Thursday, August 1, 2013

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (1)

  • -      मैं अकेली नहीं हूं जिंदगी के बियाबान में। लेकिन भीतर का यह अंधेरा जंगल हर किसी का अपना होता है। साझा तभी होता है जब उसके पेड़ साझा होते हैं, फलों की तलाश साझा होती है, पैरों के नीचे के दलदल की दुश्वारियां एक-सी होती हैं।
  • -      कभी जब लगने लगता है कि सब ठीक-ठाक है, खुशियां आस-पास हैं तभी कभी बेससाख्ता, अप्रत्याशित रुलाई फूट पड़ती है। धीमे-धीमे चलती मेरी देह घूम कर फर्श पर ढह जाती है।
  • -      दस्तरख्वान देखकर रोना आ सकता है कभी, कि इसमें मेरे खाने लायक क्यों कुछ नहीं। और जो है, उसमें से मैं क्या खाऊं, समझ में ही नहीं आता। कभी तो समझ नहीं पाती कि इसके अलावा क्या चाहती हूं। और यही बात मन के मुंह को कस कर बांधे रखने वाली डोरी को एक सिरे से खींच देती है। मुंह खुला और बह गया सब आंखों के रास्ते, एक बार में ही।
  • -      जानती हूं और मानती हूं कि अब रोना मेरा हक बनता है। रोकने की कोई सूरत नहीं, जरूरत भी नहीं। दिमाग कहता है रो लो और जितनी जल्दी हो सके फारिग होकर आगे बढ़ लो। पर मन वहीं कहीं अटका रहना चाहता है, जंगल में या जंगल के विचार में।
  • -      आम बातें, अच्छी बातें- हर बात पर नल खुल जाते हैं। न सिर्फ दर्द और संगीत, बल्कि हंसी और मज़ाक तक रुला देता है। नहीं पता होता कब उबल पड़ेंगे, उफन पड़ेंगे ये दो रिज़रवॉयर।
  • -      शरीर पर काबू कहां रहा। वह फुसफुसाता है कुछ बातें और मैं चुपचाप सुनती हूं।
  • -      इन हालात को खत्म करने की कोई दवा हो तो बताओ यारो।

क्रमशः...

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (2)

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