साक़ी फारुकी मॉडर्न उर्दू नज्म शायरों में महत्वपूर्ण दस्तखत हैं। वे लंदन में रहते है। पिछले दिनों उनकी यह नज़्म सुनने को मिली तो मैंने इसे झट कलमबंद कर लिया। यहां आप सब की नज़र है ब्रेस्ट कैंसर पर लिखी उनकी यह नज़्म।
जिन मेहताब(1) प्यालों से
डेढ़ बरस तक
रोज हमारी बेटी ने
सब्ज़ सुनहरे बचपन
घनी जवानी
रौशन मुस्तक़बिल(2)
का नूर पिया है,
चटख़ गए हैं
उन खुर्शीद(3) शिवालों(4) में
जहरीले सरतान(5) कोबरे
कुंटली मारके बैठे हैं
दिल रोता है
मैंने तेरे सीने पर
खाली आंखें मल-मल के
आज गुलाल का
सारा रंग उतार लिया है
-साकी फारुक़ी
नोट: (1)= चांद (2)= भविष्य (3)= सूर्य (4)= मंदिरों (5) = कैंसर
9 comments:
its too good.
मार्मिक और दिल को छूती हुई । ..
आभार इस नज़्म को प्रस्तुत करने का. मार्मिक.
क्या कहूं ? आभार, पढ़वाने का.
निश्शब्द कर दिया ...
यह काफ़ी कुछ हाइकु जैसी लग रही है.
behtareen kavita...beshak urdu me ...se ru ba ru karane ke liye shukriya.aksar badi badi baato ki baat karne me kavita itni mashgool ho jati hai ki chhoti dikhnewali badi bate ham najar andaj kar jate hain...aise prayas ki bahut jaroorat hai
आप कैंसर के खिलाफ जिस शिददत से लगी हैं, यह देखकर प्रसन्नता होती है। मैं आपके इस जज्बे को सलाम करता हूं।
इसे जरूर पढ़ें। http://flaxindia.blogspot.in/2011/12/budwig-cancer-treatment.html
डॉ. ओ पी वर्मा
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