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Thursday, September 26, 2013

मेरे बालों में उलझी मां


मां बहुत याद आती है

सबसे ज्यादा याद आता है

उनका मेरे बाल संवार देना

रोज-ब-रोज

बिना नागा



बहुत छोटी थी मैं तब

बाल छोटे रखने का शौक ठहरा

पर मां!

खुद चोटी गूंथती, रोज दो बार

घने, लंबे, भारी बाल

कभी उलझते कभी खिंचते

मैं खीझती, झींकती, रोती

पर सुलझने के बाद

चिकने बालों पर कंघी का सरकना

आह! बड़ा आनंद आता

मां की गोदी में बैठे-बैठे

जैसे नैया पार लग गई

फिर उन चिकने तेल सने बालों का चोटियों में गुंथना

लगता पहाड़ की चोटी पर बस पहुंचने को ही हैं

रिबन बंध जाने के बाद

मां का पूरे सिर को चोटियों के आखिरी सिरे तक

सहलाना थपकना

मानो आशीर्वाद है,

बाल अब कभी नहीं उलझेंगे

आशीर्वाद काम करता था-

अगली सुबह तक



किशोर होने पर ज्यादा ताकत आ गई

बालों में, शरीर में और बातों में

मां की गोद छोटी, बाल कटवाने की मेरी जिद बड़ी

और चोटियों की लंबाई मोटाई बड़ी

उलझन बड़ी

कटवाने दो इन्हें या खुद ही बना दो चोटियां

मुझसे न हो सकेगा ये भारी काम

आधी गोदी में आधी जमीन पर बैठी मैं

और बालों की उलझन-सुलझन से निबटती मां

हर दिन

साथ बैठी मौसी से कहती आश्वस्त, मुस्कुराती संतोषी मां

बड़ी हो गई फिर भी...

प्रेम जताने का तरीका है लड़की का, हँ हँ



फिर प्रेम जो सिर चढ़ा

बालों से होता हुआ मां के हाथों को झुरझुरा गया

बालों का सिरा मेरी आंख में चुभा, बह गया

मगर प्रेम वहीं अटका रह गया

बालों में, आंखों के कोरों में

बालों का खिंचना मेरा, रोना-खीझना मां का



शादी के बाद पहले सावन में

केवड़े के पत्तों की वेणी चोटी के बीचो-बीच

मोगरे का मोटा-सा गोल गजरा सिर पर

और उसके बीचो-बीच

नगों-जड़ा बड़ा सा स्वर्णफूल

मां की शादी वाली नौ-गजी

मोरपंखी धर्मावरम धूपछांव साड़ी

लांगदार पहनावे की कौंध

अपनी नजरों से नजर उतारती

मां की आंखों का बादल



फिर मैं और बड़ी हुई और

ऑस्टियोपोरोसिस से मां की हड्डियां बूढ़ी

अबकी जब मैं बैठी मां के पास

जानते हुए कि नहीं बैठ पाऊंगी गोदी में अब कभी

मां ने पसार दिया अपना आंचल

जमीन पर

बोली- बैठ मेरी गोदी में, चोटी बना दूं तेरी

और बलाएं लेते मां के हाथ

सहलाते रहे मेरे सिर और बालों को आखिरी सिरे तक

मैं जानती हूं मां की गोदी कभी

छोटी कमजोर नाकाफी नहीं हो सकती

हमेशा खाली है मेरे बालों की उलझनों के लिए



कुछ बरस और बीते

मेरे लंबे बाल न रहे

और कुछ समय बाद

मां न रही

* नोट- कैंसर के दवाओं से इलाज (कीमोथेरेपी) से बाल झड़ जाते हैं

Monday, June 24, 2013

स्तन कैंसर पर मेरी कुछ कविताएं

बड़े दिनों के बाद ख्याल आया। एक ब्लॉग है, जानकीपुल, जो साहित्य चर्चाओं पर केंद्रित है। उस पर मेरी कुछ कविताएं इस साल फरवरी में प्रकाशित हुईं।

मित्र प्रियदर्शन के बार-बार कहने पर आखिर एक तरह से संकोच और निर्लिप्त भाव से अपनी तब तक टाइप कर पाई कुछ कविताएं उन्हें भेजीं। उनमें से कुछ चुनकर ब्लॉग पर लगाई गईं। प्रियदर्शन ने एक परिचय भी लिखा जो मुझे लगा, एकदम सटीक था।

कविताएं भेजते समय, यहां तक कि उनके प्रकाशित होने तक भी मैं कतई उत्साहित नहीं थी। लेकिन उस पर जैसी और जितनी प्रतिक्रियाएं आईं, जितने (शायद तब तक का रिकॉर्ड) लोगों ने उसे 'लाइक' किया, मुझे लगा कि लोग यह सब पढ़ना चाहते हैं। मेरा उत्साह बढ़ा, लेकिन उसके बाद मित्र प्रियदर्शन के कई तरह के सुझावों के बाद भी अपनी कविताओं का कुछ नहीं किया।

फिलहाल, जानकीपुल के उस लिंक के साथ ही एर कविता यहां लगा रही हूं।
http://www.jankipul.com/2013/02/blog-post_2.html

अधूरा
--
सुनती हूं बहुत कुछ
जो लोग कहते हैं
असंबोधित
कि
अधूरी हूं मैं- एक बार
अधूरी हूं मैं- दूसरी बार
क्या दो अधूरे मिलकर
एक पूरा नहीं होते?
होते ही हैं
चाहे रोटी हो या
मेरा समतल सीना
और अधूरा आखिर
होता क्या है!
जैसे अधूरा चांद? आसमान? पेड़? धरती?
कैसे हो सकता है
कोई इंसान अधूरा!

जैसे कि
केकड़ों की थैलियों से भरा
मेरा बायां स्तन
और कोई सात बरस बाद
दाहिना भी
अगर हट जाए,
कट जाए
मेरे शरीर का कोई हिस्सा
किसी दुर्घटना में
व्याधि में/ उससे निजात पाने में
एक हिस्सा गया तो जाए
बाकी तो बचा रहा!
बाकी शरीर/मन चलता तो है
अपनी पुरानी रफ्तार!
अधूरी हैं वो कोठरियां
शरीर/स्तन के भीतर
जहां पल रहे हों वो केकड़े
अपनी ही थाली में छेद करते हुए।

कोई इंसान हो सकता है भला अधूरा?
जब तक कोई जिंदा है, पूरा है
जान कभी आधी हो सकती है भला!
अधूरा कौन है-
वह, जिसके कंधे ऊंचे हैं
या जिसकी लंबाई नीची
जिसे भरी दोपहरी में अपना ऊनी टोप चाहिए
या जिसे सोने के लिए अपना तकिया
वह, जिसका पेट आगे
या वह,जिसकी पीठ
जो सूरज को बर्दाश्त नहीं कर सकता
या जिसे अंधेरे में परेशानी है
जिसे सुनने की परेशानी है
या जिसे देखने-बोलने की
जो हाजमे से परेशान है या जो भूख से?
आखिर कौन?
मेरी परिभाषा में-
जो टूटने-कटने पर बनाया नहीं जा सकता
जिसे जिलाया नहीं जा सकता
वह अधूरा नहीं हो सकता
अधूरा वह
जो बन रहा है
बन कर पूरा नहीं हुआ जो
जिसे पूरा होना है
देर-सबेर।
कुछ और नहीं।
न इंसान
न कुत्ता
न गाय-बैल
न चींटी
न अमलतास
न धरती
न आसमान
न चांद
न विचार
न कल्पना
न सपने
न कोशिश
न जिजीविषा
कुछ भी नहीं।
पूंछ कटा कुत्ता
बिना सींग के गाय-बैल
पांच टांगों वाली चींटी
छंटा हुआ अमलतास
बंजर धरती
क्षितिज पर रुका आसमान
ग्रहण में ढंका चांद
कोई अधूरा नहीं अगर
तो फिर कैसे
किसी स्त्री के स्तन का न होना
अधूरापन है
सूनापन है?

Thursday, May 28, 2009

चाहती हूं जीना एक दिन

जिंदगी उतनी लंबी होती है, जितनी आदमी जी लेता है।

उतनी नहीं जितनी आदमी जिंदा रह लेता है।

कोई एक में कई जिंदगियां जी लेता है तो कोई एक दिन भी नहीं जी पाता।

मैं जीना चाहती हूं। एक दिन में कई दिन- चाहती हूं जीना ऐसा एक दिन।

एक शाम- जब मैं जा सकूं साथी के साथ

सान्ता मोनिका पर नए साल के स्वागत के लिए।

कोई दिन- बिना दर्द, जलन, तकलीफ के।

एक दिन- जब मेरे हाथ में हो दिलचस्प किताब,

पास बजता हो मीठा संगीत और साथ हो अच्छा खाना।

दो दिन- जब मैं नताशा के साथ फुर्सत से बैठकर गपशप कर सकूं

बैठे-बैठे उसकी बिटिया को अपनी गोद में सुला सकूं।

दस दिन- जब मैं किसी बच्चे के साथ

जा सकूं एक छोटी सी पहाड़ी पर पर्वतारोहण के लिए।

एक महीना- जब मुझे अस्पताल या पैथोलॉजी लैब का

एक भी चक्कर न लगाना पड़े।

एक मौसम- जिसके हर दिन मैं पकाऊं कुछ नया, पहनूं कुछ नया

जो बनाए मुझे सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा।

एक साल- जिसमें लगा सकूं हर पखवाड़े एक

कैंसर जांच और जागरूकता कैंप दिल्ली भर में

पांच साल- बिना कैंसर की पुनरावृत्ति के।

एक जीवन- जब मैं परिवार और झुरमुटों-झरनों-जुगनुओं के बीच

रहूं दूर पहाड़ी पर कहीं।

मैं ये सारे दिन एक बार जीना चाहती हूं।

इजाजत है?

(PS: रचना ने इस तरफ द्यान खींचा कि बिना संदर्भ के इस कविता कई पाठकों को ठीक से समझ में नहीं आएगी। और संदर्भ इसे ज्यादा प्रभावी बना देगा। अस्तु-

संदर्भ: पिछले ग्यारह साल से हर दिन मेरे लिए कुछ आशंकाएं लिए आता है। मई 1998 में पहली कार मुझे कैंसर होने का पता चला। पूरा इलाज कोई 11 महीने चला। इसके बाद लगातार फॉलो-अप, चेक-अप, ढेरों तरह की जांचें, तय समयों पर और कई बार बिना तय समयों पर भी, जब भी कैंसर के लौट आने की जरा भी आशंका हुई। उसके बाद सारे एहतियात के बाद भी मार्च 2005 में कैंसर का दोबारा उभरना। इन सबके बीच इन छोटी-छोटी मोहलतों की हसरत बनी हुई है, जिनमें से कुछेक पूरी हुईं भी, लेकिन उस इत्मीनान के साथ नहीं, जो मैं दिल से चाहती हूं। इसलिए जिंदगी से इजाजत मांगने का मन है कि क्या कभी हो पाएगा। और मुझे उम्मीद है कि होगा।)

Tuesday, March 24, 2009

हमारा घर

रजिया मिर्जा इस ब्लॉग की नई पाठक और कॉन्ट्रीब्यूटर हैं। उन्होंने यह कविता भेजी तो मैं एक मिनट भी रुक नहीं पाई उसे ब्लॉग पर लगाने से। उनकी स्थिति को हम सब समझते हैं और उम्मीद और दुआ करते हैं कि मां जल्द ही इलाज पूरा करके, उसकी तकलीफों से उबर कर फिर स्वस्थ हो जाएंगी।

मेरा घर, हमारा घर, हम सब का घर।

बडी, मंझली, छोटी और मुन्ने का घर ।

जहाँ हम पले, जहाँ हमने अपनी पहली सांस ली।

जिसमें हमारा वजूद बना।

जिस से हमारे ताने-बाने जुडे हुए थे,

वो हमारा घर।

पर आज….हमारे उसी घर को,

घेर रख़ा है दीमक ने।

दीमक ने अपना जाल खूब फैला रख़ा है,

हमारे उसी घर पर।

लोग कहते हैं “निकाल दो इस दीमक को”।

पर कैसे? कैसे निकाल सकते हैं हम इसे?

इस से जो हमारी “मा” जुडी है।

उसका इस घर से पचत्तर साल का नाता है।

और फिर वो कमजोर भी तो है।

उस बेचारी को तो पता भी नहीं कि..

दीमक ने घेर रख़ा है उसके घर को।

पर हाँ…!इलाज जारी है, दीमक के फैलते हुए जाल को

रोकने का…।

“ कीमोथेरेपी और रेडिएशन ” के ज़रीए।

ताकि बच जाए हमारी “माँ”

Friday, June 20, 2008

कैंसर : आधुनिक नज़्म शायर की कलम से

साक़ी फारुकी मॉडर्न उर्दू नज्म शायरों में महत्वपूर्ण दस्तखत हैं। वे लंदन में रहते है। पिछले दिनों उनकी यह नज़्म सुनने को मिली तो मैंने इसे झट कलमबंद कर लिया। यहां आप सब की नज़र है ब्रेस्ट कैंसर पर लिखी उनकी यह नज़्म।

जिन मेहताब(1) प्यालों से
डेढ़ बरस तक
रोज हमारी बेटी ने
सब्ज़ सुनहरे बचपन
घनी जवानी
रौशन मुस्तक़बिल(2)
का नूर पिया है,
चटख़ गए हैं
उन खुर्शीद(3) शिवालों(4) में
जहरीले सरतान(5) कोबरे
कुंटली मारके बैठे हैं
दिल रोता है
मैंने तेरे सीने पर
खाली आंखें मल-मल के
आज गुलाल का
सारा रंग उतार लिया है
-साकी फारुक़ी

नोट: (1)= चांद (2)= भविष्य (3)= सूर्य (4)= मंदिरों (5) = कैंसर
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