Saturday, January 7, 2012

हाल के समय में हुईं कैंसर के इलाज की कुछ महत्वपूर्ण खोजें

मोनोक्लोनल एंटीबॉडी- त्वचा का कैंसर मेलानोमा तेजी से फैलता है और विकसित अवस्था में इसका इलाज मुश्किल होता है। इसीलिए इस अवस्था में मरीज के जीने की संभावना औसतन 8 से 18 माह ही होती है। अब तक इसका इलाज डाकार्बाज़ाइन नाम की कीमोथेरेपी दवा से ही किया जाता है। यह दवा सीधे ट्यूमर पर हमला करती है। क्योंकि कैंसर की रक्त के जरिए फैलने की प्रवृत्ति होती है इसलिए एक सीमा के बाद दवा असरकारक नहीं रहती। ऐसे में कैंसर विकसित होता रहता है और आखिर जानलेवा साबित होता है। लेकिन न्यू यॉर्क के स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर ने विकसित मेलानोमा के मोनोक्लोनल एंटीबॉडी यानी शरीर में ही इस खास कैंसर से निकलने वाले सहयोगी प्रोटीन के खिलाफ बनाई गई एंटीबॉडी से इलाज के लिए डाकार्बाज़ाइन के साथ इपिलिमुमाब नाम के रसायन का इस्तेमाल किया। तुलना करके देखा गया कि जिन मरीजों को सिर्फ डाकार्बाज़ाइन दी गई उनके एक साल तक जीवित रहने की उनकी संभावना 36.3 फीसदी रही जबकि दोनों दवाएं पाने वालों के लिए यह प्रतिशत 50 रहा। इसे पिछले 30 साल में त्वचा के कैंसर की सबसे जबर्दस्त खोज कहा जा रहा है।

एक अन्य शोध में इसी संस्थान की एक और टीम ने डाकार्बाज़ाइन की तुलना में वेमुराफेनिब दवा का इस्तेमाल करके देखा कि यह बी-आरएएफ नामक जीन के कैंसरकारी म्यूटेशन के असर को रोकती है। यह म्यूटेशन त्वचा के कैंसर के करीब आधे ट्यूमरों में मौजूद पाया गया है। बी-आरएएफ जीन एक एंजाइम छोड़ता है, जो ज्यादा सक्रिय होने पर त्वचा की रंजक कोशिकाओं मेलानोसाइट्स के कैंसर की संभावना को बढ़ा देता है। वेमुराफेनिब एक एंजाइम है जो म्यूटेटेड बी-आरएएफ जीन की गतिविधियों पर रोक लगा कर कैंसर बनने को ही रोक देता है। इस इलाज से मरीजों का छह माह जीवित रहने की संभावना 84 फीसदी थी जबकि डाकार्बाज़ाइन लेने वाले समूह की 64 फीसदी। यह इलाज इतना प्रभावी रहा कि इस परीक्षण को बीच में ही रोक दिया गया ताकि सभी मरीजों को इसमें शामिल करके उन्हें भी इस टार्गेटेड इलाज का लाभ दिया जा सके।

एंटी एंजियोजेनिक थेरेपी- इस साल अप्रैल के पहले हफ्ते में खबर आई कि क्वींस यूनिवर्सिटी बेलफास्ट, इंग्लैंड के फार्मेसी स्कूल और अल्माक डिस्कवरी लिमिटेड के वैज्ञानिकों ने ऐसा इलाज खोजा है जिसमें दवा ट्यूमर पर सीधे हमला करने की बजाए उसकी रक्त नलिकाओं की बढ़त को रोक देती है। इस तरह ट्यूमर कोशिकाओं को ऑक्सीजन और पोषण मिलना बंद हो जाता है और वे मर जाती हैं। वैसे तो 1985 से ही वैज्ञानिक जानते थे कि रक्त नलिकाएं ट्यूमर के लिए विशेष आपूर्ति हेतु विकसित हो जाती हैं। लेकिन उन्हें बढ़ने से रोका कैसे जाए, इस सवाल का जवाब उन्हें अब मिल गया है। उम्मीद है कि यह थेरेपी सभी तरह के ठोस ट्यूमरों के लिए असरदार रहेगी। अभी प्राकृतिक प्रोटीन और पेप्टाइड पर आधारित यह एंटी एंजियोजेनिक पद्यति प्रि-क्लीनिकल स्तर से गुजर रही है।

इसी तरह के एक और परीक्षण के बारे में ब्रैडफोर्ड यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड के कैंसर थेरैप्यूटिक संस्थान की रिपोर्ट जर्नल कैंसर रिपोर्ट में प्रकाशित हुई है। इसके मुताबिक सूजन, जलन आदि के लिए इस्तेमाल होने वाले ऑटम क्रोकस के फूल में पाया जाने वाला जहरीला रसायन कोल्चिसिन कैंसर के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि अपने आस-पास की स्वस्थ कोशिकाओं को नष्ट करके अपने लिए जगह बनाने के लिए सभी ट्यूमर कुछ एंजाइम पैदा करते हैं। संवर्धित कोल्चिसिन अणु में एर प्रोटीन होता है जिससे यह अक्रिय बना रहता है। लेकिन जब यह प्रोटीन इन एंजाइमों के संपर्क में आता है तो वह नष्ट हो जाता है और कोल्चिसिन सक्रिय हो जाता है। और तब वह ट्यूमर को पोषण देने वाली रक्त नलियों को नष्ट कर देता है और ट्यूमर खत्म हो जता है। इस तरह यह दवा सिर्फ ट्यूमर पर ही असर करती है, स्वस्थ कोशिका पर नहीं।

सीरियल किलर टी-सेल- इसी प्रक्रिया से जुड़ी एक खोज पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने की है। उन्होंने विकसित अवस्था के ल्यूकेमिया यानी रक्त कैंसर के इलाज के लिए टी-लिंफोसाइट को जेनेटिकली इंजीनियर किया है। इस प्रयोग में शामिल तीन में से दो मरीज एक साल से ज्यादा समय तक स्वस्थ रहे, उनमें कैंसर लौट कर नहीं आया। हार्वर्ड मेडीकल स्कूल ने कैंसर कोशिकाओं में एक खास रसायन की मौजूदगी को खोजा था, जिसे इस ताजा प्रयोग में निशाना बनाया गया है। कैंसर पर हमला करने वाली कोशिका बनाने के लिए एक वायरस के जीन में बदलाव किए गए ताकि वह ऐसा रसायन बनाए जो ल्यूकेमिया कोशिका से जुड़ जाए और वहां रक्त में मौजूद टी-लिंफोसाइट को उकसाए कि वह कैंसर कोशिकाओं को मार दे। फिर मरीज के शरीर से रक्त निकाल कर उसमें यह वायरस डाल दिया गया। जब संक्रमित खून वापस मरीज के शरीर में डाला गया तो हर इंजीनियर्ड टी-लिंफोसाइट हजार से ज्यादा बार बहुगुणित हुई और कई महीने जिंदा रह कर कैंसर को खत्म कर दिया। इनसे अक्रिय ‘यादगार’ टी-कोशिकाएं भी बनीं, जो कैंसर के दोबारा पनपने पर उसे पहचान कर अपने आप ही उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू देंगी।

आई-बेट 151- इंग्लैंड में ग्लैक्सो स्मिथ क्लीन व कैंसर रिसर्च यूके (क्रुक) ने खोजा कि 2 साल से छोटे बच्चों में एक्यूट ल्यूकेमिया के 80 फीसदी मामलों और वयस्कों में 1-10 फीसदी मामलों में मिक्स्ड लीनिएज ल्यूकेमिया या एमएलएल होता है। एमएलएल जीन एक अन्य जीन के साथ मिल कर फ्यूजन प्रोटीन बनाता है जो कि ल्यूकेमिया बनाने वाले जीन को काम शुरू करने को उकसा देता है। लैब में चूहों की और मानव कोशिकाओं में आई-बेट 151 प्रोटीन से यह प्रक्रिया रोकी जा सकी है। यह थेरेपी अभी परीक्षण के शुरुआती चरण में है।

रेनियम-186 और लेसर स्पेक्ट्रोस्कोपी- क्वींस यूनिवर्सिटी, बेलफास्ट में एडवांस प्रोस्टेट कैंसर के फेस-1 ट्रायल में मरीजों को कीमोथेरेपी के साथ रेडियोएक्टिव रेनियम-186 (Rhenium) दी गई। दूसरा फेज़ 6 माह में शुरू होगा, जिसके नतीजे दो साल में आएंगे। यूसी सांता बारबरा में प्रोस्टेट कैंसर का एक और इलाज खोजा गया। लेसर स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक कैंसर कोशिका और स्वस्थ कोशिका में अंतर करती है। इस गुण की जानकारी से स्वस्थ कोशिकाओं को बचाते हुए केवल बीमार कोशिकओँ को नष्ट करने के लिए रेडियोथेरेपी का उपयोग किया गया है।

इन पद्यतियों को बाजार तक आने में अभी बरसों लगेंगे।

2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत बढ़िया जानकारी दी है आपने!

Shri Sitaram Rasoi said...

इसे जरूर पढ़ें। http://flaxindia.blogspot.in/2011/12/budwig-cancer-treatment.html
डॉ. ओ पी वर्मा

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