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Monday, June 24, 2013

स्तन कैंसर के 12 आधारभूत लक्षण

स्तन कैंसर के लक्षणों पर नज़र रखना ही बुद्धिमानी है। फिर से तीन बाते दोहरा दूं कि-

1. स्तन कैंसर का पता सबसे पहले खुद को ही लगता है।

2. कैंसर का पता जितनी जल्दी चले, इलाज जितनी जल्दी हो पाए उतना ही ज्यादा सफल, सस्ता और आसान होता है। कैंसर की आशंका के बाद भी चुप बैठने का सीधा मतलब जान को जोखिम में डालना है।

3. हर महीने सिर्फ 10 मिनट का समय अपनी अंगुलियों से स्तनों की जांच के लिए तय करके अपने-आप को इस जोखिम में डालने से बचा जा सकता है।

शब्दों के मुकाबले चित्र ज्यादा बातें समझा सकते हैं। स्तन कैंसर के 12 आधारभूत लक्षणण ः


Sunday, February 19, 2012

जिम्मेदार होना कैंसर के बारे में

राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप में 4 फरवरी 2012 को विश्व कैंसर दिवस पर मेरा यह आलेख छपा था। चित्र के नीचे पूरा लेख संलग्न है।



पीछे मुड़कर देखूं तो अपने ही जीवन की घटनाएं चलचित्र-सी, किसी और के साथ घटी लगती हैं। महज 30 की उम्र में स्तन कैंसर होने के बारे में कौन सोच पाता है? चौदह साल पहले जब मुझे पहली बार कैंसर होने का पता चला तब तक वह तीसरे स्टेज की विकसित अवस्था में पहुंच चुका था। अच्छी बात बस यह थी कि वह छिटक कर किसी दूसरे महत्वपूर्ण अंग तक नहीं पहुंच पाया था। इस बीमारी या इसके कारण, बचाव, निदान, इलाज के बारे में कुछ भी नहीं पता था। इसलिए जब इलाज शुरू हुआ तो मेरे लिए एक ही सूत्र वाक्य था- इसके बारे में जानो, जानो और ज्यादा जानो। और जानने की इस प्रक्रिया ने दिमाग और मन को लगातार व्यस्त और उलझाकर रखा। जानने की इस लगन ने ग्यारह महीने लंबे कठिन इलाज के बीच किसी वक्त उकता कर रुक जाने का ख्याल भी न आने दिया।

कैंसर के बारे में हर संभव स्रोत से खोज-खोज कर पढ़ने-जानने की उत्सुकता ने मुझे उन कठिन अपरिचित रास्तों के कई बड़े-छोटे रोड़ों से पहले ही परिचित करा दिया। जानकारी ने मुझे जीने का भरोसा दिया और और डॉक्टरों से अपने हित में बीमारी के बारे में, उसके इलाज और बुरे नतीजों के बारे में सवाल करने आत्मविश्वास भी। कई तरह की सुनी-सुनाई बातों की सच्चाई-झुठाई समझ में आने लगी। दवाओं के संभावित साइड इफेक्ट्स के लिए काफी हद तक तैयारी कर पाने और मानसिक रूप से तैयार रहने का मौका दिया। कम उम्र मेरा भरपूर साथ दे रही थी लेकिन इसे संतुलित करने के लिए नकारात्मक पक्ष भी मौजूद था- उस कड़े इलाज के प्रति जरूरत से ज्यादा संवेदनशील और प्रतिक्रियावादी मेरा शरीर।

पूरी जिंदगी की साधः लड़ाई के दो मोर्चे

इलाज के दौरान बाल सारे झड़ गए, सर्जरी के बाद शरीर बेडौल हो गया। लेकिन ये छोटी बातें थीं और अस्थायी भी। ज्यादा जरूरी था- जीवन को बनाए रखना ताकि इन बाहरी कमियों के बाद भी जिंदगी के ज्यादा महत्वपूर्ण, दिलचस्प हिस्सों को बरकरार रख पाऊं। इन छोटे दिखावटी हिस्सों को खोकर अगर एक अधूरी जिंदगी को पूरी लंबाई तक ले जाने में मदद मिलती है तो उन्हें मैं सौ बार गंवाने को तैयार थी।

इलाज पूरा हुआ। उसके बाद पहले तीन महीने पर, फिर छह और फिर 12 महीने पर फॉलो-अप, डॉक्टरी और तरह-तरह की लैबोरेटरी में जांचों और स्कैन इत्यादि का सिलसिला। लेकिन बड़ी बात यह थी कि मैं जिंदा थी और जीना चाहती थी। इसके सामने बाकी सारी बातें नजरअंदाज करने लायक थीं। खुद अपने लिए नहीं बल्कि अपने लोगों के लिए जीना, जिनको मेरी परवाह थी। दरअसल कैंसर के खिलाफ लड़ाई कभी अकेले की नहीं होती। यह साझा लड़ाई होती है जिसमें डॉक्टर-नर्स, परिवार के लोग मित्र-शुभचिंतक सभी शामिल होते हैं। बीमार के शरीर को मैदान बनाकर लड़ी जा रही इस लड़ाई में कोई आयुध पहुंचाता है तो कोई रसद। कोई शुभकामनाएं देकर ही मनोबल बनाए रखता है। दुश्मन यानी इस बीमारी की कमजोरियों और ताकतों के बारे में जागरूकता लड़ाई में जीत की संभावना को बढ़ा देते हैं।

कैंसर होने का पता चलने के बाद पांच साल जी लेना किसी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। डॉक्टर आम तौर पर इसके बाद जीवन को सुरक्षित, कैंसर को ठीक हुआ मान लेते हैं। मेरे पांच साल पूरे होने पर डॉक्टरों की बधाई मिली। लगा मुक्ति मिली। एक आत्मकथात्मक किताब भी छप कर आ गई। मैंने सोचा, मेरे जीवन की एक कठिन कहानी खत्म हुई।

मगर नहीं। दो और साल बीते तो पता चला कि वह तो जीवन की एक लंबी किताब का सिर्फ एक अध्याय था। दूसरा अध्याय अभी बाकी था। यह एक और लड़ाई थी मेरी, कैंसर के खिलाफ जिसमें मैं फिर से अनचाहे ही धकेल दी गई थी। उसी अस्पताल में उन्हीं डॉक्टरों के पास मैं फिर पहुंच गई अपनी कहानी के इस नए अध्याय की भूमिका लेकर। डॉक्टरों ने मुझे ‘वेटरन’ करार दिया, इस बिनाह पर कि पिछले अनुभवों के बाद मेरे लिए कुछ भी नया नहीं होगा और आसानी से मैं इसके इलाज को दोबारा भी झेल पाऊंगी। लेकिन अनुभवी हो जाने भर से दर्द की अनुभूति कम तो नहीं हो जाती। इस बार भी वही इलाज- सर्जरी, 25 दिन रेडियोथेरेपी और छह साइकिल कीमोथेरेपी- बिना किसी छूट, कोताही या राहत के।

सीखने होंगे कुछ गुर बेहतर जिंदगी के

दूसरे अध्याय को भी कोई सात साल बीत चुके हैं। इन चौदह वर्षों में जीवन के उतार-चढ़ावों से गुजरकर मैंने जीने के कुछ गुर सीख लिए हैं। बेहतर जिंदगी पाने का पहला गुर है- अपने को जानना, अपने शरीर को पहचानना, समझना, कहीं पर आए बदलावों पर नजर रखना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना। बदलाव या बीमारी का पता लगते ही उसके इलाज का उपाय करना पहला महत्वपूर्ण कदम है। ठोस कैंसर की गांठों का पता आम तौर पर मरीज को ही सबसे पहले चलता है। डॉक्टर भले ही न पहचान पाए, लेकिन व्यक्ति अगर नियमित रूप से सही तरीके से अपने शरीर को जांचे तो उसमें आ रहे बदलावों को पहचान सकता है। कैंसर के मामले में जल्दी पहचान उसके सफल इलाज की कुंजी है। हमारे देश में कोई 70 फीसदी कैंसर के मामले जब तक सही अस्पताल तक पहुंचकर इलाज की स्थिति में आते हैं, ठीक होने की संभावना से काफी आगे निकल चुके होते हैं। देरी हो चुकी होती है और ट्यूमर फैल चुका होता है। इसलिए बीमारी का पता जितनी जल्दी लग जाए, इलाज उतना ही कामयाब और सरल होता है।

हालांकि पिछले समय में कैंसर के नए-नए कम साइड इफेक्ट वाले इलाज खोजे गए हैं, जो पहले के इलाज से ज्यादा कारगर हैं। टार्गेटेड थेरेपी कैंसर के मरीज की जरूरत के अनुसार डिजाइनर दवाओं से इलाज की पद्यति है, जो स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान किए बिना सिर्फ कैंसर कोशिकाओं को खत्म करती है, जबकि पारंपरिक इलाज में कैंसर के साथ-साथ स्वस्थ कोशिकाएं भी बुरी तरह प्रभावित होती हैं। कुछ प्रकार के कैंसरों में टार्गेटेड थेरेपी शुरुआती परीक्षणों के स्तर पर सफल साबित हो रही है।

उम्मीद की लौ में है जिंदगी

विकसित देशों में कैंसर के पुख्ता इलाज की खोज में लगातार अनुसंधान चल रहे हैं, हालांकि पिछले कुछ दशकों में जितना समय और धन इस पर खर्च किया गया है, उसके मुताबिक परिणाम नहीं मिल पाए हैं। विकसित अवस्था के ज्यादातर कैंसर अब भी ठीक नहीं हो पाते, फिर भी कैंसर के साथ जीवन अब पहले से कहीं ज्यादा लंबा और ज्यादा आसान हो गया है। वैसे भी कैंसर मूलतः शरीर के भीतर की रासायनिक संरचनाओं में गड़बड़ी के कारण होने वाली बीमारी है। ऐसे में सेहतमंद खान-पान, शारीरिक क्रियाशीलता, बेहतर जीवनचर्या सभी के लिए महत्वपूर्ण है, ताकि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता इतनी मजबूत हो कि कैंसर दूर रहे या कुछ ज्यादा समय तक शरीर इसके खिलाफ लड़ पाए।

अपने शरीर और मन की क्षमताओं की सीमाओं को टटोलना और बढ़ाते जाने की लगातार कोशिश करते रहना भी जीने की कला है जो कैंसर जैसी शरीर के भीतर पैदा होने वाली गड़बड़ियों पर लगाम रखती है। साथ ही जरूरी है- जीवन की उम्मीद बनाए रखना और इसे आगे बढ़ाना, उन सब तक, जिनके जीवन में बस इसी एक लौ की सख्त जरूरत है।
-आर अनुराधा

Thursday, April 8, 2010

मरीज न सही, डॉक्टर तो जानें इस मर्ज को!

महानगरों, खासकर दिल्ली में स्तन कैंसर जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, डॉक्टर भी हैरान हैं। कारण कई हैं, जिनमें से एक लाइफ-स्टाइल भी है। सेहतमंद रहने के लिए अच्छा खाने और कसरत करने की नसीहतें तो कई बार दे चुकी हूं। फिलहाल खास तौर, पर दिल्ली की महिलाओं में कैंसर और स्तन से जुड़ी दूसरी समस्याओँ के मूल कारणों की पड़ताल करने की कोशिश कर रही हूं।

सबसे पहली बात है, स्तन की बीमारियों के बारे में जानकारी का पूर्णतः अभाव। स्तनों के बारे में भारतीय महिलाओं में जानकारी का कतई अभाव है। वे इसे बेहद निजी, शर्मिंदा करने वाले अंग के रूप में देखती हैं या फिर पुरुषों को रिझाने और उसी इस्तेमाल के अंग के रूप में सहेजती हैं। कभी हाथ-पैर-सिर में दर्द हो, परेशानी हो तो वह फौरन सबसे चर्चा करती है, पर स्तन में कुछ गंभीर हुआ-सा लगे तो भी किसी से चर्चा तक नहीं करती। मानो वह उसके जीवित शरीर का जीवित हिस्सा हो ही नहीं। स्तनों में गांठ होना, निप्पल से कोई सफेद या रंगीन (पीला, लाल, हरा कोई भी) पानी का निकलना, उसका आकार बेवजह बदलना, दूध पिलाने के समय समस्याएं, स्तनों में सूजन और उनका पक जाना जैसी दसियों समस्याएं महिलाएं आए दिन झेलती हैं, पर बिना किसी से कहे, चुपचाप। यह गलत है। स्कूलों में छोटी उम्र से ही लड़कियों को यह जानकारी मिलनी चाहिए, जो नहीं मिलती। मीडिया में भी कैंसर पर बात करना तो फैशनेबल है, लेकिन स्तन की दूसरी समस्याओं पर बिरले ही कुछ पढ़ने-देखने को मिलता है।

दूसरी समस्या डॉक्टरों से संबंधित है। कोई महिला मरीज सबसे पहले अपने नजदीक के, परिचित डॉक्टर के पास ही पहुंचती है। और उसकी बीमारी का भविष्य उस डॉक्टर की जानकारी और कुशलता पर निर्भर करता है। कई सर्वेक्षणों से बार-बार साबित हो चुका है कि आम फिजीशियन स्तन कैंसर और स्तन की दूसरी बीमारियों के बारे में बहुत कम जानते हैं। आश्चर्य हो सकता है, लेकिन वे भी आम जनता के बराबर ही भ्रम में जीते हैं। वे भी स्तन की गांठ, स्राव, दर्द, बदलाव आदि लक्षणों को नजरअंदाज कर दते हैं या फिर इन्हें संक्रमण जैसी कोई स्थानीय समस्या मानकर एंटीबायोटिक आदि का एक कोर्स तस्कीद कर देते हैं। जबकि इमेजिंग यानी अल्ट्रासाउंड और मेमोग्राफी, बायोप्सी या एफएनएसी जैसी नैदानिक जांचों की तत्काल जरूरत उन्हें महसूस होनी चाहिए। इस तरह बीमारी की पहचान में देर हो जाती है और बीमारी को खतरनाक हद तक बढ़ने का मौका मिल जाता है। दूसरी तरफ कई बार अतिउत्साह में छोटी लड़कियों की भी मेमोग्राफी कर दी जाती है जबकि मेडिकल नियमों के अनुसार 35 साल से कम उम्र की महिला की मेमोग्राफी अपरिहार्य स्थितियों में ही करनी चाहिए।

तीसरी बात है, स्तन कैंसर और स्तन की दूसरी समस्याओं का गलत तरीके से इलाज। यह तथ्य भी डॉक्टरों के बीच सर्वेक्षणों से सामने आया है कि अकुशल और अधूरी जानकारी वाले डॉक्टर स्तन कैंसर, निप्पल से स्राव या स्तन के फोड़े और सूजन का इलाज मनमाने ढंग से कर देते हैं। दूध पिलाने के समय अक्सर महिलाओं को स्तन में सूजन और गांठ यानी मास्टिटिस से जूझना पड़ता है। थोड़े-बहुत घरेलू इलाज के बाद मरीज दर्द से परेशान, डॉक्टर के पास पहुंचता है और डॉक्टर बच्चे का दूध छुड़ा कर स्तन में चीरा लगा देते हैं ताकि जमा हुआ दूध, मवाद निकल जाए। यह तो हुआ डॉक्टर के लिए सरल, मशीनी तरीका, जिसे कोई अंतर्राष्ट्रीय मानक मंजूर नहीं करता। इसके लिए बिना चीरा लगाए सुई से मवाद निकालने और बच्चे को दूध पिलाते रहने का कायदा दुनिया के डॉक्टरों ने मंजूर किया है। लेकिन हमारे यहां कम ही डॉक्टर/सर्जन इसे जानते या मानते हैं।

कई बार बिना मेमोग्राफी, अल्ट्रासाउंड, बायोप्सी आदि के टेढ़ा-मेढ़ा चीरा लगाकर स्तन कैंसर तक का इलाज कर दिया जाता है। बाद का इलाज यानी कीमोथेरेपी, रेडियो थेरेपी आदि किए बिना मरीज को घर भेज दिया जाता है। इसका नतीजा होता है, कुछ महीनों या साल भर बाद बीमारी का फिर उभरना और ज्यादा तेजी से, मारक अंदाज में उभरना। इस समय तक बीमारी भीतर ही भीतर कई अंगों तक फैल चुकी होती है। विशेषज्ञ के लिए ऐसे मरीज का इलाज करना टेढ़ी खीर ही होता है। ऐसे में हजारों रुपए खर्च करने के बावजूद मरीज का इलाज कितना कारगर होगा, इसमें शक ही होता है।

चौथी बात, अगर कोई मरीज शुरुआत में ही विशेषज्ञ के पास जाना चाहे तो उसे कहां मिलता है कोई स्तन विशेषज्ञ? उसे पता ही नहीं चल पाता कि कौन सा डॉक्टर स्तन की बीमारियों को ज्यादा समझता है। कारण यह है कि ऐसे विशेषज्ञों की बेहद कमी है। और यह स्थिति गांव-कस्बे में ही नहीं दिल्ली जैसे महानगर में भी है। और अंत में भीड़-भाड़ वाले बड़े सरकारी अस्पताल या फिर बेहिसाब महंगे 5 सितारा अस्पताल में ही उसे गति दिखती है, जिससे वह हमेशा बचने की कोशिश करता रहा था।

अगर कोई मरीज सौभाग्य से विशेषज्ञ डॉक्टर तक पहुंच भी गया तो अच्छे डॉक्टर का काम होना चाहिए कि वह मरीज को बीमारी और इलाज के बारे में बताए, उसकी प्रक्रिया समझाए, नतीजे बताए और उसे उपलब्ध विकल्पों के बारे में भी जरूर ही बताए। पर ऐसा कब हो पाता है? डॉक्टर लिख देता है और मरीज बिना जाने-समझे बल्कि पढ़े बिना भी (क्योंकि जटिल हस्तलेख में, जटिल भाषा में पर्चा पढ़ना हरेक के बस का नहीं) बस, रोबोट की तरह उन निर्देशों का पालन करता रहता है।

किसी महंगी दवा का सस्ता विकल्प बाजार में उपलब्ध हो तो भी उसके पास ऐसा करने की चॉइस नहीं होती क्योंकि हमारे देश में दवाओं के जेनेरिक नाम यानी रसायन का नाम लिखने के बजाए ब्रांड का नाम लिखने का चलन है, जो मरीज के खिलाफ जाता है। यह वैसा ही हुआ जैसे किसी को जींस खरीदनी हो तो उसके पास डेनिम, कॉटन या कॉर्डरॉय जैसे नहीं बल्कि लीवाइज, रैंगलर या डीज़ल जैसे विकल्प सामने रख दिए जाएं। ऐसे में जानकारी के अभाव में वह गरीब मरीज हर हाल में महंगी दवाएं खरीदने को मजबूर होगा क्योंकि बराबर असर वाली सस्ती दवाओं के बारे में उसे कौन बताए? उसे अपनी जिंदगी, अपने इलाज, अपने शरीर के बारे में इलाज, विकल्पों को जानने का हक कोई डॉक्टर, अस्पताल नहीं देता। क्या यह भी मानवाधिकार हनन का मामला नहीं होना चाहिए?
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