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Thursday, August 1, 2013

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (2)




  • -      ईस्ट्रोजन तो खत्म हो गया। पहले रसायनों से दबाया गया, फिर ओवरीज़ निकाल कर, बकिया दवा से और दबा दिया गया। ज़िंदादिली कहां से आए। जिंदा शरीर और जिंदा दिल के बीच चुनना था। चुनाव कठिन नहीं था। धारा के साथ बह रही हूं। देह को बचाने में डॉक्टरों का साथ दे रही हूं। दिल का क्या है! शरीर रहेगा तो दिल भी थोड़ा-बहुत तो जी लेगा। वरना तो फिर कुछ नहीं है।
  • -      गुस्सा आता है कि दूसरे सहजता से पाते हैं, बिना परवाह किए, बिना जाने। ज़ाहिर है, पाने का शुक्राना भी नहीं देते। और देखती हूं, मेरे पास वह कुछ भी नहीं है जो मेरी उम्र में जीवन का प्राप्य होना था। क्यों का कोई जवाब नहीं है। आधारभूत बात यही है कि मेरे पास से वह सब चला गया, असमय, समय से बहुत पहले। और रह गई यह भावना कि क्यों नहीं खो जाने के पहले ही मैं भरपूर जी ली उन समयों को, रीति-नीति को ताक पर रख कर।
  • -      हार्मोन और दवा की लड़ाई में दवा जीतती है तो मैं बचती हूं। पर हार्मोन जीते तो मेरा दिल बचेगा। क्या करूं? दवा की जीत का समर्थन ही मेरे जीने का उद्देश्य रह गया है। दिल गया भाड़ में।
  • -      शायद कुछ चोरी हो गया है। भविष्य का एक हिस्सा, नीले आकाश का एक टुकड़ा जो पूरा मेरा हो सकता था।
  • -      मरने के पहले अपने जीवन का दुख मना ही लेना होगा। उन सबका जो धीरे-धीरे खोया जा रहा है, छूटता जा रहा है। आत्मविश्वास, मुस्कुराहटें, हंसी के हलके पल, बातों को हलके में लेने का जज़्बा...
  • -      कई बार लगने लगता है कि कैंसर से मेरी दोस्ती हो गई है, समझौता–सा हो गया, शांति स्थापित हो गई। और तभी एक जोरदार वार, सीधे पेट पर।
  • -      बीमार, थके हुए। उम्मीदों का खाली झोला लिए अस्पताल चले हैं डॉक्टरों से सौदा करने। झोले में कुछ प्रिस्क्रिप्शन, कुछ दवाएं, कुछ रिपोर्ट, रेडीमेड जूस का खाली डब्बा और किसी कोने में मुड़ा-तुड़ा अनदेखा-सा पड़ा एक खाली पुर्जा आशा का लिए लौट आते हैं।
  • -      अब तय करना होगा। चाहे जितनी भी छोटी या बड़ी हो, अधूरी हो, इसी से काम चलाना है। जिंदगी को काम पर लगाना है। बेरोजगार ज्यादा गुस्सा करता है, ज्यादा दुखी होता है, ज्यादा तकलीफ महसूस करता है। चलो काम पर लगें।
  • -      काम यानी पढ़ना, पियानो बजाना, किसी के लिए लिखना, सिलना-बुनना, फेसबुक पर सलाह-मशविरे लेना-देना, अस्पताल में मरीजों के साथ अनुभव बांटना, चित्र खींचना, कुछ लिखना जिसे पढ़कर लोग जानें कि क्या है यह ज़िंदगी, क्या करता है कोई इसका और यह क्या कर सकती है किसी का।

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (1)

  • -      मैं अकेली नहीं हूं जिंदगी के बियाबान में। लेकिन भीतर का यह अंधेरा जंगल हर किसी का अपना होता है। साझा तभी होता है जब उसके पेड़ साझा होते हैं, फलों की तलाश साझा होती है, पैरों के नीचे के दलदल की दुश्वारियां एक-सी होती हैं।
  • -      कभी जब लगने लगता है कि सब ठीक-ठाक है, खुशियां आस-पास हैं तभी कभी बेससाख्ता, अप्रत्याशित रुलाई फूट पड़ती है। धीमे-धीमे चलती मेरी देह घूम कर फर्श पर ढह जाती है।
  • -      दस्तरख्वान देखकर रोना आ सकता है कभी, कि इसमें मेरे खाने लायक क्यों कुछ नहीं। और जो है, उसमें से मैं क्या खाऊं, समझ में ही नहीं आता। कभी तो समझ नहीं पाती कि इसके अलावा क्या चाहती हूं। और यही बात मन के मुंह को कस कर बांधे रखने वाली डोरी को एक सिरे से खींच देती है। मुंह खुला और बह गया सब आंखों के रास्ते, एक बार में ही।
  • -      जानती हूं और मानती हूं कि अब रोना मेरा हक बनता है। रोकने की कोई सूरत नहीं, जरूरत भी नहीं। दिमाग कहता है रो लो और जितनी जल्दी हो सके फारिग होकर आगे बढ़ लो। पर मन वहीं कहीं अटका रहना चाहता है, जंगल में या जंगल के विचार में।
  • -      आम बातें, अच्छी बातें- हर बात पर नल खुल जाते हैं। न सिर्फ दर्द और संगीत, बल्कि हंसी और मज़ाक तक रुला देता है। नहीं पता होता कब उबल पड़ेंगे, उफन पड़ेंगे ये दो रिज़रवॉयर।
  • -      शरीर पर काबू कहां रहा। वह फुसफुसाता है कुछ बातें और मैं चुपचाप सुनती हूं।
  • -      इन हालात को खत्म करने की कोई दवा हो तो बताओ यारो।

क्रमशः...

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (2)

Saturday, March 3, 2012

कुछ दिनों से सोच में हूं

कुछ दिनों से सोच में हूं। एक नव-परिचिता, 'कैंसर-बड्डी' का कैंसर दोबारा उभर आया है। पहली बार उन्हें कैसर का पता लगा था पिछले साल लगभग इसी समय। उसके बाद उन्होंने जम कर इलाज करवाया और अक्तूबर में फारिग होकर फिर से काम-काज में मन लगाया। इसी बीमारी-इलाज के बीच उनकी बेटी की धूम-धाम से शादी भी हो गई। हालांकि इलाज सफदरजंग अस्पताल, नई दिल्ली में कराया, जो कि केंद्रीय सरकार के बड़े अस्पतालों में गिना जाता है।

उनसे मुलाकात के ठीक पांचवें दिन उनका फोन आया कि कैंसर उनके शरीर के कई हिस्सों में फैल गया है- लिवर सहित। यह मुलाकात भी संयोग ही रही। मेरा एक आत्मकथात्मक आलेख नवभारत टाइम्स में छपा। वहां के नंबर पर फोन करके उन्होंने संबंधित विभाग में संबंधित व्यक्ति से बात की, जिन्होंने मुझसे पूछ कर मेरा फोन नंबर उन्हें दिया और इस तरह हमारी पहली बात-चीत फोन पर हुई।

उसके दो ही दिन बाद वे मेरे दफ्तर पर मिलने आईं। वैसे दफ्तर में समय कम ही मिलता है, फिर भी उस दिन करते-न-करते वो करीब 40 मिनट साथ रहीं। उनसे कई तरह की बातें हुईं। कैंसर की, कैंसर के साथ और उसके बाद जीवन की, खाने पीने, सोने जागने की। फिर विदा, संपर्क में रहने, फिर मिलने के वादे के साथ। और इस के पांच ही दिन बाद उन्होंने कैंसर के शरीर के कई अंगों में फैल जाने की खबर अचानक दी। यह उनके लिए भी सदमे की तरह था, क्योंकि उन्हें कोई दर्द या तकलीफ नहीं हो रही थी, महज रूटीन चेक-अप में ही की गई कुछेक जाचों से इसका पता चला।

एक समय मैं मानती थी कि कैंसर लौट आने का मतलब है- मौत के करीब खड़े हो जाना। पर अपनी जानकारी और दूसरों के अनुभवों से जाना कि यह हमेशा सही नहीं होता। मेरे साथ खुद यह हुआ था- कोई 7साल पहले। दोबारा, दूसरे स्तन में फिर से तीसरी स्टेज का कैंसर,जो बड़ी तेजी से फैला था, या ऐसा मुझे लगा था, क्योंकि अचानक ही उस बड़ी गांठ पर ध्यान गया था। लेकिन उस इलाज के बीच और बाद में कई महिलाओं से मुलाकातें हुईं जिन्होंने पिछले कई बरसों से कैंसर के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ था, उनका इलाज लगातार जारी था- कभी यहां, तो कभी वहां।

लेकिन इस नव-परिचिता का कैंसर लिवर, पसलियों आदि पेट के कई महत्वपूर्ण अंगों तक फैल चुका है, जहां यह जानलेवा भी हो सकता है। इस स्थिति को वे अच्छी तरह समझती हैं। इनके साथ बातचीत में दो बातें मुझे असहज करती हैं- पहली कि उन्हें इस नए, प्राइवेट, विशेषज्ञता वाले अस्पताल के डॉक्टरों ने समझा दिया है इसलिए वे लगातार यह मानती हैं, कि पिछली बार सरकारी अस्पताल के इलाज में डॉक्टरों द्वारा भयानक लापरवाही और कोताही बरती गई, इसीलिए उनका कैंसर खत्म होने के बजाए फिर उभरा है। वे डॉक्टरों और सरकारी अस्पताल पर मामला ठोक देने की धमकी देते हुए बार-बार कहती हैं कि उनको जो कीमो दी गई उससे कैंसर खत्म नहीं हुआ बल्कि उसके ‘जर्म्स’ गांठ में से निकलकर पूरे शरीर में ‘भाग कर फैल गए और यहां-वहां छुप गए’। केस बिगाड़ दिया गया है। कोई एक टेस्ट जो एक बार नेगेटिव और फिर एक बार माइल्डली पॉजिटिव आया था, उसे ‘फिर’ नहीं कराया गया। इलाज खत्म होते ही सीटी स्कैन आदि नहीं करवाया गया। इत्यादि। ये सारी बातें उन्हें निजी अस्पताल के डॉक्टरों ने ऐसी अच्छी तरह समझा दी है कि वे दोबारा कभी इलाज के सरकारी तंत्र में जाना चाहेंगी ही नहीं, हालांकि वे खुद सरकारी नौकरी में हैं।

कितना आसान है किसी अनुभवी,पढ़े-लिखे मरीज तक को भी डराकर, प्यार से, अपने दिखावटी नरम व्यवहार से फुसला ले जाना कि वह इलाजके निजी तंत्र में ही उलझा रहे, सरकारी तंत्र के आजमाए हुए रूखे और मशीनी-से लगने वाले प्रोटोकॉल में विश्वास न करे। दर असल तथ्य यह है कि कैंसर के जर्म्स नहीं होते, यह शरीर के, कोशिकाओं के भीतर ही बनता है और इन कोशिकाओं की प्रवृत्ति छिटककर खून के साथ दूर जाकर नई बस्तियां बसाने की होती है। अगर किसी कीमो से एक जगह का ट्यूमर खत्म होता है तो वह खून के सहारे पूरे शरीर में हर कोने में जाकर उसकी हर बिखरी कोशिका को खत्म करने की प्रवृत्ति रखता है। यह नहीं होता कि कोशिकाएं एक जगह से भागकर कहीं और जाकर छिप जाती हैं। कीमोथेरेपी सिस्टमिक यानी पूरे शरीर में एक साथ, रक्त के बहाव के जरिए किया जाने वाला इलाज है।

फिर उनका वह हॉर्मोन जांच का पॉजिटिव या नेगेटिव नतीजा इलाज की दिशा को कतई प्रभावित नहीं करता है, सिर्फ इलाज की सफलता का अंदाजा लगाने में मदद देता। हर स्तन कैंसर के मरीज को पांच साल तक खाने के लिए ईस्ट्रोजन हॉर्मोन-निरोधक गोलियां खाने को दी जाती हैं ताकि अगर उस कैंसर के होने में हॉर्मोन का जरा भी हाथ हो तो वह हॉर्मोन के असर को खत्म करके इसके दोबारा होने को रोक पाए। और यह साबित बात है कि वह हॉर्मोन जांच कई साधारण कारणों से गलत भी आती है, इसलिए इसे दो-तीन बार भी कराया जाता है। तो, इस अर्थ में उनका इलाज पूरा किया गया, पांच साल के लिए हॉर्मोन की गोली के प्रिस्क्रिप्शन सहित।

दूसरा मसला जो इनके दोबारा कैंसर होने और उसके फैलाव के बारे में जानने के बाद मेरे सामने आता है, कि मैं उनसे बातें करना चाहती हूं, उनकी व्यग्रता, उद्विग्नता, आशा-निराशा को साझा करना चाहती हूं ताकि उन्हें अच्छा लगे और मुझे भी उनके हालात को समझने का मौका मिले। हालांकि वे खुद बार-बार कहती हैंकि वे फाइटकरेंगी और इसमें जीतें या हारें, मन को नहीं हारने देंगी। लेकिन ठीक होने का उन्हें कतई भरोसा नहीं है, और अपने जल्द ही इस दुनिया से कूचकर जाने की भी पूरी-पूरी आशंका देख रही हैं। ऐसे कठिन समय में उनकी आशंका में आप यह दिलासा नहीं दे सकते कि चिंता न करें, जल्द ही ठीक हो जाएंगे। खास तौर पर ऐसे वक्त में, जब उन्हें भी पता है कि शायद यह बीमारी अब ठीक न होने की जद पर आ पहुंची है। सोच ही रही हूं।

Monday, February 20, 2012

जरा और हंगामे की जरूरत है- युवराज के बहाने कैंसर


(यह आलेख शुक्रवार पत्रिका के 17-23 फरवरी के अंक में छपा है।)

वैसे तो पिछले साल से ऐसी आशंकाओं का सिलसिला चल रहा था कि क्रिकेटर युवराज सिंह को फेफड़ों में ट्यूमर है। लेकिन जनवरी के आखिरी हफ्ते में पक्की खबर आई कि युवराज सिंह को जर्म सेल ट्यूमर ऑफ मीडियास्टिनम या मीडियास्टिनल सेमिनोमा नाम का फेफड़ों का कैंसर है। हर तरफ सनसनी फैल गई। युवराज सिंह की कीमोथेरेपी यानी दवाओं से इलाज शुरू होने की खबरों के बीच उसके ठीक होने की संभावनाओं, अटकलों, माता-पिता से बातचीत, दूसरे क्रिकेटरों, दुनिया भर की सेलिब्रिटीज़ की शुभकामनाओं की खबरों से भी पूरी दुनिया का मीडिया पट गया। युवराज मीडिया के लिए इस समय खास तौर पर महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पिछले साल ही हमारी क्रिकेट टीम विश्वकप जीत लाई है, जिसमें युवराज मैन ऑफ द सीरीज रहे।

खबरों की कहानी के पहले इस कैंसर को समझ लें। मीडियास्टिनम मोटे तौर पर छाती के बीच की जगह है जहां दिल, इससे निलकने वाली खून की नलियां और संवेदी तंत्रिकाएं, श्वसन नलियां, खाने की नली का कुछ हिस्सा वगैरह होते हैं। इन नाजुक अंगों को सुरक्षित समेटे हुए इस हिस्से को घेरे एक झिल्ली होती है। युवराज का जर्म सेल ट्यूमर ऑफ मीडियास्टिनम दुर्लभ इसलिए है कि यह आम तौर पर जर्म सेल, यानी पुरुषों के शुक्राशय की कोशिकाओं में होता है। सेमीनोमा का मतलब ही है, शुक्राशय की सेमीनिफेरस नलिकाओं की सतह की कोशिकाओं का ट्यूमर। वैज्ञानिक समझ नहीं पाए हैं कि कैसे, पर कभी-कभार यह कैंसर शुक्राशय की बजाए छाती में या पेट की गुहा में बन जाता है। खास तौर पर पुरुषों में होने वाला यह कैंसर 20 से 35 की उम्र में सबसे ज्यादा होता है। और अच्छी बात यह है कि इसके लक्षण फौरन दिख जाते हैं और कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी का इन पर अच्छा असर होता है इसलिए ठीक होने की संभावना काफी ज्यादा होती है।

हमारे देश में जहां कैंसर के 25 लाख से ज्यादा मरीज हैं, उनमें हर साल आठ लाख और जुड़ते हैं और साढ़े पांच लाख लोग मर जाते हैं, जहां 70 फीसदी लोगों का कैंसर इतनी विकसित अवस्था में होता है कि डॉक्टर भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाते, वहां स्वाभाविक है कि इस बीमारी का नाम ही दिल दहला देता है। जानकारी की कमी भ्रम और आशंकाओं को बढ़ावा देती है। ऐसे में अच्छा है कि युवराज के बहाने ही सही, इस विषय पर चर्चा ने जोर तो पकड़ा।

वह समय अभी बीता नहीं है जब कैंसर का मतलब मौत का वारंट होता था, लोग जीने की उम्मीद छोड़ देते थे। ईश्वर की तरह आयुर्वेद आदि पर विश्वास होने के नाते लोग वैद्यों, हकीमों, होमियोपेथिक डॉक्टरों, “कैंसर से एड्स तक” हर मर्ज का इलाज करने का दावा करने वाले नींम चिकित्सकों के पास पहले जाते थे क्योंकि उनका विश्वास होता था कि एलोपेथी में कोई कारगर इलाज हो ही नहीं सकता। अस्पताल जाना तभी होता था, जब तकलीफ असहनीय हो जाती थी। इसके अलावा कैंसर के लिए अच्छे अस्पतालों की बेतरह कमी, लंबा, खर्चीला, तकलीफदेह और अनिश्चित परिणाम वाला इलाज करवा पाना आम हिंदुस्तानी के लिए आसान नहीं।

लेकिन पिछले कुछ साल में मीडिया ने कई सेलीब्रिटीज़ के कैंसर पर विशेष रूप से चर्चाएं छेड़ी हैं। सिंगर काइली मिनोग से लेकर बिग बॉस की जेड गुडी, लीसा रे और पर्सनल कंप्यूटर क्रांति शुरू करने वाले स्टीव जोब्स तक ने कैंसर पर लोगों की जागरूकता, जानकारी बढ़ाने के लिए मीडिया को उकसाया। एक ऐसा शब्द जिससे कई भ्रम और वर्जनाएं जुड़ी थीं, लोग उच्चारने से डरते थे, अब लोगों की जुबान पर चढ़ने लगा है। अखबार और न्यूज चैनल अपने हीरोज़ के साथ-साथ इस बीमारी के अलग-अलग पहलुओं को भी तरह-तरह से उभारते हैं। विशेषज्ञों का ज्ञान, कैंसर-साथियों के अनुभव लोगों तक आसानी से पहुंच रहे हैं। इंटरनेट और, खासकर सोशल मीडिया का भी इसमें बड़ा योगदान है।

हमारे देश में भी कैंसर की घटनाएं तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में इसके बारे में जागरूकता, इसकी जल्द पहचान और पूरा इलाज जरूरी है। कई तरह के कैंसरों को खुद पहचानने; धूम्रपान, नशा न करने; नियमित, सक्रिय जीवनचर्या; नियंत्रित और संतुलित खान-पान जैसी आधारभूत जानकारियां देने और इलाज के लिए प्रेरित करने जैसे काम मीडिया के जरिए संपन्न हो रहे हैं। युवराज के बहाने हम कई हस्तियों के अनुभवों को जान पा रहे हैं जिन्होंने इस बीमारी के बाद भी बहुत उपलब्धियां पाईं, नए आसमान छुए और कैंसर पीड़ितों और समाज के लिए प्रेरणा बने।

शहरों में कम से कम इतना असर हुआ है कि लोग कैंसर होने की बातें छुपाते नहीं हैं। वे जान रहे हैं कि हर तरह के लोगों को कैंसर हो सकता है। जानकारी से बीमारी की घटनाएं तो कम नहीं होतीं, लेकिन वे इलाज करवा रहे हैं और कई ठीक होकर या कैंसर के साथ ही, लंबा और बेहतर जीवन बिता रहे हैं। लोगों के भ्रम और डर खत्म हो रहे हैं, कैंसर से अपरिचय और सदमे का भाव कम हो रहा है। दूसरी तरफ मीडिया कैंसर के इलाज की कमियों को सामने लाकर व्यवस्था में सुधार लाने के लिए दबाव बनाने का काम भी जाने-अनजाने कर रहा है। आंखें बंद करके डॉक्टर की अंगुली पकड़ चलते जाने वाले लोगों को विकल्पों की पगडंडियां भी ये चर्चाएं दिखा रही हैं, नई खोजों, इलाजों, उनकी खामियों को सबके सामने रख रही हैं।

हालांकि मीडिया अति भी करता है और बीसीसीआई को अपील करनी पड़ती है कि युवराज की निजता का सम्मान करें। कैंसर के बहाने उसके निजी जीवन के हर मिनट की खबर देना समाचार मीडिया का काम नहीं है।

तो, युवराज सिंह, तुम्हें धन्यवाद और शुभकामनाएं। अपना इलाज करवाकर जल्द लौटो और उन सबके लिए एक और मिसाल बनो जिनके जीवन में उम्मीद की कमी है।

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Sunday, February 19, 2012

जिम्मेदार होना कैंसर के बारे में

राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप में 4 फरवरी 2012 को विश्व कैंसर दिवस पर मेरा यह आलेख छपा था। चित्र के नीचे पूरा लेख संलग्न है।



पीछे मुड़कर देखूं तो अपने ही जीवन की घटनाएं चलचित्र-सी, किसी और के साथ घटी लगती हैं। महज 30 की उम्र में स्तन कैंसर होने के बारे में कौन सोच पाता है? चौदह साल पहले जब मुझे पहली बार कैंसर होने का पता चला तब तक वह तीसरे स्टेज की विकसित अवस्था में पहुंच चुका था। अच्छी बात बस यह थी कि वह छिटक कर किसी दूसरे महत्वपूर्ण अंग तक नहीं पहुंच पाया था। इस बीमारी या इसके कारण, बचाव, निदान, इलाज के बारे में कुछ भी नहीं पता था। इसलिए जब इलाज शुरू हुआ तो मेरे लिए एक ही सूत्र वाक्य था- इसके बारे में जानो, जानो और ज्यादा जानो। और जानने की इस प्रक्रिया ने दिमाग और मन को लगातार व्यस्त और उलझाकर रखा। जानने की इस लगन ने ग्यारह महीने लंबे कठिन इलाज के बीच किसी वक्त उकता कर रुक जाने का ख्याल भी न आने दिया।

कैंसर के बारे में हर संभव स्रोत से खोज-खोज कर पढ़ने-जानने की उत्सुकता ने मुझे उन कठिन अपरिचित रास्तों के कई बड़े-छोटे रोड़ों से पहले ही परिचित करा दिया। जानकारी ने मुझे जीने का भरोसा दिया और और डॉक्टरों से अपने हित में बीमारी के बारे में, उसके इलाज और बुरे नतीजों के बारे में सवाल करने आत्मविश्वास भी। कई तरह की सुनी-सुनाई बातों की सच्चाई-झुठाई समझ में आने लगी। दवाओं के संभावित साइड इफेक्ट्स के लिए काफी हद तक तैयारी कर पाने और मानसिक रूप से तैयार रहने का मौका दिया। कम उम्र मेरा भरपूर साथ दे रही थी लेकिन इसे संतुलित करने के लिए नकारात्मक पक्ष भी मौजूद था- उस कड़े इलाज के प्रति जरूरत से ज्यादा संवेदनशील और प्रतिक्रियावादी मेरा शरीर।

पूरी जिंदगी की साधः लड़ाई के दो मोर्चे

इलाज के दौरान बाल सारे झड़ गए, सर्जरी के बाद शरीर बेडौल हो गया। लेकिन ये छोटी बातें थीं और अस्थायी भी। ज्यादा जरूरी था- जीवन को बनाए रखना ताकि इन बाहरी कमियों के बाद भी जिंदगी के ज्यादा महत्वपूर्ण, दिलचस्प हिस्सों को बरकरार रख पाऊं। इन छोटे दिखावटी हिस्सों को खोकर अगर एक अधूरी जिंदगी को पूरी लंबाई तक ले जाने में मदद मिलती है तो उन्हें मैं सौ बार गंवाने को तैयार थी।

इलाज पूरा हुआ। उसके बाद पहले तीन महीने पर, फिर छह और फिर 12 महीने पर फॉलो-अप, डॉक्टरी और तरह-तरह की लैबोरेटरी में जांचों और स्कैन इत्यादि का सिलसिला। लेकिन बड़ी बात यह थी कि मैं जिंदा थी और जीना चाहती थी। इसके सामने बाकी सारी बातें नजरअंदाज करने लायक थीं। खुद अपने लिए नहीं बल्कि अपने लोगों के लिए जीना, जिनको मेरी परवाह थी। दरअसल कैंसर के खिलाफ लड़ाई कभी अकेले की नहीं होती। यह साझा लड़ाई होती है जिसमें डॉक्टर-नर्स, परिवार के लोग मित्र-शुभचिंतक सभी शामिल होते हैं। बीमार के शरीर को मैदान बनाकर लड़ी जा रही इस लड़ाई में कोई आयुध पहुंचाता है तो कोई रसद। कोई शुभकामनाएं देकर ही मनोबल बनाए रखता है। दुश्मन यानी इस बीमारी की कमजोरियों और ताकतों के बारे में जागरूकता लड़ाई में जीत की संभावना को बढ़ा देते हैं।

कैंसर होने का पता चलने के बाद पांच साल जी लेना किसी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। डॉक्टर आम तौर पर इसके बाद जीवन को सुरक्षित, कैंसर को ठीक हुआ मान लेते हैं। मेरे पांच साल पूरे होने पर डॉक्टरों की बधाई मिली। लगा मुक्ति मिली। एक आत्मकथात्मक किताब भी छप कर आ गई। मैंने सोचा, मेरे जीवन की एक कठिन कहानी खत्म हुई।

मगर नहीं। दो और साल बीते तो पता चला कि वह तो जीवन की एक लंबी किताब का सिर्फ एक अध्याय था। दूसरा अध्याय अभी बाकी था। यह एक और लड़ाई थी मेरी, कैंसर के खिलाफ जिसमें मैं फिर से अनचाहे ही धकेल दी गई थी। उसी अस्पताल में उन्हीं डॉक्टरों के पास मैं फिर पहुंच गई अपनी कहानी के इस नए अध्याय की भूमिका लेकर। डॉक्टरों ने मुझे ‘वेटरन’ करार दिया, इस बिनाह पर कि पिछले अनुभवों के बाद मेरे लिए कुछ भी नया नहीं होगा और आसानी से मैं इसके इलाज को दोबारा भी झेल पाऊंगी। लेकिन अनुभवी हो जाने भर से दर्द की अनुभूति कम तो नहीं हो जाती। इस बार भी वही इलाज- सर्जरी, 25 दिन रेडियोथेरेपी और छह साइकिल कीमोथेरेपी- बिना किसी छूट, कोताही या राहत के।

सीखने होंगे कुछ गुर बेहतर जिंदगी के

दूसरे अध्याय को भी कोई सात साल बीत चुके हैं। इन चौदह वर्षों में जीवन के उतार-चढ़ावों से गुजरकर मैंने जीने के कुछ गुर सीख लिए हैं। बेहतर जिंदगी पाने का पहला गुर है- अपने को जानना, अपने शरीर को पहचानना, समझना, कहीं पर आए बदलावों पर नजर रखना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना। बदलाव या बीमारी का पता लगते ही उसके इलाज का उपाय करना पहला महत्वपूर्ण कदम है। ठोस कैंसर की गांठों का पता आम तौर पर मरीज को ही सबसे पहले चलता है। डॉक्टर भले ही न पहचान पाए, लेकिन व्यक्ति अगर नियमित रूप से सही तरीके से अपने शरीर को जांचे तो उसमें आ रहे बदलावों को पहचान सकता है। कैंसर के मामले में जल्दी पहचान उसके सफल इलाज की कुंजी है। हमारे देश में कोई 70 फीसदी कैंसर के मामले जब तक सही अस्पताल तक पहुंचकर इलाज की स्थिति में आते हैं, ठीक होने की संभावना से काफी आगे निकल चुके होते हैं। देरी हो चुकी होती है और ट्यूमर फैल चुका होता है। इसलिए बीमारी का पता जितनी जल्दी लग जाए, इलाज उतना ही कामयाब और सरल होता है।

हालांकि पिछले समय में कैंसर के नए-नए कम साइड इफेक्ट वाले इलाज खोजे गए हैं, जो पहले के इलाज से ज्यादा कारगर हैं। टार्गेटेड थेरेपी कैंसर के मरीज की जरूरत के अनुसार डिजाइनर दवाओं से इलाज की पद्यति है, जो स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान किए बिना सिर्फ कैंसर कोशिकाओं को खत्म करती है, जबकि पारंपरिक इलाज में कैंसर के साथ-साथ स्वस्थ कोशिकाएं भी बुरी तरह प्रभावित होती हैं। कुछ प्रकार के कैंसरों में टार्गेटेड थेरेपी शुरुआती परीक्षणों के स्तर पर सफल साबित हो रही है।

उम्मीद की लौ में है जिंदगी

विकसित देशों में कैंसर के पुख्ता इलाज की खोज में लगातार अनुसंधान चल रहे हैं, हालांकि पिछले कुछ दशकों में जितना समय और धन इस पर खर्च किया गया है, उसके मुताबिक परिणाम नहीं मिल पाए हैं। विकसित अवस्था के ज्यादातर कैंसर अब भी ठीक नहीं हो पाते, फिर भी कैंसर के साथ जीवन अब पहले से कहीं ज्यादा लंबा और ज्यादा आसान हो गया है। वैसे भी कैंसर मूलतः शरीर के भीतर की रासायनिक संरचनाओं में गड़बड़ी के कारण होने वाली बीमारी है। ऐसे में सेहतमंद खान-पान, शारीरिक क्रियाशीलता, बेहतर जीवनचर्या सभी के लिए महत्वपूर्ण है, ताकि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता इतनी मजबूत हो कि कैंसर दूर रहे या कुछ ज्यादा समय तक शरीर इसके खिलाफ लड़ पाए।

अपने शरीर और मन की क्षमताओं की सीमाओं को टटोलना और बढ़ाते जाने की लगातार कोशिश करते रहना भी जीने की कला है जो कैंसर जैसी शरीर के भीतर पैदा होने वाली गड़बड़ियों पर लगाम रखती है। साथ ही जरूरी है- जीवन की उम्मीद बनाए रखना और इसे आगे बढ़ाना, उन सब तक, जिनके जीवन में बस इसी एक लौ की सख्त जरूरत है।
-आर अनुराधा

Monday, August 1, 2011

कैंसर अनुसंधान के लिए एक कुत्ते ने जुटाए 13 हज़ार डॉलर


डोज़र तीन साल का है। अपने मालिक के घर से छूट भागा तो एक मैराथन रेस के ट्रैक पर पहुंच गया। यह हाफ मैराथन कैंसर अनुसंधान के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से आयोजित की गई थी। फिर तो डोज़र अनजाने ही दौड़ का प्रतिभागी हो गया और पूरे सवा दो घंटे लगातार दौड़ में शामिल रह कर हाफ मैराथन पूरी कर गया। जैसे ही वह फिनिश लाइन तक पहुंचा तो लोगों ने उत्साह से उसकी अगवानी की। आयोजकों की तरफ से उसे विशेष पदक देकर सम्मानित भी किया गया।

हालांकि कुत्ते ने इस दौड़ के लिए खुद को रजिस्टर नहीं किया था, पर इससे क्या। सच्चे सपोर्टर को कोई कैसे मना कर सकता था भला! इस तरह डोज़र के कारण 13 हजार डॉलर से ज्यादा धन इकट्ठा हुआ। इकट्ठा किया गया पैसा मैरीलैंड विश्वविद्यालय के ग्रीनबाम कैंसर सेंटर को मिलेगा। इधर उस कुत्ते के मालिकों ने भी उसके नाम से एक वेब पेज खोल लिया है। इस पर मिला धन भी कैंसर रिसर्च के लिए दिया जाएगा।

हम भी अपने देश में ऐसे कामों के लिए कुछ देने की आदत डाल लें, तो कैसा रहे?

Thursday, November 5, 2009

अब कौन डरता है कैंसर से!

दस साल में कितना कुछ बदल गया! का आगे का भाग-

अब के समय के ज्यादातर कैंसर मरीजों के लिए शारीरिक अनुभव निश्चय ही 10 साल पहले के अनुभव के मुकाबले ज्यादा सहनीय हो गए हैं। अब कैंसर का पता लगना मौत का फरमान नहीं लगता। अपने आस-पास कैंसर के मरीजों और इलाज करा रहे या करा चुके विजेताओं को देखते, उनसे चर्चा करते, समाज अब इस बीमारी के प्रति अपेक्षाकृत सहज है। इस जागरूकता के बाद अब लोग जल्दी डॉक्टर और इलाज तक पहुंचने लगे हैं।

नई तकनीकों के कारण कैंसर की पहचान जल्द और आसान हो गई है। और बायोप्सी के बाद डॉक्टर बीमारी के प्रकार, आकार, फैलाव और ‘गुणों’ के बारे में ज्यादा जान पाते हैं जो निश्चित रूप से इलाज में मददगार साबित होते हैं। और जिन मरीजों के कैंसर की पहचान उतने ‘समय’ पर नहीं हो पाती, उनके लिए भी कई तकनीकें आ गईं हैं जो उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी, सहज और कम तकलीफदेह बना देती हैं।

इमेंजिंग तकनीकें यानी जांच की मशीनें: मेमोग्राम और अल्ट्रासोनोग्राफी अब ज्यादा आम और लोगों की जेबों की पहुंच के भीतर हो गई हैं। इनके अलावा एमआरआई, सीटी स्कैन मशीनें कई जगहों पर लग गई हैं। इस बीच भारत में एक नई मशीन आई है- पेट स्कैन जो सीटी स्कैन और एमआरआई से भी ज्यादा बारीकी से बीमारी को देख कर जांच करके पाती है। इससे कुछ ज्यादा छोटे ट्यमरों को भी देखा जा सकता है।

कीमोथेरेपी: इस क्षेत्र में कई नई दवाएं बाजार में आई हैं जो ज्यादा टारगेटेड हैं यानी किसी खास प्रकार के कैंसर के लिए ज्यादा प्रभावी हो सकती हैं। इसके अलावा अब दवाओं के साइड इफेक्ट कम हैं और अगर हैं भी तो उन्हें कम करने के लिए बेहतर दवाएं उपलब्ध हैं। कीमोथेरेपी के बाद बाल झड़ने की समस्या (अगर इसे समस्या मानें तो) अब भी वैसी ही है, लेकन उल्टी की परेशानी से निबटने के लिए डॉक्टर बेहतर दवाएं दे पाते हैं।

कीमोथेरेपी का एक आम साइड इफेक्ट है- खून में सफेद और लाल रक्त कणों और प्लेटलेट्स की कमी। लाल रक्त कणों की कमी तो पहले की ही तरह खून चढ़ा कर पूरी की जाती है लेकिन अब खून के अवयवों को अलग करने की तकनीक ज्यादा विकसित है। इसके कारण एक रक्तदाता से मिले रक्त को अब सिर्फ एक की बजाए चार मरीजों के लिए या चार तरह की कमियों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

लाल कण हीमोग्लोबिन की कमी वाले मरीज को, प्लेटलेट्स की कमी होने पर प्लेटलेट्स, रक्त प्लाज्मा उनको जिनका खून जल्दी गाढ़ा हो जाता है और एल्ब्यूमिन और इम्यून सीरम ग्लोब्यूलिन कोशिकीय और एंटीबॉडी प्रकृति की वजह से दिया जा सकता है। और रक्त के ये अवयव ज्यादा समय तक संरक्षित किए जा सकते हैं और इन्हें अलग-अलग कर लेने के बाद रक्त के ब्लडग्रुप आदि मैच न करने की दिक्कतें अब न्यूनतम हैं।

हालांकि रोग-प्रतिरोधक सफेद रक्त कणों, जो कि कीमोथेरेपी के दौरान खास तौर पर जरूरी होते हैं, को खून के बाकी अवयवों की तरह एक से निकाल कर दूसरे को नहीं दिया जा सकता। फिर भी अब लैबोरेटरी में बने एंटीबॉडी इंजेक्शन के रूप में बाजार में उपलब्ध हैं जो शरीर में स्वयं सफेद रक्त कण और एंटीबॉडी बनने की प्रक्रिया को बढ़ाते हैं। 10 साल पहले ये दवाएं भारतीय बाजारों में दुर्लभ थीं। आज इनके कारण कीमो के दौरान रोगी की जान साधारण संक्रमण से नहीं जा सकती।

कीमो के साइड-इफेक्ट झेल पाना अब ज्यादा नहीं, पर थोड़ा आसान हो गया है। आखिर झेलना तो मरीज को पड़ता ही है।कीमोथेरेपी देने के तरीकों में भी बदलाव आया है। अब अस्पताल में भर्ती होकर ड्रिप के जरए कई दिनों तक कीमो लेने की लाचारी नहीं रही। उसक जगह कुछेक घंटों में ओपीडी में ही कीमो ली जा सकती है।इसके अलावा कई मरीजों को जरूरत पड़ने पर एक स्थाई नली यानी कीमोपोर्ट गर्दन या बांह में लगा दी जाती है जिससे जब चाहे दवा भी दी जा सकती है और खून आदि निकाला भी जा सकता है। यह उन मरीजों के लिए फायदेमंद है, जिनके हाथ या पैर में शिराएं ढूंढना डॉक्टर और नर्स के लिए एक चुनौती और मरीज के लिए दर्दनाक प्रक्रिया बनी रहती है।

रेडिएशन: अब कैंसर के मरीजों को रेडिएशन देने के लिए कोबॉल्ट की जगह लीनियर एक्सेलेरेटर मशीनें ज्यादा संख्या में दिखाई पड़ती हैं जिनसे रेडिएशन यानी सिकाई सिर्फ जरूरत की जगह पर ही होती है, उसके परे उसकी नुकसानदेह किरणें कम फैलती हैं। साथ ही अब सिकाई का शरीर के बाकी हिस्सों पर असर कम-से-कम है।

इसके अलावा ब्रैकीथेरेपी में रेडियोएक्टिव सिकाई की बजाए रेडयोएक्टिव पदार्थ के छोटे-छोटे टुकड़ों यानी ‘सीड्स’ को ट्यूमर की जगह पर रख दिया जाता है जिसमें से धीरे-धीरे लगातार विकिरण निकलकर कैंसर की कोशिकाओं को नष्ट कर देती है और आस-पास के ऊतकों को नुकसान नहीं पहुंचता।

सर्जरी: ज्यादातर कैंसरों का आधारभूत इलाज सर्जरी ही है। इस लिहाज से सर्जरी की तकनीकों में सुधार होना अपने आप में कैंसर के इलाज में सुधार होना भी है। सर्जरी अब ज्यादा सटीक, सीमित, सुरक्षित, कम तकलीफदेह, कम समय लेने वाली, जल्द ठीक होने वाली और इन सबके बावजूद ज्यादा फायदेमंद हो गई है।

इन बदलावों के साथ-साथ अब उम्मीद कर सकते हैं कि कुछेक साल में मानव जीनोम यानी अलग-अलग लोगों के जीनों की संरचनाओं को जान कर डॉक्टर उसी के मुताबिक हर मरीज के लिए सिर्फ उसी के लिए बना ‘डिजाइनर’ इलाज भी कर पाएंगे।

Monday, November 2, 2009

दस साल में कितना कुछ बदल गया!

पहली बार मई 1998 में पता चला कि मुझे कैसर है। तब इलाज का वह 10 महीने लंबा समय खुद से परिचय कराते-कराते ही तेजी से उड़ गया। ये कठिन 10 महीने भी कितनी जल्दी बीत गए थे। उतने लंबे नहीं लगे। जैसे आइंस्टाइन का सापेक्षतावाद कहता है कि अगर किसी आदमी को सुंदर महिला के सामने बैठा दो तो उसे दो घंटे भी दो मिनट की तरह लगेंगे। और अगर उसे गर्म तवे पर बैठाया जाए तो उसके दो मिनट भी दो घंटे की तरह गुजरेंगे।

लेकिन उस गर्म तवे पर बैठ कर, गर्मी का एहसास करते हुए भी मुझे वह वक्त उतना लंबा नहीं लगता। कारण शायद यह रहा हो कि उस समय हर अगले पल के अनुभव से अनजान थी, नहीं जानती थी कि आगे क्या होने वाला है, क्या होगा, क्या अपेक्षा करूं। इसके साथ ही उत्सुकता, कि अब क्या होगा, कैसे होगा, क्या करूं कि मेरा हर वार एकदम सटीक बैठे क्योंकि पता नहीं, उस कैंसर रूपी दुश्मन पर दूसरा वार करने का मौका भी मिले कि नहीं।

साथ में यह भरोसा भी रहता था कि बस, यह एक पल कठिन है, गुजर जाए तो बस। फिर तो तकलीफ खत्म। और इसी उम्मीद और भरोसे के साथ वह पूरा समय कट गया क्योंकि नीचे गर्म तवा होने के बावजूद आस-पास फुलवारी थी, सुंदर लोग, तितलियां, भंवरे, फूल-पत्ते, सुगंध थे जो लगातार मन को लुभाते रहे, उस जलन-गर्मी के तकलीफदेह एहसास से दूर ले जाते रहे।

फिर दूसरी बार मार्च-अप्रैल 2005 में मुझे पता लगा कि मैं फिर से युद्ध के मैदान में हूं, उसी पुराने दुश्मन के साथ दो-दो हाथ करने के लिए। इस बार मैं जानकारी के हथियार से लैस थी। डॉक्टर ने भी चुटकी ली कि अब तो मैं ‘वैटरन’ हो गई हूं, डरने, चिंता करने की कोई बात नहीं है।

और यहीं सब मार खा गए।

इस बार जब मुझे पता था कि क्या-क्या बुरा हो सकता है, और उससे बचने के लिए मैं क्या-क्या कर सकती हूं और क्या-क्या मुझे करना पड़ेगा तो मुझे शुरुआत में ही लगा कि थक गई। उफ! फिर से वही मशक्कत लंबे समय तक करनी पड़ेगी! और इस बार हर कष्ट और उसको झेलने की संभावना का ख्याल तक मुझे कष्ट देने लगा, हर कष्ट मुझे ज्यादा कष्टकारी लगा। क्योंकि मैं जानती थी, इसलिए होने के पहले भी अपने दिल-दिमाग में अनुभव कर लेती थी, कि यह होना है। और इस बार क्योंकि कोई नयापन नहीं था, कोई उत्सुकता नहीं थी, इसलिए आठ महीने चला इलाज भी बहुत लंबा और उबाऊ लगा।

खैर, यह मेरा भावनात्मक अनुभव था। लेकिन अब के समय के ज्यादातर कैंसर मरीजों के लिए शारीरिक अनुभव निश्चय ही 10 साल पहले के अनुभव के मुकाबले ज्यादा सहनीय हो गए हैं। अब कैंसर का पता लगना मौत का फरमान नहीं लगता। अपने आस-पास कैंसर के मरीजों और इलाज करा रहे या करा चुके विजेताओं को देखते, उनसे चर्चा करते, समाज अब इस बीमारी के प्रति अपेक्षाकृत सहज है। इस जागरूकता के बाद अब लोग जल्दी डॉक्टर और इलाज तक पहुंचने लगे हैं।

नई तकनीकों के कारण कैंसर की पहचान जल्द और आसान हो गई है। और बायोप्सी के बाद डॉक्टर बीमारी के प्रकार, आकार, फैलाव और ‘गुणों’ के बारे में ज्यादा जान पाते हैं जो निश्चित रूप से इलाज में मददगार साबित होते हैं। और जिन मरीजों के कैंसर की पहचान उतने ‘समय’ पर नहीं हो पाती, उनके लिए भी कई तकनीकें आ गईं हैं जो उनकी जिंदगी ज्यादा लंबी, सहज और कम तकलीफदेह बना देती हैं।

....जारी, अगली पोस्ट में

Sunday, February 22, 2009

जेड गुडी की शादी की चर्चा हम क्यों करें?

आज के दिन हर जगह जेड गुडी की चर्चा है। आज का दिन उसके लिए खास है- उसने आज शादी कर ली है। उसकी शादी के पहले इंग्लैंड और वेल्स के रोमन कैथोलिक चर्च ने जेड को शुभकामनाएं दीं और उनके लिए प्रार्थना की।


शादी के पहले खास मीडिया के लिए जेड और उसके होने वाले पति ने यह जीवंत पोज दिया

पर दुनिया के लिए 27 वर्षीय जेड गुडी की शादी इतनी खास क्यों है? इसका जवाब पाने के लिए उसकी पूरी कहानी जाननी पड़ेगी।

जेड के जिक्र/ परिचय का सिरा जोड़ने के लिए याद दिला दूं कि हिंदुस्तानी मीडिया में जेड की चर्चा पहली बार जनवरी 2007 में हुई जब इंगलैंड के रियलिटी टीवी शो सेलेब्रिटी बिग ब्रदर में शिल्पा शेट्टी पर रेसिस्ट टिप्पणियां करने का इल्जाम उस पर लगा। इसके बाद वे शो से बाहर हो गईं और आखिरकार शिल्पा जीत गईं। हालांकि इसके लिए बाद में जेड ने कई बार माफी मांगी और सफाई दी कि उनका ऐसा कोई इरादा नहीं था।

दिलचस्प बात यह है कि फिर अगस्त 2008 में भारत में बिग ब्रदर की ही तर्ज पर शिल्पा के कार्यक्रम बिग बॉस में जेड शामिल हुईं। बिग बॉस के घर में अपने दूसरे ही दिन जेड को फोन पर पता चला कि उन्हें बच्चेदानी के मुंह का कैंसर है जो काफी विकसित अवस्था में है जिसका फौरन इलाज जरूरी है। जाहिर है, जेड कार्यक्रम छोड़ कर चली गईं और तब से लगातार कैंसर से लड़ रही हैं। ताजा समाचार यह है कि डॉक्टरों का कहना है कि “उसके पास इस दुनिया में ज्यादा समय नहीं है”।

कोई भी किसी के इस दुनिया में रहने या न रहने के समय को कैसे तय कर सकता है, जब तक कि व्यक्ति के दिल-दिमाग ने काम करना बंद न कर दिया हो? खास तौर पर कैंसर के मरीजों के बारे में ऐसी ‘भविष्यवाणियां’ मैंने भी कई बार सुनी हैं। और, यकीन मानिए, डॉक्टरों की ऐसी भविष्यवाणियों को भी अनेक मरीजों ने मेरे सामने ही झूठा साबित कर दिया है। सबका जिक्र जरूरी नहीं है, लेकिन दो-चार या आठ-दस महीनों को चार-पांच साल में बदलते मैंने कई बार देखा है। इसलिए जब सुन रही हूं कि जेड के पास कुछेक हफ्तों या महीनों का ही समय है तो चुपचाप यकीन नहीं करना चाहती। और अगर यह सच हो भी जाए तो बड़ी बात यह होगी कि जेड ने अपने 27 साल के जीवन को कितना जिया। महत्वपूर्ण सवाल यह होगा कि अपने छोटे से समय में उसने क्या किया।

उसने बहुत कुछ किया, खूब किया। पांच जून 1981 को जन्मी एक टूटे परिवार की लड़की जेड सेरिसा लॉराइन गुडी को पहली बार दुनिया ने जाना जब वह 2002 में ब्रिटेन के चैनल 4 के रियलिटी शो बिग ब्रदर के परिवार में शामिल हुईं। इस ‘परिवार’ से निकाले जाने के बाद उसने अपने टीवी कार्यक्रम बनाना शुरू किया। साथ ही अपने सौंदर्य प्रसाधन भी बाजार में उतारे।


जेड गुडी शादी के एक दिन पहले ब्राइड्स मेड्स के साथ

सोलह साल की उम्र में पहली बार उसे पता लगा कि उसके शरीर में कई ऐसी कोशिकाएं हैं जो कैंसर बना सकती हैं। इन बीमार कोशिकाओं का इलाज कर दिया गया। फिर सन 2004 उसे अंडाशय (ओवरी) का कैंसर और फिर 2006 में मलाशय का कैंसर बताया गया। दोनो बार इलाज के बाद उसे डॉक्टरों ने ‘ठीक हो गई’ माना। मगर ऐसा था नहीं। अगस्त 2008 के शुरू में फिर कैंसर की आशंका में उसने कुछ जांचें करवाईं जिनकी रिपोर्ट उन्हें हिंदुस्तान में बिग बॉस के घर पर मिली। इस दौरान दो मई 2006 को जेड ने अपनी पहली आत्मकथा- 'जेड: माई ऑटोबायोग्राफी' छपवाई और उसी साल जून में अपना इत्र- 'श्..जेड गुडी' जारी किया जो खासा लोकप्रिय हुआ।

नवंबर 2006 तक उसने नाउ पत्रिका के लिए साप्ताहिक कॉलम भी लिखा। फिर अगस्त 2008 में तीसरी बार कैंसर होने का पता लगने के बाद अक्टूबर 2008 में एक और आत्मकथा लिखी- 'जेड: कैच अ फॉलिंग स्टार' जिसमें 2007 में बिग ब्रदर कार्यक्रम के दौरान के अनुभवों को समेटा है। उस पर एक टीवी डॉक्युमेंटरी ‘लिविंग विथ जेड गुडी’ का प्रसारण सितंबर में हुआ तो दिसंबर में एक और फिल्म ‘जेड’स कैंसर बैटल’ दिखाई गई। अक्टूबर में उसने अपना दूसरा ब्यूटी सैलोन खोला। फिर क्रिसमस के दौरान थिएटर रॉयल में स्नो व्हाइट नाटक में बिगड़ैल रानी का किरदार निभाया। इस हालत में भी अपनी जीजीविषा को जिलाए रखने और अपनी इच्छाशक्ति के बल पर इतना सब कर पाने के लिए उसकी खूब तारीफ हुई। पर जनवरी में उसे इस शो से हटना पड़ा, शरीर साथ नहीं दे पाया।

शुक्रवार, 6 फरवरी को उनके मलाशय से गेंद के बराबर ट्यूमर ऑपरेशन के जरिए निकाला गया। आज उसने अपनी बीमारी की हालत में, मौत के करीब खड़े होकर भी शादी की है जिसे फिल्माने का ठेका भी उन्होंने महंगे में बेचा। इस ईवेंट के एक्सक्लूसिव कवरेज के लिए एक पत्रिका के साथ भी उनका सौदा हुआ, एक मोटी रकम के बदले। और कीमोथेरेपी से गंजी हुई अपनी खोपड़ी को दिखाने के लिए शादी में घूंघट न पहनने का फैसला भी चौंकाने वाला, पर बिकाऊ रहा।

अपनी जिंदगी के आखिरी चंद दिन कैमरे में कैद करवाने वाली यह बीमार सेलेब्रिटी अब अपनी मौत को भी भुनाना चाहती है? लोग यही कह रहे हैं और वह खुद भी कहती है कि वह मरने के पहले ज्यादा से ज्यादा धन इकट्ठा कर लेना चाहती है, अपने पांच और चार साल के दो बच्चों के लिए। इस बारे में कुछ लोगों का कहना है कि यह जेड का शोषण है। किसी की मौत को टीवी पर लाइव देखना- दिखाना क्रूर और अमानवीय है। पर जेड का कहना है कि उनकी जिंदगी कैमरे के सामने बीती है, इसलिए मौत भी कैमरे के सामने ही हो। उधर डॉक्टर मान रहे हैं कि टीवी पर यह सब देख रहे हजारों दर्शक इसी बहाने कैंसर के बारे में जानेंगे और जागरूक बनेंगे।

Saturday, October 4, 2008

धूम्रपान पर कड़ी पाबंदी

दो अक्टूबर से सभी सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान पर पाबंदी लग गई है। इसे न मानने पर सज़ा का भी प्रावधान है। यह सभी की सेहत के लिए अच्छा है। खास बात यह है कि कई सर्वेक्षणों में लोगों ने समान रूप से इस पाबंदी का समर्थन किया है।
इस मसले पर घोस्ट बस्टर ने अपने ब्लॉग पर एक शानदार पोस्ट डाली है। उसके सुंदर चित्र, प्रवाहमय भाषा, खूबसूरत अभिव्यक्ति और रिच कंटेंट पढ़ कर मैं आपको भी उससे परिचित करवाने के लालच से बच नहीं पाई।

वे लिखते हैं- "आम जनता की और से सरकार के इस कदम का जबरदस्त स्वागत हुआ है. मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ९२% लोगों ने धूम्रपान निषेध के लिए कड़े क़दमों का स्वागत किया है

फ़िर भी इस बात को लेकर एक बड़ी बहस छिडी हुई है. बैन के पक्षधर और विरोधी तमाम तरह के तर्क दे देकर मैसेज बॉक्स और फोरम्स के पन्नों पर पन्ने रंगे जा रहे हैं. अपन तो बस इस बैन को जल्द से जल्द और सख्ती से लागू किए जाते देखना चाहते हैं. एक कम्युनिटी के रूप में स्मोकर्स के लिए अपने मन में जरा भी इज्जत नहीं. क्योंकि,

१. ये जानते हैं कि धूम्रपान इनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है. मगर इन्हें परवाह नहीं.
२. इन्हें पता है कि ये इनके घर के अन्य सदस्यों, जो स्मोक नहीं भी करते, के लिए भी बुरा है, मगर ये आदत से मजबूर हैं.
३. स्मोकिंग से होने वाली विषैली गैसों का उत्पादन पूरे विश्व के पर्यावरण के लिए नुक्सान ही पहुँचाने वाला है, होता रहे इनकी बला से.
४. सार्वजनिक स्थानों पर किसी स्मोकर को धुंआ उडाते देखने का दृश्य अभद्रता का खुला प्रदर्शन लगता है...."

पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Saturday, August 30, 2008

'नई दुनिया' में 'इंद्रधनुष'


इंदौर से निकलने वाले अखबार नई दुनिया के ब्लाग्स पर रवंद्र व्यास जी के कालम में इस बार, 29 अगस्त को अपने इसी ब्लाग की चर्चा हुई है। इस कालम का लिंक नीचे है। आप भी देखें। http://hindi.webdunia.com/samayik/article/article/0808/29/1080829044_1.htm

Sunday, June 1, 2008

मां मार्गदर्शक, मां आदर्श

निकिता गारिया अभी पत्रकारिता में स्नातक की पढ़ाई कर रही हैं। उनका लिखना सिर्फ शौक या कैरियर की जरूरत नहीं है। उन्होंने अपने ब्लॉग n life goes on में अपनी मां की आपबीती पर एक लेख लिखा है। मां का स्तन कैंसर से आमना-सामना और फिर उससे उबर कर सहज मानवीयता के तहत दूसरों को इस बीमारी के बारे में जागरुक करने की कोशिशें। बेटी सब देख रही है और यह सब उसकी सोच में दर्ज होता जा रहा है। उसने अपने ब्लॉग में मां पर यह पोस्ट डाली जिसे मैं उसकी इजाजत से यहां चेप रही हूं। मकसद हैं- बात, चाहे जिस माध्यम से हो, दूर तक, गहरे तक फैले ताकि कैंसर के खिलाफ मोर्चा मजबूत हो।


Cancer and beyond

It was 21st January 2002 when she was confronted with a reality, she did not want to accept. For a moment, her life came to a halt. She thought it was the end. With her translucent eyes, she saw her two little children. This was the day when she was told she had BREAST CANCER. She had never been so scared in her life, for her life. She only wanted God to answer her one question, “Why only me!”

****************

Five years hence, bearing the pain of countless therapies, she knows she is not alone. There are many like her and the number is only increasing. But the government has done little to spread awareness. Since, the most common sign of breast cancer is a new lump, which is painless; many women tend to ignore it. And in a society like ours, where talking about breasts is as much a taboo as sex, who will lead the awareness crusade?

It was then that she decided to take the plunge. So, she along with a friend(also a cancer patient) took upon themselves the onerous task of educating as many people as possible. They started out by informing people at kitty parties. It was tough to make the ladies ignore tambola and food, and make them listen to a lecture! However, they never gave up. For them, even if one woman gets motivated out of thirty, it’s a great achievement. As she says, “This is just the beginning.”
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