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Friday, June 28, 2013

प्राणदात्री और प्राणलेवा कीमोथेरेपी के दिन लदने वाले हैं?

क्या सचमुच दशकों से कैंसर के मरीजों की प्राणदात्री और प्राणलेवा कीमोथेरेपी के दिन लदने वाले हैं?
कैंसर के इलाज की अब तक आजमाई जा रही विधियों में जोर होता है- चाहे कैसे भी हो, कैंसर को खत्म करो। सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी ये तीनों ही बेहद क्रूर प्रक्रियाएं हैं जो कैंसर पर जितना असर करती हैं, शरीर के बाकी स्वस्थ हिस्सों पर भी उतना ही।

अगर इलाज को कैंसर के खिलाफ युद्ध कहें तो इलाज का प्रचलित तरीका कार्पेट बॉम्बिंग है। यानी अंधाधुंध बम बरसाते चलो, हर जगह। दुश्मन जहां भी होगा, मारा जाएगा। जब तक कोई और उपाय न हो, यही तरीका चलने दिया जाए।

लेकिन ताजा खबरें बताती हैं कि अब वैज्ञानिक कार्पेट बॉम्बिंग की जगह टार्गेट बॉम्बिंग तरीके से इलाज खोजने के काफी करीब पहुंच गए हैं। यानी दुश्मन की जगह का पता करो और ठीक उसी जगह बम बरसाओ, स्वस्थ जगहों को नुकसान पहुंचाए बिना।
http://news.yahoo.com/no-more-chemo-doctors-not-far-fetched-094524778.html

हालांकि हर तरह का कैंसर अलग होता है, इसलिए टार्गेटेड थेरेपी करनी हो तो यह हर ट्यूमर की अलग होगी। यानी हर कैंसर के लिए आम तौर पर अलग रिसर्च और टार्गेटेड दवाएं। फिर भी कई प्रकार के कैंसरों, खास तौर पर रक्त कैंसरों के लिए कुछेक टार्गेटेड इलाज सफलता के करीब हैं और वैज्ञानिकों ने इनके सफल परीक्षण भी कर लिए हैं। इससे मरीजों में भी बहुत उम्मीदें बंधी हैं।

अगर ऐसा हो गया, सभी या ज्यादातर कैंसरों के लिए सफल टार्गेटेड थेरेपी खोजी जा सके तो यह मानवता के लिए एक कीमती तोहफा होगा।

मेरा नकारात्मक विचारः पिछले 15 वर्षों से कई  तरह के ब्रेक-थ्रू (http://ranuradha.blogspot.in/2012/01/1.html

http://ranuradha.blogspot.in/2012/01/2.html)

की खबरें पढ़ रही हूं लेकिन अपना इलाज उन्हीं पुरानी पद्यतियों से होता देख रही हूं।। अब, जबकि परंपरागत इलाज की गुंजाइश बाकी नहीं रही तो नई आई दवाओं का ट्रायल एंड एरर मुझ पर भी आजमाया जा रहा है। जमीनी स्तर पर जब उन चमत्कारी, सनसनीखेज़ खबरे और उम्मीदें जगाने वाली दवाओं को अपने ऊपर आजमाने का मौका आया है तो पता चल रहा है कि वास्तव में वे दवाएं चौथे स्टेज के मरीज को तीन से पांच महीने ज्यादा तक लक्षण-मुक्त रख सकती हैं। आखिरी स्टेज के मरीज का कुल जीवन-समय बढ़ाने का कोई दावा इनका नहीं है। ध्यान रहे ये दवाएं आम आदमी की पहुंच के बाहर हैं। हर महीने की इनकी खुराक 50 हज़ार से लेकर दो-ढाई लाख तक कुछ भी हो सकती है। और आम तौर पर यह लंबे समय तक चलने वाला इलाज होता है।)

Saturday, January 7, 2012

हाल के समय में हुईं कैंसर के इलाज की कुछ महत्वपूर्ण खोजें

मोनोक्लोनल एंटीबॉडी- त्वचा का कैंसर मेलानोमा तेजी से फैलता है और विकसित अवस्था में इसका इलाज मुश्किल होता है। इसीलिए इस अवस्था में मरीज के जीने की संभावना औसतन 8 से 18 माह ही होती है। अब तक इसका इलाज डाकार्बाज़ाइन नाम की कीमोथेरेपी दवा से ही किया जाता है। यह दवा सीधे ट्यूमर पर हमला करती है। क्योंकि कैंसर की रक्त के जरिए फैलने की प्रवृत्ति होती है इसलिए एक सीमा के बाद दवा असरकारक नहीं रहती। ऐसे में कैंसर विकसित होता रहता है और आखिर जानलेवा साबित होता है। लेकिन न्यू यॉर्क के स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर ने विकसित मेलानोमा के मोनोक्लोनल एंटीबॉडी यानी शरीर में ही इस खास कैंसर से निकलने वाले सहयोगी प्रोटीन के खिलाफ बनाई गई एंटीबॉडी से इलाज के लिए डाकार्बाज़ाइन के साथ इपिलिमुमाब नाम के रसायन का इस्तेमाल किया। तुलना करके देखा गया कि जिन मरीजों को सिर्फ डाकार्बाज़ाइन दी गई उनके एक साल तक जीवित रहने की उनकी संभावना 36.3 फीसदी रही जबकि दोनों दवाएं पाने वालों के लिए यह प्रतिशत 50 रहा। इसे पिछले 30 साल में त्वचा के कैंसर की सबसे जबर्दस्त खोज कहा जा रहा है।

एक अन्य शोध में इसी संस्थान की एक और टीम ने डाकार्बाज़ाइन की तुलना में वेमुराफेनिब दवा का इस्तेमाल करके देखा कि यह बी-आरएएफ नामक जीन के कैंसरकारी म्यूटेशन के असर को रोकती है। यह म्यूटेशन त्वचा के कैंसर के करीब आधे ट्यूमरों में मौजूद पाया गया है। बी-आरएएफ जीन एक एंजाइम छोड़ता है, जो ज्यादा सक्रिय होने पर त्वचा की रंजक कोशिकाओं मेलानोसाइट्स के कैंसर की संभावना को बढ़ा देता है। वेमुराफेनिब एक एंजाइम है जो म्यूटेटेड बी-आरएएफ जीन की गतिविधियों पर रोक लगा कर कैंसर बनने को ही रोक देता है। इस इलाज से मरीजों का छह माह जीवित रहने की संभावना 84 फीसदी थी जबकि डाकार्बाज़ाइन लेने वाले समूह की 64 फीसदी। यह इलाज इतना प्रभावी रहा कि इस परीक्षण को बीच में ही रोक दिया गया ताकि सभी मरीजों को इसमें शामिल करके उन्हें भी इस टार्गेटेड इलाज का लाभ दिया जा सके।

एंटी एंजियोजेनिक थेरेपी- इस साल अप्रैल के पहले हफ्ते में खबर आई कि क्वींस यूनिवर्सिटी बेलफास्ट, इंग्लैंड के फार्मेसी स्कूल और अल्माक डिस्कवरी लिमिटेड के वैज्ञानिकों ने ऐसा इलाज खोजा है जिसमें दवा ट्यूमर पर सीधे हमला करने की बजाए उसकी रक्त नलिकाओं की बढ़त को रोक देती है। इस तरह ट्यूमर कोशिकाओं को ऑक्सीजन और पोषण मिलना बंद हो जाता है और वे मर जाती हैं। वैसे तो 1985 से ही वैज्ञानिक जानते थे कि रक्त नलिकाएं ट्यूमर के लिए विशेष आपूर्ति हेतु विकसित हो जाती हैं। लेकिन उन्हें बढ़ने से रोका कैसे जाए, इस सवाल का जवाब उन्हें अब मिल गया है। उम्मीद है कि यह थेरेपी सभी तरह के ठोस ट्यूमरों के लिए असरदार रहेगी। अभी प्राकृतिक प्रोटीन और पेप्टाइड पर आधारित यह एंटी एंजियोजेनिक पद्यति प्रि-क्लीनिकल स्तर से गुजर रही है।

इसी तरह के एक और परीक्षण के बारे में ब्रैडफोर्ड यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड के कैंसर थेरैप्यूटिक संस्थान की रिपोर्ट जर्नल कैंसर रिपोर्ट में प्रकाशित हुई है। इसके मुताबिक सूजन, जलन आदि के लिए इस्तेमाल होने वाले ऑटम क्रोकस के फूल में पाया जाने वाला जहरीला रसायन कोल्चिसिन कैंसर के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि अपने आस-पास की स्वस्थ कोशिकाओं को नष्ट करके अपने लिए जगह बनाने के लिए सभी ट्यूमर कुछ एंजाइम पैदा करते हैं। संवर्धित कोल्चिसिन अणु में एर प्रोटीन होता है जिससे यह अक्रिय बना रहता है। लेकिन जब यह प्रोटीन इन एंजाइमों के संपर्क में आता है तो वह नष्ट हो जाता है और कोल्चिसिन सक्रिय हो जाता है। और तब वह ट्यूमर को पोषण देने वाली रक्त नलियों को नष्ट कर देता है और ट्यूमर खत्म हो जता है। इस तरह यह दवा सिर्फ ट्यूमर पर ही असर करती है, स्वस्थ कोशिका पर नहीं।

सीरियल किलर टी-सेल- इसी प्रक्रिया से जुड़ी एक खोज पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने की है। उन्होंने विकसित अवस्था के ल्यूकेमिया यानी रक्त कैंसर के इलाज के लिए टी-लिंफोसाइट को जेनेटिकली इंजीनियर किया है। इस प्रयोग में शामिल तीन में से दो मरीज एक साल से ज्यादा समय तक स्वस्थ रहे, उनमें कैंसर लौट कर नहीं आया। हार्वर्ड मेडीकल स्कूल ने कैंसर कोशिकाओं में एक खास रसायन की मौजूदगी को खोजा था, जिसे इस ताजा प्रयोग में निशाना बनाया गया है। कैंसर पर हमला करने वाली कोशिका बनाने के लिए एक वायरस के जीन में बदलाव किए गए ताकि वह ऐसा रसायन बनाए जो ल्यूकेमिया कोशिका से जुड़ जाए और वहां रक्त में मौजूद टी-लिंफोसाइट को उकसाए कि वह कैंसर कोशिकाओं को मार दे। फिर मरीज के शरीर से रक्त निकाल कर उसमें यह वायरस डाल दिया गया। जब संक्रमित खून वापस मरीज के शरीर में डाला गया तो हर इंजीनियर्ड टी-लिंफोसाइट हजार से ज्यादा बार बहुगुणित हुई और कई महीने जिंदा रह कर कैंसर को खत्म कर दिया। इनसे अक्रिय ‘यादगार’ टी-कोशिकाएं भी बनीं, जो कैंसर के दोबारा पनपने पर उसे पहचान कर अपने आप ही उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू देंगी।

आई-बेट 151- इंग्लैंड में ग्लैक्सो स्मिथ क्लीन व कैंसर रिसर्च यूके (क्रुक) ने खोजा कि 2 साल से छोटे बच्चों में एक्यूट ल्यूकेमिया के 80 फीसदी मामलों और वयस्कों में 1-10 फीसदी मामलों में मिक्स्ड लीनिएज ल्यूकेमिया या एमएलएल होता है। एमएलएल जीन एक अन्य जीन के साथ मिल कर फ्यूजन प्रोटीन बनाता है जो कि ल्यूकेमिया बनाने वाले जीन को काम शुरू करने को उकसा देता है। लैब में चूहों की और मानव कोशिकाओं में आई-बेट 151 प्रोटीन से यह प्रक्रिया रोकी जा सकी है। यह थेरेपी अभी परीक्षण के शुरुआती चरण में है।

रेनियम-186 और लेसर स्पेक्ट्रोस्कोपी- क्वींस यूनिवर्सिटी, बेलफास्ट में एडवांस प्रोस्टेट कैंसर के फेस-1 ट्रायल में मरीजों को कीमोथेरेपी के साथ रेडियोएक्टिव रेनियम-186 (Rhenium) दी गई। दूसरा फेज़ 6 माह में शुरू होगा, जिसके नतीजे दो साल में आएंगे। यूसी सांता बारबरा में प्रोस्टेट कैंसर का एक और इलाज खोजा गया। लेसर स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक कैंसर कोशिका और स्वस्थ कोशिका में अंतर करती है। इस गुण की जानकारी से स्वस्थ कोशिकाओं को बचाते हुए केवल बीमार कोशिकओँ को नष्ट करने के लिए रेडियोथेरेपी का उपयोग किया गया है।

इन पद्यतियों को बाजार तक आने में अभी बरसों लगेंगे।

Tuesday, November 15, 2011

कैंसर अनुसंधान की मीडिया कवरेजः ब्रेक-थ्रू के बाद हार्ट-ब्रेक?

पिछले कुछ दिन मैंने कैंसर के बेहतर इलाज ढूढने के लिए हो रहे अनुसंधानों को पढ़ने और जानने में लगाए। इंटरनेट पर ढेरों वैज्ञानिक सूचनाएं और आंकड़े मिल रहे हैं। हमेशा मिल जाते हैं। कोई नई बात नहीं। पर नई बात एक जो देखी, वह थी विभिन्न ट्रायल्स और अनुसंधानों को विभिन्न चरणों में मिली सफलता की खबरों का ऑनलाइन अखबारों में प्रस्तुतीकरण। कम से कम पांच अनुसंधानों के नतीजों को पिछले 10 या तीस साल का सबसे बड़ा ब्रेकथ्रू, सबसे बड़ी खोज बताया गया था। ऐसे में मेरे लिए भी तय करना मुश्किल हो रहा था कि वास्तव में किसे सबसे बड़ी खबर मानूं। बल्कि सवाल यह भी था कि किसी भी नतीजे को अभी से अंतिम मानकर ‘सबसे बड़ी’ या छोटी ही सही, सफलता माना भी जाए या नहीं।

दरअसल इलाज के लिए किसी भी दवा या तकनीक को अनुसंधानों में पहले प्रयोगशाला में पेट्रीडिश में जीवित ऊतकों और फिर जीवों पर आजमाया जाता है। यहां प्री-ट्रायल स्टेज के आंकड़ों के आधार पर उन्हें अगले चरण- मनुष्यों पर ट्रायल के लिए इजाजत मिलती है। स्टेज शून्य में कुछेक चुनिंदा मरीजों को बेहद हल्की डोज़ देकर इनके असर को देखा जाता है। इसके बाद पहले चरण के ट्रायल में 20 से 100 स्वस्थ लोगों पर उसे आजमाया जाता है। इसमें मिले नतीजों के अनुसार ही इसे दूसरे चरण के ट्रायल में लिया जाता है जिसमें 100 से 300 स्वस्थ और बीमार लोगों को शामिल किया जाता है।

इसके बाद तीन सौ से तीन हजार लोगों पर इसे आजमाकर नतीजे देखे जाते हैं। इन सभी चरणों में जाने से पहले तकनीक को कई तरह की मंजूरियों के रोड़े पार करने पड़ते हैं। इसमें भी सफल होने के बाद ही किसी दवा या थेरेपी को आम क्लीनिकल व्यवहार के लिए मंजूरी मिल पाती है। इस पूरी प्रक्रिया में पैसे तो लगते ही हैं, समय भी खूब लगता है। न्यूनतम पांच-सात साल से लेकर दशकों तक। इसमें कोई कटौती नहीं की जा सकती। दवा की बिक्री शुरू होने के बाद भी इसकी मार्केटिंग पर नजर रखी जाती है। इसके बाद भी उस दवा या तकनीक में सुधार-संशोधन के लिए विभिन्न अनुसंधान जारी रहते हैं।

इस बीच विभिन्न शुरुआती चरणों में मिल रही सफलता को भी भुना लेने के लिए उस परियोजना की प्रायोजक कंपनी उसका खूब प्रचार करती है। वैज्ञानिक भी कई बार अपनी सफलताओं से उत्साहित हो जाते हैं। उधर सनसनीखेज खबरों की ताक में बैठे पत्रकार भी इन महत्वपूर्ण लेकिन निचले स्तर की सफलताओं को अपनी खबरों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। मानो ये इलाज बस मरीजों तक पहुंचा ही चाहते हैं। और ये महान ब्रेकथ्रू तो जी एकदम सफल हैं। यह कैंसर को जड़ से मिटा देने वाला वंडर ड्रग है...आदि, इत्यादि। इस बीच वे यह भूल जाते हैं कि इन खबरों को गंभीरता से ले रहे पाठक-दर्शक की समझ का क्या होगा। उनमें से कई इस बीमारी से गुजर रहे होंगे और नाउम्मीद हो चुके होंगे।

लगभग मारक, ज्यादातर लोगों के लिए जानलेवा बीमारी कैंसर के मरीज और उससे जुड़े लोग इन अनुसंधानों को बड़ी उम्मीद से देखते हैं। लैबोरेटरी में जीवों या पेट्री डिश में रखे जीविक ऊतकों पर भी किसी दवा या तकनीक के कारगर होने की खबर जब जोर-शोर से मीडिया में उभारी जाती है तो इन मरीजों को वह दवा या तकनीक जीने की नई रौशनी की तरह दिखाई पड़ती हैं। बेशक, उस अनुसंधान में शामिल मरीजों को तो जीने का एक और मौका मिलने जैसा लगता होगा, लेकिन दूर बैठे देख रहे बाकी लोगों के लिए तो बस एक सपना ही रह जाता है, इस इलाज तक पहुंच पाना।

ऐसे में किसी भी वैज्ञानिक विषय, खास तौर पर लाइलाज-सी या कठिन बीमारियों के नए इलाज के ईजाद की कवरेज के समय पत्रकारों को संयत होकर लिखना जरूरी है ताकि भ्रम न फैलें और पाठक या दर्शक जान सके कि उस इलाज की जमीनी हकीकत क्या है और उसे उससे कितनी उम्मीद रखनी है।

Wednesday, October 19, 2011

स्टीव जॉब्स- दुनिया को कैंसर से ऐसा नुकसान शायद न होता अगर...

ऐप्पल डॉट कॉम के मुखपृष्ठ पर सिर्फ उस कंपनी के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स का चित्र है। उनका इस महीने के सुरू में निधन हो गया। मुखपृष्ठ का चित्र ऐसा है-

इस व्यक्ति को हर अखबार पढ़ने वाला, टीवी देखने वाला व्यक्ति पहचनता है, भले ही उसके पास आईफोन, आईपॉड, आईमैक, आईपैड,... या कोई और 'आई' हो या नहीं। इतनी जल्दी, अपने सबसे ज्यादा प्रोडक्टिव समय में इस व्यक्ति का जाना न्यू मीडिया की दुनिया को कई औजारों से वंचित कर देगा/रहा है, यह तय है। हालांकि और बहुत से लोग एपल से सस्ते, उसी तरह के उत्पाद बना रहे हैं, लेकिन आई में जो बात है (कीमत सहित, जो कि और भी उत्सुकता, ललक पैदा करती है, मेरे जैसे लोगों के मन में, जो उन्हें नहीं खरीद पाते।) वह किसी और में कहां। खैर।

फिलहाल तकनीक की नहीं, स्टीव का जीवन लेने वाली बीमारी कैंसर की बात हो रही है।

ठीक 8 साल पहले, अक्टूबर 2003 में स्टाव जॉब्स को एक खास तरह के पैंक्रियास का कैंसर होने का पता चला, जो कि सर्जरी से ठीक हो सकता था। लेकिन स्टीव ने अपने शाकाहार और प्राकृतिक चिकित्सा पर ज्यादा भरोसा किया और खान-पान के जरिए ही अपने कैंसर का इलाज करने की कोशिश करने लगे।

इस प्राकृतिक खान-पान चिकित्सा में उन्होंने नौ सबसे महत्वपूर्ण, कीमती शुरुआती महीने बर्बाद कर दिए जबकि व्यवस्थित इलाज का बेहतरीन परिणाम उन्हें मिल सकता था। जब आखिर उन्होंने अपना इलाज एलोपैथी पद्यति से कराने का फैसला किया, तब तक उनका कैंसर शरीर में फैल चुका था। जुलाई 2004 में उन्होंने सर्जरी भी करा ही ली। लेकिन बीच के इन नौ महीनों में सर्जरी या कहें, उचित इलाज से भागने का नतीजा यह रहा कि उनकी जिंदगी जरा छोटी हो गई।

कोई गारंटी तो नहीं थी कि वे कैंसर का इलाज कराकर पूरी तरह स्वस्थ हो जाते या उसके साथ ही दसियों साल और जीवित रहते, लेकिन निश्चित रूप से उनका सर्वाइवल लंबा और बेहतर होता। उनकी लंबी जिंदगी पूरी दुनिया के लिए नेमत होती। और अपनी जिंदगी को कौन ज़ाया करना चाहता है? कौन चाहता है कि वह ऐसे बेवक्त मरे?

अब हम स्टीव को सिर्फ अलविदा ही कह सकते हैं।
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