Friday, October 5, 2012

ज़िंदगी के एहसास का मौक़ा

हिंदी की महत्वपूर्ण पाक्षिक पत्रिका द पब्लिक एजेंडा के ताजा अंक में मेरा संस्मरण कैंसर के बावजूद कुछ कर जाने वाले लोगों पर विशेष आयोजन के तहत प्रकाशित हुआ है। वही आलेख शब्दशः--

ज़िंदगी के एहसास का मौक़ा

इसे मैं मौका कहूंगी- जीने का, जिंदा होने के एहसास का तीसरा मौका। किसी कैंसर के मरीज को तीन मौके कम ही मिलते हैं- खास तौर पर उसे, जिसका ट्यूमर चौथे स्टेज का और बीमारी एडवांस करार दी गयी हो। डॉक्टर ने मुझे भाग्यशाली कहा, जब मैंने कैंसर के बाद पांच साल की खतरे की रेखा पार की थी। मगर सात साल होते-न-होते मैं फिर उसी जगह खड़ी थी, जहां कैंसर के रास्ते पर मेरी यात्रा शुरू हुई थी। 


इलाज के उन्हीं दुर्गम रास्तों से दोबारा गुजरने के सात साल बाद फिर तीसरी बार अब। सिर्फ जिंदा रहना भी अपने आप में एक नेमत है। वैसा सहज नहीं, जैसा हम आम तौर पर सोचते हैं। जीना तभी समझ में आता है जब जीवन पर खतरा महसूस होता है। जीने का एहसास होने पर इंसान तीन तरह से जीता है- बिसूरते हुए कि हाय, मुझे जिंदगी कितनी छोटी मिली, मेरे साथ अन्याय हुआ। जैसे कोई अपने घाव को लगातार खरोंचता रहे और दर्द से छटपटाता भी रहे। दूसरी स्थिति है कि वह सोचे, कम ही दिन रह गये हैं, चलो जल्दी-जल्दी जिया जाये, बहुत कुछ कर लिया जाये। और तीसरी स्थिति - जब वह बाकी बचे अनिश्चित समय को इत्मीनान से जीना चाहता हो, आने वाले समय का बिना खयाल किये। वह कई मामलों में तदर्थ हो जाता है कि बाद किसने देखा है, अभी समय बेहतर कटे, बस। मैं इस समय बाद वाली दोनों स्थितियों में एक साथ जी रही हूं।


हम अपने शरीर की बनावट-सजावट भले ही रोजाना करते हों, लेकिन हम इसकी जरूरतों और गड़बड़ियों का ध्यान कम ही रखते हैं। जब तक समय साथ देता है, हम कद्र नहीं करते। जब बिगड़ जाता है, तब फौरी राहत देकर छूटने की कोशिश में रहते हैं। अपने शरीर की साज-संभाल करने और जानकारी होने की जरूरत पहली बार महसूस हुई 14 साल पहले, जब स्तन कैंसर होने का पता चला। संतान जन्म के समय या ऐसी ही किसी जांच-मुलाकात में अगर किसी डॉक्टर ने कभी मुझे स्तन स्वयं-परीक्षा का मुफ्त, सरल-सा तरीका बता दिया होता तो स्थिति शायद खराब न होती। 


कैंसर इंसान को ढंग से जीना सिखा देता है। इसका इलाज बहुत जानकारी की मांग करता है, सहज ज्ञान और समझदारी के अलावा भी। इलाज लंबा, कई स्तरों पर होने वाला, जटिल और मारक होता है। इस दौरान मरीज बेहतर महसूस करने की बजाय इलाज के बुरे प्रभावों के कारण ज्यादा बीमार हो जाता है। कीमोथेरापी में इस्तेमाल होने वाली दवाएं मूलतः जहरीले रसायन हैं जो कभी हिटलर के नात्सी गैस-चेंबरों में यहूदियों को मारने के लिए इस्तेमाल किये जाते थे। इलाज में इनका मकसद बीमार, कमजोर कैंसर कोशिकाओं को मारना है, लेकिन इस दौरान ढेर सारी स्वस्थ कोशिकाएं भी मारी जाती हैं। रेडियोथेरेपी में रेडियो-सक्रिय किरणें स्वस्थ कोशिकाओं को भी उसी शिद्दत से जला डालती हैं। ऐसे समय में शरीर का स्वस्थ हिस्सा कमजोर न पड़ जाये, इस कोशिश में लगना पड़ता है। यह जिम्मेदारी मरीज की होती है। यह स्थिति सभी के लिए बराबर कठिन होती हो, ऐसा नहीं है, फिर भी शरीर के भीतर इलाज की चाल जानना लाजिमी होता है।


कुल मिला कर युद्ध सी स्थिति होती है। स्तन कैंसर पर चौतरफा हमले में सर्जरी, कीमो, रेडिएशन के 8-10 महीने लंबे इलाज के बाद कैंसर को रोके रखने के लिए पांच साल तक हार्मोन का इलाज दिया जाता है ताकि ओवरी, पैंक्रियाज और शरीर में कहीं और बन रहे स्त्री हार्मोनों को दबा कर रखा जा सके। कई मामलों में यही हार्मोन कैंसर को उकसाते हैं। इलाज के इन हमलों में स्वस्थ कोशिकाएं बची रहें और फलती-फूलती रहें, इसके लिए जानकारी से ही रणनीति बनाने की शुरुआत होती है। तत्काल और विस्तृत जानकारी पाने के कई साधन मेरी पहुंच में रहे, यह महत्वपूर्ण था। चौदह साल पहले जब इंटरनेट महानगरों के समृद्ध संस्थानों तक ही था, पत्र सूचना कार्यालय के मुख्यालय में नियुक्ति होने के कारण मेरी उस तक पहुंच और उसे इस्तेमाल करने की दक्षता सहज ही थी। देश-विदेश की पत्र-पत्रिकाएं भी मिल जाती थीं जिनमें तब कैंसर के चिकित्सकीय और गैर-चिकित्सकीय पक्षों पर विमर्श छपता था। इन सबसे मेरी जानकारी लगातार बढ़ती गयी। इलाज सरकारी अस्पताल एम्स में हो रहा था, जहां देश भर के मरीज आते हैं। ऐसे में कैंसर, खास तौर पर महिलाओं से जुड़े स्तन कैंसर की विविध स्थितियों को सुनने-जानने का मौका मिला। उनके साथ मैं अपने अनुभवों, ज्ञान और बेहतर जीवन जीने के नुस्खे साझा करती थी।


वहां एक बड़ी बात मुझे समझ में आयी कि लोगों में कैंसर, उसके इलाज, साइड इफेक्ट्स की जानकारी बहुत कम है और थोड़ी-बहुत जानकारी भी उनके जीवन में अंतर लाने में सक्षम थी। यहीं से यह विचार आया कि स्तन कैंसर पर क्यों न जानकारीपरक एक पुस्तक लिखी जाये। इसके दो मकसद थे, एक मेहनत से इकट्ठा की गयी जानकारियां और दूसरी महिलाओं के अलग-अलग अनुभव लोगों को सहज ही, उनकी अपनी भाषा में मिल जायें। दूसरे, इस विषय पर बार-बार वही बातें कहने की बजाय उन्हें लिख कर ज्यादा लोगों तक पहुंचाया जाये। मैं डॉक्टर तो थी नहीं, लेकिन इस बारे में कुछ सघन निजी अनुभव थे, जो आम तौर पर मरीजों को ज्यादा प्रभावित करते हैं। 


कुल मिला कर पुस्तक लिखने का उद्देश्य इस कठिन दौर से गुजर रहे लोगों का जीवन आसान बनाने के अपने अनुभव बताना था। यह पुस्तक "इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी' मार्च 2005 में छप कर आयी, जब मैं कैंसर से दूसरी लड़ाई की तैयारी कर रही थी। जाहिर है, इस स्थिति के बारे में पुस्तक छपने के पहले सोचा भी नहीं था! 


(लेखिका ने कैंसर से जूझने की कहानी पुस्तक "इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी' में लिखी है। वे प्रकाशन विभाग में संपादक हैं।)


3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (06-10-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!

आर. अनुराधा said...

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक (उच्चारण)-- चर्चा मंच पर लिंक देने के लिए धन्यवाद।

Shri Sitaram Rasoi said...

इसे जरूर पढ़ें। http://flaxindia.blogspot.in/2011/12/budwig-cancer-treatment.html
डॉ. ओ पी वर्मा

Custom Search