कैंसर ब्रेक-थ्रू की खबरें आए दिन जोर-शोर से देते रहने वाले पत्रकार यह भी करते हैं। एक नमूना देखिए।
लंदन की प्रतिष्ठित डेली मेल में एक हालिया खबर है कि रेड वाइन से ब्रेस्ट कैंसर की रोकथाम में मदद मिल सकती है। "लैबोरेटरी में परीक्षणों से पता चला है कि अंगूर के छिलके में पाया जाने वाला रसायन ज्यादातर मामलों में इस बीमारी को रोक सकता है।"
खबर में कहानी कुछ इस तरह बताई गई है कि किसी खाद्य पदार्थ में कोई खास रसायन होता है जिसके किसी खास गुण को प्रयोगशाला की पेट्री डिश में देखा गया। इस तरह साबित होता है कि वह खाद्य पदार्थ कैंसर को खत्म करता है।
रेड वाइन में रेसवेराट्रोल नाम का रसायन पाया जाता है जो कि अंगूर के छिलके में होता है। पाया गया है कि यह रसायन क्विनोन रिडक्टेज़ नाम के एंजाइम की सक्रियता को बढ़ाता है, जो कि ईस्ट्रोजेन हार्मोन के एक व्युत्पन्न को वापस ईस्ट्रोजन में बदल देता है। देखा गया है कि वह व्युत्पन्न डीएनए को नुकसान पहुंचा सकता है और डीएनए को नुकसान होने से उसमें म्यूटेशन हो सकता है और म्यूटेशन से कैंसर होने की संभावना होती है। इस तरह पत्रकारों ने यह साबित कर दिया कि रेड वाइन पीने से कैंसर की रोकथाम होती है।
यह कहानी है, एक अनुसंधान से मिले तथ्यों की एक पत्रकार के नजरिए से ‘खबर’ की। वास्तविक जगत में देखें तो रेड वाइन में उस जरा से रसायन के मुकाबले कई हजार गुना ज्यादा मात्रा में कई और रसायन होते हैं, जिनके किसी व्यक्ति के बड़े से विविधता भरे शरीर पर कई तरह के असर होते हैं। उसका सबसे महत्वपूर्ण रसायन अल्कोहल है, जो टूट कर एसीटेल्डिहाइड बनाता है जो कि खुद डीएनए को बड़ा नुकसान पहुंचाता है। यानी अल्कोहल भयानक रूप से कैंसरकारी है। इसकी छोटी सी मात्रा भी डीएनए को नुकसान पहुंचाने का माद्दा रखती है।
तो, खबर को क्या इस नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए? क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि इस खबर को लिखने-छापने वाला किसी रेड वाइन बनने वाली कंपनी के हाथों बिक गया?
सबसे मजेदार तथ्य तो मैंने यह खोज निकाला कि इंग्लैंड के डेली मेल अखबार के ऑनलाइन एडीशन में यह खबर 30 सितंबर 2011 को आई है। और वहीं के टेलीग्राफ के ऑनलाइन संस्करण में यह सात जुलाई 2008 को ही छप चुकी है। तो क्या पुरानी खबरे दोबारा लिखने के लिए किसी पत्रकारीय आचार-संहिता को देखने की जरूरत नहीं है? पाठक तो विद्वान पत्रकारों के सामने मूर्ख हैं, लेकिन ये पत्रकार खुद इस तरह मूर्ख बन रहे हैं, क्या उन्हें यह पता भी है?
This blog is of all those whose lives or hearts have been touched by cancer. यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी ज़िंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।
Wednesday, November 16, 2011
Tuesday, November 15, 2011
कैंसर अनुसंधान की मीडिया कवरेजः ब्रेक-थ्रू के बाद हार्ट-ब्रेक?
पिछले कुछ दिन मैंने कैंसर के बेहतर इलाज ढूढने के लिए हो रहे अनुसंधानों को पढ़ने और जानने में लगाए। इंटरनेट पर ढेरों वैज्ञानिक सूचनाएं और आंकड़े मिल रहे हैं। हमेशा मिल जाते हैं। कोई नई बात नहीं। पर नई बात एक जो देखी, वह थी विभिन्न ट्रायल्स और अनुसंधानों को विभिन्न चरणों में मिली सफलता की खबरों का ऑनलाइन अखबारों में प्रस्तुतीकरण। कम से कम पांच अनुसंधानों के नतीजों को पिछले 10 या तीस साल का सबसे बड़ा ब्रेकथ्रू, सबसे बड़ी खोज बताया गया था। ऐसे में मेरे लिए भी तय करना मुश्किल हो रहा था कि वास्तव में किसे सबसे बड़ी खबर मानूं। बल्कि सवाल यह भी था कि किसी भी नतीजे को अभी से अंतिम मानकर ‘सबसे बड़ी’ या छोटी ही सही, सफलता माना भी जाए या नहीं।
दरअसल इलाज के लिए किसी भी दवा या तकनीक को अनुसंधानों में पहले प्रयोगशाला में पेट्रीडिश में जीवित ऊतकों और फिर जीवों पर आजमाया जाता है। यहां प्री-ट्रायल स्टेज के आंकड़ों के आधार पर उन्हें अगले चरण- मनुष्यों पर ट्रायल के लिए इजाजत मिलती है। स्टेज शून्य में कुछेक चुनिंदा मरीजों को बेहद हल्की डोज़ देकर इनके असर को देखा जाता है। इसके बाद पहले चरण के ट्रायल में 20 से 100 स्वस्थ लोगों पर उसे आजमाया जाता है। इसमें मिले नतीजों के अनुसार ही इसे दूसरे चरण के ट्रायल में लिया जाता है जिसमें 100 से 300 स्वस्थ और बीमार लोगों को शामिल किया जाता है।
इसके बाद तीन सौ से तीन हजार लोगों पर इसे आजमाकर नतीजे देखे जाते हैं। इन सभी चरणों में जाने से पहले तकनीक को कई तरह की मंजूरियों के रोड़े पार करने पड़ते हैं। इसमें भी सफल होने के बाद ही किसी दवा या थेरेपी को आम क्लीनिकल व्यवहार के लिए मंजूरी मिल पाती है। इस पूरी प्रक्रिया में पैसे तो लगते ही हैं, समय भी खूब लगता है। न्यूनतम पांच-सात साल से लेकर दशकों तक। इसमें कोई कटौती नहीं की जा सकती। दवा की बिक्री शुरू होने के बाद भी इसकी मार्केटिंग पर नजर रखी जाती है। इसके बाद भी उस दवा या तकनीक में सुधार-संशोधन के लिए विभिन्न अनुसंधान जारी रहते हैं।
इस बीच विभिन्न शुरुआती चरणों में मिल रही सफलता को भी भुना लेने के लिए उस परियोजना की प्रायोजक कंपनी उसका खूब प्रचार करती है। वैज्ञानिक भी कई बार अपनी सफलताओं से उत्साहित हो जाते हैं। उधर सनसनीखेज खबरों की ताक में बैठे पत्रकार भी इन महत्वपूर्ण लेकिन निचले स्तर की सफलताओं को अपनी खबरों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। मानो ये इलाज बस मरीजों तक पहुंचा ही चाहते हैं। और ये महान ब्रेकथ्रू तो जी एकदम सफल हैं। यह कैंसर को जड़ से मिटा देने वाला वंडर ड्रग है...आदि, इत्यादि। इस बीच वे यह भूल जाते हैं कि इन खबरों को गंभीरता से ले रहे पाठक-दर्शक की समझ का क्या होगा। उनमें से कई इस बीमारी से गुजर रहे होंगे और नाउम्मीद हो चुके होंगे।
लगभग मारक, ज्यादातर लोगों के लिए जानलेवा बीमारी कैंसर के मरीज और उससे जुड़े लोग इन अनुसंधानों को बड़ी उम्मीद से देखते हैं। लैबोरेटरी में जीवों या पेट्री डिश में रखे जीविक ऊतकों पर भी किसी दवा या तकनीक के कारगर होने की खबर जब जोर-शोर से मीडिया में उभारी जाती है तो इन मरीजों को वह दवा या तकनीक जीने की नई रौशनी की तरह दिखाई पड़ती हैं। बेशक, उस अनुसंधान में शामिल मरीजों को तो जीने का एक और मौका मिलने जैसा लगता होगा, लेकिन दूर बैठे देख रहे बाकी लोगों के लिए तो बस एक सपना ही रह जाता है, इस इलाज तक पहुंच पाना।
ऐसे में किसी भी वैज्ञानिक विषय, खास तौर पर लाइलाज-सी या कठिन बीमारियों के नए इलाज के ईजाद की कवरेज के समय पत्रकारों को संयत होकर लिखना जरूरी है ताकि भ्रम न फैलें और पाठक या दर्शक जान सके कि उस इलाज की जमीनी हकीकत क्या है और उसे उससे कितनी उम्मीद रखनी है।
दरअसल इलाज के लिए किसी भी दवा या तकनीक को अनुसंधानों में पहले प्रयोगशाला में पेट्रीडिश में जीवित ऊतकों और फिर जीवों पर आजमाया जाता है। यहां प्री-ट्रायल स्टेज के आंकड़ों के आधार पर उन्हें अगले चरण- मनुष्यों पर ट्रायल के लिए इजाजत मिलती है। स्टेज शून्य में कुछेक चुनिंदा मरीजों को बेहद हल्की डोज़ देकर इनके असर को देखा जाता है। इसके बाद पहले चरण के ट्रायल में 20 से 100 स्वस्थ लोगों पर उसे आजमाया जाता है। इसमें मिले नतीजों के अनुसार ही इसे दूसरे चरण के ट्रायल में लिया जाता है जिसमें 100 से 300 स्वस्थ और बीमार लोगों को शामिल किया जाता है।
इसके बाद तीन सौ से तीन हजार लोगों पर इसे आजमाकर नतीजे देखे जाते हैं। इन सभी चरणों में जाने से पहले तकनीक को कई तरह की मंजूरियों के रोड़े पार करने पड़ते हैं। इसमें भी सफल होने के बाद ही किसी दवा या थेरेपी को आम क्लीनिकल व्यवहार के लिए मंजूरी मिल पाती है। इस पूरी प्रक्रिया में पैसे तो लगते ही हैं, समय भी खूब लगता है। न्यूनतम पांच-सात साल से लेकर दशकों तक। इसमें कोई कटौती नहीं की जा सकती। दवा की बिक्री शुरू होने के बाद भी इसकी मार्केटिंग पर नजर रखी जाती है। इसके बाद भी उस दवा या तकनीक में सुधार-संशोधन के लिए विभिन्न अनुसंधान जारी रहते हैं।
इस बीच विभिन्न शुरुआती चरणों में मिल रही सफलता को भी भुना लेने के लिए उस परियोजना की प्रायोजक कंपनी उसका खूब प्रचार करती है। वैज्ञानिक भी कई बार अपनी सफलताओं से उत्साहित हो जाते हैं। उधर सनसनीखेज खबरों की ताक में बैठे पत्रकार भी इन महत्वपूर्ण लेकिन निचले स्तर की सफलताओं को अपनी खबरों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। मानो ये इलाज बस मरीजों तक पहुंचा ही चाहते हैं। और ये महान ब्रेकथ्रू तो जी एकदम सफल हैं। यह कैंसर को जड़ से मिटा देने वाला वंडर ड्रग है...आदि, इत्यादि। इस बीच वे यह भूल जाते हैं कि इन खबरों को गंभीरता से ले रहे पाठक-दर्शक की समझ का क्या होगा। उनमें से कई इस बीमारी से गुजर रहे होंगे और नाउम्मीद हो चुके होंगे।
लगभग मारक, ज्यादातर लोगों के लिए जानलेवा बीमारी कैंसर के मरीज और उससे जुड़े लोग इन अनुसंधानों को बड़ी उम्मीद से देखते हैं। लैबोरेटरी में जीवों या पेट्री डिश में रखे जीविक ऊतकों पर भी किसी दवा या तकनीक के कारगर होने की खबर जब जोर-शोर से मीडिया में उभारी जाती है तो इन मरीजों को वह दवा या तकनीक जीने की नई रौशनी की तरह दिखाई पड़ती हैं। बेशक, उस अनुसंधान में शामिल मरीजों को तो जीने का एक और मौका मिलने जैसा लगता होगा, लेकिन दूर बैठे देख रहे बाकी लोगों के लिए तो बस एक सपना ही रह जाता है, इस इलाज तक पहुंच पाना।
ऐसे में किसी भी वैज्ञानिक विषय, खास तौर पर लाइलाज-सी या कठिन बीमारियों के नए इलाज के ईजाद की कवरेज के समय पत्रकारों को संयत होकर लिखना जरूरी है ताकि भ्रम न फैलें और पाठक या दर्शक जान सके कि उस इलाज की जमीनी हकीकत क्या है और उसे उससे कितनी उम्मीद रखनी है।
Sunday, October 30, 2011
कैंसर रिसर्च फंडिंग और सपोर्ट का फंडाः व्यंग्य की नज़र से
अमरीका के नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट का कैंसर अनुसंधान पर सालाना बजट कोई 5 अरब डॉलर का है। इसके अलावा सूज़न के. कोमेन फॉर क्योर नाम की संस्था हर साल अनेक लोगों और एजेंसियों को लाखों डॉलर देती है ताकि स्तन कैंसर का इलाज ढ़ूंढा जा सके। बीसियों साल से दुनिया भर की लैबोरेटरीज़ में ये रिसर्च चल रहे हैं, लेकिन अभी तक कैंसर के इलाज के नाम पर 99 फीसदी वही इलाज हैं जो 20 साल पहले थे, थोड़े-बहुत फाइन-ट्यूनिंग के साथ। मरीज को इस रिसर्च का कुछ भी हिस्सा नहीं मिला है। इसके पीछे क्या पॉलिटिक्स हैं, भ्रष्टाचार है? न उसका इलाज का खर्च कम हुआ, न कैंसर से बचाव और न ही इलाज की सफलता का भरोसा।
इन कार्टूनों से कुछ समझ सकें तो बताएं।
इन कार्टूनों से कुछ समझ सकें तो बताएं।
Wednesday, October 19, 2011
स्टीव जॉब्स- दुनिया को कैंसर से ऐसा नुकसान शायद न होता अगर...
ऐप्पल डॉट कॉम के मुखपृष्ठ पर सिर्फ उस कंपनी के सह-संस्थापक स्टीव जॉब्स का चित्र है। उनका इस महीने के सुरू में निधन हो गया। मुखपृष्ठ का चित्र ऐसा है-
इस व्यक्ति को हर अखबार पढ़ने वाला, टीवी देखने वाला व्यक्ति पहचनता है, भले ही उसके पास आईफोन, आईपॉड, आईमैक, आईपैड,... या कोई और 'आई' हो या नहीं। इतनी जल्दी, अपने सबसे ज्यादा प्रोडक्टिव समय में इस व्यक्ति का जाना न्यू मीडिया की दुनिया को कई औजारों से वंचित कर देगा/रहा है, यह तय है। हालांकि और बहुत से लोग एपल से सस्ते, उसी तरह के उत्पाद बना रहे हैं, लेकिन आई में जो बात है (कीमत सहित, जो कि और भी उत्सुकता, ललक पैदा करती है, मेरे जैसे लोगों के मन में, जो उन्हें नहीं खरीद पाते।) वह किसी और में कहां। खैर।
फिलहाल तकनीक की नहीं, स्टीव का जीवन लेने वाली बीमारी कैंसर की बात हो रही है।
ठीक 8 साल पहले, अक्टूबर 2003 में स्टाव जॉब्स को एक खास तरह के पैंक्रियास का कैंसर होने का पता चला, जो कि सर्जरी से ठीक हो सकता था। लेकिन स्टीव ने अपने शाकाहार और प्राकृतिक चिकित्सा पर ज्यादा भरोसा किया और खान-पान के जरिए ही अपने कैंसर का इलाज करने की कोशिश करने लगे।
इस प्राकृतिक खान-पान चिकित्सा में उन्होंने नौ सबसे महत्वपूर्ण, कीमती शुरुआती महीने बर्बाद कर दिए जबकि व्यवस्थित इलाज का बेहतरीन परिणाम उन्हें मिल सकता था। जब आखिर उन्होंने अपना इलाज एलोपैथी पद्यति से कराने का फैसला किया, तब तक उनका कैंसर शरीर में फैल चुका था। जुलाई 2004 में उन्होंने सर्जरी भी करा ही ली। लेकिन बीच के इन नौ महीनों में सर्जरी या कहें, उचित इलाज से भागने का नतीजा यह रहा कि उनकी जिंदगी जरा छोटी हो गई।
कोई गारंटी तो नहीं थी कि वे कैंसर का इलाज कराकर पूरी तरह स्वस्थ हो जाते या उसके साथ ही दसियों साल और जीवित रहते, लेकिन निश्चित रूप से उनका सर्वाइवल लंबा और बेहतर होता। उनकी लंबी जिंदगी पूरी दुनिया के लिए नेमत होती। और अपनी जिंदगी को कौन ज़ाया करना चाहता है? कौन चाहता है कि वह ऐसे बेवक्त मरे?
अब हम स्टीव को सिर्फ अलविदा ही कह सकते हैं।
इस व्यक्ति को हर अखबार पढ़ने वाला, टीवी देखने वाला व्यक्ति पहचनता है, भले ही उसके पास आईफोन, आईपॉड, आईमैक, आईपैड,... या कोई और 'आई' हो या नहीं। इतनी जल्दी, अपने सबसे ज्यादा प्रोडक्टिव समय में इस व्यक्ति का जाना न्यू मीडिया की दुनिया को कई औजारों से वंचित कर देगा/रहा है, यह तय है। हालांकि और बहुत से लोग एपल से सस्ते, उसी तरह के उत्पाद बना रहे हैं, लेकिन आई में जो बात है (कीमत सहित, जो कि और भी उत्सुकता, ललक पैदा करती है, मेरे जैसे लोगों के मन में, जो उन्हें नहीं खरीद पाते।) वह किसी और में कहां। खैर।
फिलहाल तकनीक की नहीं, स्टीव का जीवन लेने वाली बीमारी कैंसर की बात हो रही है।
ठीक 8 साल पहले, अक्टूबर 2003 में स्टाव जॉब्स को एक खास तरह के पैंक्रियास का कैंसर होने का पता चला, जो कि सर्जरी से ठीक हो सकता था। लेकिन स्टीव ने अपने शाकाहार और प्राकृतिक चिकित्सा पर ज्यादा भरोसा किया और खान-पान के जरिए ही अपने कैंसर का इलाज करने की कोशिश करने लगे।
इस प्राकृतिक खान-पान चिकित्सा में उन्होंने नौ सबसे महत्वपूर्ण, कीमती शुरुआती महीने बर्बाद कर दिए जबकि व्यवस्थित इलाज का बेहतरीन परिणाम उन्हें मिल सकता था। जब आखिर उन्होंने अपना इलाज एलोपैथी पद्यति से कराने का फैसला किया, तब तक उनका कैंसर शरीर में फैल चुका था। जुलाई 2004 में उन्होंने सर्जरी भी करा ही ली। लेकिन बीच के इन नौ महीनों में सर्जरी या कहें, उचित इलाज से भागने का नतीजा यह रहा कि उनकी जिंदगी जरा छोटी हो गई।
कोई गारंटी तो नहीं थी कि वे कैंसर का इलाज कराकर पूरी तरह स्वस्थ हो जाते या उसके साथ ही दसियों साल और जीवित रहते, लेकिन निश्चित रूप से उनका सर्वाइवल लंबा और बेहतर होता। उनकी लंबी जिंदगी पूरी दुनिया के लिए नेमत होती। और अपनी जिंदगी को कौन ज़ाया करना चाहता है? कौन चाहता है कि वह ऐसे बेवक्त मरे?
अब हम स्टीव को सिर्फ अलविदा ही कह सकते हैं।
Sunday, October 16, 2011
कैंसर के इलाज में शरीर के नफे-नुकसान का हिसाब
स्तन कैंसर के इलाज और इसे रोकने की दवा टेमॉक्सिफेन के नुकसान भी हैं
मैंने अपनी किताब ‘इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी’ में अंतिम अध्याय में लिखा है कि मेरे सफल इलाज में, तीसरे स्टेज के कैंसर के बावजूद मेरा जीवन बच पाया तो इसमें ‘एक छोटी सी सफेद गोली टेमॉक्सिन का भी हाथ है’। अपने साइड इफेक्ट्स, जिसमें बच्चेदानी के आवरण का कैंसर तक शामिल है, के बावजूद यह स्तन कैंसर के मरीजों के लिए निश्चिक रूप से जीवन रक्षक है।
स्तन कैंसर का एक बड़ा कारण ईस्ट्रोजन हार्मोन की अधिकता भी है, जिस पर लगाम लगाने के लिए इलाज के बाद पांच साल तक टेमॉक्सिफेन नाम की गोली खाने की सलाह दी जाती है। यह दवा हॉर्मोन रिसेप्टर टेस्ट सकारात्मक आने पर और भी ज्यादा जरूरी समझी जाती है।
हाल ही में कई कैंसर अनुसंधान पत्रिकाओं में एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें बताया गया है कि टेमॉक्सिफेन से बड़ी उम्र की महिलाओं में मधुमेह होने का खतरा बढ़ जाता है। 65 साल से बड़ी 14 हजार स्तन कैंसर विजेताओँ पर अनुसंधान के बाद पाया गया कि उनमें से 10 फीसदी को 5 साल के टेमॉक्सिफेन इलाज के दौरान मधुमेह हो गया। यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के
वीमेंस मेडीकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में हुए इस रिसर्च के मुताबिक टेमॉक्सिफेन लेने से बड़ी उम्र की महिलाओं में मधुमेह का खतरा बढ़ गया।
लेकिन, रिसर्चर्स ने यह भी कहा है कि इसमें ‘खतरे’ की कोई बात नहीं है। क्योंकि टेमॉक्सिफेन का जितना फायदा मरीजों को मिलता है, उसके मुकाबले मधुमेह होने की संभावना का रिस्क बहुत ही छोटा है। कैंसर जानलेवा हो सकता है, पर मधुमेह के साथ वह बात नहीं, अगर उसे काबू में ऱखा जाए। दरअसल टेमॉक्सिफेन ईस्ट्रोजन नाम के हार्मोन को शरीर में बनने से रोकता है। यह हार्मोन महिलाओं के लिए जरूरी है, पर इसकी अधिकता या अनियमितता कई बार स्तन कैंसर को बढ़ावा भी देती है। ऐसे में स्तन कैंसर के मरीजों और कई बार, कैंसर होने की संभावना वाली महिलाओं को भी प्रिवेंशन के तौर पर टेमॉक्सिफेन दिया जाता है। ईस्ट्रोजन का एक काम शरीर में इंसुलिन हार्मोन को बढ़ाना भी है, जो कि रक्त में चीनी की मात्रा पर काबू रखता है। ऐसे में ईस्ट्रोजन की कमी का सीधा असर इंसुलिन पर भी पड़ता है।
टेमॉक्सिफेन के कई और साइड इफेक्ट पहले से ज्ञात है, जैसे खून का थक्का बनना, बच्चेदानी के कैंसर की संभावना, मोतियाबिंद और स्ट्रोक। लेकिन इनके बावजूद यह दवा दसियों वर्षों से दी जा रही है और कारगर भी रही है।
इस रिसर्च में दो और बातें सामने आईं। पहली- टेमॉक्सिफेन का इस्तेमाल बंद करने के बाद इसका असर भी खत्म हो जाता है, यानी इसकी वजह से मधुमेह का रिस्क भी खत्म हो जाता है। दूसरे, एक अन्य ईस्ट्रोजन इनहिबिटर एरोमाटेज़, जो कि अरिमिडेक्स और एरोमासिन नामों से हिंदुस्तान में मिलता है, का कोई ऐसा असर नहीं देखा गया जो मधुमेह से संबंधित हो। कारण यह है कि इसका काम करने का रासायनिक तरीका अलग है।
जो भी हो, साफ बात यह है कि कैंसर के इलाज की हर पद्यति में, हर दवा में शरीर को लगातार बड़े नुकसान होने का खतरा रहता ही है, और ये नुकसान दिखाई भी पड़ते रहते हैं। लेकिन.... लेकिन यह बीमारी इतनी मारक और तेजी से फैलने वाली है कि इसे रोकने के लिए छोटे-मोटे खतरों को नजर-अंदाज कर हर संभव इलाज पहले कराना चाहिए। जीवन बचे, वह सबसे जरूरी है।
शरीर होगा तो उसकी रिपेयर-मेंटेनेन्स होती रहेगी, उसका वक्त मिलेगा। लेकिन अगर कैंसर को न रोक गया तो यह जीवन को ही खत्म कर देगा।
मैंने अपनी किताब ‘इंद्रधनुष के पीछे-पीछेः एक कैंसर विजेता की डायरी’ में अंतिम अध्याय में लिखा है कि मेरे सफल इलाज में, तीसरे स्टेज के कैंसर के बावजूद मेरा जीवन बच पाया तो इसमें ‘एक छोटी सी सफेद गोली टेमॉक्सिन का भी हाथ है’। अपने साइड इफेक्ट्स, जिसमें बच्चेदानी के आवरण का कैंसर तक शामिल है, के बावजूद यह स्तन कैंसर के मरीजों के लिए निश्चिक रूप से जीवन रक्षक है।
स्तन कैंसर का एक बड़ा कारण ईस्ट्रोजन हार्मोन की अधिकता भी है, जिस पर लगाम लगाने के लिए इलाज के बाद पांच साल तक टेमॉक्सिफेन नाम की गोली खाने की सलाह दी जाती है। यह दवा हॉर्मोन रिसेप्टर टेस्ट सकारात्मक आने पर और भी ज्यादा जरूरी समझी जाती है।
हाल ही में कई कैंसर अनुसंधान पत्रिकाओं में एक रिपोर्ट छपी है, जिसमें बताया गया है कि टेमॉक्सिफेन से बड़ी उम्र की महिलाओं में मधुमेह होने का खतरा बढ़ जाता है। 65 साल से बड़ी 14 हजार स्तन कैंसर विजेताओँ पर अनुसंधान के बाद पाया गया कि उनमें से 10 फीसदी को 5 साल के टेमॉक्सिफेन इलाज के दौरान मधुमेह हो गया। यूनिवर्सिटी ऑफ टोरंटो के
वीमेंस मेडीकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल में हुए इस रिसर्च के मुताबिक टेमॉक्सिफेन लेने से बड़ी उम्र की महिलाओं में मधुमेह का खतरा बढ़ गया।
लेकिन, रिसर्चर्स ने यह भी कहा है कि इसमें ‘खतरे’ की कोई बात नहीं है। क्योंकि टेमॉक्सिफेन का जितना फायदा मरीजों को मिलता है, उसके मुकाबले मधुमेह होने की संभावना का रिस्क बहुत ही छोटा है। कैंसर जानलेवा हो सकता है, पर मधुमेह के साथ वह बात नहीं, अगर उसे काबू में ऱखा जाए। दरअसल टेमॉक्सिफेन ईस्ट्रोजन नाम के हार्मोन को शरीर में बनने से रोकता है। यह हार्मोन महिलाओं के लिए जरूरी है, पर इसकी अधिकता या अनियमितता कई बार स्तन कैंसर को बढ़ावा भी देती है। ऐसे में स्तन कैंसर के मरीजों और कई बार, कैंसर होने की संभावना वाली महिलाओं को भी प्रिवेंशन के तौर पर टेमॉक्सिफेन दिया जाता है। ईस्ट्रोजन का एक काम शरीर में इंसुलिन हार्मोन को बढ़ाना भी है, जो कि रक्त में चीनी की मात्रा पर काबू रखता है। ऐसे में ईस्ट्रोजन की कमी का सीधा असर इंसुलिन पर भी पड़ता है।
टेमॉक्सिफेन के कई और साइड इफेक्ट पहले से ज्ञात है, जैसे खून का थक्का बनना, बच्चेदानी के कैंसर की संभावना, मोतियाबिंद और स्ट्रोक। लेकिन इनके बावजूद यह दवा दसियों वर्षों से दी जा रही है और कारगर भी रही है।
इस रिसर्च में दो और बातें सामने आईं। पहली- टेमॉक्सिफेन का इस्तेमाल बंद करने के बाद इसका असर भी खत्म हो जाता है, यानी इसकी वजह से मधुमेह का रिस्क भी खत्म हो जाता है। दूसरे, एक अन्य ईस्ट्रोजन इनहिबिटर एरोमाटेज़, जो कि अरिमिडेक्स और एरोमासिन नामों से हिंदुस्तान में मिलता है, का कोई ऐसा असर नहीं देखा गया जो मधुमेह से संबंधित हो। कारण यह है कि इसका काम करने का रासायनिक तरीका अलग है।
जो भी हो, साफ बात यह है कि कैंसर के इलाज की हर पद्यति में, हर दवा में शरीर को लगातार बड़े नुकसान होने का खतरा रहता ही है, और ये नुकसान दिखाई भी पड़ते रहते हैं। लेकिन.... लेकिन यह बीमारी इतनी मारक और तेजी से फैलने वाली है कि इसे रोकने के लिए छोटे-मोटे खतरों को नजर-अंदाज कर हर संभव इलाज पहले कराना चाहिए। जीवन बचे, वह सबसे जरूरी है।
शरीर होगा तो उसकी रिपेयर-मेंटेनेन्स होती रहेगी, उसका वक्त मिलेगा। लेकिन अगर कैंसर को न रोक गया तो यह जीवन को ही खत्म कर देगा।
आप भी हैं अपने हक में एक बड़े अभियान के हिस्सेदार
पिंक हो या ब्ल्यू, अपने को जानना, जागरूक होना सबसे महत्वपूर्ण है
अक्तूबर स्तन कैंसर माह के तौर पर दुनिया भर में मनाया जाता है, ताकि इसके बारे में जागरूकता फैलाई जा सके। अमरीका में महिलाओं के मरने का एक बड़ा कारण यह है। हमारा देश भी अब हर तरह के कैंसर जिसमें स्तन कैंसर भी जोर-शोर से शामिल है, के मामले में पीछे नहीं है, और इसका दायरा बढ़ता ही जा रहा है। जागरूकता हमारे यहां भी बेहद जरूरी है।
स्तन कैंसर के बारे में जागरूकता का पहचान का रंग गुलाबी है। इस पूरे महीने में कभी आप भी गुलाबी पहनें और अपने को इस बीमारी के बारे में जागरूक करें।
अपने शरीर को जानने-समझने और उसमें आए किसी भी बदलाव पर नजर रखने का एक अभियान चलाएं, जो कि कैंसर को जल्द पकड़ पाने और उसका इलाज सहज बनाने का सबसे कारगर और आसान तरीका है। सिर्फ एक दिन या एक महीने नहीं, जीवन भर। इसमें 'खर्च' होगा, सिर्फ आपका थोड़ा सा समय महीने- पंद्रह दिन में एक बार।
जरूर शामिल हों कैंसर जागरूकता, अपने प्रति जागरूकता के इस अभियान में। यह छोटा लगने वाला निजी प्रयास एक बड़े अभियान का हिस्सा है- याद रखिए।
अक्तूबर स्तन कैंसर माह के तौर पर दुनिया भर में मनाया जाता है, ताकि इसके बारे में जागरूकता फैलाई जा सके। अमरीका में महिलाओं के मरने का एक बड़ा कारण यह है। हमारा देश भी अब हर तरह के कैंसर जिसमें स्तन कैंसर भी जोर-शोर से शामिल है, के मामले में पीछे नहीं है, और इसका दायरा बढ़ता ही जा रहा है। जागरूकता हमारे यहां भी बेहद जरूरी है।
स्तन कैंसर के बारे में जागरूकता का पहचान का रंग गुलाबी है। इस पूरे महीने में कभी आप भी गुलाबी पहनें और अपने को इस बीमारी के बारे में जागरूक करें।
अपने शरीर को जानने-समझने और उसमें आए किसी भी बदलाव पर नजर रखने का एक अभियान चलाएं, जो कि कैंसर को जल्द पकड़ पाने और उसका इलाज सहज बनाने का सबसे कारगर और आसान तरीका है। सिर्फ एक दिन या एक महीने नहीं, जीवन भर। इसमें 'खर्च' होगा, सिर्फ आपका थोड़ा सा समय महीने- पंद्रह दिन में एक बार।
जरूर शामिल हों कैंसर जागरूकता, अपने प्रति जागरूकता के इस अभियान में। यह छोटा लगने वाला निजी प्रयास एक बड़े अभियान का हिस्सा है- याद रखिए।
Tuesday, August 2, 2011
कुत्ते धन ही नहीं जुटाते, कैंसर की पहचान भी कर सकते हैं
एक कुत्ते ने मैराथन दौड़ में अनजाने ही भाग लेकर कैंसर अनुसंधान के लिए हजारों डॉलर जुटा दिए। लेकिन एक दिलचस्प तथ्य यह है कि कुत्ते कैंसर की पहचान भी कर सकते हैं। उनकी सूंघने की शक्ति कैंसर जैसी असामान्य स्थिति को 'सूंघ' सकते हैं। इस तरह से कई लोगों को अपने कुत्तों की वजह से कैंसर होने का पता लगा।
एक थ्योरी यह कहती है कि कैंसर की रोगी कोशिकाओं में अलग तरह की दुर्गंध होती है जिसे कुत्ते पकड़ पाते हैं। और उस गंध से परेशान होकर वे परिवार के उस सदस्य के शरीर के उस हिस्से को लगातार चाटते-टटोलते रहते हैं। इससे व्यक्ति को सचेत हो जाना चाहिए कि कुछ गड़बड़ है। इस तरह की घटनाओं में कुत्ते के बार-बार ध्यान खींचने पर लोग डॉक्टर के पास गए और उन्हें पता लगा कि उनके शरीर में कैंसर पनप रहा है।
कुछेक सप्ताह के प्रशिक्षण से ऐसे कुत्ते लोगों की सांस सूंघकर भी कैंसर के होने का पता दे सकते हैं। वे सांस में मौजूद कुछ खास रसायनों के अरबवें हिस्से की मौजूदगी को भी सूंघ कर पहचान सकते हैं।
दरअसल कैंसर कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं से अलग कुछ जैवरासायनिक त्याज्य पदार्थ छोड़ती हैं, जिन्हें कुत्ते सूंघ कर जान सकते हैं। स्तन और फेफड़ों के कैंसर को वे आसानी से पहचान पाते हैं। अब कुत्तों को पेशाब सूंघकर व्यक्ति में प्रोस्टेट कैंसर का पता लगाने के लिए भी प्रसिक्षित किया जाने लगा है।
एक थ्योरी यह कहती है कि कैंसर की रोगी कोशिकाओं में अलग तरह की दुर्गंध होती है जिसे कुत्ते पकड़ पाते हैं। और उस गंध से परेशान होकर वे परिवार के उस सदस्य के शरीर के उस हिस्से को लगातार चाटते-टटोलते रहते हैं। इससे व्यक्ति को सचेत हो जाना चाहिए कि कुछ गड़बड़ है। इस तरह की घटनाओं में कुत्ते के बार-बार ध्यान खींचने पर लोग डॉक्टर के पास गए और उन्हें पता लगा कि उनके शरीर में कैंसर पनप रहा है।
कुछेक सप्ताह के प्रशिक्षण से ऐसे कुत्ते लोगों की सांस सूंघकर भी कैंसर के होने का पता दे सकते हैं। वे सांस में मौजूद कुछ खास रसायनों के अरबवें हिस्से की मौजूदगी को भी सूंघ कर पहचान सकते हैं।
दरअसल कैंसर कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं से अलग कुछ जैवरासायनिक त्याज्य पदार्थ छोड़ती हैं, जिन्हें कुत्ते सूंघ कर जान सकते हैं। स्तन और फेफड़ों के कैंसर को वे आसानी से पहचान पाते हैं। अब कुत्तों को पेशाब सूंघकर व्यक्ति में प्रोस्टेट कैंसर का पता लगाने के लिए भी प्रसिक्षित किया जाने लगा है।
Monday, August 1, 2011
कैंसर अनुसंधान के लिए एक कुत्ते ने जुटाए 13 हज़ार डॉलर
डोज़र तीन साल का है। अपने मालिक के घर से छूट भागा तो एक मैराथन रेस के ट्रैक पर पहुंच गया। यह हाफ मैराथन कैंसर अनुसंधान के लिए धन जुटाने के उद्देश्य से आयोजित की गई थी। फिर तो डोज़र अनजाने ही दौड़ का प्रतिभागी हो गया और पूरे सवा दो घंटे लगातार दौड़ में शामिल रह कर हाफ मैराथन पूरी कर गया। जैसे ही वह फिनिश लाइन तक पहुंचा तो लोगों ने उत्साह से उसकी अगवानी की। आयोजकों की तरफ से उसे विशेष पदक देकर सम्मानित भी किया गया।
हालांकि कुत्ते ने इस दौड़ के लिए खुद को रजिस्टर नहीं किया था, पर इससे क्या। सच्चे सपोर्टर को कोई कैसे मना कर सकता था भला! इस तरह डोज़र के कारण 13 हजार डॉलर से ज्यादा धन इकट्ठा हुआ। इकट्ठा किया गया पैसा मैरीलैंड विश्वविद्यालय के ग्रीनबाम कैंसर सेंटर को मिलेगा। इधर उस कुत्ते के मालिकों ने भी उसके नाम से एक वेब पेज खोल लिया है। इस पर मिला धन भी कैंसर रिसर्च के लिए दिया जाएगा।
हम भी अपने देश में ऐसे कामों के लिए कुछ देने की आदत डाल लें, तो कैसा रहे?
Tuesday, July 19, 2011
शराब के नतीजों की जिम्मेदारी लेने की कोई उम्र नहीं हो सकती
पिछले दिनों महाराष्ट्र में 25 साल से कम उम्र के युवाओं को शराब पीने की मनाही कर दी है। इससे पहले पाबंदी 21 साल से कम उम्र के किशोरों पर ही लागू की थी। अब 21 साल के युवाओं को सिर्फ बियर और वाइन खरीदने और पीने की इजाजत है। महाराष्ट्र सरकार का कहना है कि कम उम्र में नशे की तरफ रुझान और मित्र-वर्ग का दबाव भी ज्यादा होता है। इसलिए कम उम्र में ही शराब की लत पर रोक लगाने की कोशिश में यह नियम बनाया गया है। शराब पर आबकारी कर से राज्य सरकारों को खासी आमदनी होती है। यह नुकसान झेलकर भी महाराष्ट्र में यह पाबंदी लगाई गई है। मणिपुर, मिजोरम और गुजरात में पूरी तरह शराबबंदी लागू है। उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश जैसे कई और राज्यों में भी समय-समय पर थोड़ी-पूरी शराबबंदी लागू रही है।
देश में 30 फीसदी तक अल्कोहल की खपत 25 साल से कम उम्र के युवाओं में ही होती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में शराब की औसत खपत 10 लीटर प्रति माह है। इनमें हार्ड लिकर की खपत सबसे ज्यादा है। बीयर जैसे हल्के अल्कोहल की कुल खपत एक फीसदी से भी कम है। मजदूरों, कामगारों, खेतिहर किसानों में अल्कोहल की खपत सबसे ज्यादा है। और शराब की लत से इन्हें दूर रखने की ही सबसे ज्यादा जरूरत है।
शराब पीने के लिए उम्र की सीमा 25 साल कर दिए जाने का घोर विरोध हुआ है। अमिताभ बच्चन और कई दूसरे फिल्मी सितारों ने फेसबुक-ट्विटर पर ऐलानिया विरोध किया और उम्र बढ़ाने के इस नए नियम के खिलाफ मुहिम सी छेड़ दी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी इट्स माई लाइफ नाम से एक कैंपेन चला दिया । इसका कोई ठोस नतीजा तो नहीं निकला, लेकिन ये साफ हो गया कि युवा इससे खुश नहीं हैं। उनका तर्क है कि जब वे 25 की उम्र के पहले वोट डालने, अपना प्रतिनिधि चुनने, वाहन चलाने, शादी करने यहां तक कि सेना में भर्ती होने और देश के लिए लड़ाई पर जाने लायक जिम्मेदार और समझदार मान लिए गए हैं तो फिर उनकी शराब पीने की जिम्मेदारी और समझदारी पर शक क्यों?
सोचने की बात यह है कि अल्कोहल शरीर पर बुरा असर डालता ही है, तो उसके उपभोग में समझदारी कैसी। और जब शरीर और सेहत पर तत्काल और लंबे समय में होने वाले उसके असर पर अपना जरा सा बस भी नहीं है तो उसकी जिम्मेदारी कैसे ले कोई?
अल्कोलह पीने के इसके समर्थन में वे योरोप-अमरीका का उदाहरण भी देते हैं। लेकिन वहां भी अल्कोहल को लेकर कई तरह की और कड़ी पाबंदियां हैं, सिर्फ दिखावे के नियम वहां नहीं। ज्यादातर देशों में उपभोग के लिए कम से कम 18 साल और कुछेक देशों में अल्कोहल खरीदने के लिए 20-24 साल तक की उम्र की न्यूनतम सीमा है। इसके बरअक्स एक और स्थिति को रखें तो 18 की उम्र में शराब पीने की छूट चाहने वाले किशोर उन विदेशी किशोरों की तरह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होते हैं। यानी वे अपनी जिम्मेदारी खुद नहीं उठा सकते हैं। इसके साथ इस तथ्य पर भी विचार करना चाहिए कि कई देशों में अल्कोहल पिए जाने की मात्रा पर पाबंदी है। आयरलैंड में पुरुष सप्ताह में 14 पिंट से अधिक शराब नहीं पी सकते तो अमरीका में महिलाओं का हफ्ते का कोटा अधिकतम 7 पिंट अल्कोहल तक का है। भारत में ऐसी कोई रोक नहीं है।
इस स्तर पर तो ये एक लंबी बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन कनाडा की मेडिकल एसोसिएशन जर्नल की चिंता यह है कि ये सारी पाबंदियां कैंसर को रोकने के लिए कतई नाकाफी हैं। डॉक्टर साफ कहते हैं कि ऐसी कोई सुरक्षित सीमा नहीं है, जिससे कम अल्कोहल नुकसानरहित हो। हाल ही में कई ऐसी रपटों से पता चला है कि रोजाना एक पेग अल्कोहल भी मुंह, गले, ईसोफेगस, लिवर, कोलोन, रेक्टम, स्तन के कैंसर को जगाने के लिए काफी है। पत्रिका में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर के मुताबिक यूरोप में पुरुषों के 10 फीसदी और महिलाओं के 3 फीसदी कैंसरों का कारण मात्र अल्कोहल का सेवन है।
हालांकि कुछ रिपोर्टों में बताया गया है कि रेड वाइन की चुस्कियों से दिल के मर्ज दूर रहते हैं, पर यह भी एक भ्रम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी लगातार कहता है कि जितना कम हो उतना ही बेहतर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल की बीमारियों सहित नौ बीमारियां हैं जिनका एकमात्र कारण शराबखोरी हो सकती है। इनके अलावा सैकड़ों तकलीफें हैं, जिनको बढ़ाने में शराब मदद करती है। इस अध्ययन में कैंसर पर गहराई से आंकड़े जुटाए गए हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि किसी भी देश में बीमार होना व्यक्ति की सिर्फ अपनी नहीं बल्कि पूरे देश की चिंता है, क्योंकि सब मिलाकर देश की कुल स्वास्थ्य व्यवस्था और इतनी बड़ी आबादी के लिए उपलब्ध सीमित संसाधनों पर बोझ पड़ता है। खर्च व्यक्ति का अकेले का नहीं, पर पूरे देश के साझा संसाधनों का होता है। इसमें एक व्यक्ति के डॉक्टरी पढ़ने के सरकार के खर्च से लेकर दवा या उपकरणों पर सब्सिडी या सीमित संख्या में उपलब्ध अस्पताल के बेड को पा लेने तक बहुत से खर्च और संसाधन शामिल हैं।
कनाडा में पुरुषों के लिए हफ्ते में 14 ड्रिंक और महिलाओं के लिए 9 ड्रिंक की सीमा को सेहत के लिहाज से कम रिस्क वाला बताया गया है। ध्यान रहे कि इसे “लो रिस्क” कहा गया है, “नो रिस्क” नहीं।
आप शराब पीने के लिए बिना कारण कितना रिस्क लेने को तैयार हैं? औऱ उसकी जिम्मेदारी...?
देश में 30 फीसदी तक अल्कोहल की खपत 25 साल से कम उम्र के युवाओं में ही होती है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक देश में शराब की औसत खपत 10 लीटर प्रति माह है। इनमें हार्ड लिकर की खपत सबसे ज्यादा है। बीयर जैसे हल्के अल्कोहल की कुल खपत एक फीसदी से भी कम है। मजदूरों, कामगारों, खेतिहर किसानों में अल्कोहल की खपत सबसे ज्यादा है। और शराब की लत से इन्हें दूर रखने की ही सबसे ज्यादा जरूरत है।
शराब पीने के लिए उम्र की सीमा 25 साल कर दिए जाने का घोर विरोध हुआ है। अमिताभ बच्चन और कई दूसरे फिल्मी सितारों ने फेसबुक-ट्विटर पर ऐलानिया विरोध किया और उम्र बढ़ाने के इस नए नियम के खिलाफ मुहिम सी छेड़ दी। टाइम्स ऑफ इंडिया ने भी इट्स माई लाइफ नाम से एक कैंपेन चला दिया । इसका कोई ठोस नतीजा तो नहीं निकला, लेकिन ये साफ हो गया कि युवा इससे खुश नहीं हैं। उनका तर्क है कि जब वे 25 की उम्र के पहले वोट डालने, अपना प्रतिनिधि चुनने, वाहन चलाने, शादी करने यहां तक कि सेना में भर्ती होने और देश के लिए लड़ाई पर जाने लायक जिम्मेदार और समझदार मान लिए गए हैं तो फिर उनकी शराब पीने की जिम्मेदारी और समझदारी पर शक क्यों?
सोचने की बात यह है कि अल्कोहल शरीर पर बुरा असर डालता ही है, तो उसके उपभोग में समझदारी कैसी। और जब शरीर और सेहत पर तत्काल और लंबे समय में होने वाले उसके असर पर अपना जरा सा बस भी नहीं है तो उसकी जिम्मेदारी कैसे ले कोई?
अल्कोलह पीने के इसके समर्थन में वे योरोप-अमरीका का उदाहरण भी देते हैं। लेकिन वहां भी अल्कोहल को लेकर कई तरह की और कड़ी पाबंदियां हैं, सिर्फ दिखावे के नियम वहां नहीं। ज्यादातर देशों में उपभोग के लिए कम से कम 18 साल और कुछेक देशों में अल्कोहल खरीदने के लिए 20-24 साल तक की उम्र की न्यूनतम सीमा है। इसके बरअक्स एक और स्थिति को रखें तो 18 की उम्र में शराब पीने की छूट चाहने वाले किशोर उन विदेशी किशोरों की तरह आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं होते हैं। यानी वे अपनी जिम्मेदारी खुद नहीं उठा सकते हैं। इसके साथ इस तथ्य पर भी विचार करना चाहिए कि कई देशों में अल्कोहल पिए जाने की मात्रा पर पाबंदी है। आयरलैंड में पुरुष सप्ताह में 14 पिंट से अधिक शराब नहीं पी सकते तो अमरीका में महिलाओं का हफ्ते का कोटा अधिकतम 7 पिंट अल्कोहल तक का है। भारत में ऐसी कोई रोक नहीं है।
इस स्तर पर तो ये एक लंबी बहस का मुद्दा हो सकता है। लेकिन कनाडा की मेडिकल एसोसिएशन जर्नल की चिंता यह है कि ये सारी पाबंदियां कैंसर को रोकने के लिए कतई नाकाफी हैं। डॉक्टर साफ कहते हैं कि ऐसी कोई सुरक्षित सीमा नहीं है, जिससे कम अल्कोहल नुकसानरहित हो। हाल ही में कई ऐसी रपटों से पता चला है कि रोजाना एक पेग अल्कोहल भी मुंह, गले, ईसोफेगस, लिवर, कोलोन, रेक्टम, स्तन के कैंसर को जगाने के लिए काफी है। पत्रिका में प्रकाशित एक रिसर्च पेपर के मुताबिक यूरोप में पुरुषों के 10 फीसदी और महिलाओं के 3 फीसदी कैंसरों का कारण मात्र अल्कोहल का सेवन है।
हालांकि कुछ रिपोर्टों में बताया गया है कि रेड वाइन की चुस्कियों से दिल के मर्ज दूर रहते हैं, पर यह भी एक भ्रम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन भी लगातार कहता है कि जितना कम हो उतना ही बेहतर है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि दिल की बीमारियों सहित नौ बीमारियां हैं जिनका एकमात्र कारण शराबखोरी हो सकती है। इनके अलावा सैकड़ों तकलीफें हैं, जिनको बढ़ाने में शराब मदद करती है। इस अध्ययन में कैंसर पर गहराई से आंकड़े जुटाए गए हैं।
सबसे बड़ी बात यह है कि किसी भी देश में बीमार होना व्यक्ति की सिर्फ अपनी नहीं बल्कि पूरे देश की चिंता है, क्योंकि सब मिलाकर देश की कुल स्वास्थ्य व्यवस्था और इतनी बड़ी आबादी के लिए उपलब्ध सीमित संसाधनों पर बोझ पड़ता है। खर्च व्यक्ति का अकेले का नहीं, पर पूरे देश के साझा संसाधनों का होता है। इसमें एक व्यक्ति के डॉक्टरी पढ़ने के सरकार के खर्च से लेकर दवा या उपकरणों पर सब्सिडी या सीमित संख्या में उपलब्ध अस्पताल के बेड को पा लेने तक बहुत से खर्च और संसाधन शामिल हैं।
कनाडा में पुरुषों के लिए हफ्ते में 14 ड्रिंक और महिलाओं के लिए 9 ड्रिंक की सीमा को सेहत के लिहाज से कम रिस्क वाला बताया गया है। ध्यान रहे कि इसे “लो रिस्क” कहा गया है, “नो रिस्क” नहीं।
आप शराब पीने के लिए बिना कारण कितना रिस्क लेने को तैयार हैं? औऱ उसकी जिम्मेदारी...?
Thursday, May 19, 2011
कॉफी पिएं कि न पिएं- कैंसर का इससे क्या वास्ता?
एक ताजा अध्ययन के बारे में छपी खबर में ऐलान किया गया कि हर दिन पांच कप कॉफी पीना एक तरह के स्तन कैंसर को रोकने में मददगार होता है। कॉफी को नुकसानदेह पेय माना जाता है, इसलिए इस तरह की खबरों से लोग चौंके और साथ ही कॉफी के शौकीन प्रसन्न भी हुए होंगे।
स्टॉकहोम के एक रिसर्च संस्थान में हुए इस अध्ययन पर बायोमेड के वेबसाइट ब्रेस्ट कैंसर रिसर्च ने अपनी रिपोर्ट में निष्कर्श दिया कि हर दिन ज्यादा मात्रा में कॉफी पीने से पोस्ट-मेनोपॉजल (सरल शब्दों में- बड़ी या 50 साल से ज्यादा उम्र की) महिलाओं में एस्ट्रोजन रिसेप्टर नेगेटिव टाइप के स्तन कैंसर, (जो कि काफी आम है) में उल्लेखनीय कमी दर्ज की गई। और कई अखबारों ने इसे खबर बनाकर महत्वपूर्ण ढंग से छाप भी दिया।
लेकिन यह अध्ययन दरअसल ऐसा कोई निष्कर्ष सामने नहीं लाता, जिसका दावा इस खबर में किया गया है। बल्कि इस खबर में अध्ययन की कई महत्वपूर्ण बातों को सामने नहीं लाया गया। अध्ययन में शामिल स्वीडिश लोगों में 2800 स्तन कैंसर के मरीज थे जबकि 3100 नहीं थे। इन लोगों को कई साल पहले की अपनी कॉफी पीने की आदत और जीवन के दूसरे पक्षों के बारे में याद करने को कहा गया। यह बहुत ही व्यक्तिपरक तरीका है, किसी अध्ययन का। इसमें कई साल पुरानी बातें सबको ठीक से याद हों और सबने ठीक से बताई हों, कोई जरूरी नहीं है। अध्ययन में पाया गया कि जिन लोगों ने रोज 5 कप या उससे ज्यादा कॉपी पीने की आदत के बारे में बताया, उनमें स्तन कैंसर होने की संभावना कॉफी न पीने वालों के मुकाबले 20 फीसदी कम पाई गई।
लेकिन इन कॉफी पीने और न पीने वालों में दूसरे अंतर भी रहे होंगे, जैसे कसरत या शारीरिक गतिविधियां करना या न करना, शराब पीने की मात्रा या न पीना, खाने में गरिष्ठ भोजन और फल-सब्जियों का अनुपात, उनकी उम्र आदि, इत्यादि। इन कारकों को शामिल करने के बाद अध्ययन टीम ने पाया कि इनकी पृष्ठभूमि में कॉफी से कैंसर के बचाव का तथ्य कमजोर पड़ गया।
कैंसर ऐसी बीमारी है, जिसके कारण कई हो सकते हैं और उस पर कई रसायनों का कई तरह से प्रभाव पड़ता है। ऐसे में, हो सकता है, सैकड़ों में से किसी एक या दो प्रकार के स्तन कैंसरों पर कॉफी में मौजूद सैकड़ों-हजारों में से किसी एक या दो पौध-रसायनों (कॉफी भी आखिर पौधे से ही मिलती है) का सकारात्मक प्रभाव पड़ता हो। लेकिन इसे किसी प्रकार के कैंसर से बचाव के रूप में नहीं देखा जा सकता। और ऐसा मान भी लिया जाए तो इससे ऐसा कोई अनुमान लगाना कठिन होगा कि किस व्यक्ति को उस खास तरह का स्तन कैंसर होने की संभावना ज्यादा है, जिसमें कॉफी ज्यादा पीने से उसे स्तन कैंसर रोकने में मदद मिलेगी। और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस अध्ययन में कॉफी को कैंसर रोकने वाला नहीं बताया है बल्कि सिर्फ कॉफी पीने और एक खास स्तन कैंसर होने में संबंध बताया गया है।
अखबारों की ऐसी रिसर्च संबंधी खबरों को याद करें तो चॉकलेट के बारे में भी आए दिन ऐसी विरोधाभासी खबरें आती रहती हैं। चॉकलेट स्ट्रेस बस्टर है, मूड ऐलिवेटर है, लेकिन चस्का लगा देता है। या फिर नुकसानदेह है, मोटापा, थॉयरॉइड जैसी भयानक बीमारियां पैदा करता है आदि, इत्यादि।
कुछ लोगों को लेकर ऐसे छोटे-छोटे अध्ययनों से कैंसर जैसी जटिल, विविधता भरी और अस्पष्ट-सी बीमारी के बारे में कोई साफ निष्कर्ष निकाल पाना कठिन है। और जब ऐसे अध्ययनों के टुकड़ों में, अधूरे-से परिणाम आते हैं तो मरीज उत्साहित होते हैं, झूठे ही भरोसा करते हैं, आशाएं बांधते हैं ऐसे अध्ययनों पर और उन आंकड़ों से अपनी हालत का आकलन करने, अपनी सेहत का अंदाजा लगाने में जुट जाते हैं। यह वैसा ही है, जैसे कोई मरीजों के तालाब में कई सारी बंसियां डालकर बैठे और इंतजार में रहे कि आंकड़ों की कौनसी मछली फंसती है, पकड़ में आती है।
दरअसल किसी भी रिसर्च के निष्कर्ष देने के बाद कुछ इंतजार करना और समान अध्ययनों से मिले दूसरे आंकड़ों से अपने परिणामों का मिलान करना जरूरी होता है ताकि पता लगे कि वह परिणाम सिर्फ संयोग नहीं था, एकबारगी हुई परिघटना नहीं थी। साथ ही, अध्ययन की गलतियों, कमियों को भी जांचा जा सकता है। ध्यान रखना चाहिए कि निष्कर्ष दोहराए जाना ही विज्ञान में सत्यता की कसौटी है।
अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की एक पैनल के सदस्य, यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन के सुरेश मुलगांवकर और उनके साथियों का मानना है कि हमारी आंकड़े पैदा करने की क्षमता बढ़ती जा रही है, लेकिन उसी रफ्तार से उनके विश्लेषण और तुलना के जरिए सही निष्कर्ष पर पहुंचना कठिन है, क्योंकि हर फैसले से गलतियों की संभावना भी बढ़ती है। और यह मेडीकल साइंस की नहीं बल्कि सांख्यिकी की कमी के कारण है।
स्टॉकहोम के इस कॉफी बनाम कैंसर के अध्ययन को जर्मनी में 3464 कैंसर की मरीजों और 6657 स्वस्थ महिलाओं के साथ दोहराया गया। और नतीजा उलट आया- कॉफी ज्यादा पीने से कैंसर रोकने का निष्कर्ष सही नहीं था। इस संपुष्टीकारक अध्ययन में एस्ट्रोजन-रिसेप्टर नेगेटिव प्रकार के स्तन कैंसर के बारे में भी कोई महत्वपूर्ण आंकड़ा सामने नहीं आया।
ताज्जुब की बात तो यह है कि इस पर भी रिसर्चर्स मानने को तैयार नहीं थे कि उनके पहले अध्ययन में कोई कमी थी या पूरी तरह तथ्यों से उसके नतीजों की संपुष्टि करना बाकी है। उनका कहना था कि हो सकता है, जर्मनी में कॉफी की किस्म, उसे ब्रू करने के तरीके या फिर कैफीन की मात्रा में अंतर की वजह से नतीजों में फर्क आया हो, लेकिन फिर भी उनके नतीजे सही हैं कि कॉफी पीना स्तन कैंसर को रोकने में मददगार है!
2009 में चीन में ऐसे ही एक अध्ययन से पता चला था कि हर दिन दो कप कॉफी स्तन कैंसर की संभावना में 2 फीसदी की कमी लाता है, एक और ध्ययन ने यह आंकड़ा 6 फीसदी तक पहुंचाया। फिर भी यह कसरत करने और शराब-फैटी चीजों से बचने जैसे पहचाने हुए कारकों के मुकाबले बहुत छोटा है। सबसे बड़ी बात है कि अमरीका, स्वीडन आदि में ऐसे कई अध्ययन हो चुके हैं जिनमें हजारों महिलाओं को शामिल किया गया और देखा गया कि कॉफी पीने और कैंसर रोकने में क्या कोई संबंध है। सभी अध्ययनों के बाद कोई महत्वपूर्ण, ठोस नतीजा नहीं पाया जा सका।
अंतिम नतीजा अब तक तो यही है कि कॉफी पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए। किसी को इसका स्वाद पसंद है, कोई इससे अपनी थकान मिटाना चाहता है, कोई आदतन पीता है। लेकिन चाहे जिस कारण से पिएं, इसे अपने कैंसर के रिस्क को कम करने के हिसाब-किताब से बाहर ही रखें तो बेहतर।
Monday, April 25, 2011
क्या कहते हैं आंकड़े कैंसर के बारे में
दुनिया में
# हर साल एक करोड़ नए कैंसर के मामले सामने आ रहे हैं।
# हर साल 60 लाख से ज्यादा कैंसर मरीज जान से हाथ धो बैठते हैं। ये कुल होने वाली मौतों का 12 फीसदी है।
# 2020 तक हर साल नए कैंसर मरीजों की संख्या में डेढ़ करोड़ और सालाना मौतों की संख्या एक करोड़ तक हो जाने का अंदेशा है।
# नैशनल कैंसर कंट्रोल प्रोग्राम के मुताबिक वर्ष 2000 में विकसित देशों में कैंसर रोगियों की संख्या 54 लाख और विकासशील देशों में 47 लाख थी। 2020 तक ये आंकड़ा उलट कर 60 लाख और 93 लाख हो जाने की संभावना है।
#1950 के मुकाबले आज पेट के कैंसर के मामले आधे रह गए हैं जबकि फेफड़ों के कैंसर के मामले बेतरह बढ़े हैं।
# 1980 के बाद विकसित देशों में धूम्रपान से होने वाले नुकसान के बारे में जागरूकता की वजह से पुरुषों में फेफड़ों के कैंसर में कमी आई है जबकि विकासशील देशों में और महिलाओं में यह अब भी बढ़ ही रहा है।
# स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि देश में आज की तारीख में कोई 20-25 लाख कैंसर के मरीज हैं। हर साल सात लाख से ज्यादा नए मरीज इस लिस्ट में जुड़ रहे हैं और इनमें से तीन लाख हर साल दम तोड़ देते हैं।
देश में हर लाख में 70-90 लोगों को कैंसर होने की आशंका है।
भारत में पुरुषों में फेफड़ों का कैंसर सबसे आम हैं। इसके बाद पेट और मुंह के कैंसर आते हैं।
महिलाओं में स्तन कैंसर के मामले सबसे ज्यादा हैं। शहरों में हर 8-10 महिलाओं में से एक को और गांवों में हर 35-40 में एक को स्तन कैंसर होने की संभावना है।
इसके बाद बच्चेदानी के मुंह के (सर्वाइकल) कैंसर का नंबर आता है। कुछेक साल पहले तक महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर के मामले सबसे ज्यादा थे।
Sunday, April 24, 2011
बेहतर सेहत कैंसर से लड़ने की ज्यादा ताकत देती है
सेहत पहले से ही अच्छी हो तो कैंसर से होने वाली 65 फीसदी मौतों को रोका जा सकता है
स्तन कैंसर का इलाज कराने वाली महिलाओं के लिए उनकी कैंसर होने के पहले की सेहत भी बहुत मायने रखती है। अमेरिका के After Breast Cancer Pooling Project में शामिल शुरुआती स्तन कैंसर की 9,400 महिलाओं पर कैसर का पता लगने के दिन से अगले सात साल तक लगातार नजर रखी गई। पाया गया कि इनमें से करीब आधी महिलाओं का बॉडी-मास इंडेक्स (बीएमआई) यानी लंबाई और वजन का अनुपात गड़बड़ था। सरल शब्दों में कहें तो वे मोटी थीं, उनका वजन लंबाई और उम्र के अनुपात में ज्यादा था। और इस वजह से उनकी कुल सेहत भी खराब थी। जिन महिलाओं की सेहत इलाज के शुरू में खराब आंकी गई उनमें से 27 फीसदी को दोबारा कैंसर हुआ- उसी जगह या फिर नई जगह पर नया कैंसर। जबकि आम तौर पर शुरुआती स्टेज का कैंसर ज्यादा खतरनाक नहीं माना जाता।
इन महिलाओं की सेहत के आंकड़ों का विश्लेषण करके यह भी पाया गया कि इन कम स्वस्थ महिलाओं की कैंसर या किसी और बीमारी से मरने की संभावना सामान्य वजन वाली महिलाओं की तुलना में 65 फीसदी ज्यादा रही। इनके बारे में पाया गया कि वे कम सक्रिय थीं, इन्हें नींद की समस्या रही, और उच्च रक्तचाप या डाइबिटीज होने की संभावना 50 फीसदी ज्यादा थी और आर्थराइटिस होने की संभावना भी दोगुनी रही। American Association for Cancer Research (AACR), के ओरलैंडो में हुए सम्मेलन में इस अध्ययन को प्रस्तुत किया गया। डॉक्टरों का कहना था कि सिर्फ कैंसर के इलाज के बजाए महिलाओं के कुल स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना जरूरी है। अगर उनके सामान्य स्वास्थ्य में पांच फीसदी का भी सुधार होता है तो उनके जीवन की गुणवत्ता और जीवित रहने के अवसरों में खासा सुधार होता है।
न सिर्फ कैंसर के मौके के लिए बल्कि हमेशा हम अपनी सेहत पर ध्यान देते रहें और खान-पान, कसरत आदि पर ध्यान देते रहें तो किसी भी बीमारी से बेहतर लड़ सकेंगे, बल्कि कई बीमारियों को आने के पहले ही जरूर रोक सकेंगे।
स्तन कैंसर का इलाज कराने वाली महिलाओं के लिए उनकी कैंसर होने के पहले की सेहत भी बहुत मायने रखती है। अमेरिका के After Breast Cancer Pooling Project में शामिल शुरुआती स्तन कैंसर की 9,400 महिलाओं पर कैसर का पता लगने के दिन से अगले सात साल तक लगातार नजर रखी गई। पाया गया कि इनमें से करीब आधी महिलाओं का बॉडी-मास इंडेक्स (बीएमआई) यानी लंबाई और वजन का अनुपात गड़बड़ था। सरल शब्दों में कहें तो वे मोटी थीं, उनका वजन लंबाई और उम्र के अनुपात में ज्यादा था। और इस वजह से उनकी कुल सेहत भी खराब थी। जिन महिलाओं की सेहत इलाज के शुरू में खराब आंकी गई उनमें से 27 फीसदी को दोबारा कैंसर हुआ- उसी जगह या फिर नई जगह पर नया कैंसर। जबकि आम तौर पर शुरुआती स्टेज का कैंसर ज्यादा खतरनाक नहीं माना जाता।
इन महिलाओं की सेहत के आंकड़ों का विश्लेषण करके यह भी पाया गया कि इन कम स्वस्थ महिलाओं की कैंसर या किसी और बीमारी से मरने की संभावना सामान्य वजन वाली महिलाओं की तुलना में 65 फीसदी ज्यादा रही। इनके बारे में पाया गया कि वे कम सक्रिय थीं, इन्हें नींद की समस्या रही, और उच्च रक्तचाप या डाइबिटीज होने की संभावना 50 फीसदी ज्यादा थी और आर्थराइटिस होने की संभावना भी दोगुनी रही। American Association for Cancer Research (AACR), के ओरलैंडो में हुए सम्मेलन में इस अध्ययन को प्रस्तुत किया गया। डॉक्टरों का कहना था कि सिर्फ कैंसर के इलाज के बजाए महिलाओं के कुल स्वास्थ्य पर भी ध्यान देना जरूरी है। अगर उनके सामान्य स्वास्थ्य में पांच फीसदी का भी सुधार होता है तो उनके जीवन की गुणवत्ता और जीवित रहने के अवसरों में खासा सुधार होता है।
न सिर्फ कैंसर के मौके के लिए बल्कि हमेशा हम अपनी सेहत पर ध्यान देते रहें और खान-पान, कसरत आदि पर ध्यान देते रहें तो किसी भी बीमारी से बेहतर लड़ सकेंगे, बल्कि कई बीमारियों को आने के पहले ही जरूर रोक सकेंगे।
Saturday, April 23, 2011
हर हाल में खराब है शराब
हाल के एक रिसर्च से पता चला है कि ‘सीमित मात्रा में’ शराब पीना भी कैंसर को बढ़ावा देता है। और अगर कोई कम ही सही, पर लंबे समय तक नियमित शराब पीता रहा तो उसे कैंसर होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है। और यह खतरा उस समय भी रहता है, जबकि उसने अब यह आदत छोड़ दी हो। ब्रिटेन में 10 में से एक पुरुष और 33 में से एक महिला को शराब के कारण कैंसर होने का खतरा होता है। और यह संख्या तेजी से बढ़ रही है। वहां हर साल 13,000 लोगों को शराब पीने के कारण कैंसर हो रहा है, जिसमें स्तन, मुंह, खाने की नली का ऊपरी हिस्सा, स्वर यंत्र, जिगर और मलाशय के कैंसर शामिल हैं। महिलाएं एक यूनिट या 125 मिली लीटर वाइन, आधा पिंट बियर या सिंगल व्हिस्की के बराबर और पुरुष इससे दोगुनी शराब यदि नियमित पीते हैं तो उन्हें अल्कोहल से जुड़े कैंसर का खतरा बताया जाता है।
1992 से चल रहा ईपीआईसी (एपिक)कार्यक्रम पूरे यूरोप में खाने-पीने और कैंसर के संबंधों का अध्ययन करता है। इस अध्ययन में यूरोप में पिछले 10 साल से शराब पीने की आदतों और कैंसर के संबंध पर रिसर्च चल रहा है। इसमें 35 से 70 साल के 3.6 लाख लोग शामिल हुए। रिसर्च से पता चला है कि ज्यादातर लोग कैंसर और शराब के इस मारक संबंध से अनजान हैं। अनेकों का तो मानना है कि शराब पीने से उनकी सेहत बेहतर होती है। जबकि वास्तविकता यह सामने आई है कि एक पेग रोज पीने वाले भी अपने लिए कैंसर को निमंत्रण दे रहे हैं। यह भी भ्रम है कि ठंड में और ठंडे इलाकों में शराब पीना शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जरूरी है। जबकि यह अध्ययन ऐसे सभी भ्रमों के जाले साफ कर रहा है।
Subscribe to:
Posts (Atom)
Custom Search