आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।
# “पता है, स्मोकिंग दरअसल आप नहीं करते। सिगरेट ही स्मोकिंग करती है। आप तो सिर्फ सिगरेट का छोड़ा हुआ धुंआ पीते हैं।“
# “अब यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि सिगरेट दुनिया में आंकड़ों के होने का एक प्रमुख कारण है।“
तंबाकू पर ज्यादा जानकारी के लिए 18 मई 2008 की पोस्ट देखें- कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू
This blog is of all those whose lives or hearts have been touched by cancer. यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी ज़िंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।
Sunday, May 31, 2009
Thursday, May 28, 2009
चाहती हूं जीना एक दिन
जिंदगी उतनी लंबी होती है, जितनी आदमी जी लेता है।
उतनी नहीं जितनी आदमी जिंदा रह लेता है।
कोई एक में कई जिंदगियां जी लेता है तो कोई एक दिन भी नहीं जी पाता।
मैं जीना चाहती हूं। एक दिन में कई दिन- चाहती हूं जीना ऐसा एक दिन।
एक शाम- जब मैं जा सकूं साथी के साथ
सान्ता मोनिका पर नए साल के स्वागत के लिए।
कोई दिन- बिना दर्द, जलन, तकलीफ के।
एक दिन- जब मेरे हाथ में हो दिलचस्प किताब,
पास बजता हो मीठा संगीत और साथ हो अच्छा खाना।
दो दिन- जब मैं नताशा के साथ फुर्सत से बैठकर गपशप कर सकूं
बैठे-बैठे उसकी बिटिया को अपनी गोद में सुला सकूं।
दस दिन- जब मैं किसी बच्चे के साथ
जा सकूं एक छोटी सी पहाड़ी पर पर्वतारोहण के लिए।
एक महीना- जब मुझे अस्पताल या पैथोलॉजी लैब का
एक भी चक्कर न लगाना पड़े।
एक मौसम- जिसके हर दिन मैं पकाऊं कुछ नया, पहनूं कुछ नया
जो बनाए मुझे सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा।
एक साल- जिसमें लगा सकूं हर पखवाड़े एक
कैंसर जांच और जागरूकता कैंप दिल्ली भर में
पांच साल- बिना कैंसर की पुनरावृत्ति के।
एक जीवन- जब मैं परिवार और झुरमुटों-झरनों-जुगनुओं के बीच
रहूं दूर पहाड़ी पर कहीं।
मैं ये सारे दिन एक बार जीना चाहती हूं।
इजाजत है?
(PS: रचना ने इस तरफ द्यान खींचा कि बिना संदर्भ के इस कविता कई पाठकों को ठीक से समझ में नहीं आएगी। और संदर्भ इसे ज्यादा प्रभावी बना देगा। अस्तु-
संदर्भ: पिछले ग्यारह साल से हर दिन मेरे लिए कुछ आशंकाएं लिए आता है। मई 1998 में पहली कार मुझे कैंसर होने का पता चला। पूरा इलाज कोई 11 महीने चला। इसके बाद लगातार फॉलो-अप, चेक-अप, ढेरों तरह की जांचें, तय समयों पर और कई बार बिना तय समयों पर भी, जब भी कैंसर के लौट आने की जरा भी आशंका हुई। उसके बाद सारे एहतियात के बाद भी मार्च 2005 में कैंसर का दोबारा उभरना। इन सबके बीच इन छोटी-छोटी मोहलतों की हसरत बनी हुई है, जिनमें से कुछेक पूरी हुईं भी, लेकिन उस इत्मीनान के साथ नहीं, जो मैं दिल से चाहती हूं। इसलिए जिंदगी से इजाजत मांगने का मन है कि क्या कभी हो पाएगा। और मुझे उम्मीद है कि होगा।)
उतनी नहीं जितनी आदमी जिंदा रह लेता है।
कोई एक में कई जिंदगियां जी लेता है तो कोई एक दिन भी नहीं जी पाता।
मैं जीना चाहती हूं। एक दिन में कई दिन- चाहती हूं जीना ऐसा एक दिन।
एक शाम- जब मैं जा सकूं साथी के साथ
सान्ता मोनिका पर नए साल के स्वागत के लिए।
कोई दिन- बिना दर्द, जलन, तकलीफ के।
एक दिन- जब मेरे हाथ में हो दिलचस्प किताब,
पास बजता हो मीठा संगीत और साथ हो अच्छा खाना।
दो दिन- जब मैं नताशा के साथ फुर्सत से बैठकर गपशप कर सकूं
बैठे-बैठे उसकी बिटिया को अपनी गोद में सुला सकूं।
दस दिन- जब मैं किसी बच्चे के साथ
जा सकूं एक छोटी सी पहाड़ी पर पर्वतारोहण के लिए।
एक महीना- जब मुझे अस्पताल या पैथोलॉजी लैब का
एक भी चक्कर न लगाना पड़े।
एक मौसम- जिसके हर दिन मैं पकाऊं कुछ नया, पहनूं कुछ नया
जो बनाए मुझे सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा।
एक साल- जिसमें लगा सकूं हर पखवाड़े एक
कैंसर जांच और जागरूकता कैंप दिल्ली भर में
पांच साल- बिना कैंसर की पुनरावृत्ति के।
एक जीवन- जब मैं परिवार और झुरमुटों-झरनों-जुगनुओं के बीच
रहूं दूर पहाड़ी पर कहीं।
मैं ये सारे दिन एक बार जीना चाहती हूं।
इजाजत है?
(PS: रचना ने इस तरफ द्यान खींचा कि बिना संदर्भ के इस कविता कई पाठकों को ठीक से समझ में नहीं आएगी। और संदर्भ इसे ज्यादा प्रभावी बना देगा। अस्तु-
संदर्भ: पिछले ग्यारह साल से हर दिन मेरे लिए कुछ आशंकाएं लिए आता है। मई 1998 में पहली कार मुझे कैंसर होने का पता चला। पूरा इलाज कोई 11 महीने चला। इसके बाद लगातार फॉलो-अप, चेक-अप, ढेरों तरह की जांचें, तय समयों पर और कई बार बिना तय समयों पर भी, जब भी कैंसर के लौट आने की जरा भी आशंका हुई। उसके बाद सारे एहतियात के बाद भी मार्च 2005 में कैंसर का दोबारा उभरना। इन सबके बीच इन छोटी-छोटी मोहलतों की हसरत बनी हुई है, जिनमें से कुछेक पूरी हुईं भी, लेकिन उस इत्मीनान के साथ नहीं, जो मैं दिल से चाहती हूं। इसलिए जिंदगी से इजाजत मांगने का मन है कि क्या कभी हो पाएगा। और मुझे उम्मीद है कि होगा।)
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