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Sunday, April 24, 2011

बेहतर सेहत कैंसर से लड़ने की ज्यादा ताकत देती है

सेहत पहले से ही अच्छी हो तो कैंसर से होने वाली 65 फीसदी मौतों को रोका जा सकता है


स्तन कैंसर का इलाज कराने वाली महिलाओं के लिए उनकी कैंसर होने के पहले की सेहत भी बहुत मायने रखती है। अमेरिका के After Breast Cancer Pooling Project में शामिल शुरुआती स्तन कैंसर की 9,400 महिलाओं पर कैसर का पता लगने के दिन से अगले सात साल तक लगातार नजर रखी गई। पाया गया कि इनमें से करीब आधी महिलाओं का बॉडी-मास इंडेक्स (बीएमआई) यानी लंबाई और वजन का अनुपात गड़बड़ था। सरल शब्दों में कहें तो वे मोटी थीं, उनका वजन लंबाई और उम्र के अनुपात में ज्यादा था। और इस वजह से उनकी कुल सेहत भी खराब थी। जिन महिलाओं की सेहत इलाज के शुरू में खराब आंकी गई उनमें से 27 फीसदी को दोबारा कैंसर हुआ- उसी जगह या फिर नई जगह पर नया कैंसर। जबकि आम तौर पर शुरुआती स्टेज का कैंसर ज्यादा खतरनाक नहीं माना जाता।
इन महिलाओं की सेहत के आंकड़ों का विश्लेषण करके यह भी पाया गया कि इन कम स्वस्थ महिलाओं की कैंसर या किसी और बीमारी से मरने की संभावना सामान्य वजन वाली महिलाओं की तुलना में 65 फीसदी ज्यादा रही। इनके बारे में पाया गया कि वे कम सक्रिय थीं, इन्हें नींद की समस्या रही, और उच्च रक्तचाप या डाइबिटीज होने की संभावना 50 फीसदी ज्यादा थी और आर्थराइटिस होने की संभावना भी दोगुनी रही। American Association for Cancer Research (AACR), के ओरलैंडो में हुए सम्मेलन में इस अध्ययन को प्रस्तुत किया गया। डॉक्टरों का कहना था कि सिर्फ कैंसर के इलाज के बजाए महिलाओं के कुल स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना जरूरी है। अगर उनके सामान्य स्वास्थ्य में पांच फीसदी का भी सुधार होता है तो उनके जीवन की गुणवत्ता और जीवित रहने के अवसरों में खासा सुधार होता है।

न सिर्फ कैंसर के मौके के लिए बल्कि हमेशा हम अपनी सेहत पर ध्यान देते रहें और खान-पान, कसरत आदि पर ध्यान देते रहें तो किसी भी बीमारी से बेहतर लड़ सकेंगे, बल्कि कई बीमारियों को आने के पहले ही जरूर रोक सकेंगे।

Saturday, April 23, 2011

हर हाल में खराब है शराब


हाल के एक रिसर्च से पता चला है कि ‘सीमित मात्रा में’ शराब पीना भी कैंसर को बढ़ावा देता है। और अगर कोई कम ही सही, पर लंबे समय तक नियमित शराब पीता रहा तो उसे कैंसर होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। और यह खतरा उस समय भी रहता है, जबकि उसने अब यह आदत छोड़ दी हो। ब्रिटेन में 10 में से एक पुरुष और 33 में से एक महिला को शराब के कारण कैंसर होने का खतरा होता है। और यह संख्या तेजी से बढ़ रही है। वहां हर साल 13,000 लोगों को शराब पीने के कारण कैंसर हो रहा है, जिसमें स्तन, मुंह, खाने की नली का ऊपरी हिस्सा, स्वर यंत्र, जिगर और मलाशय के कैंसर शामिल हैं। महिलाएं एक यूनिट या 125 मिली लीटर वाइन, आधा पिंट बियर या सिंगल व्हिस्की के बराबर और पुरुष इससे दोगुनी शराब यदि नियमित पीते हैं तो उन्हें अल्कोहल से जुड़े कैंसर का खतरा बताया जाता है।

1992 से चल रहा ईपीआईसी (एपिक)कार्यक्रम पूरे यूरोप में खाने-पीने और कैंसर के संबंधों का अध्ययन करता है। इस अध्ययन में यूरोप में पिछले 10 साल से शराब पीने की आदतों और कैंसर के संबंध पर रिसर्च चल रहा है। इसमें 35 से 70 साल के 3.6 लाख लोग शामिल हुए। रिसर्च से पता चला है कि ज्यादातर लोग कैंसर और शराब के इस मारक संबंध से अनजान हैं। अनेकों का तो मानना है कि शराब पीने से उनकी सेहत बेहतर होती है। जबकि वास्तविकता यह सामने आई है कि एक पेग रोज पीने वाले भी अपने लिए कैंसर को निमंत्रण दे रहे हैं। यह भी भ्रम है कि ठंड में और ठंडे इलाकों में शराब पीना शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है। जबकि यह अध्ययन ऐसे सभी भ्रमों के जाले साफ कर रहा है।

Monday, April 20, 2009

कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-4)

खान-पान और कैंसर

अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को जीवन भर सेहतमंद खान-पान और सामान्य कसरत के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ बोहतर खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यूआईसीसी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।

भोजन के खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।

खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा, दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है तो विकासशील देशों में कुपोषण की। जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता तो शरीर कैंसर का आसान शिकार बन जाता है।

मांसाहार बनाम शाकाहार-

सेहतमंद खानपान की बात हो तो ये मुद्दा आना ही है कि मांसाहार बेहतर है कि शाकाहार। मेरा अपना विवेक शाकाहार के पक्ष में तर्क देता है। नीचे कुछ तथ्य हैं जो मैंने शाकाहार के समर्थन में ढूंढ निकाले हैं। मांसाहार के पक्ष में आपकी राय हो तो जरूर बताएं, चर्चा ज्यादा समृद्ध होगी।

*जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था।

*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतन 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।

* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।

* 2006 में हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1,35,000 लोगों में से अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाने वालों को मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।

शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है-

* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।

* मांस को हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।

* मांस-मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं। थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।

* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं।

* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोशा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते। खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।

* फलों और सब्जियों में एंटी-ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसरकारी रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।

* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल कर बीमारी नहीं पैदा कर पातीं। शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।

Friday, October 31, 2008

जो पहले ज़ख्म था, नासूर बन गया

इन पृष्ठों पर कैंसर के रिस्क फैक्टर्स यानी कैंसर की संभावना बढ़ाने वाले कारकों के बारे में चर्चा हुई है। लेकिन कैंसर का एक और रिस्क फैक्टर है जिसके बारे में हम लोकोक्तियों/कहावतों में तो कई बार कहते हैं लेकिन उसे भाषा की सुंदरता बढ़ाने वाले अलंकार से ज्यादा नहीं समझते। दिल के किसी पुरानी चोट/दर्द के ठीक होने की सूरत नहीं नज़र आती तो हम अक्सर कहते हैं कि जो पहले ज़ख्म था, अब नासूर बन गया है। नासूर यानी कैंसर। लंबे समय का दिल का जख्म या दुख जब ठीक नहीं होता तो सिर्फ दिल में नहीं शरीर में भी नासूर बना सकता है।

इज़राइल में रिसर्चरों की एक टीम ने 255 स्तन कैंसर की मरीज़ों और 367 स्वस्थ महिलाओं के जीवन में बीमारी शुरू होने के पहले खुशी, आशावादिता, तनाव, अवसाद जैसी स्थितियों के आंकड़े जुटाए। डाक्टरों ने पाया कि जिन महिलाओं के जीवन में एक या एक से ज्यादा बड़े दुख की घटनाएं हुईं उन्हें कैंसर की संभावना ज्यादा थी। जबकि आम तौर पर सामान्य, खुशमिजाज़, आशावादी रहने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर कम हुआ।

उनका कहना है कि केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (सेंट्रल नर्वस सिस्टम), हार्मोन और रोग प्रतिरक्षा तंत्र आपस में संबंधित हैं और व्यक्ति का व्यवहार और बाहरी कारक इनकी कार्यक्षमता पर असर डालते हैं।

तो, हम बाकी सकारात्मक कोशिशों के साथ साथ- खुश रहने और कैंसर दूर भगाने के इस मंत्र को भी याद रखें ।

Sunday, October 19, 2008

थुल-थुल मोटापे से तौबा!

जिराफ कभी मोटा नहीं होता।इसीलिए अव्वल तो उसे कैंसर होता नहीं। और खुदा-न-खास्ता कभी हो भी गया तो उसके बचने के चांसेस काफी मोटे होंगे क्योंकि वह खुद मोटा नहीं होता।

मोटे और थुल-थुल शरीर वाले कैंसर मरीजों की ठीक होने की संभावना कम होती है। यह ताजा नतीजा हाल के एक रिसर्च के बाद सामने आया है। लान्सेट ऑन्कोलॉजी पत्रिका में छपे लेख के मुताबिक वैज्ञानिकों ने पाया कि मोटे लेकिन कमज़ोर मांस-पेशियों वाले लोगों में इलाज के लिए दी जाने वाली कीमोथेरेपी का वितरण पूरे शरीर में आसानी से नहीं हो पाता। इस कारण दवाओं का पूरा फायदा शरीर को नहीं मिल पाता।

मोटे लोगों में भी उपापचय की दर, पेशियों और मांस का अनुपात शरीर के गठन के मुताबिक अलग-अलग होता है। इसलिए उनको दी गई समान कीमोथेरेपी का पूरे शरीर में वितरण और असर होने का समय अलग-अलग हो सकता है। इसलिए इलाज के दौरान शरीर की सक्रियता, खान-पान और मोटापे का असर इलाज के कुल फायदे पर भी पड़ता है।

कनाडा में हुए एक क्लीनिकल ट्रायल में कैंसर के कमजोर मांस-पेशियों वाले मोटे मरीजों (सार्कोपीनिक ओबीज़) पर दवाओं के असर और उनकी ठीक होने की संभावना का अध्ययन किया गया। इसमें 250 मोटे मरीजों को शामिल किया गया , जिनमें से 38 फीसदी सार्कोपीनिक ओबीज़ माने गये।

इस अध्ययन के कुछ नतीजे थे-
• सार्कोपीनिक ओबेसिटी वाले मरीज़ों की मृत्यु दर दूसरे ओबीज़ मरीजों के मुकाबले चार गुना ज्यादा थी।

• सार्कोपीनिक ओबीज़ मरीजों की सक्रियता यानी अपना रोज़ का काम करने और अपनी देखभाल कर पाने की क्षमता दूसरे मोटे मरीजों के मुकाबले बहुत कम थी।

• शरीर में कीमोथेरेपी के असमान वितरण के कारण सार्कोपीनिक ओबीज़ में कीमो के साइड इफेक्ट पर भी नकारात्मक असर पड़ा।

वैज्ञानिकों ने निश्कर्ष निकाला कि शरीर की रचना और गठन, खास तौरपर सार्कोपीनिक ओबेसिटी का मरीज़ की उत्तरजीविता, सामान्य जीवन, कीमोथेरेपी के जहरीले बुरे असर आदि से गहरा संबंध है। यह भी पाया गया कि ऐसे मरीजों में समान शारीरिक वजन और ऊंचाई के बावजूद उपयुक्त दवा की मात्रा में तीन-गुने तक का अंतर आ सकता है।

इस ट्रायल पर ज्यादा अध्ययन के बाद हो सकता है भविष्य में सार्कोपीनिक ओबेसिटी से पीड़ित कैंसर मरीजों के लिए दवा की मात्रा तय करते समय इन कारकों को भी गिनती में लिया जाए।

कुल मिला कर सबक यही है कि हर कीमत पर मोटापे से बचा जाए, चाहे हम सार्कोपीनिक ओबीज़ हों या नहीं, चाहे हम कैंसर के मरीज़ हों या नहीं।

Saturday, October 4, 2008

धूम्रपान पर कड़ी पाबंदी

दो अक्टूबर से सभी सार्वजनिक जगहों पर धूम्रपान पर पाबंदी लग गई है। इसे न मानने पर सज़ा का भी प्रावधान है। यह सभी की सेहत के लिए अच्छा है। खास बात यह है कि कई सर्वेक्षणों में लोगों ने समान रूप से इस पाबंदी का समर्थन किया है।
इस मसले पर घोस्ट बस्टर ने अपने ब्लॉग पर एक शानदार पोस्ट डाली है। उसके सुंदर चित्र, प्रवाहमय भाषा, खूबसूरत अभिव्यक्ति और रिच कंटेंट पढ़ कर मैं आपको भी उससे परिचित करवाने के लालच से बच नहीं पाई।

वे लिखते हैं- "आम जनता की और से सरकार के इस कदम का जबरदस्त स्वागत हुआ है. मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता में किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ९२% लोगों ने धूम्रपान निषेध के लिए कड़े क़दमों का स्वागत किया है

फ़िर भी इस बात को लेकर एक बड़ी बहस छिडी हुई है. बैन के पक्षधर और विरोधी तमाम तरह के तर्क दे देकर मैसेज बॉक्स और फोरम्स के पन्नों पर पन्ने रंगे जा रहे हैं. अपन तो बस इस बैन को जल्द से जल्द और सख्ती से लागू किए जाते देखना चाहते हैं. एक कम्युनिटी के रूप में स्मोकर्स के लिए अपने मन में जरा भी इज्जत नहीं. क्योंकि,

१. ये जानते हैं कि धूम्रपान इनके स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक है. मगर इन्हें परवाह नहीं.
२. इन्हें पता है कि ये इनके घर के अन्य सदस्यों, जो स्मोक नहीं भी करते, के लिए भी बुरा है, मगर ये आदत से मजबूर हैं.
३. स्मोकिंग से होने वाली विषैली गैसों का उत्पादन पूरे विश्व के पर्यावरण के लिए नुक्सान ही पहुँचाने वाला है, होता रहे इनकी बला से.
४. सार्वजनिक स्थानों पर किसी स्मोकर को धुंआ उडाते देखने का दृश्य अभद्रता का खुला प्रदर्शन लगता है...."

पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।

Sunday, May 18, 2008

कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू

शाकाहार और मांसाहार पर बहस लंबी चल सकती है लेकिन एक शाकाहार, बल्कि पत्ता है जिसका सेवन किसी भी रूप में कैंसरकारी है। यह मेरी पिछली पोस्ट का विरोधाभास लग सकता है लेकिन तंबाकू के बारे में यही सच है।

मुंह का कैंसर उन गिने-चुने कैंसरों में से है जिन्हें पूरी तरह रोका जा सकता है। यह ज्यादातर बाहरी कारणों से ही होता है जिनकी लगभग पूरी फेहरिस्त डॉक्टरों के पास है। अफसोस की बात है कि जानकारी की कमी से मुंह के कैंसर के मामले हमारे देश में लगातार बढ़ रहे हैं। योरोप और अमरीका में मुंह का कैंसर कुल मामलों में से 4-5 फीसदी है तो हिंदुस्तान में यह 45 फीसदी से ज्यादा। इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा मामलों में कारण तंबाकू और उससे बने उत्पाद हैं।

यह स्थापित हो चुका है कि तंबाकू का लंबे समय तक सेवन कैंसर को खुला निमंत्रण है। पान मसाला जो तंबाकू सेवन का सबसे नया और तेजी से लोकप्रिय होता रूप है, सबसे ज्यादा कैंसरकारी साबित हुआ है। कुछ समय पहले गुजरात के एक कैंसर अस्पताल में 25 वर्ष तक की उम्र के युवाओं में मुंह के कैंसर का सर्वे किया गया। पता चला कि उनमें से हर पांच में से तीन पान मसाला खाने के आदी थे। उनमें से कुछ ने चार या पांच साल पहले पान मसाला खाना शुरू किया था तो कुछ को दो साल के व्यसन ने ही बीमार बना दिया।

तंबाकू में 45 तरह के कैंसरकारी तत्व पाए गए हैं। पान मसाला बनाने के लिए जब इसमें स्वाद और सुगंध के लिए दूसरी चीजें मिलाई जाती हैं तो उसमें कार्सिनोजेन्स की संख्या कई दहाइयों में बढ़ जाती है। दरअसल ये रसायन मुंह की नाजुक त्वचा को लगातार चोट पहुंचाते रहते हैं और कोशिकाओं के सामान्य विकास में रुकावट डालते हैं। ये व्यथित कोशिकाएं खुद में कुछ बदलाव लाकर उन पदार्थों के बुरे असर से बचने की कोशिश करती हैं। यह बदलाव ही उनके लिए मारक साबित होता है। बदलाव के बाद बनी कोशिकाओं का विकास, जाहिर है, असामान्य और अनियंत्रित होता है।
इस तरह बनी गांठ में कैंसर होने की संभावना होती है जो इलाज में देर होने पर फेफड़ों, जिगर, हड्डियों और शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल कर जानलेवा हो जाता है।
सिगरेट, पान, तंबाकू, पान मसाला के अलावा पोषण में कमी, टेढ़े या नुकीले दांतों या गालों की भीतरी नरम चमड़ी को चबाने की आदत के कारण भी मुंह का कैंसर हो सकता है। लेकिन गले या श्वासनली के कैंसर का कारण अनिवार्यत: धूम्रपान और शराब ही है।

मुंह के कैंसर के लक्षण कैंसर होने के काफी पहले ही दिखने लगते हैं। इसलिए उन्हें पहचान कर अगर इलाज कराया जाए और तंबाकू सेवन छोड़ने जैसे उपाय किए जाएं तो इससे बचा भी जा सकता है। मुंह के भीतर कहीं भी- मसूढ़ों, जीभ, तालु, होंठ, गाल, गले के पास लाल या सफेद चकत्ते या दाग दिखें तो सचेत हो जाना चाहिए। इसके अलावा आवाज में बदलाव, लगातार खांसी, निगलने में तकलीफ, गले में खराश, कोई बेवजह हुआ घाव जो ठीक न हो रहा हो जैसे बदलावों पर भी ध्यान देना चाहिए। खूब फल-सब्जियां और अंकुरित अनाज तो हैं ही ऐंटी-ऑक्सिडेंट और विटामिनों के भंडार जो हमारी उपापचय प्रणाली में आजाद घूम रहे कैंसरकारी तत्वों की बेजा हरकतों पर लगाम लगाते हैं।

दुनिया भर में मुंह के कैंसर का प्राथमिक कारण तंबाकू और शराब ही हैं। अगर यह खत्म हो जाए तो मुंह का कैंसर भी लगभग पूरी तरह खत्म हो जाएगा।

Friday, May 16, 2008

शाकाहार बनाम मांसाहार: कैंसर के बर-अक्स

खान-पान संबंधी पिछली पोस्ट पर एक टिप्पणी में स्वप्नदर्शी ने कहा- "मेरी जानकारी मे संतुलित आहार मे मांस का होना अच्छा है और मांस खाने का कैंसर से कोई सीधा सम्बन्ध नही है।"

नीचे लिखे कुछ तथ्यों पर नजर डालें-

कुछ वैज्ञानिक अध्ययन:

* जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था। जापान और स्वीडन में भी सर्वेक्षणों के मिलते-जुलते नतीजे मिले।

*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि ज्यादा मांस खाने वालों के मुकाबले कम मांस खाने वाली महिलाओं को स्तन कैंसर की संभावना कम होती है। जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतर 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।

* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।

* 2006 अमेरिकन जर्नल ऑफ क्लीनिकल न्यूट्रीशन में प्रकाशित हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1, 35,000 लोगों में से जिन्होंने अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाया, उन्हें मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।

शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है:

* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।

* मांस को हजम करने में ज्यादा पाचक एंजाइम और समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।

* इसके अलावा मांस- मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैसर को बढ़ावा देते हैं। इसे ऐसे समझें कि थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए उन्हें खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।

* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ने लगते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं। ऐसे में शरीर कैंसर से लड़ने और जीतने में नाकाम हो जाता है।

* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोषा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते।

* खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।

फलों और सब्जियों में एंटी ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसर पैदा करने वाले रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।

* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल नहीं पातीं।

* शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।
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