समय देना भी चाहे तो उसे ओपीडी के चार घंटों में करीब सौ मरीज देखने होते हैं। यानी लगातार काम करे तो हर घंटे 25 मरीज यानी हर मरीज के हिस्से कोई दो मिनट। इन दो मिनटों में वह मरीज की जांच करे, उसकी सुने, अपनी कहे, उसके साथ आए अटेंडेंट को समझे या पर्चा लिखे और उसको समझाए!

ऐसे में जाहिर है, जिंदगी बचाने जैसे सबसे गंभीर मसले पर ही ध्यान दिया जा सकता है। बाकी मसले प्राथमिकता सूची में नीचे आ जाते हैं, जिन तक मामला अक्सर पहुंच ही नहीं पाता।

लेकिन, अगर इन पर ध्यान देना नहीं हो पाता इसका मतलब यह कतई नहीं कि ये मसले हैं ही नहीं। कैंसर से हारते लोगों के लिए शारीरिक तौर पर सबसे जरूरी होता है- दर्द का निवारण और अपनी दैनिक जरूरतों की पूर्ति। और मानसिक रूप से सबसे जरूरी होता है उन्हें अपने होने की सार्थकता का एहसास दिलाते रहना।

अमरीका के एक सर्वेक्षण में पता चला कि ज्यादातर मरीज आखिरी समय में अपने घर-परिवार के बीच रहना चाहते हैं। लेकिन उनकी यह इच्छा कई बार मजबूरी बन जाती है जब परिवार उन्हें बोझ और बेकार समझने लग जाता है। रिश्तेदार सोचते हैं कि अब इनकी सेवा करके कितने दिन जिलाए रखा जाए। ऐसे माहौल में मरीज अस्पताल में ही भर्ती रहना ज्यादा पसंद करते हैं, जहां उन्हें भरोसा होता है कि डॉक्टर और नर्सें कम से कम उन्हें जरूरत के समय फौरन मदद तो करेंगे। किसी भी वक्त मर जाने का विचार उनकी चिंता का और तनाव को खत्म नहीं होने देता।

बीसवीं सदी के मुकाबले अब कैंसर के मरीजों के जिंदा रहने और बेहतर, ज्यादा सामान्य जीवन जीने की संभावना कई गुना बढ़ गई है। चिकित्सा-जगत ने इतनी तरक्की कर ली है कि बढ़े हुए कैंसर के साथ भी कई लोग कई महीनों और वर्षों तक जीवित रहते हैं। ऐसे में उनके लिए पैलिएटिव केयर यानी उनका जीवन सुखमय बनाने और सेहत को जहां तक हो सके संभाले रखने का महत्व बढ़ गया है। ऐसे में पैरामेडिकल क्षेत्र के लोगों को इस विषय पर और ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

Saturday, January 24, 2009

ऐसा क्यों हुआ?

मेरी एक मित्र, नहीं, बल्कि दफ्तर में सहकर्मी- नाम से क्या फर्क पड़ता है, सुविधा के लिए रानी कह लेते हैं- के करीबी सहयोगी ने कोई ढाई साल पहले मुझे एक दिन बताया कि रानी को मेरी सलाह की जरूरत है, मुझे उससे बात करनी चाहिए। मैं उससे मिली तो पता चला कि उसे भी स्तन कैंसर की आशंका में अस्पताल में कई टेस्ट करवाए गए हैं और रिपोर्ट ले-जाकर डॉक्टर को दिखाने में वह घबरा रही है। साथ ही वह उन रिपोर्ट्स की तफसील जानना चाहती थी।

मैंने रिपोर्ट्स पढ़ कर सुनाई, और जितना समझ में आया, उनका अर्थ भी बताया। संक्षेप में- उसे स्तन का कैंसर है जो कई अंगों में छुट-पुट फैल चुका है। मुझसे काफी देर तक वह बात करती रही। उसने अपनी इस और इससे पहले भी किसी आमो-खास तकलीफ की चर्चा किसी से नहीं की थी। वह है ह हिम्मती। यह उसका आत्मविश्वास था, जिसकी सभी तारीफ करते हैं। उस समय भी वह आत्मविश्वास से भरी थी और अपनी सेहत को लेकर उसे विश्वास था कि कुछ समय की बात है, वह फिर से स्वस्थ हो जाएगी।

आत्मविशवास अच्छा है, लेकिन अज्ञानी का आत्मविश्वास खतरा सामने देखकर आंखें बंद कर लेने जितना ही खतरनाक है, दुस्साहसिक है। मैं उसके साथ अस्पताल गई। डॉक्टर ने चौथी अवस्था का कैंसर बताया। इलाज के लिए कीमोथेरेपी का सुझाव दिया और कहा कि उसके नतीजे देखने के बाद आगे के इलाज की योजना बनाई जाएगी।

उसे सामान्य, छह साइकिल कीमोथेरेपी दी गई। उसके बाद डॉक्टरों का कहना था कि कैंसर अब भी काफी फैला हुआ है, इसलिए सर्जरी की सफलता पर संदेह है। फिर भी उसकी सर्जरी और रेडियोथेरेपी भी हुई, जो थोड़े विकसित स्तन कैंसर के पूरे इलाज का सामान्य हिस्सा है। फिर उसे पहले एक महीने और फिर हर तीन महीने में फॉलो-अप के लिए आने को कहा गया।

मेरा उस दफ्तर से तबादला हो गया। बीच-बीच में जब भी फोन पर रानी से या अपने किसी और पुराने सहयोगी से बातचीत होती तो यही समाचार मिलता कि वह ठीक है। मैं हमेशा संतोष महसूस करती कि इतने बुरे हालात के बाद भी इलाज से उसकी तबीयत काफी संभल गई है। मैं यह मान कर चल रही थी कि वह नियम से फॉलो-अप में जा रही है। न मानने का कारण ही नहीं था। इतना पढ़ा-लिखा व्यक्ति अपनी सेहत के प्रति इतनी गंभीर लापरवाही बरतेगा!

मगर मामला कुछ और था। इलाज ‘खत्म होने’ का अर्थ उसे यही समझ में आया कि वह ठीक हो गई है। इसलिए जब कोई आठ महीने बाद उसकी कमर और रीढ़ के निचले हिस्से में बर्दाश्त से बाहर दर्द होने लगा तब वह अस्पताल पहुंची। वहां, स्वाभाविक था, डॉक्टरों ने उसे डांट पिलाई और ढेर सारी जांचें फिर करवाने को कहीं। और तब पता चला कि कैंसर उसे भीतर तक खा चुका है, रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों को सबसे ज्यादा।

इस समय उसकी हालत जानकर मुझे बहुत गुस्सा आ रहा है। उसका आत्मविश्वास भी कैंसर को काबू करने में नाकाम रहा। अब हम सब दौड़-भाग कर रहे हैं। सरकारी अस्पताल की अनंत भीड़ में उसकी जांचें, इलाज- यानी पहले रीढ़ और कूल्हे की हड्डियों के लिए पैलिएटिव रेडियोथेरेपी और फिर हल्की कीमोथेरेपी और दूसरी दवाइयां आदि जल्द-से-जल्द करवाने के लिए संबंधित लोगों और विभागों में याचना से लेकर उसके बैंक खाते, तनख्वाह, ग्रैच्युटी आदि में किसी को नामांकित करवाने तक। मैं शायद जिक्र करना भूल गई, उसने शादी नहीं की है और अपने खातों में किसी को नामांकित तक नहीं किया है, जो उसके जाने के बाद (भगवान न करे) उसके पैसे पा सके।

मुझे गुस्सा आ रहा है उसके आत्मविश्वास पर। बल्कि मुझे तो लग रहा है कि वह उसकी मूर्खता थी। क्या कोई इंसान अपनी सेहत की तरफ से इतना लापरवाह हो सकता है? शुरू में जब उसे अपने स्तन में गांठ का पता चला तो वह उसे लेकर निश्चिंत बैठी रही, जब तक वह न भरने वाला घाव बदबूदार और दर्दनाक न हो गया। इतना कि उसके काफी करीब जाने पर दूसरों को भी गंध महसूस होने लगी।

माना, उसमें सहनशीलता है, पर ऐसी सहनशीलता! दूर से ही सलाम।

उसके बाद? सारा महंगा और लंबा और तकलीफदेह इलाज करवाने के बाद वह फिर वही अज्ञानी-आत्मविश्वासी रानी बन गई।

नतीजा? आठ महीने की निश्चिंत जिंदगी बिताकर फिर उस दलदल में कूद पड़ी है रानी, जिसे वह अपने और अपने चाहनेवालों के लिए समतल सड़क न सही, पर चलने लायक तो बनाए रख सकती थी।

सच है, जिस स्टेज में वह पहली बार अस्पताल गई थी, उसके बाद यह स्थिति तो आनी ही थी, पर इतनी जल्दी और इतनी दर्दनाक! किसी ने नहीं सोचा था।

Friday, November 7, 2008

इन्हें ज़रा सांस तो लेने दो!

आज हमारे देश में राष्ट्रीय कैंसर जागरूकता दिवस मनाया जा रहा है। इस मौके पर ये दोहराना सही होगा कि देश में पुरुषों के कैंसर के मामलों में 45 फीसदी मुंह, श्वास नली या फेफड़ों का कैंसर होता है और इनमें 95 फीसदी का कारण तंबाकू और धूम्रपान है। सरकार ने इस साल मई में धूम्रपान पर रोक लगाने के लिए कड़े नियम लागू कर दिए हैं, जिनका पालन, जाहिर है, आम तौर पर नहीं ही होता है।

कुछ तो सांस लीजिए, सिगरेट पीना बंद कीजिए।

यू-ट्यूब पर फेफड़ों को बचाने की धूम्रपान-विरोधी मुहिम का रियलिस्टिक वीडियो।-

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