(साप्ताहिक समाचार पत्रिका 'शुक्रवार' के 16 अप्रैल 2013 के अंक में प्रकाशित)
“आप
इसे पांच रुपए में क्यों नहीं बेचते, एक लाख बीस हज़ार रुपए तो बहुत ज्यादा हैं।”- यह सवाल भारत की आम जनता की ओर से उच्चतम न्यायालय ने स्विटजरलैंड की
दवा कंपनी नोवार्टिस के ग्लीवैक नाम की दवा को भारत में दोबारा पेटेंट दिए जाने के
दावे पर सुनवाई के दौरान किया था।
इस दो अप्रैल
2013 को इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने नोवार्टिस के खिलाफ अपना फैसला सुनाया।
नोवार्टिस का दावा था कि कैंसर के खिलाफ काम आने वाली उसकी ‘नई’ दवा ग्लीवैक (इमैटिनिब
मेसिलेट) को भारत में दोबारा पेटेंट मिलना चाहिए जबकि कंपनी के दावे को भारत का
पेटेंट अपीली बोर्ड पहले ही खारिज कर चुका था। न्यायालय का कहना था कि यह पुरानी
दवा का ही थोड़ा सुधरा हुआ रूप है, और इस आधार पर इसे नई दवा के रूप में दर्ज नहीं
किया जा सकता।
उच्चतम न्यायालय
का यह फैसला न सिर्फ अकल्पनीय रूप से महंगी विदेशी जीवनरक्षक दवाओं के भारतीय
कंपनियों द्वारा सस्ते विकल्प यानी जेनेरिक दवाएं बनाने को बढ़ावा देने, बल्कि
कैंसर एचआईवी/एड्स, हिपेटाइटिस-सी
जैसी जानलेवा बीमारियों के इलाज तक गरीबों की पहुंच को बढ़ाने में मील का पत्थर
साबित होगा। इस क्रम में अपनी विभिन्न दवाओं के भारत में पेटेंट के लिए लड़ रही अनेक
विदेशी कंपनियों का उत्साह जरूर कम हुआ होगा।
ग्लीवैक का
मामला-
स्विटजरलैंड की
दवा कंपनी नोवार्टिस ने 90 के दशक के अंत में इलाज के सहारे लंबे समय तक चलने वाले
रक्त कैंसर क्रॉनिक मायसॉयड ल्यूकेमिया के इलाज के लिए ग्लीवैक (इमैटिनिब) दवा
विकसित की। 2001 में इसे अमरीकी खाद्य और दवा कार्यालय से मंजूरी मिली और वहां का
पेटेंट भी। इसी साल कंपनी ने भारत सहित कई अन्य देशों में भी इस दवा का पेटेंट और
बेचने का अधिकार हासिल किया। इसे चमत्कारी कैंसर-रोधी दवा बताया गया जो मारक रक्त
कैंसर को लंबे समय तक चलने वाले कैंसर में बदल सकती है। लगातार ली जाने वाली यह
दवा कैंसर मरीजों की उम्र 3 से 10 साल तक बढ़ा सकती है। इसकी एक महीने की खुराक का
खर्च एक लाख 20 हजार रुपए है, जो ज्यादातर भारतीयों की पहुंच के बाहर है।
इस बीच सिपला
और नैटको जैसी भारतीय कंपनियों ने इसी दवा के सस्ते भारतीय जेनेरिक संस्करण बनाए
जिनके दाम ग्लीवैक के दसवें हिस्से से भी कम हैं। वीनेट नाम से इसी दवा की महीने
की खुराक की कीमत 10 हज़ार रुपए है तो सिपला ने इसे आठ हज़ार रुपए में बाजार में
उतारा। एक अन्य कंपनी इसे मात्र 5720 रुपए में बेचती है। सुप्रीम कोर्ट के इस
फैसले का बड़ा फायदा मरीजों के साथ-साथ भारतीय दवा निर्माता कंपनियों को भी हुआ
है।
भारत में दवाओं
पर अनुसंधान और विकास की स्थिति बेहद खराब है। बाहर की कंपनियां इस स्थिति का
फायदा उठा कर अपनी दवाएं इस बड़े और विविधता भरे बाजार में लगातार उतारती रहती
हैं। कोई दवा बनाने से लेकर उसे बाजार में उतारने के बीच अनुसंधान, विकास,
परीक्षण, स्वीकृति जैसी अनेक प्रक्रियाओं से गुज़रना पड़ता है जिनमें काफी समय और
बेहिसाब धन खर्च होता है। जबकि उन दवाओं को मिले पेटेंट की अवधि सीमित होती है।
ऐसे में कंपनी पुराना सिक्का ही फिर-फिर चलाने की कोशिश करती है। हर बार कोई नई
दवा विकसित करने के बजाए पेटेंट की हुई दवा में ही कुछ सुधार-संशोधन और
उसके लिए नया पेटेंट पाने की कोशिश करती है ताकि बिना ज्यादा समय और धन खर्च किए उसका
कारोबार चलता रहे, बढ़ता रहे।
‘एवरग्रीनिंग’ की इस प्रक्रिया में कंपनियां दवा बाजार में अपनी विशिष्ट पेटेंट दवाओं
का एकाधिकार बनाए रख कर खूब मुनाफा कमाती हैं। देखा गया है कि कंपनियां अपना
पुराना पेटेंट खत्म होने के ठीक पहले नए पेटेंट के दावे दाखिल करने में सक्रिय हो
जाती हैं। आंकड़े बताते हैं कि नई दवाओं के पेटेंट पाने वाले 12-13 फीसदी मामले
महत्वपूर्ण खोजों के, 40 फीसदी से कम मामले सामान्य इलाज के और 50 फीसदी मामले
पहले से उपलब्ध दवाओं के संशोधित संस्करण होते हैं।
ग्लीवैक के
मामले में भी कंपनी ने अपनी दवा के पुराने संस्करण में कुछ सुधार किए और बताया कि
यह मरीज के शरीर में 30 फीसदी ज्यादा जज़्ब होती है, इससे उसका असर बढ़ जाता है।
इस लिहाज से दवा के संशोधित संस्करण को नया पेटेंट मिलना चाहिए। 2006 में दाखिल
मामले को पेटेंट अपील बोर्ड ने 2009 में खारिज कर दिया। हालांकि फैसले के कुछ
बिंदु कंपनी के हक में थे। इसी आत्मविश्वास पर कंपनी ने सीधे उच्चतम न्यायालय में
मामला दाखिल कर दिया।
न्यायालय ने
भारतीय पेटेंट संशोधन अधिनियम-2005 की धारा 3 (डी) का हवाला देते हुए दो मुद्दों
पर कंपनी के खिलाफ फैसला दिया- (1) यह वास्तव में नई दवा नहीं है (2) पुरानी दवा
में किया गया सुधार इतना महत्वपूर्ण नहीं है कि दवा के असर में गुणात्मक सुधार हो।
इस आधार पर यह दवा पेटेंट की हकदार नहीं है।
धारा
3 (डी) के मुताबिक उत्पाद पेटेंट के उपयुक्त नहीं है यदि-
“किसी ज्ञात पदार्थ के नए रूप की खोज मात्र, जो उस पदार्थ की ज्ञात क्षमता
में वृद्धि में परिणत नहीं होती या ज्ञात पदार्थ के किसी नए गुण या नए उपयोग या
ज्ञात पदार्थ, प्रक्रिया, मशीन या उपकरण का मात्र उपयोग, जबकि यह ज्ञात प्रक्रिया
नए उत्पाद में परिणत नहीं होती या उसमें कम से कम एक नया क्रियात्मक पदार्थ शामिल
नहीं होता।”
इस
मामले में उच्चतम न्यायालय ने कानून की मूल भावना को कायम रखा और माना कि लोगों का
जीवन और स्वास्थ्य का अधिकार किसी पेटेंट के दावे से ज्यादा महत्वपूर्ण है। यह देश
में सस्ती दवाओं के हक में बड़ी जीत है। इस फैसले पर नोवार्टिस का कहना है कि देश
में नए अनुसंधान-प्रयासों और नई दवाओं के विकास पर बुरा असर पड़ेगा क्योंकि बिक्री
से हुए मुनाफे को कंपनी आगे के अनुसंधान कार्य पर खर्च करती है। सोच कर देखा जाए तो अगर यही नए अनुसंधान हैं जिसके लिए कंपनी फंड जुटाना चाहती है, तो क्या भारत
जैसे गरीब देश में नई दवा के लिए यह कीमत उचित है? उल्टे, इस फैसले से, यह संभावना बनती है कि अब विदेशी कंपनियां पेटेंट के
मामले में संभल कर चलें और वास्तविक अनुसंधान और नई दवाओं की खोज पर जोर दें।
भारत
में पेटेंट व्यवस्था-
भारत
2005 से पहले दवाओं का पेटेंट नहीं करता था। 1970 में देश का पहला पेटेंट अधिनियम
बना था। इसके तहत खाद्य पदार्थों और रसायनों का पेटेंट नहीं किया जाता था। सिर्फ
उनके निर्माण की प्रक्रिया का पेटेंट (प्रोसेस पेटेंट) होता था। पेटेंट की अवधि 5
साल या आवेदन की अवधि से 7 साल- इनमें से जो भी कम हो, होती थी। इस कानून की सरलता
का लाभ उठाकर कई दवा कंपनियों ने विदेशी दवाओं के जेनेरिक उत्पाद बनाने शुरू कर
दिए। किसी दवा को बनाने की प्रक्रिया में मामूली सा बदलाव लाना आसान है, खास तौर
पर जब पता हो कि लक्षित रसायन कौन-सा है। भारतीय दवा कंपनियों की तो चांदी हो गई।
उन्हें उत्पाद पेटेंट के इस्तेमाल का शुल्क भी नहीं देना पड़ता था, जो कि काफी
अधिक होता। दूसरा रास्ता यह था कि कंपनी थोड़ा इंतजार करे और पेटेंट की अवधि खत्म
होते ही प्रक्रिया और उत्पाद दोनों का साधिकार उपयोग करे। इससे मरीजों को सस्ती
जेनेरिक दवाएं उपलब्ध हो गईं। इनकी कीमतें विदेशी मूल दवाओं से आधी से लेकर दसवें
हिस्से तक कम थी।
विश्व
व्यापार संगठन के दोहा चक्र में व्यापार संबंधी बौद्धिक संपदा अधिकार समझौते
(ट्रिप्स) पर हस्ताक्षर करने के बाद भारत के लिए जरूरी हो गया कि वह अपने दशकों
पुराने पेटेंट कानून की धूल झाड़ कर उसे आधुनिक रूप दे। इसी से जन्म हुआ बौद्धिक
संपदा अधिनियम-2005 का। इस कानून के तहत नए रसायनों के अलावा सम्मिश्रण दवाओं,
दवाएं देने के तरीकों, दवा निर्माण प्रक्रिया आदि का भी पेटेंट किया जाने लगा। यह
पेटेंट दवा के आने के 20 साल या उससे ज्यादा समय तक लागू होता है।
ट्रिप्स
समझौते में विकासशील देशों के लिए ‘अनिवार्य लाइसेंस’ का विशेष प्रावधान रखा गया है जिसके
तहत जन-स्वास्थ्य की आपात स्थितियों में सरकारें राष्ट्र हित में और
गैर-व्यावसायिक कारणों से पेटेंट-प्राप्त दवाओं के सस्ते स्वदेशी संस्करण बनाने की
इजाजत दे सकती है। दिलचस्प बात यह है कि भारत से कहीं पहले अमरीका, कनाडा, फ्रांस,
आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड जैसे देशों ने इस प्रावधान को आजमाया। जन-स्वास्थ्य
संस्थानों, इस क्षेत्र में काम कर रहे गैर-सरकारी संगठनों और दवा उद्योग की मांगों
के दबाव में सरकार ने लंबे इंतजार के बाद इस प्रावधान का उपयोग करना शुरू किया और
कई मामलों में सक्रिय रूप से इस प्रावधान के पक्ष में विदेशी कंपनियों के बजाए
देसी जेनेरिक दवा उत्पादन को प्राथमिकता देने की शुरुआत की।
ऐसा पहला फैसला जर्मनी
की दवा कंपनी बायर की जिगर गुर्दे और फेफड़ों के कैंसर की दवा नेक्सावार (रासायनिक
नाम- सोराफेनिब) और उसकी भारतीय जेनेरिक नकल के मामले में दिया। अनिवार्य लाइसेंस
के प्रावधान के तहत सरकार पेटेंट के 3 वर्ष बाद जन-हित में पेटेंट धारक की अनुमति
के बिना भी किसी अन्य कंपनी को सस्ती जेनेरिक दवा के उत्पादन की मंजूरी दे सकती
है। नेक्सावार की भारत में एक महीने की खुराक की गगनचुंबी कीमत 2 लाख 80 हजार रुपए
के मुकाबले नैटको कंपनी ने इसे 8800 रुपए में बाजार में उतार दिया। इस मामले में
उच्चतम न्यायालय ने पेटेंट दफ्तर के फैसले को कायम रखा कि नैटको जेनेरिक दवा के
उत्पादन और विपणन अधिकार के बदले बायर को सात फीसदी की रॉयल्टी देगी।
इस
फैसले के बाद कई विदेशी कंपनियों ने अपनी कई दवाओं के दाम खुद ही कम कर दिए। उधर
नैटको के मुकाबले में कई भारतीय दवा कंपनियां आईं और प्रतियोगिता के माहौल में
सोराफेनिब दवा की कीमत 6600 रुपए तक गिर गई। ऐसे कई मामले सरकार और न्यायालयों में
लंबित हैं और उम्मीद है नोवार्टिस पर ताजा फैसले से इन मामलों को भी दिशा मिलेगी।
जीत जनता की या भारतीय दवा उद्योग की-
पेटेंट
अधिकार के संरक्षण के मामले में भारत का रिकार्ड अच्छा नहीं रहा। इस स्थिति का
पूरा फायदा देसी दवा कंपनियों को मिला। लचीले पेटेंट कानूनों के कारण आजादी के बाद
से ही कई दवा कंपनियां फलीं-फूलीं और दूसरे विकासशील देशों में भी भारतीय कंपनियों
की जेनेरिक दवाएं पहुंचने लगीं। पिछले दशकों में जब अफ्रीका में एचआईवी/एड्स की दवाओं की बहुत कमी थी और
ब्रांडेड दवाओं का खर्च उठाना उस गरीब देश के लाखों लोगों के बूते के बाहर था, तब
भारत से इसकी जेनेरिक दवाएं निर्यात हुईं। कोई 10 हजार डॉलर सालाना की कीमत वाली
मूल दवाओं के बदले भारतीय जेनेरिक विकल्प 150 डॉलर में मिल जाते थे।
आज भारत का
जेनेरिक दवा का कारोबार बहुत बड़ा है। आंकड़ों के अनुसार 80 फीसदी विकासशील विश्व
में भारत में बनी जेनेरिक दवाएं पहुंच रही हैं। दिलचस्प बात यह है कि अमरीका,
अफ्रीका, जापान और योरोप तक भारतीय दवाओं का आयात कर रहे हैं। कैंसर, एचआईवी/एड्स, हेपेटाइटिस-सी, टीबी से लेकर, साधारण बीमारियों तक की सस्ती भारतीय
दवाएं विश्व भर में मरीजों के काम आ रही हैं। यूनिसेफ भी विकासशील देशों में मुफ्त
बांटने के लिए सबसे ज्यादा दवाएं भारत से ही मंगवाता है।
भारत
हर साल 11 अरब डॉलर मूल्य की जेनेरिक दवाएं निर्यात करता है। मात्रा के हिसाब से
विश्व का तीसरा और मूल्य के हिसाब से 14वां सबसे बड़ा दवा उद्योग भारत का है जो
जेनेरिक दवाओं के बल-बूते पर ही है। देश के भीतर भी बिकने वाली 90 फीसदी दवाएं
जेनेरिक हैं। साफ है कि पेटेंट अधिकारों के प्रति स्वाभाविक अनदेखी ने भारत के
जेनेरिक दवा कंपनियों को देश में ही नहीं, दुनिया भर में फैलने और उद्योगपतियों को
अरबपति बनने में मदद की है। इस फैसले के बाद और पेटेंट संबंधी कई और मामलों में सरकार
के रुख को देखते हुए उनकी आभा में निश्चित रूप से और चमक आएगी।
कैंसर
के मामलों में चीन और अमरीका के बाद भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा देश है।
सालाना, दुनिया के कुल 7.5 फीसदी मामले भारत में रिपोर्ट किए जा रहे हैं। कोई 10
लाख नए मरीज हर साल जुड़ रहे हैं जिनकी मृत्यु दर सालाना आठ फीसदी है। कैंसर की
दवाओं का बाजार दवा उद्योग का सबसे ज्यादा तेजी से उभरते क्षेत्रों में से है।
मरीजों की बढ़ती संख्या, नई दवाएं और बेहतर इलाज के तरीके ये सभी इस क्षेत्र में
तेज विकास की संभावना की ओर इशारा करते हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक शीर्ष की 10
कैंसर-रोधी दवाओं का बाजार में हिस्सा 70 फीसदी तक है और 2009 में इस वर्ग की
दवाओं की बिक्री 2,60,000 करोड़ रुपए से ज्यादा की थी। अनुमान है कि साल 2013 के
लिए यह आंकड़ा 3,90,000 करोड़ रुपए के करीब होगा।
कैंसर
का इलाज अक्सर लंबा चलता है। नई तकनीकों, दवाओं के कारण अब कैंसर के साथ लंबा जीवन
जीने की संभावना बढ़ गई है। इसके मुकाबले आम जन से जुड़े कुछ तथ्यों पर अगर नजर
डालें तो देश के 40 फीसदी लोगों की दैनिक आमदनी 60 रुपए से कम है। सेहत पर प्रति
व्यक्ति सालाना खर्च 500 रुपए से कम है। इसके अलावा 60 फीसदी स्वास्थ्य-रक्षा का
काम निजी सेक्टर के हाथ में है और 70 फीसदी लोग किसी सरकारी या निजी स्वास्थ्य
योजना से बाहर हैं, यानि वे अपना मेडीकल का खर्च खुद ही वहन करते हैं। ऐसे में देश
का आम आदमी कैंसर के इलाज पर कितना और कब तक खर्च कर पाएगा, इसका अनुमान लगाना
कठिन नहीं है। कोई जीवन-रक्षा के लिए धन का इंतजाम कर पाता है तो उसमें जमा-पूंजी
के अलावा चल-अचल संपत्ति, उधार, दान, रोजगार सभी कुछ शामिल हो जाता है। इसके सीधे
असर की जद में पूरा परिवार आता है जो महंगी दवाओं के कुचक्र का शिकार होता है।
मध्य वर्ग के लोगों को गरीबी रेखा ने नीचे धकेलने वाला यह सबसे महत्वपूर्ण कारक
है।
प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टर और निजी अस्पताल ही नहीं, सरकारी तंत्र में
भी जेनेरिक की बजाए दवाओं के ब्रांड नाम लिखने का चलन है, जो सीधे-सीधे दवा
कंपनियों को मुनाफा दिलाता है, जबकि गरीब मरीज चुनने का विकल्प होते हुए भी
विकल्पहीन होता है। कैंसर के मरीज को दोहरी चोट लगती है जब उसे सस्ते विकल्प बताए
बिना, उसकी आर्थिक स्थिति को देखे बिना डॉक्टर दवाएं लिख देते हैं। और अक्सर यह
अनजाने में नहीं होता। डॉक्टर जानते-बूझते हुए किसी कंपनी या ब्रांड की दवाएं
लिखते हैं जिसके बदले कई तरह के प्रलोभन और प्रोत्साहन पाते हैं। मेडिकल क्षेत्र
में यह नैतिकता संबंधी सबसे बड़ी बहस और मेडिकल काउंसिल भी इस चलन को रोकने की
कोशिश कर रहा है।
इसके
तोड़ के रूप में केंद्र सरकार ने एक नीति बनाई है जिसके तहत सरकारी अस्पतालों के
डॉक्टरों के लिए अनिवार्य होगा कि वे मरीजों के लिए जेनेरिक दवाएं ही लिखें। ऐसा न
करने पर सज़ा का भी प्रावधान होगा। इसी योजना में ब्रांडेड दवाएं लिखने की भी सीमा
निर्धारित की गई है। ज्यादातर मरीजों को जेनेरिक दवाएं मुफ्त दी जाएंगी। अगले कुछ
वर्षों में देश की 50 फीसदी आबादी को इस स्वास्थ्य योजना में शामिल करने की
परिकल्पना है।
जेनेरिक
दवाओं और सरकारी योजनाओं के आने के बाद भी कैंसर, एड्स/एचआईवी, हिपेटाइटिस-सी जैसी कुछ समय
पहले तक लाइलाज मानी जाने वाली लेकिन अब नई दवाओं में उम्मीदें देखने वाली बीमारियों
का इलाज आम आदमी तक पहुंच पाएगा, इसकी बहुत उम्मीद नहीं दिखती। हालांकि जेनेरिक
दवाएं विदेशी दवाओं के मुकाबले सस्ती हैं लेकिन यह भी आसमान से टपक कर खजूर पर
अटकने जैसी स्थिति है क्योंकि इनका मकसद भी कंपनी का मुनाफा ही है। यानी इलाज उतना
सस्ता नहीं होगा जितना कि हो सकता है या होना चाहिए।
उच्चतम
न्यायालय द्वारा नोवार्टिस से किया गया सवाल दरअसल चिकित्सा व्यवस्था के बड़े सवाल
का एक हिस्सा भर है। घरेलू दवा निर्माता हो या विदेशी, जब तक इस सवाल का जवाब ‘हां’ में नहीं
मिलता, आम मरीज की जीत अधूरी है।
-आर.
अनुराधा
4 comments:
badhiya.....
badhiya
NDTV पर एक कार्यक्रम के जरिये इस ब्लॉग की जानकारी मिली. एक गंभीर विषय पर महत्वपूर्ण जानकारी दे रही हैं आप. धन्यवाद...
धन्यवाद अभिषेक मिश्र।
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