Monday, February 20, 2012

जरा और हंगामे की जरूरत है- युवराज के बहाने कैंसर


(यह आलेख शुक्रवार पत्रिका के 17-23 फरवरी के अंक में छपा है।)

वैसे तो पिछले साल से ऐसी आशंकाओं का सिलसिला चल रहा था कि क्रिकेटर युवराज सिंह को फेफड़ों में ट्यूमर है। लेकिन जनवरी के आखिरी हफ्ते में पक्की खबर आई कि युवराज सिंह को जर्म सेल ट्यूमर ऑफ मीडियास्टिनम या मीडियास्टिनल सेमिनोमा नाम का फेफड़ों का कैंसर है। हर तरफ सनसनी फैल गई। युवराज सिंह की कीमोथेरेपी यानी दवाओं से इलाज शुरू होने की खबरों के बीच उसके ठीक होने की संभावनाओं, अटकलों, माता-पिता से बातचीत, दूसरे क्रिकेटरों, दुनिया भर की सेलिब्रिटीज़ की शुभकामनाओं की खबरों से भी पूरी दुनिया का मीडिया पट गया। युवराज मीडिया के लिए इस समय खास तौर पर महत्वपूर्ण हैं क्योंकि पिछले साल ही हमारी क्रिकेट टीम विश्वकप जीत लाई है, जिसमें युवराज मैन ऑफ द सीरीज रहे।

खबरों की कहानी के पहले इस कैंसर को समझ लें। मीडियास्टिनम मोटे तौर पर छाती के बीच की जगह है जहां दिल, इससे निलकने वाली खून की नलियां और संवेदी तंत्रिकाएं, श्वसन नलियां, खाने की नली का कुछ हिस्सा वगैरह होते हैं। इन नाजुक अंगों को सुरक्षित समेटे हुए इस हिस्से को घेरे एक झिल्ली होती है। युवराज का जर्म सेल ट्यूमर ऑफ मीडियास्टिनम दुर्लभ इसलिए है कि यह आम तौर पर जर्म सेल, यानी पुरुषों के शुक्राशय की कोशिकाओं में होता है। सेमीनोमा का मतलब ही है, शुक्राशय की सेमीनिफेरस नलिकाओं की सतह की कोशिकाओं का ट्यूमर। वैज्ञानिक समझ नहीं पाए हैं कि कैसे, पर कभी-कभार यह कैंसर शुक्राशय की बजाए छाती में या पेट की गुहा में बन जाता है। खास तौर पर पुरुषों में होने वाला यह कैंसर 20 से 35 की उम्र में सबसे ज्यादा होता है। और अच्छी बात यह है कि इसके लक्षण फौरन दिख जाते हैं और कीमोथेरेपी और रेडियोथेरेपी का इन पर अच्छा असर होता है इसलिए ठीक होने की संभावना काफी ज्यादा होती है।

हमारे देश में जहां कैंसर के 25 लाख से ज्यादा मरीज हैं, उनमें हर साल आठ लाख और जुड़ते हैं और साढ़े पांच लाख लोग मर जाते हैं, जहां 70 फीसदी लोगों का कैंसर इतनी विकसित अवस्था में होता है कि डॉक्टर भी ज्यादा कुछ नहीं कर पाते, वहां स्वाभाविक है कि इस बीमारी का नाम ही दिल दहला देता है। जानकारी की कमी भ्रम और आशंकाओं को बढ़ावा देती है। ऐसे में अच्छा है कि युवराज के बहाने ही सही, इस विषय पर चर्चा ने जोर तो पकड़ा।

वह समय अभी बीता नहीं है जब कैंसर का मतलब मौत का वारंट होता था, लोग जीने की उम्मीद छोड़ देते थे। ईश्वर की तरह आयुर्वेद आदि पर विश्वास होने के नाते लोग वैद्यों, हकीमों, होमियोपेथिक डॉक्टरों, “कैंसर से एड्स तक” हर मर्ज का इलाज करने का दावा करने वाले नींम चिकित्सकों के पास पहले जाते थे क्योंकि उनका विश्वास होता था कि एलोपेथी में कोई कारगर इलाज हो ही नहीं सकता। अस्पताल जाना तभी होता था, जब तकलीफ असहनीय हो जाती थी। इसके अलावा कैंसर के लिए अच्छे अस्पतालों की बेतरह कमी, लंबा, खर्चीला, तकलीफदेह और अनिश्चित परिणाम वाला इलाज करवा पाना आम हिंदुस्तानी के लिए आसान नहीं।

लेकिन पिछले कुछ साल में मीडिया ने कई सेलीब्रिटीज़ के कैंसर पर विशेष रूप से चर्चाएं छेड़ी हैं। सिंगर काइली मिनोग से लेकर बिग बॉस की जेड गुडी, लीसा रे और पर्सनल कंप्यूटर क्रांति शुरू करने वाले स्टीव जोब्स तक ने कैंसर पर लोगों की जागरूकता, जानकारी बढ़ाने के लिए मीडिया को उकसाया। एक ऐसा शब्द जिससे कई भ्रम और वर्जनाएं जुड़ी थीं, लोग उच्चारने से डरते थे, अब लोगों की जुबान पर चढ़ने लगा है। अखबार और न्यूज चैनल अपने हीरोज़ के साथ-साथ इस बीमारी के अलग-अलग पहलुओं को भी तरह-तरह से उभारते हैं। विशेषज्ञों का ज्ञान, कैंसर-साथियों के अनुभव लोगों तक आसानी से पहुंच रहे हैं। इंटरनेट और, खासकर सोशल मीडिया का भी इसमें बड़ा योगदान है।

हमारे देश में भी कैंसर की घटनाएं तेजी से बढ़ रही है। ऐसे में इसके बारे में जागरूकता, इसकी जल्द पहचान और पूरा इलाज जरूरी है। कई तरह के कैंसरों को खुद पहचानने; धूम्रपान, नशा न करने; नियमित, सक्रिय जीवनचर्या; नियंत्रित और संतुलित खान-पान जैसी आधारभूत जानकारियां देने और इलाज के लिए प्रेरित करने जैसे काम मीडिया के जरिए संपन्न हो रहे हैं। युवराज के बहाने हम कई हस्तियों के अनुभवों को जान पा रहे हैं जिन्होंने इस बीमारी के बाद भी बहुत उपलब्धियां पाईं, नए आसमान छुए और कैंसर पीड़ितों और समाज के लिए प्रेरणा बने।

शहरों में कम से कम इतना असर हुआ है कि लोग कैंसर होने की बातें छुपाते नहीं हैं। वे जान रहे हैं कि हर तरह के लोगों को कैंसर हो सकता है। जानकारी से बीमारी की घटनाएं तो कम नहीं होतीं, लेकिन वे इलाज करवा रहे हैं और कई ठीक होकर या कैंसर के साथ ही, लंबा और बेहतर जीवन बिता रहे हैं। लोगों के भ्रम और डर खत्म हो रहे हैं, कैंसर से अपरिचय और सदमे का भाव कम हो रहा है। दूसरी तरफ मीडिया कैंसर के इलाज की कमियों को सामने लाकर व्यवस्था में सुधार लाने के लिए दबाव बनाने का काम भी जाने-अनजाने कर रहा है। आंखें बंद करके डॉक्टर की अंगुली पकड़ चलते जाने वाले लोगों को विकल्पों की पगडंडियां भी ये चर्चाएं दिखा रही हैं, नई खोजों, इलाजों, उनकी खामियों को सबके सामने रख रही हैं।

हालांकि मीडिया अति भी करता है और बीसीसीआई को अपील करनी पड़ती है कि युवराज की निजता का सम्मान करें। कैंसर के बहाने उसके निजी जीवन के हर मिनट की खबर देना समाचार मीडिया का काम नहीं है।

तो, युवराज सिंह, तुम्हें धन्यवाद और शुभकामनाएं। अपना इलाज करवाकर जल्द लौटो और उन सबके लिए एक और मिसाल बनो जिनके जीवन में उम्मीद की कमी है।

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Sunday, February 19, 2012

जिम्मेदार होना कैंसर के बारे में

राष्ट्रीय सहारा, हस्तक्षेप में 4 फरवरी 2012 को विश्व कैंसर दिवस पर मेरा यह आलेख छपा था। चित्र के नीचे पूरा लेख संलग्न है।



पीछे मुड़कर देखूं तो अपने ही जीवन की घटनाएं चलचित्र-सी, किसी और के साथ घटी लगती हैं। महज 30 की उम्र में स्तन कैंसर होने के बारे में कौन सोच पाता है? चौदह साल पहले जब मुझे पहली बार कैंसर होने का पता चला तब तक वह तीसरे स्टेज की विकसित अवस्था में पहुंच चुका था। अच्छी बात बस यह थी कि वह छिटक कर किसी दूसरे महत्वपूर्ण अंग तक नहीं पहुंच पाया था। इस बीमारी या इसके कारण, बचाव, निदान, इलाज के बारे में कुछ भी नहीं पता था। इसलिए जब इलाज शुरू हुआ तो मेरे लिए एक ही सूत्र वाक्य था- इसके बारे में जानो, जानो और ज्यादा जानो। और जानने की इस प्रक्रिया ने दिमाग और मन को लगातार व्यस्त और उलझाकर रखा। जानने की इस लगन ने ग्यारह महीने लंबे कठिन इलाज के बीच किसी वक्त उकता कर रुक जाने का ख्याल भी न आने दिया।

कैंसर के बारे में हर संभव स्रोत से खोज-खोज कर पढ़ने-जानने की उत्सुकता ने मुझे उन कठिन अपरिचित रास्तों के कई बड़े-छोटे रोड़ों से पहले ही परिचित करा दिया। जानकारी ने मुझे जीने का भरोसा दिया और और डॉक्टरों से अपने हित में बीमारी के बारे में, उसके इलाज और बुरे नतीजों के बारे में सवाल करने आत्मविश्वास भी। कई तरह की सुनी-सुनाई बातों की सच्चाई-झुठाई समझ में आने लगी। दवाओं के संभावित साइड इफेक्ट्स के लिए काफी हद तक तैयारी कर पाने और मानसिक रूप से तैयार रहने का मौका दिया। कम उम्र मेरा भरपूर साथ दे रही थी लेकिन इसे संतुलित करने के लिए नकारात्मक पक्ष भी मौजूद था- उस कड़े इलाज के प्रति जरूरत से ज्यादा संवेदनशील और प्रतिक्रियावादी मेरा शरीर।

पूरी जिंदगी की साधः लड़ाई के दो मोर्चे

इलाज के दौरान बाल सारे झड़ गए, सर्जरी के बाद शरीर बेडौल हो गया। लेकिन ये छोटी बातें थीं और अस्थायी भी। ज्यादा जरूरी था- जीवन को बनाए रखना ताकि इन बाहरी कमियों के बाद भी जिंदगी के ज्यादा महत्वपूर्ण, दिलचस्प हिस्सों को बरकरार रख पाऊं। इन छोटे दिखावटी हिस्सों को खोकर अगर एक अधूरी जिंदगी को पूरी लंबाई तक ले जाने में मदद मिलती है तो उन्हें मैं सौ बार गंवाने को तैयार थी।

इलाज पूरा हुआ। उसके बाद पहले तीन महीने पर, फिर छह और फिर 12 महीने पर फॉलो-अप, डॉक्टरी और तरह-तरह की लैबोरेटरी में जांचों और स्कैन इत्यादि का सिलसिला। लेकिन बड़ी बात यह थी कि मैं जिंदा थी और जीना चाहती थी। इसके सामने बाकी सारी बातें नजरअंदाज करने लायक थीं। खुद अपने लिए नहीं बल्कि अपने लोगों के लिए जीना, जिनको मेरी परवाह थी। दरअसल कैंसर के खिलाफ लड़ाई कभी अकेले की नहीं होती। यह साझा लड़ाई होती है जिसमें डॉक्टर-नर्स, परिवार के लोग मित्र-शुभचिंतक सभी शामिल होते हैं। बीमार के शरीर को मैदान बनाकर लड़ी जा रही इस लड़ाई में कोई आयुध पहुंचाता है तो कोई रसद। कोई शुभकामनाएं देकर ही मनोबल बनाए रखता है। दुश्मन यानी इस बीमारी की कमजोरियों और ताकतों के बारे में जागरूकता लड़ाई में जीत की संभावना को बढ़ा देते हैं।

कैंसर होने का पता चलने के बाद पांच साल जी लेना किसी के जीवन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होता है। डॉक्टर आम तौर पर इसके बाद जीवन को सुरक्षित, कैंसर को ठीक हुआ मान लेते हैं। मेरे पांच साल पूरे होने पर डॉक्टरों की बधाई मिली। लगा मुक्ति मिली। एक आत्मकथात्मक किताब भी छप कर आ गई। मैंने सोचा, मेरे जीवन की एक कठिन कहानी खत्म हुई।

मगर नहीं। दो और साल बीते तो पता चला कि वह तो जीवन की एक लंबी किताब का सिर्फ एक अध्याय था। दूसरा अध्याय अभी बाकी था। यह एक और लड़ाई थी मेरी, कैंसर के खिलाफ जिसमें मैं फिर से अनचाहे ही धकेल दी गई थी। उसी अस्पताल में उन्हीं डॉक्टरों के पास मैं फिर पहुंच गई अपनी कहानी के इस नए अध्याय की भूमिका लेकर। डॉक्टरों ने मुझे ‘वेटरन’ करार दिया, इस बिनाह पर कि पिछले अनुभवों के बाद मेरे लिए कुछ भी नया नहीं होगा और आसानी से मैं इसके इलाज को दोबारा भी झेल पाऊंगी। लेकिन अनुभवी हो जाने भर से दर्द की अनुभूति कम तो नहीं हो जाती। इस बार भी वही इलाज- सर्जरी, 25 दिन रेडियोथेरेपी और छह साइकिल कीमोथेरेपी- बिना किसी छूट, कोताही या राहत के।

सीखने होंगे कुछ गुर बेहतर जिंदगी के

दूसरे अध्याय को भी कोई सात साल बीत चुके हैं। इन चौदह वर्षों में जीवन के उतार-चढ़ावों से गुजरकर मैंने जीने के कुछ गुर सीख लिए हैं। बेहतर जिंदगी पाने का पहला गुर है- अपने को जानना, अपने शरीर को पहचानना, समझना, कहीं पर आए बदलावों पर नजर रखना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना। बदलाव या बीमारी का पता लगते ही उसके इलाज का उपाय करना पहला महत्वपूर्ण कदम है। ठोस कैंसर की गांठों का पता आम तौर पर मरीज को ही सबसे पहले चलता है। डॉक्टर भले ही न पहचान पाए, लेकिन व्यक्ति अगर नियमित रूप से सही तरीके से अपने शरीर को जांचे तो उसमें आ रहे बदलावों को पहचान सकता है। कैंसर के मामले में जल्दी पहचान उसके सफल इलाज की कुंजी है। हमारे देश में कोई 70 फीसदी कैंसर के मामले जब तक सही अस्पताल तक पहुंचकर इलाज की स्थिति में आते हैं, ठीक होने की संभावना से काफी आगे निकल चुके होते हैं। देरी हो चुकी होती है और ट्यूमर फैल चुका होता है। इसलिए बीमारी का पता जितनी जल्दी लग जाए, इलाज उतना ही कामयाब और सरल होता है।

हालांकि पिछले समय में कैंसर के नए-नए कम साइड इफेक्ट वाले इलाज खोजे गए हैं, जो पहले के इलाज से ज्यादा कारगर हैं। टार्गेटेड थेरेपी कैंसर के मरीज की जरूरत के अनुसार डिजाइनर दवाओं से इलाज की पद्यति है, जो स्वस्थ कोशिकाओं को नुकसान किए बिना सिर्फ कैंसर कोशिकाओं को खत्म करती है, जबकि पारंपरिक इलाज में कैंसर के साथ-साथ स्वस्थ कोशिकाएं भी बुरी तरह प्रभावित होती हैं। कुछ प्रकार के कैंसरों में टार्गेटेड थेरेपी शुरुआती परीक्षणों के स्तर पर सफल साबित हो रही है।

उम्मीद की लौ में है जिंदगी

विकसित देशों में कैंसर के पुख्ता इलाज की खोज में लगातार अनुसंधान चल रहे हैं, हालांकि पिछले कुछ दशकों में जितना समय और धन इस पर खर्च किया गया है, उसके मुताबिक परिणाम नहीं मिल पाए हैं। विकसित अवस्था के ज्यादातर कैंसर अब भी ठीक नहीं हो पाते, फिर भी कैंसर के साथ जीवन अब पहले से कहीं ज्यादा लंबा और ज्यादा आसान हो गया है। वैसे भी कैंसर मूलतः शरीर के भीतर की रासायनिक संरचनाओं में गड़बड़ी के कारण होने वाली बीमारी है। ऐसे में सेहतमंद खान-पान, शारीरिक क्रियाशीलता, बेहतर जीवनचर्या सभी के लिए महत्वपूर्ण है, ताकि शरीर की प्रतिरोधक क्षमता इतनी मजबूत हो कि कैंसर दूर रहे या कुछ ज्यादा समय तक शरीर इसके खिलाफ लड़ पाए।

अपने शरीर और मन की क्षमताओं की सीमाओं को टटोलना और बढ़ाते जाने की लगातार कोशिश करते रहना भी जीने की कला है जो कैंसर जैसी शरीर के भीतर पैदा होने वाली गड़बड़ियों पर लगाम रखती है। साथ ही जरूरी है- जीवन की उम्मीद बनाए रखना और इसे आगे बढ़ाना, उन सब तक, जिनके जीवन में बस इसी एक लौ की सख्त जरूरत है।
-आर अनुराधा
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