Thursday, November 5, 2009

अब कौन डरता है कैंसर से!

दस साल में कितना कुछ बदल गया! का आगे का भाग-

अब के समय के ज्यादातर कैंसर मरीजों के लिए शारीरिक अनुभव निश्चय ही 10 साल पहले के अनुभव के मुकाबले ज्यादा सहनीय हो गए हैं। अब कैंसर का पता लगना मौत का फरमान नहीं लगता। अपने आस-पास कैंसर के मरीजों और इलाज करा रहे या करा चुके विजेताओं को देखते, उनसे चर्चा करते, समाज अब इस बीमारी के प्रति अपेक्षाकृत सहज है। इस जागरूकता के बाद अब लोग जल्दी डॉक्टर और इलाज तक पहुंचने लगे हैं।

नई तकनीकों के कारण कैंसर की पहचान जल्द और आसान हो गई है। और बायोप्सी के बाद डॉक्टर बीमारी के प्रकार, आकार, फैलाव और ‘गुणों’ के बारे में ज्यादा जान पाते हैं जो निश्चित रूप से इलाज में मददगार साबित होते हैं। और जिन मरीजों के कैंसर की पहचान उतने ‘समय’ पर नहीं हो पाती, उनके लिए भी कई तकनीकें आ गईं हैं जो उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी, सहज और कम तकलीफदेह बना देती हैं।

इमेंजिंग तकनीकें यानी जांच की मशीनें: मेमोग्राम और अल्ट्रासोनोग्राफी अब ज्यादा आम और लोगों की जेबों की पहुंच के भीतर हो गई हैं। इनके अलावा एमआरआई, सीटी स्कैन मशीनें कई जगहों पर लग गई हैं। इस बीच भारत में एक नई मशीन आई है- पेट स्कैन जो सीटी स्कैन और एमआरआई से भी ज्यादा बारीकी से बीमारी को देख कर जांच करके पाती है। इससे कुछ ज्यादा छोटे ट्यमरों को भी देखा जा सकता है।

कीमोथेरेपी: इस क्षेत्र में कई नई दवाएं बाजार में आई हैं जो ज्यादा टारगेटेड हैं यानी किसी खास प्रकार के कैंसर के लिए ज्यादा प्रभावी हो सकती हैं। इसके अलावा अब दवाओं के साइड इफेक्ट कम हैं और अगर हैं भी तो उन्हें कम करने के लिए बेहतर दवाएं उपलब्ध हैं। कीमोथेरेपी के बाद बाल झड़ने की समस्या (अगर इसे समस्या मानें तो) अब भी वैसी ही है, लेकन उल्टी की परेशानी से निबटने के लिए डॉक्टर बेहतर दवाएं दे पाते हैं।

कीमोथेरेपी का एक आम साइड इफेक्ट है- खून में सफेद और लाल रक्त कणों और प्लेटलेट्स की कमी। लाल रक्त कणों की कमी तो पहले की ही तरह खून चढ़ा कर पूरी की जाती है लेकिन अब खून के अवयवों को अलग करने की तकनीक ज्यादा विकसित है। इसके कारण एक रक्तदाता से मिले रक्त को अब सिर्फ एक की बजाए चार मरीजों के लिए या चार तरह की कमियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

लाल कण हीमोग्लोबिन की कमी वाले मरीज को, प्लेटलेट्स की कमी होने पर प्लेटलेट्स, रक्त प्लाज्मा उनको जिनका खून जल्दी गाढ़ा हो जाता है और एल्ब्यूमिन और इम्यून सीरम ग्लोब्यूलिन कोशिकीय और एंटीबॉडी प्रकृति की वजह से दिया जा सकता है। और रक्त के ये अवयव ज्यादा समय तक संरक्षित किए जा सकते हैं और इन्हें अलग-अलग कर लेने के बाद रक्त के ब्लडग्रुप आदि मैच न करने की दिक्कतें अब न्यूनतम हैं।

हालांकि रोग-प्रतिरोधक सफेद रक्त कणों, जो कि कीमोथेरेपी के दौरान खास तौर पर जरूरी होते हैं, को खून के बाकी अवयवों की तरह एक से निकाल कर दूसरे को नहीं दिया जा सकता। फिर भी अब लैबोरेटरी में बने एंटीबॉडी इंजेक्शन के रूप में बाजार में उपलब्ध हैं जो शरीर में स्वयं सफेद रक्त कण और एंटीबॉडी बनने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। 10 साल पहले ये दवाएं भारतीय बाजारों में दुर्लभ थीं। आज इनके कारण कीमो के दौरान रोगी की जान साधारण संक्रमण से नहीं जा सकती।

कीमो के साइड-इफेक्ट झेल पाना अब ज्यादा नहीं, पर थोड़ा आसान हो गया है। आखिर झेलना तो मरीज को पड़ता ही है।कीमोथेरेपी देने के तरीकों में भी बदलाव आया है। अब अस्पताल में भर्ती होकर ड्रिप के जरए कई दिनों तक कीमो लेने की लाचारी नहीं रही। उसक जगह कुछेक घंटों में ओपीडी में ही कीमो ली जा सकती है।इसके अलावा कई मरीजों को जरूरत पड़ने पर एक स्थाई नली यानी कीमोपोर्ट गर्दन या बांह में लगा दी जाती है जिससे जब चाहे दवा भी दी जा सकती है और खून आदि निकाला भी जा सकता है। यह उन मरीजों के लिए फायदेमंद है, जिनके हाथ या पैर में शिराएं ढूंढना डॉक्टर और नर्स के लिए एक चुनौती और मरीज के लिए दर्दनाक प्रक्रिया बनी रहती है।

रेडिएशन: अब कैंसर के मरीजों को रेडिएशन देने के लिए कोबॉल्ट की जगह लीनियर एक्सेलेरेटर मशीनें ज्यादा संख्या में दिखाई पड़ती हैं जिनसे रेडिएशन यानी सिकाई सिर्फ जरूरत की जगह पर ही होती है, उसके परे उसकी नुकसानदेह किरणें कम फैलती हैं। साथ ही अब सिकाई का शरीर के बाकी हिस्सों पर असर कम-से-कम है।

इसके अलावा ब्रैकीथेरेपी में रेडियोएक्टिव सिकाई की बजाए रेडयोएक्टिव पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़ों यानी ‘सीड्स’ को ट्यूमर की जगह पर रख दिया जाता है जिसमें से धीरे-धीरे लगातार विकिरण निकलकर कैंसर की कोशिकाओं को नष्ट कर देती है और आस-पास के ऊतकों को नुकसान नहीं पहुंचता।

सर्जरी: ज्यादातर कैंसरों का आधारभूत इलाज सर्जरी ही है। इस लिहाज से सर्जरी की तकनीकों में सुधार होना अपने आप में कैंसर के इलाज में सुधार होना भी है। सर्जरी अब ज्यादा सटीक, सीमित, सुरक्षित, कम तकलीफदेह, कम समय लेने वाली, जल्द ठीक होने वाली और इन सबके बावजूद ज्यादा फायदेमंद हो गई है।

इन बदलावों के साथ-साथ अब उम्मीद कर सकते हैं कि कुछेक साल में मानव जीनोम यानी अलग-अलग लोगों के जीनों की संरचनाओं को जान कर डॉक्टर उसी के मुताबिक हर मरीज के लिए सिर्फ उसी के लिए बना ‘डिजाइनर’ इलाज भी कर पाएंगे।

1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बढ़िया!
जानकारीपरक लेख है।

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