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Thursday, May 19, 2011

कॉफी पिएं कि न पिएं- कैंसर का इससे क्या वास्ता?


एक ताजा अध्ययन के बारे में छपी खबर में ऐलान किया गया कि हर दिन पांच कप कॉफी पीना एक तरह के स्तन कैंसर को रोकने में मददगार होता है। कॉफी को नुकसानदेह पेय माना जाता है, इसलिए इस तरह की खबरों से लोग चौंके और साथ ही कॉफी के शौकीन प्रसन्न भी हुए होंगे।

स्टॉकहोम के एक रिसर्च संस्थान में हुए इस अध्ययन पर बायोमेड के वेबसाइट ब्रेस्ट कैंसर रिसर्च ने अपनी रिपोर्ट में निष्कर्श दिया कि हर दिन ज्यादा मात्रा में कॉफी पीने से पोस्ट-मेनोपॉजल (सरल शब्दों में- बड़ी या 50 साल से ज्यादा उम्र की) महिलाओं में एस्ट्रोजन रिसेप्टर नेगेटिव टाइप के स्तन कैंसर, (जो कि काफी आम है) में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई। और कई अखबारों ने इसे खबर बनाकर महत्वपूर्ण ढंग से छाप भी दिया।

लेकिन यह अध्ययन दरअसल ऐसा कोई निष्कर्ष सामने नहीं लाता, जिसका दावा इस खबर में किया गया है। बल्कि इस खबर में अध्ययन की कई महत्वपूर्ण बातों को सामने नहीं लाया गया। अध्ययन में शामिल स्वीडिश लोगों में 2800 स्तन कैंसर के मरीज थे जबकि 3100 नहीं थे। इन लोगों को कई साल पहले की अपनी कॉफी पीने की आदत और जीवन के दूसरे पक्षों के बारे में याद करने को कहा गया। यह बहुत ही व्यक्तिपरक तरीका है, किसी अध्ययन का। इसमें कई साल पुरानी बातें सबको ठीक से याद हों और सबने ठीक से बताई हों, कोई जरूरी नहीं है। अध्ययन में पाया गया कि जिन लोगों ने रोज 5 कप या उससे ज्यादा कॉपी पीने की आदत के बारे में बताया, उनमें स्तन कैंसर होने की संभावना कॉफी न पीने वालों के मुकाबले 20 फीसदी कम पाई गई।

लेकिन इन कॉफी पीने और न पीने वालों में दूसरे अंतर भी रहे होंगे, जैसे कसरत या शारीरिक गतिविधियां करना या न करना, शराब पीने की मात्रा या न पीना, खाने में गरिष्ठ भोजन और फल-सब्जियों का अनुपात, उनकी उम्र आदि, इत्यादि। इन कारकों को शामिल करने के बाद अध्ययन टीम ने पाया कि इनकी पृष्ठभूमि में कॉफी से कैंसर के बचाव का तथ्य कमजोर पड़ गया।

कैंसर ऐसी बीमारी है, जिसके कारण कई हो सकते हैं और उस पर कई रसायनों का कई तरह से प्रभाव पड़ता है। ऐसे में, हो सकता है, सैकड़ों में से किसी एक या दो प्रकार के स्तन कैंसरों पर कॉफी में मौजूद सैकड़ों-हजारों में से किसी एक या दो पौध-रसायनों (कॉफी भी आखिर पौधे से ही मिलती है) का सकारात्मक प्रभाव पड़ता हो। लेकिन इसे किसी प्रकार के कैंसर से बचाव के रूप में नहीं देखा जा सकता। और ऐसा मान भी लिया जाए तो इससे ऐसा कोई अनुमान लगाना कठिन होगा कि किस व्यक्ति को उस खास तरह का स्तन कैंसर होने की संभावना ज्यादा है, जिसमें कॉफी ज्यादा पीने से उसे स्तन कैंसर रोकने में मदद मिलेगी। और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अध्ययन में कॉफी को कैंसर रोकने वाला नहीं बताया है बल्कि सिर्फ कॉफी पीने और एक खास स्तन कैंसर होने में संबंध बताया गया है।

अखबारों की ऐसी रिसर्च संबंधी खबरों को याद करें तो चॉकलेट के बारे में भी आए दिन ऐसी विरोधाभासी खबरें आती रहती हैं। चॉकलेट स्ट्रेस बस्टर है, मूड ऐलिवेटर है, लेकिन चस्का लगा देता है। या फिर नुकसानदेह है, मोटापा, थॉयरॉइड जैसी भयानक बीमारियां पैदा करता है आदि, इत्यादि।

कुछ लोगों को लेकर ऐसे छोटे-छोटे अध्ययनों से कैंसर जैसी जटिल, विविधता भरी और अस्पष्ट-सी बीमारी के बारे में कोई साफ निष्कर्ष निकाल पाना कठिन है। और जब ऐसे अध्ययनों के टुकड़ों में, अधूरे-से परिणाम आते हैं तो मरीज उत्साहित होते हैं, झूठे ही भरोसा करते हैं, आशाएं बांधते हैं ऐसे अध्ययनों पर और उन आंकड़ों से अपनी हालत का आकलन करने, अपनी सेहत का अंदाजा लगाने में जुट जाते हैं। यह वैसा ही है, जैसे कोई मरीजों के तालाब में कई सारी बंसियां डालकर बैठे और इंतजार में रहे कि आंकड़ों की कौनसी मछली फंसती है, पकड़ में आती है।

दरअसल किसी भी रिसर्च के निष्कर्ष देने के बाद कुछ इंतजार करना और समान अध्ययनों से मिले दूसरे आंकड़ों से अपने परिणामों का मिलान करना जरूरी होता है ताकि पता लगे कि वह परिणाम सिर्फ संयोग नहीं था, एकबारगी हुई परिघटना नहीं थी। साथ ही, अध्ययन की गलतियों, कमियों को भी जांचा जा सकता है। ध्यान रखना चाहिए कि निष्कर्ष दोहराए जाना ही विज्ञान में सत्यता की कसौटी है।

अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की एक पैनल के सदस्य, यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के सुरेश मुलगांवकर और उनके साथियों का मानना है कि हमारी आंकड़े पैदा करने की क्षमता बढ़ती जा रही है, लेकिन उसी रफ्तार से उनके विश्लेषण और तुलना के जरिए सही निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है, क्योंकि हर फैसले से गलतियों की संभावना भी बढ़ती है। और यह मेडीकल साइंस की नहीं बल्कि सांख्यिकी की कमी के कारण है।

स्टॉकहोम के इस कॉफी बनाम कैंसर के अध्ययन को जर्मनी में 3464 कैंसर की मरीजों और 6657 स्वस्थ महिलाओं के साथ दोहराया गया। और नतीजा उलट आया- कॉफी ज्यादा पीने से कैंसर रोकने का निष्कर्ष सही नहीं था। इस संपुष्टीकारक अध्ययन में एस्ट्रोजन-रिसेप्टर नेगेटिव प्रकार के स्तन कैंसर के बारे में भी कोई महत्वपूर्ण आंकड़ा सामने नहीं आया।

ताज्जुब की बात तो यह है कि इस पर भी रिसर्चर्स मानने को तैयार नहीं थे कि उनके पहले अध्ययन में कोई कमी थी या पूरी तरह तथ्यों से उसके नतीजों की संपुष्टि करना बाकी है। उनका कहना था कि हो सकता है, जर्मनी में कॉफी की किस्म, उसे ब्रू करने के तरीके या फिर कैफीन की मात्रा में अंतर की वजह से नतीजों में फर्क आया हो, लेकिन फिर भी उनके नतीजे सही हैं कि कॉफी पीना स्तन कैंसर को रोकने में मददगार है!

2009 में चीन में ऐसे ही एक अध्ययन से पता चला था कि हर दिन दो कप कॉफी स्तन कैंसर की संभावना में 2 फीसदी की कमी लाता है, एक और ध्ययन ने यह आंकड़ा 6 फीसदी तक पहुंचाया। फिर भी यह कसरत करने और शराब-फैटी चीजों से बचने जैसे पहचाने हुए कारकों के मुकाबले बहुत छोटा है। सबसे बड़ी बात है कि अमरीका, स्वीडन आदि में ऐसे कई अध्ययन हो चुके हैं जिनमें हजारों महिलाओं को शामिल किया गया और देखा गया कि कॉफी पीने और कैंसर रोकने में क्या कोई संबंध है। सभी अध्ययनों के बाद कोई महत्वपूर्ण, ठोस नतीजा नहीं पाया जा सका।

अंतिम नतीजा अब तक तो यही है कि कॉफी पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए। किसी को इसका स्वाद पसंद है, कोई इससे अपनी थकान मिटाना चाहता है, कोई आदतन पीता है। लेकिन चाहे जिस कारण से पिएं, इसे अपने कैंसर के रिस्क को कम करने के हिसाब-किताब से बाहर ही रखें तो बेहतर।

Saturday, April 18, 2009

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-3)

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-2)

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-1)


फ्री-रैडिकल्स और ऐंटी-ऑक्सीडेंट

ऑक्सीडेशन एक रासायनिक प्रक्रिया है जिससे लोहे में जंग लगती है और हमारे शरीर में भी। हमारे शरीर में मौजूद फ्री-रैडिकल्स ऐसे अणु हैं जिनमें एक इलेक्ट्रॉन कम होता है जिसकी पूर्ति के लिए वे दूसरे अणुओं की ओर जल्द आकर्षित होते हैं और उनके इलेक्ट्रॉन चुरा लेते हैं। अब जिस अणु का इलेक्ट्रॉन चोरी हुआ है वह किसी और का चुराने को उद्धत रहता है इस तरह यह चेन रिऐक्शन चलता रहता है जिससे कोशिका के भीतर कई तरह के अणु, यहां तक कि डीएनए भी प्रभावित होते है।

डीएनए का एक अणु भी अपनी जगह से हिला तो उसके जेनेटिक कोड में बदलाव आ जाता है और कोशिका का काम-काज प्रभावित होता है। तंबाकू, धुंए, रेडिएशन जैसी कई चीजों में फ्री-रैडिकल्स होते हैं जो कोशिका के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर भी पैदा कर सकते हैं।

फ्री-रैडिकल्स के लिए इलेक्ट्रॉन देने में शरीर में मौजूद ऑक्सीजन अव्वल होती है। इसलिए फ्री-रैडिकल्स को इलेक्ट्रॉन की पूर्ति होना ऑक्सिडेशन कहलाता है। जो अणु फ्री-रैडिकल्स के ऑक्सिडेशन को रोकते हैं उन्हें ऐंटी-ऑक्सीडेंट कहा जाता है।

ऐंटी-ऑक्सीडेंट, जैसे विटामिन ई और सी, फ्री रैडिकल्स के साथ रिऐक्शन करके उन्हें काबू में रखते हैं और इस तरह ऑक्सीडेशन की चेन रिऐक्शन को, यानी कैंसर पैदा होने की स्थितियों को रोकते हैं। पेड़-पौधों में ऐंटी-ऑक्सीडेंट काफी होते हैं। ये हमारे शरीर में भी पैदा होते हैं लेकिन काफी कम मात्रा में।

फाइटोकेमिकल्स यानी पौधों से मिलने वाले रसायन जो कैंसर को रोकते हैं, उसकी ग्रोथ को रोकते हैं या उसे ठीक करने में मदद करते हैं। अब तक कोई ऐसा फाइटोकेमिकल नहीं खोजा जा सका है जिससे कैंसर का इलाज हो जाए। हालांकि कैंसर को रोकने में कई फाइटोकेमिकल्स कामयाब पाए गए है।

ऐंथोसायनिन ऐसे रसायन हैं जो सब्जियों, साइट्रस फलों, बेरीज़ आदि को लाल, नीला और जामुनी रंग देते हैं। इनसे बढ़ी उम्र से जुड़ी तकलीफें, दिल की बीमारियां, मोटापे और कैंसर रोकने में मदद करते हैं। ये ऐंटी-ऑक्सीडेंट का काम करके डीएनए को नुकसान से बचाते हैं।

करक्यूमिन हल्दी को पीला रंग देने वाला रसायन है। यह ऐटी-ऑक्सीडेंट के साथ ही कीटीणु-नाशक, विष-नाशक भी है। यह स्वस्थ कोशाओं को छेड़े बिना ट्यूमर की बीमार कोशिकाओं के विकास को धीमा कर देता है।

ईजीसीजी या एपीगैलोकैचिन-3-गैलेट हरी चाय में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो त्वचा, कोलोन, स्तन, पेट, लिवर और पेफड़ों के कैंसर को रोकने में मदद करता है। पानी के बाद सबसे ज्यादा पिया जाने वाला पेय- चाय की पत्ती को जब फर्मेंट या प्रोसेस नहीं किया जाता तो उसके ज्यादातर गुण रह जाते हैं।

लाइकोपीन टमाटरों को लाल रंग देने वाला रसायन है। यह तरबूज़, अंगूर, अमरूद र पपीते में भी थोड़ी-बहुत मात्रा में मिलता है। इसका सेवन करने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा कम हो जाता है। साबित हो चुका है कि ताजे टमाटरों से मिलने वाला लाइकोपीन ज्यादा असरदार होता है, बजाए लाइकोपीन की गोलियों के।

ईस्ट्रोजन हार्मोंन जो मानव शरीर में अपने आप बनता है। इसके समान हार्मोन पौधों में भी होता है- फाइटोईस्ट्रोजन। सोया उत्पादों में यह बड़ी मात्रा में होता है। ईस्ट्रोजन हार्मोंन स्तन, बच्चेदानी की झिल्ली और प्रोस्टेट कैंसर का कारण है। जबकि फाइटोईस्ट्रोजन की मौजूदगी ईस्ट्रोजन के बुरे प्रभाव को कम कर देती है।

पिक्नोजेलोन फ्रांस में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ की छाल से मिलने वाला रसायन है। यह अंगूर और कोकोआ में भी पाया जाता है। इसके ऐंटी-ऑक्सीडेंट प्रभाव की पड़ताल जारी है।
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