Saturday, January 7, 2012

हाल के समय में हुईं कैंसर के इलाज की कुछ महत्वपूर्ण खोजें

मोनोक्लोनल एंटीबॉडी- त्वचा का कैंसर मेलानोमा तेजी से फैलता है और विकसित अवस्था में इसका इलाज मुश्किल होता है। इसीलिए इस अवस्था में मरीज के जीने की संभावना औसतन 8 से 18 माह ही होती है। अब तक इसका इलाज डाकार्बाज़ाइन नाम की कीमोथेरेपी दवा से ही किया जाता है। यह दवा सीधे ट्यूमर पर हमला करती है। क्योंकि कैंसर की रक्त के जरिए फैलने की प्रवृत्ति होती है इसलिए एक सीमा के बाद दवा असरकारक नहीं रहती। ऐसे में कैंसर विकसित होता रहता है और आखिर जानलेवा साबित होता है। लेकिन न्यू यॉर्क के स्लोन केटरिंग कैंसर सेंटर ने विकसित मेलानोमा के मोनोक्लोनल एंटीबॉडी यानी शरीर में ही इस खास कैंसर से निकलने वाले सहयोगी प्रोटीन के खिलाफ बनाई गई एंटीबॉडी से इलाज के लिए डाकार्बाज़ाइन के साथ इपिलिमुमाब नाम के रसायन का इस्तेमाल किया। तुलना करके देखा गया कि जिन मरीजों को सिर्फ डाकार्बाज़ाइन दी गई उनके एक साल तक जीवित रहने की उनकी संभावना 36.3 फीसदी रही जबकि दोनों दवाएं पाने वालों के लिए यह प्रतिशत 50 रहा। इसे पिछले 30 साल में त्वचा के कैंसर की सबसे जबर्दस्त खोज कहा जा रहा है।

एक अन्य शोध में इसी संस्थान की एक और टीम ने डाकार्बाज़ाइन की तुलना में वेमुराफेनिब दवा का इस्तेमाल करके देखा कि यह बी-आरएएफ नामक जीन के कैंसरकारी म्यूटेशन के असर को रोकती है। यह म्यूटेशन त्वचा के कैंसर के करीब आधे ट्यूमरों में मौजूद पाया गया है। बी-आरएएफ जीन एक एंजाइम छोड़ता है, जो ज्यादा सक्रिय होने पर त्वचा की रंजक कोशिकाओं मेलानोसाइट्स के कैंसर की संभावना को बढ़ा देता है। वेमुराफेनिब एक एंजाइम है जो म्यूटेटेड बी-आरएएफ जीन की गतिविधियों पर रोक लगा कर कैंसर बनने को ही रोक देता है। इस इलाज से मरीजों का छह माह जीवित रहने की संभावना 84 फीसदी थी जबकि डाकार्बाज़ाइन लेने वाले समूह की 64 फीसदी। यह इलाज इतना प्रभावी रहा कि इस परीक्षण को बीच में ही रोक दिया गया ताकि सभी मरीजों को इसमें शामिल करके उन्हें भी इस टार्गेटेड इलाज का लाभ दिया जा सके।

एंटी एंजियोजेनिक थेरेपी- इस साल अप्रैल के पहले हफ्ते में खबर आई कि क्वींस यूनिवर्सिटी बेलफास्ट, इंग्लैंड के फार्मेसी स्कूल और अल्माक डिस्कवरी लिमिटेड के वैज्ञानिकों ने ऐसा इलाज खोजा है जिसमें दवा ट्यूमर पर सीधे हमला करने की बजाए उसकी रक्त नलिकाओं की बढ़त को रोक देती है। इस तरह ट्यूमर कोशिकाओं को ऑक्सीजन और पोषण मिलना बंद हो जाता है और वे मर जाती हैं। वैसे तो 1985 से ही वैज्ञानिक जानते थे कि रक्त नलिकाएं ट्यूमर के लिए विशेष आपूर्ति हेतु विकसित हो जाती हैं। लेकिन उन्हें बढ़ने से रोका कैसे जाए, इस सवाल का जवाब उन्हें अब मिल गया है। उम्मीद है कि यह थेरेपी सभी तरह के ठोस ट्यूमरों के लिए असरदार रहेगी। अभी प्राकृतिक प्रोटीन और पेप्टाइड पर आधारित यह एंटी एंजियोजेनिक पद्यति प्रि-क्लीनिकल स्तर से गुजर रही है।

इसी तरह के एक और परीक्षण के बारे में ब्रैडफोर्ड यूनिवर्सिटी, इंग्लैंड के कैंसर थेरैप्यूटिक संस्थान की रिपोर्ट जर्नल कैंसर रिपोर्ट में प्रकाशित हुई है। इसके मुताबिक सूजन, जलन आदि के लिए इस्तेमाल होने वाले ऑटम क्रोकस के फूल में पाया जाने वाला जहरीला रसायन कोल्चिसिन कैंसर के खिलाफ इस्तेमाल किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने पाया कि अपने आस-पास की स्वस्थ कोशिकाओं को नष्ट करके अपने लिए जगह बनाने के लिए सभी ट्यूमर कुछ एंजाइम पैदा करते हैं। संवर्धित कोल्चिसिन अणु में एर प्रोटीन होता है जिससे यह अक्रिय बना रहता है। लेकिन जब यह प्रोटीन इन एंजाइमों के संपर्क में आता है तो वह नष्ट हो जाता है और कोल्चिसिन सक्रिय हो जाता है। और तब वह ट्यूमर को पोषण देने वाली रक्त नलियों को नष्ट कर देता है और ट्यूमर खत्म हो जता है। इस तरह यह दवा सिर्फ ट्यूमर पर ही असर करती है, स्वस्थ कोशिका पर नहीं।

सीरियल किलर टी-सेल- इसी प्रक्रिया से जुड़ी एक खोज पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने की है। उन्होंने विकसित अवस्था के ल्यूकेमिया यानी रक्त कैंसर के इलाज के लिए टी-लिंफोसाइट को जेनेटिकली इंजीनियर किया है। इस प्रयोग में शामिल तीन में से दो मरीज एक साल से ज्यादा समय तक स्वस्थ रहे, उनमें कैंसर लौट कर नहीं आया। हार्वर्ड मेडीकल स्कूल ने कैंसर कोशिकाओं में एक खास रसायन की मौजूदगी को खोजा था, जिसे इस ताजा प्रयोग में निशाना बनाया गया है। कैंसर पर हमला करने वाली कोशिका बनाने के लिए एक वायरस के जीन में बदलाव किए गए ताकि वह ऐसा रसायन बनाए जो ल्यूकेमिया कोशिका से जुड़ जाए और वहां रक्त में मौजूद टी-लिंफोसाइट को उकसाए कि वह कैंसर कोशिकाओं को मार दे। फिर मरीज के शरीर से रक्त निकाल कर उसमें यह वायरस डाल दिया गया। जब संक्रमित खून वापस मरीज के शरीर में डाला गया तो हर इंजीनियर्ड टी-लिंफोसाइट हजार से ज्यादा बार बहुगुणित हुई और कई महीने जिंदा रह कर कैंसर को खत्म कर दिया। इनसे अक्रिय ‘यादगार’ टी-कोशिकाएं भी बनीं, जो कैंसर के दोबारा पनपने पर उसे पहचान कर अपने आप ही उसके खिलाफ कार्रवाई शुरू देंगी।

आई-बेट 151- इंग्लैंड में ग्लैक्सो स्मिथ क्लीन व कैंसर रिसर्च यूके (क्रुक) ने खोजा कि 2 साल से छोटे बच्चों में एक्यूट ल्यूकेमिया के 80 फीसदी मामलों और वयस्कों में 1-10 फीसदी मामलों में मिक्स्ड लीनिएज ल्यूकेमिया या एमएलएल होता है। एमएलएल जीन एक अन्य जीन के साथ मिल कर फ्यूजन प्रोटीन बनाता है जो कि ल्यूकेमिया बनाने वाले जीन को काम शुरू करने को उकसा देता है। लैब में चूहों की और मानव कोशिकाओं में आई-बेट 151 प्रोटीन से यह प्रक्रिया रोकी जा सकी है। यह थेरेपी अभी परीक्षण के शुरुआती चरण में है।

रेनियम-186 और लेसर स्पेक्ट्रोस्कोपी- क्वींस यूनिवर्सिटी, बेलफास्ट में एडवांस प्रोस्टेट कैंसर के फेस-1 ट्रायल में मरीजों को कीमोथेरेपी के साथ रेडियोएक्टिव रेनियम-186 (Rhenium) दी गई। दूसरा फेज़ 6 माह में शुरू होगा, जिसके नतीजे दो साल में आएंगे। यूसी सांता बारबरा में प्रोस्टेट कैंसर का एक और इलाज खोजा गया। लेसर स्पेक्ट्रोस्कोपी तकनीक कैंसर कोशिका और स्वस्थ कोशिका में अंतर करती है। इस गुण की जानकारी से स्वस्थ कोशिकाओं को बचाते हुए केवल बीमार कोशिकओँ को नष्ट करने के लिए रेडियोथेरेपी का उपयोग किया गया है।

इन पद्यतियों को बाजार तक आने में अभी बरसों लगेंगे।

कैंसर से निजात की उम्मीदें और संभावनाएं- 2

कैंसर से निजात की उम्मीदें और संभावनाएं- 1

कैंसर को समझने और इसका इलाज ढूंढने के लिए दुनिया भर में चल रहे हजारों-लाखों प्रयोगों का सार दे पाना आसान नहीं है। इस विषय पर कुछ जानकारी पाने के बाद यह आमुख-कथा लिखी,जो नवंबर में शुक्रवार पत्रिका में प्रमुखता से छपी। उस लंबे लेख को दो टुकड़ों में दे रही हूं। और, चूंकि यह एक व्यावसायिक पत्रिकाके लिए, मास कंजम्शन के लिए लिखा गया लेख है, इसलिए इसमें अनुसंधान की राजनीतिकी बारीकियां शामिल नहीं हो पाई हैं। उस पर आगे कभी। वैसे, मूल बात यह है किअखबार,टीवी और पत्रिकाएं जिस उत्साह से कैंसर ब्रेकथ्रू की खबरें देते हैं, वे मरीज के उत्साह का कारण कभी नहीं बन पातीं। यह बात विस्तार से अगले किसी लेख में।
-आर. अनुराधा


किसी कोशिका के भीतर जेनेटिक रसायनों यानी जीनों में अचानक बदलाव आने के कारण उसके अनियंत्रित हो जाने और अपनी तरह की बीमार, अधूरी कोशिकाओं की संख्या बढ़ाते जाने का नाम ही कैंसर है। यह अचानक बदलाव म्यूटेशन कहलाता है। जीनोम की जानकारी के बाद अब वैज्ञानिक ट्यूमर के बजाए उसके बनने की प्रक्रिया पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं, ताकि ट्यूमर की जड़ को ही खत्म किया जा सके। इसी के साथ-साथ काम करती है शरीर में फैल चुकी कैंसर कोशिकाओं को मारने के लिए टार्गेटेड कीमोथेरेपी। इन दोनों पहलुओं को साथ लेकर वैज्ञानिक हर म्यूटेशन और उसके रासायनिक वातावरण को समझ कर उसी के अनुरूप दवाएं खोजने में जुटे हैं। इस तरह पर्सनलाइज्ड और टार्गेटेड इलाज से एकदम सटीक इलाज तय किया जा सकता है, बिना स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए। इस तरह का इलाज छोटा और सस्ता होगा, मरीज को इलाज की तकलीफ भी नहीं झेलनी होगी। इसलिए सिर्फ ट्यूमर पर फोकस करने की बजाए अब वैज्ञानिक मरीज की रासायनिक बनावट को भी जांच के दायरे में ला रहे हैं।

दूसरी तरफ हमारे बाहरी रासायनिक वातावरण का गहरा असर शरीर के रासायनिक संतुलन पर पड़ता है। रसायनों का यह हमला हमारे जीवन पर बढ़ता जा रहा है। दूसरे विश्वयुद्ध के समय आयुधों के लिए या लोगों के सामूहिक संहार के लिए बने ऑर्गैनोक्लोरीन जैसे रसायनों को उद्योगों ने हमारे रोज के इस्तेमाल की चीजों में तब्दील कर दिया। धुलाई, सफाई और सौंदर्यवर्धन से लेकर कीटाणु-जीवाणु, मच्छर-मक्खी और फसलों की खरपतवार के नाश तक के लिए बने उत्पादों में ये जहरीले रसायन भरपूर हैं, जिन्हें हम बेतकल्लुफी से इस्तेमाल करते हैं। इनका इस्तेमाल बढ़ने के साथ ही कैंसर होने की संभावना भी बढ़ती है। इसी के साथ हमारी जीवनशैली की कमियां भी नत्थी हैं, जो कैंसर को बढ़ावा देती हैं। इस अर्थ में कैंसर कोई ऐसी बीमारी नहीं जो कीटाणुओं से होती है, बल्कि कई कारकों का दुष्परिणाम है जो शरीर के मेटाबॉलिक संतुलन को बिगाड़ देते हैं और यह बिगड़ाव कैंसर के रूप में सामने आता है। यह दरअसल कैंसर की रोकथाम का एक महत्वपूर्ण बिंदु है।

इन बाहरी और भीतरी हमलों के खिलाफ शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र लगातार काम करता रहता है। जीवन भर हर एक के शरीर में लगातार ‘कैंसर’ कोशिकाएं बनती रहती हैं और उन्हें शरीर नष्ट भी करता रहता है। लेकिन एक सीमा के बाद जब उन्हें रोक पाना प्रतिरक्षा तंत्र के बस में नहीं होता, तब कैंसर बीमारी के रूप में फैलने लगता है, जिसे रोकने के लिए इलाज की जरूरत होती है।

इलाज की इन तकनीकों ने कई तरह के कैंसरों में मरीजों का जीवन बचाया है, या पहले से आसान बनाया है। अमरीका में 1990 से 2007 के बीच कैंसर से मृत्यु दर में पुरुषों में 22 और महिलाओं में 14 फीसदी की कमी आई है। 1975 में आधी संख्या में ही मरीज 5 साल तक जी पाते थे, अब करीब 70 फीसदी मरीजों का जीवन पांच साल तक खिंच जाता है। यह प्रगति महत्वपूर्ण है, पर काफी नहीं। इतना आगे बढ़ पाने के बाद भी हम अभी कैंसर से मुक्ति के उपाय के आस-पास भी नहीं हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक दुनिया में हर साल सवा करोड़ नए कैंसर मरीजों की पहचान होती है और इस साल 75 लाख लोग इस बीमारी से मर जाएंगे। 20 साल में कैंसर से मरने वालों की संख्या सालाना लगभग दोगुनी- 1.2 करोड़ तक हो जाएगी। कैंसर दरअसल बड़ी उम्र की बीमारी है। पुराने होते शरीर की कोशिकाएं भी करोड़ों बार के विभाजन के बाद स्वाभाविक ही, थक जाती हैं, असामान्य होने लगती हैं उनमें बदलाव, म्यूटेशन आने लगते हैं। इसलिए लोगों की उम्र लंबी होने के और बड़ी उम्र के लोगों की आबादी बढ़ने के साथ-साथ कैंसर के मरीजों की संख्या बढ़ रही है।

भारत में 25 लाख कैंसर के मरीज हैं और हर साल 8 लाख से ज्यादा नए मामले दर्ज होते हैं और साढ़े पांच लाख मर भी जाते हैं। इनके अलावा हज़ारों हैं जो कैंसर अस्पताल तक पहुंच ही नहीं पाते। हमारे यहां 70 फीसदी मामलों में एडवांस स्टेज में ही मरीज इलाज के लिए पहुंच पाता है। तब तक बीमारी काबू के बाहर हो जाती है। आर्थिक स्थिति भी कई बार पूरे इलाज से मरीज को वंचित रखती है और इस तरह बहुमूल्य मानव संसाधन का नुकसान होता है। जो आर्थिक क्षमता रखता है, वह मौजूदा महंगे, लंबे इलाज से बंधा रहता है। इलाज कितना कारगर होगा, वह बच पाएगा या नहीं इसी अनिश्चितता में लगातार भावनात्मक ऊहा-पोह की स्थिति में रहता है। कैंसर व्यक्ति के साथ-साथ परिवार के लिए भी आर्थिक और भावनात्मक सदमे का कारण है।

अगर पहली या दूसरी अवस्था में ही कैंसर को पहचान कर पूरा इलाज करवाया जाए तो 80 फीसदी तक मरीजों का जीवन बच सकता है जबकि स्टेज तीन या चार के मरीजों के बचने की संभावना 20 फीसदी तक ही होती है।

जो इलाज की तकनीकें और दवाएं मरीज को उपलब्ध हैं, वे भी फिलहाल कैंसर से मुक्ति का तरीका नहीं हैं। कैंसर से मुक्ति का रास्ता लंबा है और इसका भविष्य इन्हीं मौजूदा आजमाइशों की सफलता पर निर्भर करेगा।

कैंसर से निजात की उम्मीदें और संभावनाएं- 1

कैंसर को समझने और इसका इलाज ढूंढने के लिए दुनिया भर में चल रहे हजारों-लाखों प्रयोगों का सार दे पाना आसान नहीं है। इस विषय पर कुछ जानकारी पाने के बाद यह आमुख-कथा लिखी,जो नवंबर में शुक्रवार पत्रिका में प्रमुखता से छपी। उस लंबे लेख को दो टुकड़ों में दे रही हूं। और, चूंकि यह एक व्यावसायिक पत्रिकाके लिए, मास कंजम्शन के लिए लिखा गया लेख है, इसलिए इसमें अनुसंधान की राजनीतिकी बारीकियां शामिल नहीं हो पाई हैं। उस पर आगे कभी। वैसे, मूल बात यह है किअखबार,टीवी और पत्रिकाएं जिस उत्साह से कैंसर ब्रेकथ्रू की खबरें देते हैं, वे मरीज के उत्साह का कारण कभी नहीं बन पातीं। यह बात विस्तार से अगले किसी लेख में।
-आर. अनुराधा


दुनिया की तीन बड़ी हस्तियों का कैंसर की वजह से असमय गुज़र जाना हाल के दिनों में चर्चा का बड़ा विषय रहा। हेवीवेट मुक्केबाजी के विश्व चैंपियन मुहम्मद अली को कई बार पछाड़ने वाले ‘स्मोकिंग’ जो फ्रेज़र को लिवर के कैंसर ने पछाड़ दिया। पर्सनल कंप्यूटर के पितामह और एप्पल कंप्यूटर कंपनी के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स सात साल तक पैंक्रियाटिक कैंसर से जूझते हुए आखिर हार गए। इस साल फिजियोलॉजी या मेडीसिन के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाले तीन इम्यूनोलॉजिस्ट में से एक प्रो. राल्फ स्टीनमैन की भी सितंबर के अंत में पैंक्रियाटिक कैंसर से मौत हुई।

दिलचस्प बात यह है कि प्रो. स्टीनमैन ने ही 1973 में प्रतिरक्षा प्रणाली की डेंड्रीटिक कोशिकाओं का पता लगाया था जो प्रतिरक्षा तंत्र को संक्रमण और कैंसर के खिलाफ चेताने का काम करती है। उनकी इसी तकनीक के आधार पर 2001 में इमैटिनिब नाम की पहली थेरैप्यूटिक कैंसर वैक्सीन बनाई गई जो कैंसर हो जाने पर उसके इलाज के लिए दी जाती है। इस क्रांतिकारी खोज के बाद से ही कैंसर के लिए कीमोथेरेपी में अनुसंधानों को नई दिशा मिली।

इमैटिनिब जैसी टार्गेटेड दवाओं की खासियत यह है कि ये स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना सीधे कैंसर कोशिकाओं को पहचान कर उन पर हमला करती हैं और उन्हें खत्म कर देती हैं। जबकि परंपरागत कीमोथेरेपी की दवाएं बीमार और स्वस्थ कोशिकाओं में अंतर किए बिना शरीर की सभी तेजी से बढ़ती कोशिकाओं पर हमला करती चलती हैं। इलाज की इस तकनीक में सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह हर मरीज और मर्ज की खासियत के मुताबिक खासतौर पर उसी को लक्ष्य करती है। इन डिजाइनर दवाओं का दायरा छोटा लेकिन सटीक होता है। जबकि पहले कुछ ही दवाएं हर प्रकार के कैंसर के इलाज में काम में लाई जाती थीं।

पिछले कुछेक साल में कई तरह के कैंसरों के खिलाफ विभिन्न टार्गेटेड इलाज यानी ‘स्मार्ट बम’ विकसित किए गए। थेरेप्यूटिक वैक्सीन के अलावा ल्यूकेमिया यानी रक्त के कैंसर के लिए इम्यूनोथेरेपी, त्वचा के कैंसर मेलानोमा के लिए टार्गेटेड थेरेपी, ठोस कैंसरों के लिए एंटीएंजियोजेनिक यानी ट्यूमर को पोषण पहुंचाने वाली बारीक रक्त नलियों से आपूर्ति रोककर उसे मार देने की थेरेपी का सफल ईजाद किया गया। यहां तक कि जेनेटिक कीमोथेरेपी यानी जीन में हुए कैंसरकारी बदलावों को दवाओं के जरिए उलट देने, प्रतिरोधक तंत्र की कोशिकाओं में जेनेटिक बदलाव करके उन्हें कैंसर को पहचानने और लड़कर उसे खत्म कर देने के लिए प्रशिक्षित करने जैसी नई तकनीकों के प्रयोगों को भी ट्रायल के विभिन्न चरणों में सफलता मिली है।

परंपरागत तरीकों में भी कम रेडिएशन और सरल कीमोथेरेपी से बेहतर प्रभाव पैदा करने जैसे सुधार मरीजों के लिए काफी कारगर सिद्ध हुए हैं। इन खोजों और सफलताओं का सिलसिला लगातार जारी है। इनके असर से चमत्कृत वैज्ञानिक तो यहां तक कहने लगे हैं कि कैंसर भविष्य में डायबिटीज़ या हाइपरटेंशन जैसी बीमारी हो जाएगी जो पूरी तरह ठीक भले ही न हो पर उसके साथ बेधड़क लंबा जीवन जिया जा सकेगा।

कैंसर के इलाज की खोज की दिशा में तूफानी रफ्तार से चल रहे अनुसंधानों, परीक्षणों को देखते हुए इसे कैंसर अनुसंधान का स्वर्ण काल कहना शायद गलत न होगा, जैसा कि कैंसर रिसर्च यूके के हरपाल कुमार भी कहते हैं। दुनिया भर में इस समय कैंसर के इलाज की सैकड़ों नई पद्यतियों के परीक्षण चल रहे हैं। अकेले अमेरिका में ही कैंसर के इलाज के लिए वैक्सीनों के कोई साढ़े चार सौ क्लीनिकल ट्रायल इस समय विभिन्न स्तरों पर चल रहे हैं। कैंसर से बचाव की वैक्सीन के भी अनेक ट्रायल विभिन्न अनुसंधान संस्थानों और अस्पतालों में जारी हैं। इनमें से कुछेक ही सफल होते हैं। जो असफल होते हैं, वे भी कैंसर के डेटाबैंक में महत्वपूर्ण जानकारियां जोड़ते हैं। वैज्ञानिकों के पास अब पहले से ज्यादा दवाएं और ज्यादा असरदार विकल्प मौजूद हैं।

इतनी उम्मीदों के बाद भी तथ्य यह है कि कैंसर ज्यादातर लोगों की जिंदगियों पर भारी है। कैंसर का टार्गेटेड इलाज उपलब्ध होने और वैज्ञानिकों द्वारा उनकी सफलताओं के दावों के बाद भी स्टीव जॉब्स और डॉ स्टीनमैन तक को इस बीमारी के आगे झुकना पड़ा। टार्गेटेड थेरेपी खोज लेने वाला वैज्ञानिक कैंसर होने का पता लगने के चार साल में भी अपने लिए कैंसर का सटीक इलाज नहीं खोज पाया।

लैबोरेटरी के नियंत्रित माहौल में इलाज के सफल उदाहरण अगर वास्तविकता की जमीन पर खड़े नहीं हो पा रहे हैं तो आखिर कसर कहां छूट रही है। क्या कैंसर के इलाज से बंधी उम्मीदें अवास्तविक हैं? एक हद तक। लैब में मिली किसी शुरुआती सफलता को प्रायोजक कंपनी अपने फायदे के लिए खूब प्रचारित करती है। चूंकि यह बीमारी जानलेवा और सनसनीखेज़ मानी जाती है, इसलिए मीडिया भी इसके इलाज की छोटी खबरों को बड़ा बनाकर पेश करता है। और आम आदमी समझता है कि इस मारक बीमारी का पक्का इलाज उसके बेद करीब है। अनुसंधानकर्ता भी कभी-कभार अतिउत्साह में अपनी खोजों को कैंसर का अंतिम इलाज मान बैठते हैं। जबकि परिपक्व अनुसंधानकर्ता समझते हैं कि कैंसर के कारणों की बहुलता के कारण उसके इलाज की पद्यति तय कर पाना सहज नहीं है। फिर भी कैंसर के इलाज ढूंढने के कई रास्ते बड़ी उम्मीदों से भरे हैं।

40 साल पहले 1971 में अमरीका में नैशनल कैंसर एक्ट 1971 बना था जिसमें कैंसर रिसर्च के लिए सरकारी फंडिंग का भी वादा था। पिछले कुछ वर्षों में अमरीका के नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट का सालाना बजट करीब 5 अरब डॉलर का रहा है। इन अनुसंधानों से कैंसर के बारे में काफी कुछ पता चला है। यह एक बीमारी नहीं बल्कि सैकड़ों किस्म की बीमारियां हैं। अमेरिकन एसोसिएशन ऑफ कैंसर रिसर्च की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक कैंसर 200 से ज्यादा प्रकार की बीमारियां हैं, जिनमें हर एक के कारण और इलाज में थोड़ा-थोड़ा अंतर है। इस जानकारी में ही इस सवाल का आधा जबाव शामिल है कि इतने वर्षों बाद भी क्यों कैंसर का इलाज नहीं ढूंढा जा पाया। दरअसल कैंसर का कोई एक इलाज होगा, इसमें संदेह है। बल्कि ज्यादा संभावना यह है कि जिस तरह कई वायरल बीमारियों के अलग-अलग टीके लगाए जाते हैं, उसी तरह हर कैंसर का इलाज अलग तरह से होगा जो मरीज की और कैंसर की रासायनिक विशेषताओं के आधार पर डिजाइन किया जाएगा।

किसी भी बीमारी के इलाज के लिए प्रयोगशाला में मिली सफलता को बाजार तक आने के पहले लंबा रास्ता तय करना पड़ता है। इन पद्यतियों को कई स्वीकृतियों के बाद पहले जीवों पर, फिर कुछ चुनिंदा मरीजों पर, और फिर बड़ी संख्या में मरीजों पर आजमाया जाता है। इनके नतीजों के आधार पर ही किसी तकनीक या दवा को इस्तेमाल के लिए मंजूरी मिलती है। इसमें काफी समय और धन खर्च होता है। किसी नए इलाज का बाजार तक पहुंचने का सफर एक बड़ी छलांग की बजाए धीमी चाल से ही तय हो पाता है। इस धीमी चाल की वजह से कई इलाज उपलब्ध होने के बावजूद हरेक स्थिति, व्यक्ति पर आजमाये नहीं जा सके हैं, और इसलिए पता नहीं है कि किन मरीजों के लिए वे कारगर होंगे या फिर उनका बेहतरीन इस्तेमाल कैसे किया जा सकता है।

प्रयोगशाला से सफल होकर बाहर आए कई टार्गेटेड इलाज कुछेक वर्षों से कैंसर के मरीजों के लिए उपलब्ध हैं, लेकिन कुछ ही प्रकार के कैंसरों के लिए। स्तन कैंसर के लिए हरसेप्टिन विश्व भर में उपलब्ध है। स्तन कैंसर के सौ में से 20 से 30 मरीजों में कैंसर कोशिकाएं बहुत ज्यादा हर-2 प्रोटीन पैदा करती हैं। इसे हर-2 पॉजिटिव कैंसर कहा जाता है। हर-2 कैंसर की सतह पर पाया जाने वाला प्रोटीन है जो कैंसर को बढ़ने का संकेत करता है और ट्यूमर बढ़ता जाता है। इसी प्रोटीन से कैंसर के प्रकार की पहचान करके हरसेप्टिन नाम की टार्गेटेड कीमोथेरेपी, सामान्य कीमोथेरेपी के साथ दी जाती है। हरसेप्टिन हर-2 प्रोटीन को ब्लॉक कर देती है जिससे कैंसर कोशिकाओं को बढ़ोत्तरी का इशारा नहीं मिलता और वे नष्ट हो जाती हैं। इस इलाज का असर अभूतपूर्व रहा है और कई बार सामान्य कीमो करा चुके, हार चुके मरीज भी स्वस्थ हो गए। इमैटिनिब मैसिलेट या ग्लीवैक भी क्रॉनिक मायलॉयड ल्यूकेमिया के लिए टार्गेटेड थेरेपी में इस्तेमाल होने वाली दवा है।

स्टीव जॉब्स और डॉ स्टीनमैन दोनों ही पैंक्रियास के कैंसर से पीड़ित थे जिसमें सिर्फ 4 फीसदी मरीज ही पांच साल तक जी पाते हैं और ज्यादातर मरीजों का जीवन एक साल के भीतर ही सिमट जाता है। ऐसे में दोनों कैंसर का पता लगने के बाद सात या चार साल तक जी पाए तो इसमें टार्गेटेड इलाज की नई तकनीकों का भी बड़ा हाथ रहा है। कैंसर के इलाज में पूरी सफलता या कैंसर के साथ जीवन लंबा हो पाने के दो मुख्य कारक हैं – मानव जीनोम की मैपिंग जो 2001 में पूरी हो चुकी है, और जीवन शैली जैसे सरल कारकों के कैंसर होने में योगदान की जानकारी।

(...जारी)
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