कैंसर को समझने और इसका इलाज ढूंढने के लिए दुनिया भर में चल रहे हजारों-लाखों प्रयोगों का सार दे पाना आसान नहीं है। इस विषय पर कुछ जानकारी पाने के बाद यह आमुख-कथा लिखी,जो नवंबर में शुक्रवार पत्रिका में प्रमुखता से छपी। उस लंबे लेख को दो टुकड़ों में दे रही हूं। और, चूंकि यह एक व्यावसायिक पत्रिकाके लिए, मास कंजम्शन के लिए लिखा गया लेख है, इसलिए इसमें अनुसंधान की राजनीतिकी बारीकियां शामिल नहीं हो पाई हैं। उस पर आगे कभी। वैसे, मूल बात यह है किअखबार,टीवी और पत्रिकाएं जिस उत्साह से कैंसर ब्रेकथ्रू की खबरें देते हैं, वे मरीज के उत्साह का कारण कभी नहीं बन पातीं। यह बात विस्तार से अगले किसी लेख में।
-आर. अनुराधा
दुनिया की तीन बड़ी हस्तियों का कैंसर की वजह से असमय गुज़र जाना हाल के दिनों में चर्चा का बड़ा विषय रहा। हेवीवेट मुक्केबाजी के विश्व चैंपियन मुहम्मद अली को कई बार पछाड़ने वाले ‘स्मोकिंग’ जो फ्रेज़र को लिवर के कैंसर ने पछाड़ दिया। पर्सनल कंप्यूटर के पितामह और एप्पल कंप्यूटर कंपनी के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स सात साल तक पैंक्रियाटिक कैंसर से जूझते हुए आखिर हार गए। इस साल फिजियोलॉजी या मेडीसिन के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले तीन इम्यूनोलॉजिस्ट में से एक प्रो. राल्फ स्टीनमैन की भी सितंबर के अंत में पैंक्रियाटिक कैंसर से मौत हुई।
दिलचस्प बात यह है कि प्रो. स्टीनमैन ने ही 1973 में प्रतिरक्षा प्रणाली की डेंड्रीटिक कोशिकाओं का पता लगाया था जो प्रतिरक्षा तंत्र को संक्रमण और कैंसर के खिलाफ चेताने का काम करती है। उनकी इसी तकनीक के आधार पर 2001 में इमैटिनिब नाम की पहली थेरैप्यूटिक कैंसर वैक्सीन बनाई गई जो कैंसर हो जाने पर उसके इलाज के लिए दी जाती है। इस क्रांतिकारी खोज के बाद से ही कैंसर के लिए कीमोथेरेपी में अनुसंधानों को नई दिशा मिली।
इमैटिनिब जैसी टार्गेटेड दवाओं की खासियत यह है कि ये स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना सीधे कैंसर कोशिकाओं को पहचान कर उन पर हमला करती हैं और उन्हें खत्म कर देती हैं। जबकि परंपरागत कीमोथेरेपी की दवाएं बीमार और स्वस्थ कोशिकाओं में अंतर किए बिना शरीर की सभी तेजी से बढ़ती कोशिकाओं पर हमला करती चलती हैं। इलाज की इस तकनीक में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह हर मरीज और मर्ज की खासियत के मुताबिक खासतौर पर उसी को लक्ष्य करती है। इन डिजाइनर दवाओं का दायरा छोटा लेकिन सटीक होता है। जबकि पहले कुछ ही दवाएं हर प्रकार के कैंसर के इलाज में काम में लाई जाती थीं।
पिछले कुछेक साल में कई तरह के कैंसरों के खिलाफ विभिन्न टार्गेटेड इलाज यानी ‘स्मार्ट बम’ विकसित किए गए। थेरेप्यूटिक वैक्सीन के अलावा ल्यूकेमिया यानी रक्त के कैंसर के लिए इम्यूनोथेरेपी, त्वचा के कैंसर मेलानोमा के लिए टार्गेटेड थेरेपी, ठोस कैंसरों के लिए एंटीएंजियोजेनिक यानी ट्यूमर को पोषण पहुंचाने वाली बारीक रक्त नलियों से आपूर्ति रोककर उसे मार देने की थेरेपी का सफल ईजाद किया गया। यहां तक कि जेनेटिक कीमोथेरेपी यानी जीन में हुए कैंसरकारी बदलावों को दवाओं के जरिए उलट देने, प्रतिरोधक तंत्र की कोशिकाओं में जेनेटिक बदलाव करके उन्हें कैंसर को पहचानने और लड़कर उसे खत्म कर देने के लिए प्रशिक्षित करने जैसी नई तकनीकों के प्रयोगों को भी ट्रायल के विभिन्न चरणों में सफलता मिली है।
परंपरागत तरीकों में भी कम रेडिएशन और सरल कीमोथेरेपी से बेहतर प्रभाव पैदा करने जैसे सुधार मरीजों के लिए काफी कारगर सिद्ध हुए हैं। इन खोजों और सफलताओं का सिलसिला लगातार जारी है। इनके असर से चमत्कृत वैज्ञानिक तो यहां तक कहने लगे हैं कि कैंसर भविष्य में डायबिटीज़ या हाइपरटेंशन जैसी बीमारी हो जाएगी जो पूरी तरह ठीक भले ही न हो पर उसके साथ बेधड़क लंबा जीवन जिया जा सकेगा।
कैंसर के इलाज की खोज की दिशा में तूफानी रफ्तार से चल रहे अनुसंधानों, परीक्षणों को देखते हुए इसे कैंसर अनुसंधान का स्वर्ण काल कहना शायद गलत न होगा, जैसा कि कैंसर रिसर्च यूके के हरपाल कुमार भी कहते हैं। दुनिया भर में इस समय कैंसर के इलाज की सैकड़ों नई पद्यतियों के परीक्षण चल रहे हैं। अकेले अमेरिका में ही कैंसर के इलाज के लिए वैक्सीनों के कोई साढ़े चार सौ क्लीनिकल ट्रायल इस समय विभिन्न स्तरों पर चल रहे हैं। कैंसर से बचाव की वैक्सीन के भी अनेक ट्रायल विभिन्न अनुसंधान संस्थानों और अस्पतालों में जारी हैं। इनमें से कुछेक ही सफल होते हैं। जो असफल होते हैं, वे भी कैंसर के डेटाबैंक में महत्वपूर्ण जानकारियां जोड़ते हैं। वैज्ञानिकों के पास अब पहले से ज्यादा दवाएं और ज्यादा असरदार विकल्प मौजूद हैं।
इतनी उम्मीदों के बाद भी तथ्य यह है कि कैंसर ज्यादातर लोगों की जिंदगियों पर भारी है। कैंसर का टार्गेटेड इलाज उपलब्ध होने और वैज्ञानिकों द्वारा उनकी सफलताओं के दावों के बाद भी स्टीव जॉब्स और डॉ स्टीनमैन तक को इस बीमारी के आगे झुकना पड़ा। टार्गेटेड थेरेपी खोज लेने वाला वैज्ञानिक कैंसर होने का पता लगने के चार साल में भी अपने लिए कैंसर का सटीक इलाज नहीं खोज पाया।
लैबोरेटरी के नियंत्रित माहौल में इलाज के सफल उदाहरण अगर वास्तविकता की जमीन पर खड़े नहीं हो पा रहे हैं तो आखिर कसर कहां छूट रही है। क्या कैंसर के इलाज से बंधी उम्मीदें अवास्तविक हैं? एक हद तक। लैब में मिली किसी शुरुआती सफलता को प्रायोजक कंपनी अपने फायदे के लिए खूब प्रचारित करती है। चूंकि यह बीमारी जानलेवा और सनसनीखेज़ मानी जाती है, इसलिए मीडिया भी इसके इलाज की छोटी खबरों को बड़ा बनाकर पेश करता है। और आम आदमी समझता है कि इस मारक बीमारी का पक्का इलाज उसके बेद करीब है। अनुसंधानकर्ता भी कभी-कभार अतिउत्साह में अपनी खोजों को कैंसर का अंतिम इलाज मान बैठते हैं। जबकि परिपक्व अनुसंधानकर्ता समझते हैं कि कैंसर के कारणों की बहुलता के कारण उसके इलाज की पद्यति तय कर पाना सहज नहीं है। फिर भी कैंसर के इलाज ढूंढने के कई रास्ते बड़ी उम्मीदों से भरे हैं।
40 साल पहले 1971 में अमरीका में नैशनल कैंसर एक्ट 1971 बना था जिसमें कैंसर रिसर्च के लिए सरकारी फंडिंग का भी वादा था। पिछले कुछ वर्षों में अमरीका के नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट का सालाना बजट करीब 5 अरब डॉलर का रहा है। इन अनुसंधानों से कैंसर के बारे में काफी कुछ पता चला है। यह एक बीमारी नहीं बल्कि सैकड़ों किस्म की बीमारियां हैं। अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ कैंसर रिसर्च की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक कैंसर 200 से ज्यादा प्रकार की बीमारियां हैं, जिनमें हर एक के कारण और इलाज में थोड़ा-थोड़ा अंतर है। इस जानकारी में ही इस सवाल का आधा जबाव शामिल है कि इतने वर्षों बाद भी क्यों कैंसर का इलाज नहीं ढूंढा जा पाया। दरअसल कैंसर का कोई एक इलाज होगा, इसमें संदेह है। बल्कि ज्यादा संभावना यह है कि जिस तरह कई वायरल बीमारियों के अलग-अलग टीके लगाए जाते हैं, उसी तरह हर कैंसर का इलाज अलग तरह से होगा जो मरीज की और कैंसर की रासायनिक विशेषताओं के आधार पर डिजाइन किया जाएगा।
किसी भी बीमारी के इलाज के लिए प्रयोगशाला में मिली सफलता को बाजार तक आने के पहले लंबा रास्ता तय करना पड़ता है। इन पद्यतियों को कई स्वीकृतियों के बाद पहले जीवों पर, फिर कुछ चुनिंदा मरीजों पर, और फिर बड़ी संख्या में मरीजों पर आजमाया जाता है। इनके नतीजों के आधार पर ही किसी तकनीक या दवा को इस्तेमाल के लिए मंजूरी मिलती है। इसमें काफी समय और धन खर्च होता है। किसी नए इलाज का बाजार तक पहुंचने का सफर एक बड़ी छलांग की बजाए धीमी चाल से ही तय हो पाता है। इस धीमी चाल की वजह से कई इलाज उपलब्ध होने के बावजूद हरेक स्थिति, व्यक्ति पर आजमाये नहीं जा सके हैं, और इसलिए पता नहीं है कि किन मरीजों के लिए वे कारगर होंगे या फिर उनका बेहतरीन इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है।
प्रयोगशाला से सफल होकर बाहर आए कई टार्गेटेड इलाज कुछेक वर्षों से कैंसर के मरीजों के लिए उपलब्ध हैं, लेकिन कुछ ही प्रकार के कैंसरों के लिए। स्तन कैंसर के लिए हरसेप्टिन विश्व भर में उपलब्ध है। स्तन कैंसर के सौ में से 20 से 30 मरीजों में कैंसर कोशिकाएं बहुत ज्यादा हर-2 प्रोटीन पैदा करती हैं। इसे हर-2 पॉजिटिव कैंसर कहा जाता है। हर-2 कैंसर की सतह पर पाया जाने वाला प्रोटीन है जो कैंसर को बढ़ने का संकेत करता है और ट्यूमर बढ़ता जाता है। इसी प्रोटीन से कैंसर के प्रकार की पहचान करके हरसेप्टिन नाम की टार्गेटेड कीमोथेरेपी, सामान्य कीमोथेरेपी के साथ दी जाती है। हरसेप्टिन हर-2 प्रोटीन को ब्लॉक कर देती है जिससे कैंसर कोशिकाओं को बढ़ोत्तरी का इशारा नहीं मिलता और वे नष्ट हो जाती हैं। इस इलाज का असर अभूतपूर्व रहा है और कई बार सामान्य कीमो करा चुके, हार चुके मरीज भी स्वस्थ हो गए। इमैटिनिब मैसिलेट या ग्लीवैक भी क्रॉनिक मायलॉयड ल्यूकेमिया के लिए टार्गेटेड थेरेपी में इस्तेमाल होने वाली दवा है।
स्टीव जॉब्स और डॉ स्टीनमैन दोनों ही पैंक्रियास के कैंसर से पीड़ित थे जिसमें सिर्फ 4 फीसदी मरीज ही पांच साल तक जी पाते हैं और ज्यादातर मरीजों का जीवन एक साल के भीतर ही सिमट जाता है। ऐसे में दोनों कैंसर का पता लगने के बाद सात या चार साल तक जी पाए तो इसमें टार्गेटेड इलाज की नई तकनीकों का भी बड़ा हाथ रहा है। कैंसर के इलाज में पूरी सफलता या कैंसर के साथ जीवन लंबा हो पाने के दो मुख्य कारक हैं – मानव जीनोम की मैपिंग जो 2001 में पूरी हो चुकी है, और जीवन शैली जैसे सरल कारकों के कैंसर होने में योगदान की जानकारी।
(...जारी)
No comments:
Post a Comment