Friday, November 15, 2013

घर - 2

घर - 1 (http://ranuradha.blogspot.in/2013/11/1.html)


जीते रहना और साथ ही जिंदगी से खारिज रहना- विरोधाभासी लगने वाली ये दोनों स्थितियां किसी के साथ एक-साथ भी होती हैं। बाहर तेज बारिश है। पर दोनों कोहनियों के नीचे सबसे नरम, बड़े-बड़े तकिए फंसाए उट्ठंग सिरहाने पर चित्त अधलेटी मुद्रा से उठकर भीगने जाने का परिदृष्य अचानक सपने-सा ही आता है। फूल-पत्तेदार फ्रॉक में चेहरे पर बारिश की मोटी बूंदें झेलते-लोकते अपनी ही मुस्कुराहट दूर से देखना।



बारिश तो महज पानी है, भीग क्यों नहीं सकते? क्योंकि बच्चे, आप एएनएस (एक्यूट न्यूट्रोपीनिक सिंड्रोम) के कब्जे में हैं। बारिश का सबसे साफ पानी भी मुफीद न आया तो? अच्छा है, उबला पानी पिया करो, उसी में नमक-सोडा मिलाकर अक्सर गरारे करो, हर बार साबुन से हाथ धोते रहो, पोटेशियम परमेंगनेट से धो-धोकर चुनिंदा फल खाओ और बाकी पेट दवाओं से और उनके साथ वही उबला पानी पी-पीकर भर लो।  गिनती पूरी रखो गोलियों की— 18, 19, 20। बस। चलो, अभी का काम निबटा। थक गए दिन भर यही कवायद करते। थोड़ा आराम कर लें। पर आंखें बंद होती नहीं कि वही बारिश का सपना। पता नहीं किसी दवा की खुमारी है या अपने अवचेतन का जागना।

पर ऐसे हर कुछ खारिज करते चले तो हो चुका। कभी दास्तानगोई कभी पिंक अक्टूबर उत्सव तो कभी लोदी गार्डन या हैबिटाट सेंटर के खुले सीढ़ीदार आंगन में कहीं किसी के साथ बैठकर बतकहियां।

नहीं, ड्रॉइंगरूम डिस्कशन मुझे पसंद नहीं। ड्रॉइंगरूम में आप आएं, बैठें, ठंडा-गर्म पिएं, कुछ चना-चबेना खाएं। आप मिजाजपुर्सी करें, मैं चुप बैठूं या जिरह-सफाई करती रहूं कि नहीं जी, मेरी जिंदगी ऐसी कठिन भी नहीं हुई है, ऐसे कोई बैटल नहीं चल रहे हैं जो मुझे जीतने हैं या मैं जीतने के इरादे रखती हूं। चल रहा है कहने भर से आपकी उत्कंठा संतोष नहीं पाती।

आप सारी जहमत उठाकर छुट्टी की एक दोपहर-शाम में थोड़ा समय निकाल कर हमारे घर तशरीफ लाएं, वह भी सिर्फ मेरी बीमारी का हाल-समाचार लेने-  यह मुझे मंजूर नहीं है। इस पर आप डॉक्टर तो हैं नहीं। क्या डिसकस करूं?

वैसे कुल मिलाकर बात ज्यादा कॉम्प्लिकेटेड है जी। पिछली बार आपने मेरे जो अनुभव सुने-जाने, मेरी किताब में जो पढ़ा, उससे एकदम अलग। जमीन-आसमान वाला अलग। मैं कहूंगी आसमान की, आप अपनी पुरानी समझ से समझेंगे जमीन की। कई बार हो चुका है, इसलिए इतनी निश्चिंतता से कह पा रही हूं। नहीं जी, बड़ा मुश्किल है समझना और मेरे फेफड़ों की ताकत नहीं है, न ही अब मन का सब्र- सब कुछ उछाह से नए सिरे से समझा देने का।

आप अपनी मानसिक कीमियागिरी के डोज़ भी ठेलते जाएंगे- क्या कर रही हो आजकल। अगली किताब कब आ रही है। कहानियां लिखो न, बढ़िया रहेगा, (जी, मेरे दद्दू ने तक नहीं लिखीं कहानियां, अपनी क्या बिसात।) या फिर उपन्यास (मरवाया)।

सो मैं अपना मर्ज आपसे डिस्कस न करूं, अपनी तकलीफें सिलसिलेवार बयान न करूं, उनके सुझाए और मेरे द्वारा अपनाए जा रहे उपाय न बताऊं तो आपका यहां तक आना निरर्थक हुआ। मगर मैं यह कुछ नहीं कर रही। बाकी सब फोन पर भी कहा-सुना जा सकता है। नहीं? और इस बचे समय में कोई गाना ही क्यों न सुनूं और साथ में जोर-जोर से गाऊं। 

तिस पर मैं आपके साथ आए संभावित कीटाणुओं से बचने के लिए नाक-मुंह पर सर्जिकल मास्क बांधे कठिनाई से शर्ट पहने आपके सामने आऊं तो आप एक करुणा, दया वाला आर्द्र भाव अपनी आंखों में ले आएंगे, इस डर से मैं आपसे आंखें चुराने की कोशिश करूं।

अब अगर मुझे इतने साजो-सामान से लैस होना ही है तो अपने बोरिंग बंधे हुए बंद ड्रॉइंग रूम में क्यों, कुतुब मीनार की मीठी धूप में या हुमायूं के मकबरे के ठंडे पत्थर या हैबिटाट सेंटर के खुले आंगन की किन्हीं सीढ़ियों-चबूतरों पर बैठने के लिए क्यों नहीं! अब मंजूर है तो चले आओ, वरना मेरे पास बहुत समय है योजनाएं बनाने को- अंडमान से लेकर कावारत्ती, लद्दाख और भूटान तक की यात्राओं की योजनाएं और सपने।

कोई भी जगह अनुपयुक्त नहीं है जाने को। पूरा खाना न सही, दो बार टोमेटो फ्राई और चावल या रोटी तो मिल ही जाएगा। बाकी ब्रेड बिस्कुट, गर्म दूध, फल और थोड़ा लोकल चना-चबेना। बस, कुछ दिन तो गुजर ही जाएंगे। करना क्या है- समंदर को या पहाड़ की चोटियों को धूप और बादलों के बीच निहारना है, बस। मेरे और उन दृष्यों के बीच चलते-भागते लोगों को देखना और पुरानी यात्राओं के दिन याद करके मुस्कुराना है। 



मुझमें वह धैर्य भी है जो समंदर की लहरों को गिनने में लगता है या बादलों के बदलते आकारों में लगातार कोई आकृति खोजते रहने में लगता है। (कभी था जरूर, पर खारिज जिंदगी में कभी इसकी परीक्षा नहीं ली। पर भरोसा है कि मैं बदली नहीं हूं।)

हां, कभी यहां भी खारिज होना पड़ सकता है। खारी हवा, तेज धूप या बारिश मुझे तत्काल खारिज कर देंगे, ऐसा अंदेशा है। फिर भी हवा और धूप-बारिश को रोकने का इंतजाम कोई मुश्किल नहीं। एक स्कार्फ, गमछा या छाता ही तो लगता है।

पर आखिरकार ये सारी उत्साहजनक योजनाएं यहां आकर अटकने लगती हैं कि अस्पताली रोस्टर में अपनी साप्ताहिक हाजिरी का क्या करें, जो जरूरी है। कई बार सप्ताह बीतने के पहले ही किसी जांच की डेट, किसी नए अपॉइंटमेंट, किसी डाउट-सवाल, उलझन को सुलझाने-सुलटाने के लिए भी एकाध अतिरक्त परकम्मा अपनी मस्जिद की। और अपने शरीर को किसी नर्स के हाथों कुछ घंटों के लिए सौंपने लायक होने के सबूत के तौर पर एक दिन पहले रक्त की जांच और रिपोर्ट लेने की कवायद भी आखिर उस अतिरिक्त दिन के समय और ध्यान की मांग तो करती ही है।


घर के इस नए फलसफे में मैं खुद हूं, पर घर अपने घर रूप से एकदम नदारद है। सारा जहां ही घर है, जहां खुलापन हो, हवा-बाताश साफ हो और नजारे आंखों की क्षमता से ज्यादा बड़े हों।

Sunday, November 10, 2013

घर- 1


किसी के घर पहली बार जाओ तो खान-पान की औपचारिकताओं के बाद अक्सर सबसे आम बात होती है कि आओ, अपना घर दिखाऊं। किसी ने अपने घर में कोई खास कारीगरी की या करवाई है तो अलग बात है, वरना कमरे कितने बड़े हैं, वुडवर्क कितना खर्च करके करवाया, झूमर, बच्चों के कमरे का खास डिजाइन, बिस्तर-तकिए, रसोई और बाथरूम में नए-नए उपकरण- यह सब तो अपनी-अपनी जरूरत, सुविधा, सामर्थ्य और शौक की बात है। इसमें कुछ भी प्रदर्शनीय मुझे नहीं लगता।

बचपन में मेरी एक सहेली की मां सुबह के समय किसी मेहमान को घर के अंदर आने नहीं देती थी कि सफाई नहीं हुई है, अभी नहीं आना।

मैं अपने घर के बारे में सोचकर कभी भावुक या रोमांचित नहीं हुई, सपनीले संसार की यात्रा पर नहीं निकल गई। घर मेरे लिए उपयोग की वस्तु, जरूरत की जगह है। एक आश्रय है, छत है, जिसके नीचे मैं सुरक्षित हूं, जरूरत की चीजें रखी हुई हैं, जिन्हें यथासमय उपयोग किया जा सकता है। थक जाऊं तो आराम कर सकती हूं, किसी से मिल सकती हूं, न मिलना हो तो एकांत पा सकती हूं। हर मौसम में शरीर को सुरक्षित, आरामदेह स्थिति दे सकती हूं।

घर को लेकर कभी मेरे मन में कभी स्वामीत्व या अधिकार का भाव भी नहीं आया कि यह मेरा घर है। बल्कि हमेशा कर्तव्यबोध रहा कि उसे दूसरे साझीदारों और मेहमानों के लिए सुविधाजनक रख पाऊं, जैसा कि मैं खुद चाहती और अक्सर पाती हूं।

घर के साथ सेंस ऑफ बिलॉन्गिंग भी लोग महसूस करते हैं। वह शायद अपने स्वामीत्व वाले घर में रहने से महसूस होता होगा। अब तक ऐसे किसी घर में रहने का मौका नहीं मिला। शायद इसी लिए दो मकानों का मानिकाना होने के बावजूद ऐसा कोई भाव किसी मकान को लेकर नहीं आया- न अपने, न किराए के और न सरकारी मकानों में। 

एक बार किसी ने पूछा था- व्हेयर डूयू बिलॉन्ग टु?”  मुंह से बेसाख्ता निकल गया-आई ऐम ऐन इंडिविजुअल ऐंड आई बिलॉन्ग टु माई फैमिली। इस परिवार में मकान निश्चित रूप से शामिल नहीं है।

घर का सपना कभी देखा तो सिर्फ इतना कि छोटा सा ही सही, लकड़ी की बाड़ से घिरा एक बगीचा, जिसमें कई फलों के पेड़ और कुछेक फूलों के पौधे क्यारियों में लगे हों।

खिड़की के शीशे चमकदार हों, न हों, पर जरूरत की चीजें हाथ बढ़ाने पर मिल जाने वाले सुरक्षा और सहूलियत भरे फंक्शनल स्पेस में, सिमटे/गायब परदों वाले खुले-से निवास पर आपका हमेशा, किसी भी वक्त स्वागत है।

Tuesday, October 15, 2013

भारत में स्तन कैंसर- कुछ आंकड़े


-    महिलाओं में औसतन 23 फीसदी कैंसर स्तन कैंसर होते हैं।

-    कैंसर से होने वाली कुल मौंतों में 50 फीसदी का कारण स्तन कैंसर है।

-    हर साल 1,15,000 नए स्तन कैंसर के मामले सामने आते हैं और 53,000 की मौत हो जाती है। यानी जब दो नए मामले सामने आते हैं तो एक मरीज की मौत हो जाती है।

- इंडियन काउंसिल फॉर मेडीकल रिसर्च (आईसीएमआर) के मुताबिक 2015 तक सालाना नए स्तन कैंसर का आंकड़ा ढाई लाख के आस-पास होगा।

-    करीब 70 फीसदी मामलों में स्तन कैंसर के मरीज के अस्पताल पहुंचने के समय ट्यूमर का आकार पांच से मी से ज्यादा यानी स्टेज 3 का होता है। सिर्फ 5 फीसदी मरीज पहली स्टेज में अस्पताल पहुंचते हैं।

-    स्तन कैंसर के सबसे ज्यादा मामले 45 से 55 की उम्र के बीच होते हैं।

-    करीब चौथाई मामलों में मरीज की उम्र 35 साल से कम होती है। 

(कम उम्र यानी बीमारी का तेज और ज्यादा फैलाव और बचने की कम संभावना।)

-    अस्पतालों, निदान और चिकित्सा सुविधाओं की बेतरह कमी।

- देश में दस लाख लोगों के लिए सिर्फ एक कैंसर विशेषज्ञ है। मास्टेक्टोमी यानी स्तन की सर्जरी के बाद सिर्फ 20 फीसदी मरीजों को ही रेडियोथेरेपी की सुविधा मिल पाती है, जो कि इलाज का एक महत्वूर्ण हिस्सा है।

-    महंगा और लंबा इलाज। स्तन कैंसर का इलाज आठ से दस महीने तक चलता है, जिसमें जरा भी देरी खतरनाक साबित हो सकती है। इलाज का निजी क्षेत्र में कम से कम खर्च कुछ लाख रुपए तक होता है।

-    सभी जगह इलाज की सुविधा उपलब्ध न होने से लोगों को बड़े शहरों में इलाज के लिए आना पड़ता है, जो कि पूरे परिवार के लिए असुविधाजनक है।

-    बीमारी की जल्द पहचान के लिए देश में व्यवस्थित स्तन कैंसर स्क्रीनिंग कार्यक्रम का अभाव है।


-    महिलाओं की सेहत, खास तौर पर स्तन की सेहत को लेकर बेध्यानी समाज में अब भी बहुत आम है। कैंसर से जुड़े भ्रम और सामाजिक रूप से नकारात्मक भावनाएं लोगों को इलाज के लिए आगे आने से रोकती हैं।

Sunday, October 13, 2013

जस्ट ज़िंदगी- इस गुलाबी महीने में स्तन कैंसर जागरूकता का रंग चढ़े तो बात है

अक्टूबर के इस महीने को पिंक्टोबर यानी गुलाबी अक्टूबर भी कहा जाता है। यह महीना दुनिया भर में ब्रेस्ट कैंसर के प्रति जागरूकता फैलाने के प्रति समर्पित है।

13 अक्टूबर का दिन खास तौर पर ब्रेस्ट कैंसर की चौथी स्टेज से निबटने संबंधी जागरूकता का है।

इस मौके पर संडे नवभारत टाइम्स के जस्ट ज़िंदगी पेज पर आज मेरा लेख-
ब्रेस्ट कैंसर- जल्द पहचान से बचती है जान

ई पेपरhttp://epaper.navbharattimes.com/paper/15-9-13@10@2013-1001.html

Thursday, September 26, 2013

मेरे बालों में उलझी मां


मां बहुत याद आती है

सबसे ज्यादा याद आता है

उनका मेरे बाल संवार देना

रोज-ब-रोज

बिना नागा



बहुत छोटी थी मैं तब

बाल छोटे रखने का शौक ठहरा

पर मां!

खुद चोटी गूंथती, रोज दो बार

घने, लंबे, भारी बाल

कभी उलझते कभी खिंचते

मैं खीझती, झींकती, रोती

पर सुलझने के बाद

चिकने बालों पर कंघी का सरकना

आह! बड़ा आनंद आता

मां की गोदी में बैठे-बैठे

जैसे नैया पार लग गई

फिर उन चिकने तेल सने बालों का चोटियों में गुंथना

लगता पहाड़ की चोटी पर बस पहुंचने को ही हैं

रिबन बंध जाने के बाद

मां का पूरे सिर को चोटियों के आखिरी सिरे तक

सहलाना थपकना

मानो आशीर्वाद है,

बाल अब कभी नहीं उलझेंगे

आशीर्वाद काम करता था-

अगली सुबह तक



किशोर होने पर ज्यादा ताकत आ गई

बालों में, शरीर में और बातों में

मां की गोद छोटी, बाल कटवाने की मेरी जिद बड़ी

और चोटियों की लंबाई मोटाई बड़ी

उलझन बड़ी

कटवाने दो इन्हें या खुद ही बना दो चोटियां

मुझसे न हो सकेगा ये भारी काम

आधी गोदी में आधी जमीन पर बैठी मैं

और बालों की उलझन-सुलझन से निबटती मां

हर दिन

साथ बैठी मौसी से कहती आश्वस्त, मुस्कुराती संतोषी मां

बड़ी हो गई फिर भी...

प्रेम जताने का तरीका है लड़की का, हँ हँ



फिर प्रेम जो सिर चढ़ा

बालों से होता हुआ मां के हाथों को झुरझुरा गया

बालों का सिरा मेरी आंख में चुभा, बह गया

मगर प्रेम वहीं अटका रह गया

बालों में, आंखों के कोरों में

बालों का खिंचना मेरा, रोना-खीझना मां का



शादी के बाद पहले सावन में

केवड़े के पत्तों की वेणी चोटी के बीचो-बीच

मोगरे का मोटा-सा गोल गजरा सिर पर

और उसके बीचो-बीच

नगों-जड़ा बड़ा सा स्वर्णफूल

मां की शादी वाली नौ-गजी

मोरपंखी धर्मावरम धूपछांव साड़ी

लांगदार पहनावे की कौंध

अपनी नजरों से नजर उतारती

मां की आंखों का बादल



फिर मैं और बड़ी हुई और

ऑस्टियोपोरोसिस से मां की हड्डियां बूढ़ी

अबकी जब मैं बैठी मां के पास

जानते हुए कि नहीं बैठ पाऊंगी गोदी में अब कभी

मां ने पसार दिया अपना आंचल

जमीन पर

बोली- बैठ मेरी गोदी में, चोटी बना दूं तेरी

और बलाएं लेते मां के हाथ

सहलाते रहे मेरे सिर और बालों को आखिरी सिरे तक

मैं जानती हूं मां की गोदी कभी

छोटी कमजोर नाकाफी नहीं हो सकती

हमेशा खाली है मेरे बालों की उलझनों के लिए



कुछ बरस और बीते

मेरे लंबे बाल न रहे

और कुछ समय बाद

मां न रही

* नोट- कैंसर के दवाओं से इलाज (कीमोथेरेपी) से बाल झड़ जाते हैं

Wednesday, September 25, 2013

स्तन कैंसर से कोई नहीं मरता- यह सच है

स्तन कैंसर स्तन में शुरू होता है। जब तक यह स्तन तक सीमित है, इससे मरने का अंदेशा नहीं है।

जब तक स्तन कैंसर स्तन तक सीमित है, इसका इलाज भी अच्छी तरह से हो सकता है।

अगर स्तन कैंसर का इलाज समय पर न किया जाए तो यह स्तन से निकल कर हड्डियों, पेफड़ों, दिमाग, जिगर आदि में फैल जाता है।

स्तन कैंसर स्तन से बाहर के किसी अंग/अंगों में फैल जाए तो इसे स्टेज 4 या एडवांस स्टेज का या मेटास्टैटिक स्तन कैंसर कहते हैं।

हमारे देश में लोग यही समझते हैं कि स्तन कैंसर यानी मेटास्टैटिक स्तन कैंसर, क्योंकि मरीज जब पहले-पहल अस्पताल पहुंचते हैं तो उनमें से 80 फीसदी स्टेज 3 या 4 में होते हैं- यानी मामला हाथ से निकला ही समझो।

सिर्फ 20 फीसदी मरीज ही स्टेज 1 या 2 में अस्पताल पहुंच पाते हैं। इनके बचने, लंबा, स्वस्थ जीवन जीने की संभावना काफी बेहतर होती है।

लगभग 100 फीसदी मामलों में महिलाओं को खुद ही सबसे पहले पता चलता है कि उनके स्तन में कुछ बदलाव आए हैं जो सामान्य नहीं हैं। बिना किसी मशीनी जांच- मेमोग्राफी, एस आर आई, सीटी स्कैन के सिर्फ अपनी अंगुलियों से महसूस करके और आइने में देखकर जाना जा सकता है कि स्तन में कहीं कोई बदलाव, गड़बड़ी तो नहीं।

स्तन कैंसर जब स्तन में ही सीमित हो, तभी इसके प्रति सचेत होने की जरूरत है, ताकि बेहतर इलाज और बेहतर जिंदगी की गुंजाइश हो।


स्तन कैंसर जितनी जल्दी पहचाना जाता है, उसका इलाज उतना ही कम लंबा, कम खर्चीला, अपेक्षाकृत सरल और ज्यादा कारगर होता है। 

Wednesday, August 14, 2013

डबल मास्टेक्टोमी बरास्ता एंजलीना जोली फिर एक बार

अपने को प्रकाशित, प्रचारित करना मेरी फितरत में ज़रा कम है। इसलिए कई बार कुछ ऐसी बातों की जानकारी फैलाने में भी बड़ी देर लग जाती है, जो आत्म-प्रचार लगती हैं, पर उनका सरोकार बहुत से लोगों से है।

ऐसे ही, कोई दो महीने पहले हॉलीवुड स्टार एंजलीना जोली के डबल मास्टेक्टोमी (इसी बहाने मास्टेक्टोमी और डबल मास्टेक्टोमी जैसे टंग-ट्विस्टर, अनजाने कठिन तकनीकी अंग्रेज़ी शब्द जवान -बूढ़े सभी की ज़ुबान पर चढ़ गए।) पर हिंदुस्तानी मीडिया में जबर्दस्त चर्चा छिड़ी, जिसका दरअसल आम हिंदुस्तानी के लिए कोई अर्थ नहीं था। यह रसीली चर्चा इस अर्थ में सकारात्मक रही कि इसके बहाने स्तन कैंसर जैसे आम तौर पर वर्जित विषय पर बातें हुईं, लोगों की जानकारी बढ़ी।

उस हफ्ते में मेरी व्यस्तता भी बढ़ गई थी। विशेषज्ञ मरीज़ के तौर पर कई चैनलों और पत्रिकाओं ने मेरे विचारों को जानने में दिलचस्पी दिखाई।

ऐसा ही एक कार्यक्रम यू-ट्यूब पर अब भी मौजूद है। यह राज्यसभा टीवी पर अमृता राय का कार्यक्रम 'सरोकार' है जिसमें मेरे अलावा कैनसपोर्ट की हरमाला गुप्ता भी हैं। उसका लिंक इधर दे रही हूं।

http://www.youtube.com/watch?v=D-zNDX0QMDg

Thursday, August 1, 2013

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (2)




  • -      ईस्ट्रोजन तो खत्म हो गया। पहले रसायनों से दबाया गया, फिर ओवरीज़ निकाल कर, बकिया दवा से और दबा दिया गया। ज़िंदादिली कहां से आए। जिंदा शरीर और जिंदा दिल के बीच चुनना था। चुनाव कठिन नहीं था। धारा के साथ बह रही हूं। देह को बचाने में डॉक्टरों का साथ दे रही हूं। दिल का क्या है! शरीर रहेगा तो दिल भी थोड़ा-बहुत तो जी लेगा। वरना तो फिर कुछ नहीं है।
  • -      गुस्सा आता है कि दूसरे सहजता से पाते हैं, बिना परवाह किए, बिना जाने। ज़ाहिर है, पाने का शुक्राना भी नहीं देते। और देखती हूं, मेरे पास वह कुछ भी नहीं है जो मेरी उम्र में जीवन का प्राप्य होना था। क्यों का कोई जवाब नहीं है। आधारभूत बात यही है कि मेरे पास से वह सब चला गया, असमय, समय से बहुत पहले। और रह गई यह भावना कि क्यों नहीं खो जाने के पहले ही मैं भरपूर जी ली उन समयों को, रीति-नीति को ताक पर रख कर।
  • -      हार्मोन और दवा की लड़ाई में दवा जीतती है तो मैं बचती हूं। पर हार्मोन जीते तो मेरा दिल बचेगा। क्या करूं? दवा की जीत का समर्थन ही मेरे जीने का उद्देश्य रह गया है। दिल गया भाड़ में।
  • -      शायद कुछ चोरी हो गया है। भविष्य का एक हिस्सा, नीले आकाश का एक टुकड़ा जो पूरा मेरा हो सकता था।
  • -      मरने के पहले अपने जीवन का दुख मना ही लेना होगा। उन सबका जो धीरे-धीरे खोया जा रहा है, छूटता जा रहा है। आत्मविश्वास, मुस्कुराहटें, हंसी के हलके पल, बातों को हलके में लेने का जज़्बा...
  • -      कई बार लगने लगता है कि कैंसर से मेरी दोस्ती हो गई है, समझौता–सा हो गया, शांति स्थापित हो गई। और तभी एक जोरदार वार, सीधे पेट पर।
  • -      बीमार, थके हुए। उम्मीदों का खाली झोला लिए अस्पताल चले हैं डॉक्टरों से सौदा करने। झोले में कुछ प्रिस्क्रिप्शन, कुछ दवाएं, कुछ रिपोर्ट, रेडीमेड जूस का खाली डब्बा और किसी कोने में मुड़ा-तुड़ा अनदेखा-सा पड़ा एक खाली पुर्जा आशा का लिए लौट आते हैं।
  • -      अब तय करना होगा। चाहे जितनी भी छोटी या बड़ी हो, अधूरी हो, इसी से काम चलाना है। जिंदगी को काम पर लगाना है। बेरोजगार ज्यादा गुस्सा करता है, ज्यादा दुखी होता है, ज्यादा तकलीफ महसूस करता है। चलो काम पर लगें।
  • -      काम यानी पढ़ना, पियानो बजाना, किसी के लिए लिखना, सिलना-बुनना, फेसबुक पर सलाह-मशविरे लेना-देना, अस्पताल में मरीजों के साथ अनुभव बांटना, चित्र खींचना, कुछ लिखना जिसे पढ़कर लोग जानें कि क्या है यह ज़िंदगी, क्या करता है कोई इसका और यह क्या कर सकती है किसी का।

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (1)

  • -      मैं अकेली नहीं हूं जिंदगी के बियाबान में। लेकिन भीतर का यह अंधेरा जंगल हर किसी का अपना होता है। साझा तभी होता है जब उसके पेड़ साझा होते हैं, फलों की तलाश साझा होती है, पैरों के नीचे के दलदल की दुश्वारियां एक-सी होती हैं।
  • -      कभी जब लगने लगता है कि सब ठीक-ठाक है, खुशियां आस-पास हैं तभी कभी बेससाख्ता, अप्रत्याशित रुलाई फूट पड़ती है। धीमे-धीमे चलती मेरी देह घूम कर फर्श पर ढह जाती है।
  • -      दस्तरख्वान देखकर रोना आ सकता है कभी, कि इसमें मेरे खाने लायक क्यों कुछ नहीं। और जो है, उसमें से मैं क्या खाऊं, समझ में ही नहीं आता। कभी तो समझ नहीं पाती कि इसके अलावा क्या चाहती हूं। और यही बात मन के मुंह को कस कर बांधे रखने वाली डोरी को एक सिरे से खींच देती है। मुंह खुला और बह गया सब आंखों के रास्ते, एक बार में ही।
  • -      जानती हूं और मानती हूं कि अब रोना मेरा हक बनता है। रोकने की कोई सूरत नहीं, जरूरत भी नहीं। दिमाग कहता है रो लो और जितनी जल्दी हो सके फारिग होकर आगे बढ़ लो। पर मन वहीं कहीं अटका रहना चाहता है, जंगल में या जंगल के विचार में।
  • -      आम बातें, अच्छी बातें- हर बात पर नल खुल जाते हैं। न सिर्फ दर्द और संगीत, बल्कि हंसी और मज़ाक तक रुला देता है। नहीं पता होता कब उबल पड़ेंगे, उफन पड़ेंगे ये दो रिज़रवॉयर।
  • -      शरीर पर काबू कहां रहा। वह फुसफुसाता है कुछ बातें और मैं चुपचाप सुनती हूं।
  • -      इन हालात को खत्म करने की कोई दवा हो तो बताओ यारो।

क्रमशः...

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (2)

Friday, June 28, 2013

प्राणदात्री और प्राणलेवा कीमोथेरेपी के दिन लदने वाले हैं?

क्या सचमुच दशकों से कैंसर के मरीजों की प्राणदात्री और प्राणलेवा कीमोथेरेपी के दिन लदने वाले हैं?
कैंसर के इलाज की अब तक आजमाई जा रही विधियों में जोर होता है- चाहे कैसे भी हो, कैंसर को खत्म करो। सर्जरी, कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी ये तीनों ही बेहद क्रूर प्रक्रियाएं हैं जो कैंसर पर जितना असर करती हैं, शरीर के बाकी स्वस्थ हिस्सों पर भी उतना ही।

अगर इलाज को कैंसर के खिलाफ युद्ध कहें तो इलाज का प्रचलित तरीका कार्पेट बॉम्बिंग है। यानी अंधाधुंध बम बरसाते चलो, हर जगह। दुश्मन जहां भी होगा, मारा जाएगा। जब तक कोई और उपाय न हो, यही तरीका चलने दिया जाए।

लेकिन ताजा खबरें बताती हैं कि अब वैज्ञानिक कार्पेट बॉम्बिंग की जगह टार्गेट बॉम्बिंग तरीके से इलाज खोजने के काफी करीब पहुंच गए हैं। यानी दुश्मन की जगह का पता करो और ठीक उसी जगह बम बरसाओ, स्वस्थ जगहों को नुकसान पहुंचाए बिना।
http://news.yahoo.com/no-more-chemo-doctors-not-far-fetched-094524778.html

हालांकि हर तरह का कैंसर अलग होता है, इसलिए टार्गेटेड थेरेपी करनी हो तो यह हर ट्यूमर की अलग होगी। यानी हर कैंसर के लिए आम तौर पर अलग रिसर्च और टार्गेटेड दवाएं। फिर भी कई प्रकार के कैंसरों, खास तौर पर रक्त कैंसरों के लिए कुछेक टार्गेटेड इलाज सफलता के करीब हैं और वैज्ञानिकों ने इनके सफल परीक्षण भी कर लिए हैं। इससे मरीजों में भी बहुत उम्मीदें बंधी हैं।

अगर ऐसा हो गया, सभी या ज्यादातर कैंसरों के लिए सफल टार्गेटेड थेरेपी खोजी जा सके तो यह मानवता के लिए एक कीमती तोहफा होगा।

मेरा नकारात्मक विचारः पिछले 15 वर्षों से कई  तरह के ब्रेक-थ्रू (http://ranuradha.blogspot.in/2012/01/1.html

http://ranuradha.blogspot.in/2012/01/2.html)

की खबरें पढ़ रही हूं लेकिन अपना इलाज उन्हीं पुरानी पद्यतियों से होता देख रही हूं।। अब, जबकि परंपरागत इलाज की गुंजाइश बाकी नहीं रही तो नई आई दवाओं का ट्रायल एंड एरर मुझ पर भी आजमाया जा रहा है। जमीनी स्तर पर जब उन चमत्कारी, सनसनीखेज़ खबरे और उम्मीदें जगाने वाली दवाओं को अपने ऊपर आजमाने का मौका आया है तो पता चल रहा है कि वास्तव में वे दवाएं चौथे स्टेज के मरीज को तीन से पांच महीने ज्यादा तक लक्षण-मुक्त रख सकती हैं। आखिरी स्टेज के मरीज का कुल जीवन-समय बढ़ाने का कोई दावा इनका नहीं है। ध्यान रहे ये दवाएं आम आदमी की पहुंच के बाहर हैं। हर महीने की इनकी खुराक 50 हज़ार से लेकर दो-ढाई लाख तक कुछ भी हो सकती है। और आम तौर पर यह लंबे समय तक चलने वाला इलाज होता है।)

Monday, June 24, 2013

स्तन कैंसर पर मेरी कुछ कविताएं

बड़े दिनों के बाद ख्याल आया। एक ब्लॉग है, जानकीपुल, जो साहित्य चर्चाओं पर केंद्रित है। उस पर मेरी कुछ कविताएं इस साल फरवरी में प्रकाशित हुईं।

मित्र प्रियदर्शन के बार-बार कहने पर आखिर एक तरह से संकोच और निर्लिप्त भाव से अपनी तब तक टाइप कर पाई कुछ कविताएं उन्हें भेजीं। उनमें से कुछ चुनकर ब्लॉग पर लगाई गईं। प्रियदर्शन ने एक परिचय भी लिखा जो मुझे लगा, एकदम सटीक था।

कविताएं भेजते समय, यहां तक कि उनके प्रकाशित होने तक भी मैं कतई उत्साहित नहीं थी। लेकिन उस पर जैसी और जितनी प्रतिक्रियाएं आईं, जितने (शायद तब तक का रिकॉर्ड) लोगों ने उसे 'लाइक' किया, मुझे लगा कि लोग यह सब पढ़ना चाहते हैं। मेरा उत्साह बढ़ा, लेकिन उसके बाद मित्र प्रियदर्शन के कई तरह के सुझावों के बाद भी अपनी कविताओं का कुछ नहीं किया।

फिलहाल, जानकीपुल के उस लिंक के साथ ही एर कविता यहां लगा रही हूं।
http://www.jankipul.com/2013/02/blog-post_2.html

अधूरा
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सुनती हूं बहुत कुछ
जो लोग कहते हैं
असंबोधित
कि
अधूरी हूं मैं- एक बार
अधूरी हूं मैं- दूसरी बार
क्या दो अधूरे मिलकर
एक पूरा नहीं होते?
होते ही हैं
चाहे रोटी हो या
मेरा समतल सीना
और अधूरा आखिर
होता क्या है!
जैसे अधूरा चांद? आसमान? पेड़? धरती?
कैसे हो सकता है
कोई इंसान अधूरा!

जैसे कि
केकड़ों की थैलियों से भरा
मेरा बायां स्तन
और कोई सात बरस बाद
दाहिना भी
अगर हट जाए,
कट जाए
मेरे शरीर का कोई हिस्सा
किसी दुर्घटना में
व्याधि में/ उससे निजात पाने में
एक हिस्सा गया तो जाए
बाकी तो बचा रहा!
बाकी शरीर/मन चलता तो है
अपनी पुरानी रफ्तार!
अधूरी हैं वो कोठरियां
शरीर/स्तन के भीतर
जहां पल रहे हों वो केकड़े
अपनी ही थाली में छेद करते हुए।

कोई इंसान हो सकता है भला अधूरा?
जब तक कोई जिंदा है, पूरा है
जान कभी आधी हो सकती है भला!
अधूरा कौन है-
वह, जिसके कंधे ऊंचे हैं
या जिसकी लंबाई नीची
जिसे भरी दोपहरी में अपना ऊनी टोप चाहिए
या जिसे सोने के लिए अपना तकिया
वह, जिसका पेट आगे
या वह,जिसकी पीठ
जो सूरज को बर्दाश्त नहीं कर सकता
या जिसे अंधेरे में परेशानी है
जिसे सुनने की परेशानी है
या जिसे देखने-बोलने की
जो हाजमे से परेशान है या जो भूख से?
आखिर कौन?
मेरी परिभाषा में-
जो टूटने-कटने पर बनाया नहीं जा सकता
जिसे जिलाया नहीं जा सकता
वह अधूरा नहीं हो सकता
अधूरा वह
जो बन रहा है
बन कर पूरा नहीं हुआ जो
जिसे पूरा होना है
देर-सबेर।
कुछ और नहीं।
न इंसान
न कुत्ता
न गाय-बैल
न चींटी
न अमलतास
न धरती
न आसमान
न चांद
न विचार
न कल्पना
न सपने
न कोशिश
न जिजीविषा
कुछ भी नहीं।
पूंछ कटा कुत्ता
बिना सींग के गाय-बैल
पांच टांगों वाली चींटी
छंटा हुआ अमलतास
बंजर धरती
क्षितिज पर रुका आसमान
ग्रहण में ढंका चांद
कोई अधूरा नहीं अगर
तो फिर कैसे
किसी स्त्री के स्तन का न होना
अधूरापन है
सूनापन है?

स्तन कैंसर के 12 आधारभूत लक्षण

स्तन कैंसर के लक्षणों पर नज़र रखना ही बुद्धिमानी है। फिर से तीन बाते दोहरा दूं कि-

1. स्तन कैंसर का पता सबसे पहले खुद को ही लगता है।

2. कैंसर का पता जितनी जल्दी चले, इलाज जितनी जल्दी हो पाए उतना ही ज्यादा सफल, सस्ता और आसान होता है। कैंसर की आशंका के बाद भी चुप बैठने का सीधा मतलब जान को जोखिम में डालना है।

3. हर महीने सिर्फ 10 मिनट का समय अपनी अंगुलियों से स्तनों की जांच के लिए तय करके अपने-आप को इस जोखिम में डालने से बचा जा सकता है।

शब्दों के मुकाबले चित्र ज्यादा बातें समझा सकते हैं। स्तन कैंसर के 12 आधारभूत लक्षणण ः


Saturday, April 13, 2013

लोगों की जिंदगी अहम है या झूठमूठ का पेटेंट?

(साप्ताहिक समाचार पत्रिका 'शुक्रवार' के 16 अप्रैल 2013 के अंक में प्रकाशित) 

आप इसे पांच रुपए में क्यों नहीं बेचते, एक लाख बीस हज़ार रुपए तो बहुत ज्यादा हैं।- यह सवाल भारत की आम जनता की ओर से उच्चतम न्यायालय ने स्विटजरलैंड की दवा कंपनी नोवार्टिस के ग्लीवैक नाम की दवा को भारत में दोबारा पेटेंट दिए जाने के दावे पर सुनवाई के दौरान किया था।

इस दो अप्रैल 2013 को इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने नोवार्टिस के खिलाफ अपना फैसला सुनाया। नोवार्टिस का दावा था कि कैंसर के खिलाफ काम आने वाली उसकी नई दवा ग्लीवैक (इमैटिनिब मेसिलेट) को भारत में दोबारा पेटेंट मिलना चाहिए जबकि कंपनी के दावे को भारत का पेटेंट अपीली बोर्ड पहले ही खारिज कर चुका था। न्यायालय का कहना था कि यह पुरानी दवा का ही थोड़ा सुधरा हुआ रूप है, और इस आधार पर इसे नई दवा के रूप में दर्ज नहीं किया जा सकता।
उच्चतम न्यायालय का यह फैसला न सिर्फ अकल्पनीय रूप से महंगी विदेशी जीवनरक्षक दवाओं के भारतीय कंपनियों द्वारा सस्ते विकल्प यानी जेनेरिक दवाएं बनाने को बढ़ावा देने, बल्कि कैंसर एचआईवी/एड्स, हिपेटाइटिस-सी जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज तक गरीबों की पहुंच को बढ़ाने में मील का पत्थर साबित होगा। इस क्रम में अपनी विभिन्न दवाओं के भारत में पेटेंट के लिए लड़ रही अनेक विदेशी कंपनियों का उत्साह जरूर कम हुआ होगा।

ग्लीवैक का मामला-

स्विटजरलैंड की दवा कंपनी नोवार्टिस ने 90 के दशक के अंत में इलाज के सहारे लंबे समय तक चलने वाले रक्त कैंसर क्रॉनिक मायसॉयड ल्यूकेमिया के इलाज के लिए ग्लीवैक (इमैटिनिब) दवा विकसित की। 2001 में इसे अमरीकी खाद्य और दवा कार्यालय से मंजूरी मिली और वहां का पेटेंट भी। इसी साल कंपनी ने भारत सहित कई अन्य देशों में भी इस दवा का पेटेंट और बेचने का अधिकार हासिल किया। इसे चमत्कारी कैंसर-रोधी दवा बताया गया जो मारक रक्त कैंसर को लंबे समय तक चलने वाले कैंसर में बदल सकती है। लगातार ली जाने वाली यह दवा कैंसर मरीजों की उम्र 3 से 10 साल तक बढ़ा सकती है। इसकी एक महीने की खुराक का खर्च एक लाख 20 हजार रुपए है, जो ज्यादातर भारतीयों की पहुंच के बाहर है। 

इस बीच सिपला और नैटको जैसी भारतीय कंपनियों ने इसी दवा के सस्ते भारतीय जेनेरिक संस्करण बनाए जिनके दाम ग्लीवैक के दसवें हिस्से से भी कम हैं। वीनेट नाम से इसी दवा की महीने की खुराक की कीमत 10 हज़ार रुपए है तो सिपला ने इसे आठ हज़ार रुपए में बाजार में उतारा। एक अन्य कंपनी इसे मात्र 5720 रुपए में बेचती है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का बड़ा फायदा मरीजों के साथ-साथ भारतीय दवा निर्माता कंपनियों को भी हुआ है।

भारत में दवाओं पर अनुसंधान और विकास की स्थिति बेहद खराब है। बाहर की कंपनियां इस स्थिति का फायदा उठा कर अपनी दवाएं इस बड़े और विविधता भरे बाजार में लगातार उतारती रहती हैं। कोई दवा बनाने से लेकर उसे बाजार में उतारने के बीच अनुसंधान, विकास, परीक्षण, स्वीकृति जैसी अनेक प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है जिनमें काफी समय और बेहिसाब धन खर्च होता है। जबकि उन दवाओं को मिले पेटेंट की अवधि सीमित होती है। ऐसे में कंपनी पुराना सिक्का ही फिर-फिर चलाने की कोशिश करती है। हर बार कोई नई दवा विकसित करने के बजाए पेटेंट की हुई दवा में ही कुछ सुधार-संशोधन और उसके लिए नया पेटेंट पाने की कोशिश करती है ताकि बिना ज्यादा समय और धन खर्च किए उसका कारोबार चलता रहे, बढ़ता रहे। 

एवरग्रीनिंग की इस प्रक्रिया में कंपनियां दवा बाजार में अपनी विशिष्ट पेटेंट दवाओं का एकाधिकार बनाए रख कर खूब मुनाफा कमाती हैं। देखा गया है कि कंपनियां अपना पुराना पेटेंट खत्म होने के ठीक पहले नए पेटेंट के दावे दाखिल करने में सक्रिय हो जाती हैं। आंकड़े बताते हैं कि नई दवाओं के पेटेंट पाने वाले 12-13 फीसदी मामले महत्वपूर्ण खोजों के, 40 फीसदी से कम मामले सामान्य इलाज के और 50 फीसदी मामले पहले से उपलब्ध दवाओं के संशोधित संस्करण होते हैं।

ग्लीवैक के मामले में भी कंपनी ने अपनी दवा के पुराने संस्करण में कुछ सुधार किए और बताया कि यह मरीज के शरीर में 30 फीसदी ज्यादा जज़्ब होती है, इससे उसका असर बढ़ जाता है। इस लिहाज से दवा के संशोधित संस्करण को नया पेटेंट मिलना चाहिए। 2006 में दाखिल मामले को पेटेंट अपील बोर्ड ने 2009 में खारिज कर दिया। हालांकि फैसले के कुछ बिंदु कंपनी के हक में थे। इसी आत्मविश्वास पर कंपनी ने सीधे उच्चतम न्यायालय में मामला दाखिल कर दिया।

न्यायालय ने भारतीय पेटेंट संशोधन अधिनियम-2005 की धारा 3 (डी) का हवाला देते हुए दो मुद्दों पर कंपनी के खिलाफ फैसला दिया- (1) यह वास्तव में नई दवा नहीं है (2) पुरानी दवा में किया गया सुधार इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि दवा के असर में गुणात्मक सुधार हो। इस आधार पर यह दवा पेटेंट की हकदार नहीं है।

धारा 3 (डी) के मुताबिक उत्पाद पेटेंट के उपयुक्त नहीं है यदि-
किसी ज्ञात पदार्थ के नए रूप की खोज मात्र, जो उस पदार्थ की ज्ञात क्षमता में वृद्धि में परिणत नहीं होती या ज्ञात पदार्थ के किसी नए गुण या नए उपयोग या ज्ञात पदार्थ, प्रक्रिया, मशीन या उपकरण का मात्र उपयोग, जबकि यह ज्ञात प्रक्रिया नए उत्पाद में परिणत नहीं होती या उसमें कम से कम एक नया क्रियात्मक पदार्थ शामिल नहीं होता।

इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने कानून की मूल भावना को कायम रखा और माना कि लोगों का जीवन और स्वास्थ्य का अधिकार किसी पेटेंट के दावे से ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह देश में सस्ती दवाओं के हक में बड़ी जीत है। इस फैसले पर नोवार्टिस का कहना है कि देश में नए अनुसंधान-प्रयासों और नई दवाओं के विकास पर बुरा असर पड़ेगा क्योंकि बिक्री से हुए मुनाफे को कंपनी आगे के अनुसंधान कार्य पर खर्च करती है। सोच कर देखा जाए तो अगर यही नए अनुसंधान हैं जिसके लिए कंपनी फंड जुटाना चाहती है, तो क्या भारत जैसे गरीब देश में नई दवा के लिए यह कीमत उचित है? उल्टे, इस फैसले से, यह संभावना बनती है कि अब विदेशी कंपनियां पेटेंट के मामले में संभल कर चलें और वास्तविक अनुसंधान और नई दवाओं की खोज पर जोर दें।

भारत में पेटेंट व्यवस्था-

भारत 2005 से पहले दवाओं का पेटेंट नहीं करता था। 1970 में देश का पहला पेटेंट अधिनियम बना था। इसके तहत खाद्य पदार्थों और रसायनों का पेटेंट नहीं किया जाता था। सिर्फ उनके निर्माण की प्रक्रिया का पेटेंट (प्रोसेस पेटेंट) होता था। पेटेंट की अवधि 5 साल या आवेदन की अवधि से 7 साल- इनमें से जो भी कम हो, होती थी। इस कानून की सरलता का लाभ उठाकर कई दवा कंपनियों ने विदेशी दवाओं के जेनेरिक उत्पाद बनाने शुरू कर दिए। किसी दवा को बनाने की प्रक्रिया में मामूली सा बदलाव लाना आसान है, खास तौर पर जब पता हो कि लक्षित रसायन कौन-सा है। भारतीय दवा कंपनियों की तो चांदी हो गई। 

उन्हें उत्पाद पेटेंट के इस्तेमाल का शुल्क भी नहीं देना पड़ता था, जो कि काफी अधिक होता। दूसरा रास्ता यह था कि कंपनी थोड़ा इंतजार करे और पेटेंट की अवधि खत्म होते ही प्रक्रिया और उत्पाद दोनों का साधिकार उपयोग करे। इससे मरीजों को सस्ती जेनेरिक दवाएं उपलब्ध हो गईं। इनकी कीमतें विदेशी मूल दवाओं से आधी से लेकर दसवें हिस्से तक कम थी।

विश्व व्यापार संगठन के दोहा चक्र में व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार समझौते (ट्रिप्स) पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत के लिए जरूरी हो गया कि वह अपने दशकों पुराने पेटेंट कानून की धूल झाड़ कर उसे आधुनिक रूप दे। इसी से जन्म हुआ बौद्धिक संपदा अधिनियम-2005 का। इस कानून के तहत नए रसायनों के अलावा सम्मिश्रण दवाओं, दवाएं देने के तरीकों, दवा निर्माण प्रक्रिया आदि का भी पेटेंट किया जाने लगा। यह पेटेंट दवा के आने के 20 साल या उससे ज्यादा समय तक लागू होता है।

ट्रिप्स समझौते में विकासशील देशों के लिए अनिवार्य लाइसेंस का विशेष प्रावधान रखा गया है जिसके तहत जन-स्वास्थ्य की आपात स्थितियों में सरकारें राष्ट्र हित में और गैर-व्यावसायिक कारणों से पेटेंट-प्राप्त दवाओं के सस्ते स्वदेशी संस्करण बनाने की इजाजत दे सकती है। दिलचस्प बात यह है कि भारत से कहीं पहले अमरीका, कनाडा, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड जैसे देशों ने इस प्रावधान को आजमाया। जन-स्वास्थ्य संस्थानों, इस क्षेत्र में काम कर रहे गैर-सरकारी संगठनों और दवा उद्योग की मांगों के दबाव में सरकार ने लंबे इंतजार के बाद इस प्रावधान का उपयोग करना शुरू किया और कई मामलों में सक्रिय रूप से इस प्रावधान के पक्ष में विदेशी कंपनियों के बजाए देसी जेनेरिक दवा उत्पादन को प्राथमिकता देने की शुरुआत की। 

ऐसा पहला फैसला जर्मनी की दवा कंपनी बायर की जिगर गुर्दे और फेफड़ों के कैंसर की दवा नेक्सावार (रासायनिक नाम- सोराफेनिब) और उसकी भारतीय जेनेरिक नकल के मामले में दिया। अनिवार्य लाइसेंस के प्रावधान के तहत सरकार पेटेंट के 3 वर्ष बाद जन-हित में पेटेंट धारक की अनुमति के बिना भी किसी अन्य कंपनी को सस्ती जेनेरिक दवा के उत्पादन की मंजूरी दे सकती है। नेक्सावार की भारत में एक महीने की खुराक की गगनचुंबी कीमत 2 लाख 80 हजार रुपए के मुकाबले नैटको कंपनी ने इसे 8800 रुपए में बाजार में उतार दिया। इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पेटेंट दफ्तर के फैसले को कायम रखा कि नैटको जेनेरिक दवा के उत्पादन और विपणन अधिकार के बदले बायर को सात फीसदी की रॉयल्टी देगी।

इस फैसले के बाद कई विदेशी कंपनियों ने अपनी कई दवाओं के दाम खुद ही कम कर दिए। उधर नैटको के मुकाबले में कई भारतीय दवा कंपनियां आईं और प्रतियोगिता के माहौल में सोराफेनिब दवा की कीमत 6600 रुपए तक गिर गई। ऐसे कई मामले सरकार और न्यायालयों में लंबित हैं और उम्मीद है नोवार्टिस पर ताजा फैसले से इन मामलों को भी दिशा मिलेगी।

जीत जनता की या भारतीय दवा उद्योग की-

पेटेंट अधिकार के संरक्षण के मामले में भारत का रिकार्ड अच्छा नहीं रहा। इस स्थिति का पूरा फायदा देसी दवा कंपनियों को मिला। लचीले पेटेंट कानूनों के कारण आजादी के बाद से ही कई दवा कंपनियां फलीं-फूलीं और दूसरे विकासशील देशों में भी भारतीय कंपनियों की जेनेरिक दवाएं पहुंचने लगीं। पिछले दशकों में जब अफ्रीका में एचआईवी/एड्स की दवाओं की बहुत कमी थी और ब्रांडेड दवाओं का खर्च उठाना उस गरीब देश के लाखों लोगों के बूते के बाहर था, तब भारत से इसकी जेनेरिक दवाएं निर्यात हुईं। कोई 10 हजार डॉलर सालाना की कीमत वाली मूल दवाओं के बदले भारतीय जेनेरिक विकल्प 150 डॉलर में मिल जाते थे। 

आज भारत का जेनेरिक दवा का कारोबार बहुत बड़ा है। आंकड़ों के अनुसार 80 फीसदी विकासशील विश्व में भारत में बनी जेनेरिक दवाएं पहुंच रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि अमरीका, अफ्रीका, जापान और योरोप तक भारतीय दवाओं का आयात कर रहे हैं। कैंसर, एचआईवी/एड्स, हेपेटाइटिस-सी, टीबी से लेकर, साधारण बीमारियों तक की सस्ती भारतीय दवाएं विश्व भर में मरीजों के काम आ रही हैं। यूनिसेफ भी विकासशील देशों में मुफ्त बांटने के लिए सबसे ज्यादा दवाएं भारत से ही मंगवाता है।

भारत हर साल 11 अरब डॉलर मूल्य की जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है। मात्रा के हिसाब से विश्व का तीसरा और मूल्य के हिसाब से 14वां सबसे बड़ा दवा उद्योग भारत का है जो जेनेरिक दवाओं के बल-बूते पर ही है। देश के भीतर भी बिकने वाली 90 फीसदी दवाएं जेनेरिक हैं। साफ है कि पेटेंट अधिकारों के प्रति स्वाभाविक अनदेखी ने भारत के जेनेरिक दवा कंपनियों को देश में ही नहीं, दुनिया भर में फैलने और उद्योगपतियों को अरबपति बनने में मदद की है। इस फैसले के बाद और पेटेंट संबंधी कई और मामलों में सरकार के रुख को देखते हुए उनकी आभा में निश्चित रूप से और चमक आएगी।

कैंसर के मामलों में चीन और अमरीका के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है। सालाना, दुनिया के कुल 7.5 फीसदी मामले भारत में रिपोर्ट किए जा रहे हैं। कोई 10 लाख नए मरीज हर साल जुड़ रहे हैं जिनकी मृत्यु दर सालाना आठ फीसदी है। कैंसर की दवाओं का बाजार दवा उद्योग का सबसे ज्यादा तेजी से उभरते क्षेत्रों में से है। मरीजों की बढ़ती संख्या, नई दवाएं और बेहतर इलाज के तरीके ये सभी इस क्षेत्र में तेज विकास की संभावना की ओर इशारा करते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष की 10 कैंसर-रोधी दवाओं का बाजार में हिस्सा 70 फीसदी तक है और 2009 में इस वर्ग की दवाओं की बिक्री 2,60,000 करोड़ रुपए से ज्यादा की थी। अनुमान है कि साल 2013 के लिए यह आंकड़ा 3,90,000 करोड़ रुपए के करीब होगा। 
 
कैंसर का इलाज अक्सर लंबा चलता है। नई तकनीकों, दवाओं के कारण अब कैंसर के साथ लंबा जीवन जीने की संभावना बढ़ गई है। इसके मुकाबले आम जन से जुड़े कुछ तथ्यों पर अगर नजर डालें तो देश के 40 फीसदी लोगों की दैनिक आमदनी 60 रुपए से कम है। सेहत पर प्रति व्यक्ति सालाना खर्च 500 रुपए से कम है। इसके अलावा 60 फीसदी स्वास्थ्य-रक्षा का काम निजी सेक्टर के हाथ में है और 70 फीसदी लोग किसी सरकारी या निजी स्वास्थ्य योजना से बाहर हैं, यानि वे अपना मेडीकल का खर्च खुद ही वहन करते हैं। ऐसे में देश का आम आदमी कैंसर के इलाज पर कितना और कब तक खर्च कर पाएगा, इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं है। कोई जीवन-रक्षा के लिए धन का इंतजाम कर पाता है तो उसमें जमा-पूंजी के अलावा चल-अचल संपत्ति, उधार, दान, रोजगार सभी कुछ शामिल हो जाता है। इसके सीधे असर की जद में पूरा परिवार आता है जो महंगी दवाओं के कुचक्र का शिकार होता है। मध्य वर्ग के लोगों को गरीबी रेखा ने नीचे धकेलने वाला यह सबसे महत्वपूर्ण कारक है। 

प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टर और निजी अस्पताल ही नहीं, सरकारी तंत्र में भी जेनेरिक की बजाए दवाओं के ब्रांड नाम लिखने का चलन है, जो सीधे-सीधे दवा कंपनियों को मुनाफा दिलाता है, जबकि गरीब मरीज चुनने का विकल्प होते हुए भी विकल्पहीन होता है। कैंसर के मरीज को दोहरी चोट लगती है जब उसे सस्ते विकल्प बताए बिना, उसकी आर्थिक स्थिति को देखे बिना डॉक्टर दवाएं लिख देते हैं। और अक्सर यह अनजाने में नहीं होता। डॉक्टर जानते-बूझते हुए किसी कंपनी या ब्रांड की दवाएं लिखते हैं जिसके बदले कई तरह के प्रलोभन और प्रोत्साहन पाते हैं। मेडिकल क्षेत्र में यह नैतिकता संबंधी सबसे बड़ी बहस और मेडिकल काउंसिल भी इस चलन को रोकने की कोशिश कर रहा है।

इसके तोड़ के रूप में केंद्र सरकार ने एक नीति बनाई है जिसके तहत सरकारी अस्पतालों के डॉक्टरों के लिए अनिवार्य होगा कि वे मरीजों के लिए जेनेरिक दवाएं ही लिखें। ऐसा न करने पर सज़ा का भी प्रावधान होगा। इसी योजना में ब्रांडेड दवाएं लिखने की भी सीमा निर्धारित की गई है। ज्यादातर मरीजों को जेनेरिक दवाएं मुफ्त दी जाएंगी। अगले कुछ वर्षों में देश की 50 फीसदी आबादी को इस स्वास्थ्य योजना में शामिल करने की परिकल्पना है।

जेनेरिक दवाओं और सरकारी योजनाओं के आने के बाद भी कैंसर, एड्स/एचआईवी, हिपेटाइटिस-सी जैसी कुछ समय पहले तक लाइलाज मानी जाने वाली लेकिन अब नई दवाओं में उम्मीदें देखने वाली बीमारियों का इलाज आम आदमी तक पहुंच पाएगा, इसकी बहुत उम्मीद नहीं दिखती। हालांकि जेनेरिक दवाएं विदेशी दवाओं के मुकाबले सस्ती हैं लेकिन यह भी आसमान से टपक कर खजूर पर अटकने जैसी स्थिति है क्योंकि इनका मकसद भी कंपनी का मुनाफा ही है। यानी इलाज उतना सस्ता नहीं होगा जितना कि हो सकता है या होना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय द्वारा नोवार्टिस से किया गया सवाल दरअसल चिकित्सा व्यवस्था के बड़े सवाल का एक हिस्सा भर है। घरेलू दवा निर्माता हो या विदेशी, जब तक इस सवाल का जवाब हां में नहीं मिलता, आम मरीज की जीत अधूरी है।
-आर. अनुराधा


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