Friday, November 15, 2013

घर - 2

घर - 1 (http://ranuradha.blogspot.in/2013/11/1.html)


जीते रहना और साथ ही जिंदगी से खारिज रहना- विरोधाभासी लगने वाली ये दोनों स्थितियां किसी के साथ एक-साथ भी होती हैं। बाहर तेज बारिश है। पर दोनों कोहनियों के नीचे सबसे नरम, बड़े-बड़े तकिए फंसाए उट्ठंग सिरहाने पर चित्त अधलेटी मुद्रा से उठकर भीगने जाने का परिदृष्य अचानक सपने-सा ही आता है। फूल-पत्तेदार फ्रॉक में चेहरे पर बारिश की मोटी बूंदें झेलते-लोकते अपनी ही मुस्कुराहट दूर से देखना।



बारिश तो महज पानी है, भीग क्यों नहीं सकते? क्योंकि बच्चे, आप एएनएस (एक्यूट न्यूट्रोपीनिक सिंड्रोम) के कब्जे में हैं। बारिश का सबसे साफ पानी भी मुफीद न आया तो? अच्छा है, उबला पानी पिया करो, उसी में नमक-सोडा मिलाकर अक्सर गरारे करो, हर बार साबुन से हाथ धोते रहो, पोटेशियम परमेंगनेट से धो-धोकर चुनिंदा फल खाओ और बाकी पेट दवाओं से और उनके साथ वही उबला पानी पी-पीकर भर लो।  गिनती पूरी रखो गोलियों की— 18, 19, 20। बस। चलो, अभी का काम निबटा। थक गए दिन भर यही कवायद करते। थोड़ा आराम कर लें। पर आंखें बंद होती नहीं कि वही बारिश का सपना। पता नहीं किसी दवा की खुमारी है या अपने अवचेतन का जागना।

पर ऐसे हर कुछ खारिज करते चले तो हो चुका। कभी दास्तानगोई कभी पिंक अक्टूबर उत्सव तो कभी लोदी गार्डन या हैबिटाट सेंटर के खुले सीढ़ीदार आंगन में कहीं किसी के साथ बैठकर बतकहियां।

नहीं, ड्रॉइंगरूम डिस्कशन मुझे पसंद नहीं। ड्रॉइंगरूम में आप आएं, बैठें, ठंडा-गर्म पिएं, कुछ चना-चबेना खाएं। आप मिजाजपुर्सी करें, मैं चुप बैठूं या जिरह-सफाई करती रहूं कि नहीं जी, मेरी जिंदगी ऐसी कठिन भी नहीं हुई है, ऐसे कोई बैटल नहीं चल रहे हैं जो मुझे जीतने हैं या मैं जीतने के इरादे रखती हूं। चल रहा है कहने भर से आपकी उत्कंठा संतोष नहीं पाती।

आप सारी जहमत उठाकर छुट्टी की एक दोपहर-शाम में थोड़ा समय निकाल कर हमारे घर तशरीफ लाएं, वह भी सिर्फ मेरी बीमारी का हाल-समाचार लेने-  यह मुझे मंजूर नहीं है। इस पर आप डॉक्टर तो हैं नहीं। क्या डिसकस करूं?

वैसे कुल मिलाकर बात ज्यादा कॉम्प्लिकेटेड है जी। पिछली बार आपने मेरे जो अनुभव सुने-जाने, मेरी किताब में जो पढ़ा, उससे एकदम अलग। जमीन-आसमान वाला अलग। मैं कहूंगी आसमान की, आप अपनी पुरानी समझ से समझेंगे जमीन की। कई बार हो चुका है, इसलिए इतनी निश्चिंतता से कह पा रही हूं। नहीं जी, बड़ा मुश्किल है समझना और मेरे फेफड़ों की ताकत नहीं है, न ही अब मन का सब्र- सब कुछ उछाह से नए सिरे से समझा देने का।

आप अपनी मानसिक कीमियागिरी के डोज़ भी ठेलते जाएंगे- क्या कर रही हो आजकल। अगली किताब कब आ रही है। कहानियां लिखो न, बढ़िया रहेगा, (जी, मेरे दद्दू ने तक नहीं लिखीं कहानियां, अपनी क्या बिसात।) या फिर उपन्यास (मरवाया)।

सो मैं अपना मर्ज आपसे डिस्कस न करूं, अपनी तकलीफें सिलसिलेवार बयान न करूं, उनके सुझाए और मेरे द्वारा अपनाए जा रहे उपाय न बताऊं तो आपका यहां तक आना निरर्थक हुआ। मगर मैं यह कुछ नहीं कर रही। बाकी सब फोन पर भी कहा-सुना जा सकता है। नहीं? और इस बचे समय में कोई गाना ही क्यों न सुनूं और साथ में जोर-जोर से गाऊं। 

तिस पर मैं आपके साथ आए संभावित कीटाणुओं से बचने के लिए नाक-मुंह पर सर्जिकल मास्क बांधे कठिनाई से शर्ट पहने आपके सामने आऊं तो आप एक करुणा, दया वाला आर्द्र भाव अपनी आंखों में ले आएंगे, इस डर से मैं आपसे आंखें चुराने की कोशिश करूं।

अब अगर मुझे इतने साजो-सामान से लैस होना ही है तो अपने बोरिंग बंधे हुए बंद ड्रॉइंग रूम में क्यों, कुतुब मीनार की मीठी धूप में या हुमायूं के मकबरे के ठंडे पत्थर या हैबिटाट सेंटर के खुले आंगन की किन्हीं सीढ़ियों-चबूतरों पर बैठने के लिए क्यों नहीं! अब मंजूर है तो चले आओ, वरना मेरे पास बहुत समय है योजनाएं बनाने को- अंडमान से लेकर कावारत्ती, लद्दाख और भूटान तक की यात्राओं की योजनाएं और सपने।

कोई भी जगह अनुपयुक्त नहीं है जाने को। पूरा खाना न सही, दो बार टोमेटो फ्राई और चावल या रोटी तो मिल ही जाएगा। बाकी ब्रेड बिस्कुट, गर्म दूध, फल और थोड़ा लोकल चना-चबेना। बस, कुछ दिन तो गुजर ही जाएंगे। करना क्या है- समंदर को या पहाड़ की चोटियों को धूप और बादलों के बीच निहारना है, बस। मेरे और उन दृष्यों के बीच चलते-भागते लोगों को देखना और पुरानी यात्राओं के दिन याद करके मुस्कुराना है। 



मुझमें वह धैर्य भी है जो समंदर की लहरों को गिनने में लगता है या बादलों के बदलते आकारों में लगातार कोई आकृति खोजते रहने में लगता है। (कभी था जरूर, पर खारिज जिंदगी में कभी इसकी परीक्षा नहीं ली। पर भरोसा है कि मैं बदली नहीं हूं।)

हां, कभी यहां भी खारिज होना पड़ सकता है। खारी हवा, तेज धूप या बारिश मुझे तत्काल खारिज कर देंगे, ऐसा अंदेशा है। फिर भी हवा और धूप-बारिश को रोकने का इंतजाम कोई मुश्किल नहीं। एक स्कार्फ, गमछा या छाता ही तो लगता है।

पर आखिरकार ये सारी उत्साहजनक योजनाएं यहां आकर अटकने लगती हैं कि अस्पताली रोस्टर में अपनी साप्ताहिक हाजिरी का क्या करें, जो जरूरी है। कई बार सप्ताह बीतने के पहले ही किसी जांच की डेट, किसी नए अपॉइंटमेंट, किसी डाउट-सवाल, उलझन को सुलझाने-सुलटाने के लिए भी एकाध अतिरक्त परकम्मा अपनी मस्जिद की। और अपने शरीर को किसी नर्स के हाथों कुछ घंटों के लिए सौंपने लायक होने के सबूत के तौर पर एक दिन पहले रक्त की जांच और रिपोर्ट लेने की कवायद भी आखिर उस अतिरिक्त दिन के समय और ध्यान की मांग तो करती ही है।


घर के इस नए फलसफे में मैं खुद हूं, पर घर अपने घर रूप से एकदम नदारद है। सारा जहां ही घर है, जहां खुलापन हो, हवा-बाताश साफ हो और नजारे आंखों की क्षमता से ज्यादा बड़े हों।

Sunday, November 10, 2013

घर- 1


किसी के घर पहली बार जाओ तो खान-पान की औपचारिकताओं के बाद अक्सर सबसे आम बात होती है कि आओ, अपना घर दिखाऊं। किसी ने अपने घर में कोई खास कारीगरी की या करवाई है तो अलग बात है, वरना कमरे कितने बड़े हैं, वुडवर्क कितना खर्च करके करवाया, झूमर, बच्चों के कमरे का खास डिजाइन, बिस्तर-तकिए, रसोई और बाथरूम में नए-नए उपकरण- यह सब तो अपनी-अपनी जरूरत, सुविधा, सामर्थ्य और शौक की बात है। इसमें कुछ भी प्रदर्शनीय मुझे नहीं लगता।

बचपन में मेरी एक सहेली की मां सुबह के समय किसी मेहमान को घर के अंदर आने नहीं देती थी कि सफाई नहीं हुई है, अभी नहीं आना।

मैं अपने घर के बारे में सोचकर कभी भावुक या रोमांचित नहीं हुई, सपनीले संसार की यात्रा पर नहीं निकल गई। घर मेरे लिए उपयोग की वस्तु, जरूरत की जगह है। एक आश्रय है, छत है, जिसके नीचे मैं सुरक्षित हूं, जरूरत की चीजें रखी हुई हैं, जिन्हें यथासमय उपयोग किया जा सकता है। थक जाऊं तो आराम कर सकती हूं, किसी से मिल सकती हूं, न मिलना हो तो एकांत पा सकती हूं। हर मौसम में शरीर को सुरक्षित, आरामदेह स्थिति दे सकती हूं।

घर को लेकर कभी मेरे मन में कभी स्वामीत्व या अधिकार का भाव भी नहीं आया कि यह मेरा घर है। बल्कि हमेशा कर्तव्यबोध रहा कि उसे दूसरे साझीदारों और मेहमानों के लिए सुविधाजनक रख पाऊं, जैसा कि मैं खुद चाहती और अक्सर पाती हूं।

घर के साथ सेंस ऑफ बिलॉन्गिंग भी लोग महसूस करते हैं। वह शायद अपने स्वामीत्व वाले घर में रहने से महसूस होता होगा। अब तक ऐसे किसी घर में रहने का मौका नहीं मिला। शायद इसी लिए दो मकानों का मानिकाना होने के बावजूद ऐसा कोई भाव किसी मकान को लेकर नहीं आया- न अपने, न किराए के और न सरकारी मकानों में। 

एक बार किसी ने पूछा था- व्हेयर डूयू बिलॉन्ग टु?”  मुंह से बेसाख्ता निकल गया-आई ऐम ऐन इंडिविजुअल ऐंड आई बिलॉन्ग टु माई फैमिली। इस परिवार में मकान निश्चित रूप से शामिल नहीं है।

घर का सपना कभी देखा तो सिर्फ इतना कि छोटा सा ही सही, लकड़ी की बाड़ से घिरा एक बगीचा, जिसमें कई फलों के पेड़ और कुछेक फूलों के पौधे क्यारियों में लगे हों।

खिड़की के शीशे चमकदार हों, न हों, पर जरूरत की चीजें हाथ बढ़ाने पर मिल जाने वाले सुरक्षा और सहूलियत भरे फंक्शनल स्पेस में, सिमटे/गायब परदों वाले खुले-से निवास पर आपका हमेशा, किसी भी वक्त स्वागत है।
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