फेफड़ों और त्वचा के कैंसरों के जीववैज्ञानिक इतिहास का पता लगा लिया गया है। इंग्लैंड के सेंगर इंस्टीट्यूट में कैंसर जीनोम परियोजना में लगे वैज्ञानिकदल ने इन दोनों प्रकार के कैंसरों के मरीजों की बीमार कोशिकाओं के जीन में पाए जाने वाले अंतरों को ढूंढ लिया है जो कैंसर के कारण पैदा होते हैं। सेंगर इंस्ट्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने पहली बार त्वचा और फेफड़ों के कैंसर के मरीजों की कोशिकाओं के हर म्यूटेशन को पहचाना है जो स्वस्थ कोशिका को कैंसर की स्थिति की ओर धकेलते हैं। यह खोज कैंसर के सटीक इलाज के रास्ते में मील का पत्थर है। अब कैसर कोशिकाओं के साथ-साथ शरीर की तेजी से बढ़ती स्वस्थ कोशिकाओं को भी खत्म कर देने वाली कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी की जगह सिर्फ कैंसरग्रस्त कोशिकाओं को खत्म करने के तरीके ढूंढने में मदद मिलेगी।
वैज्ञानिकों ने 45 साल के मेलानोमा (त्वचा का कैंसर) से पीड़ित और 55 साल के स्मॉल सेल लंग कैंसर से पीड़ित पुरुषों की बीमार कोशिकाओं का उन्हीं की स्वस्थ कोशिकाओं के साथ मिलान किया और दोनों में अंतर ढूंढते गए। इस तरह दोनों प्रकार की कैंसर कोशाओं के जीन में म्यूटेशन (अचानक आए असामान्य बदलाव) को दर्ज किया। यह शोध त्वचा और फेफड़ों के कैंसर पर ही किया गया क्योंकि इन दोनों के होने में पर्यावरण के हाथ का पता लग चुका है। ज्यादातर मेलानोमा बचपन में ज्यादा अल्ट्रावॉयलट किरणों को झेलने से और स्मॉल-सेल लंग कैंसर बीड़ी-सिगरेट के धुएं से होता है।
पाया गया कि लंग कैंसर की कोशिकाओं में 23 हजार तरह के म्यूटेशन होते हैं जो सिर्फ लंग कैंसर पीड़ित कोशाओं में ही होते हैं और स्वस्थ कोशाओं में कभी नहीं पाए जाते। त्वचा के कैंसर, मेलानोमा की बीमार कोशिका में 32 हजार प्रकार के म्यूटेशन पाए गए। लंग कैंसर के सभी म्यूटेशन यानी कोशिकाओँ के जीन में बदलाव सिगरेट में पाए जाने वाले 60 तरह के रसायनों के कारण होते हैं जो डीएनए के साथ जुड़ कर उसे अपना सामान्य कामकाज करने से रोकते हैं और उसकी संरचना को बिगाड़ देते हैं। लंग कैंसर पर शोधदल का नेतृत्व करने वाले डॉ. पीटर कैंपबेल के मुताबिक - “ हर 15 सिगरेटों का धुआं स्वस्थ कोशिका के जीनोम में एक म्यूटेशन लाता हैं। और यह असर पहली सिगरेट से ही शुरू हो जाता है। यह तथ्य भयानक है क्योंकि कई लोग हैं जो हर दिन एक पैकेट सिगरेट का धुंआ पी जाते हैं।”
खास बात यह है कि हमारे देश में मुंह, गले और फेफड़ों के कैंसर के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। यहां मुंह का कैंसर कुल मामलों में से 45 फीसदी से ज्यादा है। इनमें से 90 फीसदी से ज्यादा मामलों में कारण तंबाकू और उससे बने उत्पाद हैं। जबकि योरोप के देशों में जागरूकता के कारण यह आंकड़ा लगातार घट रहा है और 4-5 फीसदी के आस-पास तक पहुंच गया है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक हर साल 13 लाख से ज्यादा लोग फेफड़ों के कैंसर से मर जाते हैं।
मानव कोशिकाओं में क्रोमोसोम के 23 जोड़े होते हैं जिनमें जेनेटिक मटीरियल या जनन द्रव्य अक्षरों (A,G,C और T प्रोटीनों ) के तीन अरब जोड़ों के रूप में होता है। ये सभी अक्षर जिगसॉ-पजल के जोड़ों की तरह होते हैं जो किसी खास अक्षर से किसी खास तरफ से ही जुड़ते हैं। इन अक्षरों के जोड़ों में से किसी एक जोड़े में बदलाव आता है तो इसे म्यूटेशन कहा जाता हैं। एक अक्षर का जोड़ा दूसरे अक्षर से जुड़ जाए, या किसी का जोड़ा ही न मिले या किसी के दो जोड़े हो जाएं, किसी परफेक्ट जोड़ी का डुप्लिकेट ही बन जाए या फिर किसी क्रोमोसोम श्रृंखला का कोई हिस्सा टूट जाए या फिर गलत तरीके से जुड़े हो तो यह म्यूटेशन हुआ।
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10 साल तक चलने वाली इस कैंसर जीनोम परियोजना में 50 तरह के कैंसरों के जीनोम और कोशिकाओं के म्यूटेशन का नक्शा बनाने की योजना है। आम कैंसरों के इस स्तर तक खुलासे के बाद इनका इलाज आसान हो जाएगा। हालांकि इलाज के पहले हर मरीज की अलग-अलग जेनेटिक मैपिंग करनी पड़ेगी जिसका फिलहाल खर्च कोई एक लाख डॉलर है, और डेढ़-दो साल बाद इसके करीब 20 हजार डॉलर हो जाने की उम्मीद है। और 10 साल बाद जबकि इस तरह का टारगेटेड इलाज बाजार में आ जाएगा, इस तरह की जेनेटिक मैपिंग भी सस्ती हो जाएगी।
पर कितनी? अगर मान लें कि एक हजार रुपए तक भी सस्ती हो जाए तो भी....क्या किसी भी कीमत पर जिंदगी इतनी सस्ती है कि उस पर कुछेक पैकेट सिगरेट-बिड़ी के खर्च किए जाएं और यह तमाम हो जाए!?? नहीं न!!
सिगरेट-बिड़ी-पान मसाला-तंबाकू पर पैसे, समय, ऊर्जा और आखिरकार पूरी जिंदगी खर्च कर देना कहां की अक्लमंदी है? इन सबसे तो आसान होता है, सिगरेट के साथ-साथ कैंसर की जांच और इलाज के पैसे बचाना और इस तरह अपनी जान को जोखिम में डालने से बचाना। क्या सोच रहे हैं??
This blog is of all those whose lives or hearts have been touched by cancer. यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी ज़िंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।
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Saturday, December 19, 2009
Sunday, October 25, 2009
केरल के कुट्टनाड इलाके में कैंसर की पैदावार?
केरल से एक चौंकाने वाला आंकड़ा मिला है। यहां अलप्पुड़ा मेडीकल कॉलेज अस्पताल के रेडियोलॉजी विभाग में इस साल जनवरी से मई के बीच 499 मरीजों ने इलाज करवाया जिनमें से ज्यादातर कुट्टनाड इलाके के थे। इसके मुकाबले पिछले साल यहां 355 मरीज आए थे जबकि उससे पहले साल 300 मरीजों ने इलाज करवाया। यह संख्या सिर्फ उन मरीजों की है जो उस अस्पताल तक पहुंचे। कई और रहे होंगे जिन्होंने निजी अस्पतालों में इलाज करवाया, या फिर करवाया ही नहीं। कोई 21 लाख की आबादी वाले इलाके में कैंसर के मरीजों की संख्या इस रफ्तार से बढ़ना खतरे की घंटी है।
केरल के अलप्पुड़ा जिले के कुट्टनाड इलाके को धान का कटोरा भी कहा जाता है।
यहां जमीन नीची है, जिससे जल-भराव के कारण चावल के अलावा कोई और खेती नहीं हो सकती। यहां के 90 फीसदी किसान ज्यादा उपज वाली फसल बोते हैं जिसके लिए ज्यादा रसायनों की जरूरत पड़ती है। उस पर पानी-भरा इलाका होने के कारण यहां भूरे टिड्डे और फफूंदी का प्रकोप रहता है, जिसे काबू करने के लिए कीटनाशक और फफूंदीनाशक जरूरी हो जाते हैं।
चावल की फसल में कीटनाशक रसायनों के इस्तेमाल पर एक अध्ययन एक एनजीओ ‘सैंडी’ ने प्रायोजित किया। केरल कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अर्थशास्त्र की डॉ. पी इंदिरा देवी के इस रिसर्च की रिपोर्ट साउथ एशियन नेटवर्क फॉर डेवलपमेंट एंड एनवायर्नमेंटल इकॉनॉमिक्स (SANDEE) की पत्रिका में मार्च 2007 में छपी थी।
इसमें कहा गया कि कुट्टनाट में चावल की फसलों को भूरे टिड्डे, चावल कीट और पत्तों पर लगने वाली बीमारी से बचाने के लिए रसायनों का जरूरत से कई गुना ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। यहां कुल 19 तरह के रसायन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इस इलाके में हर साल 15 हजार टन रासायनिक उर्वरकों, 500 टन कीटनाशकों और 50 टन फफूंदनाशकों का इसेतेमाल किया जाता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इन रसायनों का छिड़काव सुरक्षित मशीनों से नहीं किया जाता। छिड़काव करने वाले अपने को रसायन से बचाने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा कोई कपड़ा नाक-मुंह पर बाध लेते हैं या अपने शर्ट की आस्तीन से ही काम चलाते हैं। जबकि ये रसायन बेहद खतरनाक और जानलेवा तक हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक केरल के कुट्टनाड इलाके में ओंठ, पेट, त्वचा और सिर के कैंसर, लिंफोमा, ल्यूकेमया और मायलोमा जैसे कैंसर के अनेक मामले सामने आए। एक अन्य सर्वेक्षण में पाया गया कि यहां मछलियों की संख्या में भी कमी आई है। स्थानीय मीडिया में खबरें भी आईं कि बड़ी संख्या में मछलियां अल्सर के कारण मर रही है। इन सभी घटनाओं को इस रिपोर्ट में रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल से जोड़ा गया।
इससे पहले भी 1980 और 90 के दशकों में केरल का कासरगोड़ जिला काजू की फसल पर कीटनाशकों के बेहिसाब इस्तेमाल के लिए खूब चर्चा में रहा है। एंडोसल्फान नाम के इस कीटनाशक के असुरक्षित छिड़काव की वजह से यहां अनेक मौंतें हुईं।
हाल में मीडिया में आई इन खबरों के बाद कुट्टनाड विकासन समति ब्लॉक और ग्राम पंचायत के साथ मिलकर ने इस इलाके में घर-घर जाकर स्क्रीनिंग करके कैंसर के लक्षणों वाले लोगों को जांच केंद्रों में भेजने और उनका इलाज करवाने की मुहिम शुरू की है। इस कार्यक्रम के निदेशक का भी मानना है कि इलाके के पानी में रसायन लगातार जमा होते जा रहे हैं जिनका असर लोगों की सेहत पर दिख रहा है। इसे रोकने की जरूरत है।
चावल की फसल में जरूरत से ज्यादा रसायनों के इस्तेमाल और इससे कैंसर की घटनाएं बढ़ने के बारे में हाल ही में राज्य की विधानसभा में भी सवाल उठ चुका है। सरकार ने इस बारे में सभी उपाय करने का वादा भी किया। स्थानीय डॉक्टरों की भी मांग है कि इस मुद्दे की पूरी जांच की जाए ताकि वास्तविक स्थिति सामने आ सके और रोकथाम के उपाय समय रहते किए जा सकें।
हालांकि किन्हीं रसायनों से कैंसर होने में 5-10 साल का समय लगता है लेकिन यह भी समझ में आ रहा है कि कैंसर होने की मौजूदा घटनाएं कुछेक साल पहले के रसायनों के असुरक्षित इस्तेमाल का नतीजा हैं और आगे की पीढ़ी को यह विकट स्थिति न देखनी पड़े इसके लिए जरूरी है कि अभी से सतर्क होकर ऐसे वैकल्पिक उपाय अपनाए जाएं जो हानिकारक न हों।
यहां बड़े पैमाने पर हो रही खेती के लिए जैविक खाद को बहुत व्यावहारिक नहीं बताया जा रहा है। लेकिन एक विकल्प है- एक फसल के बाद खेतों में एक मौसम मछलीपालन किया जाए जो घास-पात और खरपतवार को खाएंगी भी और साथ ही पानी में अपने मल के रूप में जैविक खाद भी उस जमीन में छोड़ेंगी। इससे जमीन फिर उपजाऊ हो जाएगी, खरपतवार खत्म होंगे और किसान को नुकसान भी नहीं उठाना पड़ेगा।
एक सरकारी सर्वेक्षण में देश के खाने की चीजों के 25 नमूनों में निर्धारित अधिकतम मात्रा की सीमा से अधिक खतरनाक रसायन पाए गए। शायद पूरे देश में खेती के लिए रसायनों की जगह वैकल्पक उपायों की जरूरत है ताकि भावी पीढ़ियों के लिए खान-पान और रोजगार के रूप में खेती सुरक्षित बनी रहे।
केरल के अलप्पुड़ा जिले के कुट्टनाड इलाके को धान का कटोरा भी कहा जाता है।

चावल की फसल में कीटनाशक रसायनों के इस्तेमाल पर एक अध्ययन एक एनजीओ ‘सैंडी’ ने प्रायोजित किया। केरल कृषि विश्वविद्यालय के कृषि अर्थशास्त्र की डॉ. पी इंदिरा देवी के इस रिसर्च की रिपोर्ट साउथ एशियन नेटवर्क फॉर डेवलपमेंट एंड एनवायर्नमेंटल इकॉनॉमिक्स (SANDEE) की पत्रिका में मार्च 2007 में छपी थी।
इसमें कहा गया कि कुट्टनाट में चावल की फसलों को भूरे टिड्डे, चावल कीट और पत्तों पर लगने वाली बीमारी से बचाने के लिए रसायनों का जरूरत से कई गुना ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है। यहां कुल 19 तरह के रसायन इस्तेमाल किए जा रहे हैं। इस इलाके में हर साल 15 हजार टन रासायनिक उर्वरकों, 500 टन कीटनाशकों और 50 टन फफूंदनाशकों का इसेतेमाल किया जाता है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि इन रसायनों का छिड़काव सुरक्षित मशीनों से नहीं किया जाता। छिड़काव करने वाले अपने को रसायन से बचाने के लिए ज्यादा-से-ज्यादा कोई कपड़ा नाक-मुंह पर बाध लेते हैं या अपने शर्ट की आस्तीन से ही काम चलाते हैं। जबकि ये रसायन बेहद खतरनाक और जानलेवा तक हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक केरल के कुट्टनाड इलाके में ओंठ, पेट, त्वचा और सिर के कैंसर, लिंफोमा, ल्यूकेमया और मायलोमा जैसे कैंसर के अनेक मामले सामने आए। एक अन्य सर्वेक्षण में पाया गया कि यहां मछलियों की संख्या में भी कमी आई है। स्थानीय मीडिया में खबरें भी आईं कि बड़ी संख्या में मछलियां अल्सर के कारण मर रही है। इन सभी घटनाओं को इस रिपोर्ट में रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल से जोड़ा गया।
इससे पहले भी 1980 और 90 के दशकों में केरल का कासरगोड़ जिला काजू की फसल पर कीटनाशकों के बेहिसाब इस्तेमाल के लिए खूब चर्चा में रहा है। एंडोसल्फान नाम के इस कीटनाशक के असुरक्षित छिड़काव की वजह से यहां अनेक मौंतें हुईं।
हाल में मीडिया में आई इन खबरों के बाद कुट्टनाड विकासन समति ब्लॉक और ग्राम पंचायत के साथ मिलकर ने इस इलाके में घर-घर जाकर स्क्रीनिंग करके कैंसर के लक्षणों वाले लोगों को जांच केंद्रों में भेजने और उनका इलाज करवाने की मुहिम शुरू की है। इस कार्यक्रम के निदेशक का भी मानना है कि इलाके के पानी में रसायन लगातार जमा होते जा रहे हैं जिनका असर लोगों की सेहत पर दिख रहा है। इसे रोकने की जरूरत है।
चावल की फसल में जरूरत से ज्यादा रसायनों के इस्तेमाल और इससे कैंसर की घटनाएं बढ़ने के बारे में हाल ही में राज्य की विधानसभा में भी सवाल उठ चुका है। सरकार ने इस बारे में सभी उपाय करने का वादा भी किया। स्थानीय डॉक्टरों की भी मांग है कि इस मुद्दे की पूरी जांच की जाए ताकि वास्तविक स्थिति सामने आ सके और रोकथाम के उपाय समय रहते किए जा सकें।
हालांकि किन्हीं रसायनों से कैंसर होने में 5-10 साल का समय लगता है लेकिन यह भी समझ में आ रहा है कि कैंसर होने की मौजूदा घटनाएं कुछेक साल पहले के रसायनों के असुरक्षित इस्तेमाल का नतीजा हैं और आगे की पीढ़ी को यह विकट स्थिति न देखनी पड़े इसके लिए जरूरी है कि अभी से सतर्क होकर ऐसे वैकल्पिक उपाय अपनाए जाएं जो हानिकारक न हों।
यहां बड़े पैमाने पर हो रही खेती के लिए जैविक खाद को बहुत व्यावहारिक नहीं बताया जा रहा है। लेकिन एक विकल्प है- एक फसल के बाद खेतों में एक मौसम मछलीपालन किया जाए जो घास-पात और खरपतवार को खाएंगी भी और साथ ही पानी में अपने मल के रूप में जैविक खाद भी उस जमीन में छोड़ेंगी। इससे जमीन फिर उपजाऊ हो जाएगी, खरपतवार खत्म होंगे और किसान को नुकसान भी नहीं उठाना पड़ेगा।
एक सरकारी सर्वेक्षण में देश के खाने की चीजों के 25 नमूनों में निर्धारित अधिकतम मात्रा की सीमा से अधिक खतरनाक रसायन पाए गए। शायद पूरे देश में खेती के लिए रसायनों की जगह वैकल्पक उपायों की जरूरत है ताकि भावी पीढ़ियों के लिए खान-पान और रोजगार के रूप में खेती सुरक्षित बनी रहे।
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