कैंसर ब्रेक-थ्रू की खबरें आए दिन जोर-शोर से देते रहने वाले पत्रकार यह भी करते हैं। एक नमूना देखिए।
लंदन की प्रतिष्ठित डेली मेल में एक हालिया खबर है कि रेड वाइन से ब्रेस्ट कैंसर की रोकथाम में मदद मिल सकती है। "लैबोरेटरी में परीक्षणों से पता चला है कि अंगूर के छिलके में पाया जाने वाला रसायन ज्यादातर मामलों में इस बीमारी को रोक सकता है।"
खबर में कहानी कुछ इस तरह बताई गई है कि किसी खाद्य पदार्थ में कोई खास रसायन होता है जिसके किसी खास गुण को प्रयोगशाला की पेट्री डिश में देखा गया। इस तरह साबित होता है कि वह खाद्य पदार्थ कैंसर को खत्म करता है।
रेड वाइन में रेसवेराट्रोल नाम का रसायन पाया जाता है जो कि अंगूर के छिलके में होता है। पाया गया है कि यह रसायन क्विनोन रिडक्टेज़ नाम के एंजाइम की सक्रियता को बढ़ाता है, जो कि ईस्ट्रोजेन हार्मोन के एक व्युत्पन्न को वापस ईस्ट्रोजन में बदल देता है। देखा गया है कि वह व्युत्पन्न डीएनए को नुकसान पहुंचा सकता है और डीएनए को नुकसान होने से उसमें म्यूटेशन हो सकता है और म्यूटेशन से कैंसर होने की संभावना होती है। इस तरह पत्रकारों ने यह साबित कर दिया कि रेड वाइन पीने से कैंसर की रोकथाम होती है।
यह कहानी है, एक अनुसंधान से मिले तथ्यों की एक पत्रकार के नजरिए से ‘खबर’ की। वास्तविक जगत में देखें तो रेड वाइन में उस जरा से रसायन के मुकाबले कई हजार गुना ज्यादा मात्रा में कई और रसायन होते हैं, जिनके किसी व्यक्ति के बड़े से विविधता भरे शरीर पर कई तरह के असर होते हैं। उसका सबसे महत्वपूर्ण रसायन अल्कोहल है, जो टूट कर एसीटेल्डिहाइड बनाता है जो कि खुद डीएनए को बड़ा नुकसान पहुंचाता है। यानी अल्कोहल भयानक रूप से कैंसरकारी है। इसकी छोटी सी मात्रा भी डीएनए को नुकसान पहुंचाने का माद्दा रखती है।
तो, खबर को क्या इस नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए? क्या यह नहीं सोचा जाना चाहिए कि इस खबर को लिखने-छापने वाला किसी रेड वाइन बनने वाली कंपनी के हाथों बिक गया?
सबसे मजेदार तथ्य तो मैंने यह खोज निकाला कि इंग्लैंड के डेली मेल अखबार के ऑनलाइन एडीशन में यह खबर 30 सितंबर 2011 को आई है। और वहीं के टेलीग्राफ के ऑनलाइन संस्करण में यह सात जुलाई 2008 को ही छप चुकी है। तो क्या पुरानी खबरे दोबारा लिखने के लिए किसी पत्रकारीय आचार-संहिता को देखने की जरूरत नहीं है? पाठक तो विद्वान पत्रकारों के सामने मूर्ख हैं, लेकिन ये पत्रकार खुद इस तरह मूर्ख बन रहे हैं, क्या उन्हें यह पता भी है?
This blog is of all those whose lives or hearts have been touched by cancer. यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी ज़िंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।
Wednesday, November 16, 2011
Tuesday, November 15, 2011
कैंसर अनुसंधान की मीडिया कवरेजः ब्रेक-थ्रू के बाद हार्ट-ब्रेक?
पिछले कुछ दिन मैंने कैंसर के बेहतर इलाज ढूढने के लिए हो रहे अनुसंधानों को पढ़ने और जानने में लगाए। इंटरनेट पर ढेरों वैज्ञानिक सूचनाएं और आंकड़े मिल रहे हैं। हमेशा मिल जाते हैं। कोई नई बात नहीं। पर नई बात एक जो देखी, वह थी विभिन्न ट्रायल्स और अनुसंधानों को विभिन्न चरणों में मिली सफलता की खबरों का ऑनलाइन अखबारों में प्रस्तुतीकरण। कम से कम पांच अनुसंधानों के नतीजों को पिछले 10 या तीस साल का सबसे बड़ा ब्रेकथ्रू, सबसे बड़ी खोज बताया गया था। ऐसे में मेरे लिए भी तय करना मुश्किल हो रहा था कि वास्तव में किसे सबसे बड़ी खबर मानूं। बल्कि सवाल यह भी था कि किसी भी नतीजे को अभी से अंतिम मानकर ‘सबसे बड़ी’ या छोटी ही सही, सफलता माना भी जाए या नहीं।
दरअसल इलाज के लिए किसी भी दवा या तकनीक को अनुसंधानों में पहले प्रयोगशाला में पेट्रीडिश में जीवित ऊतकों और फिर जीवों पर आजमाया जाता है। यहां प्री-ट्रायल स्टेज के आंकड़ों के आधार पर उन्हें अगले चरण- मनुष्यों पर ट्रायल के लिए इजाजत मिलती है। स्टेज शून्य में कुछेक चुनिंदा मरीजों को बेहद हल्की डोज़ देकर इनके असर को देखा जाता है। इसके बाद पहले चरण के ट्रायल में 20 से 100 स्वस्थ लोगों पर उसे आजमाया जाता है। इसमें मिले नतीजों के अनुसार ही इसे दूसरे चरण के ट्रायल में लिया जाता है जिसमें 100 से 300 स्वस्थ और बीमार लोगों को शामिल किया जाता है।
इसके बाद तीन सौ से तीन हजार लोगों पर इसे आजमाकर नतीजे देखे जाते हैं। इन सभी चरणों में जाने से पहले तकनीक को कई तरह की मंजूरियों के रोड़े पार करने पड़ते हैं। इसमें भी सफल होने के बाद ही किसी दवा या थेरेपी को आम क्लीनिकल व्यवहार के लिए मंजूरी मिल पाती है। इस पूरी प्रक्रिया में पैसे तो लगते ही हैं, समय भी खूब लगता है। न्यूनतम पांच-सात साल से लेकर दशकों तक। इसमें कोई कटौती नहीं की जा सकती। दवा की बिक्री शुरू होने के बाद भी इसकी मार्केटिंग पर नजर रखी जाती है। इसके बाद भी उस दवा या तकनीक में सुधार-संशोधन के लिए विभिन्न अनुसंधान जारी रहते हैं।
इस बीच विभिन्न शुरुआती चरणों में मिल रही सफलता को भी भुना लेने के लिए उस परियोजना की प्रायोजक कंपनी उसका खूब प्रचार करती है। वैज्ञानिक भी कई बार अपनी सफलताओं से उत्साहित हो जाते हैं। उधर सनसनीखेज खबरों की ताक में बैठे पत्रकार भी इन महत्वपूर्ण लेकिन निचले स्तर की सफलताओं को अपनी खबरों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। मानो ये इलाज बस मरीजों तक पहुंचा ही चाहते हैं। और ये महान ब्रेकथ्रू तो जी एकदम सफल हैं। यह कैंसर को जड़ से मिटा देने वाला वंडर ड्रग है...आदि, इत्यादि। इस बीच वे यह भूल जाते हैं कि इन खबरों को गंभीरता से ले रहे पाठक-दर्शक की समझ का क्या होगा। उनमें से कई इस बीमारी से गुजर रहे होंगे और नाउम्मीद हो चुके होंगे।
लगभग मारक, ज्यादातर लोगों के लिए जानलेवा बीमारी कैंसर के मरीज और उससे जुड़े लोग इन अनुसंधानों को बड़ी उम्मीद से देखते हैं। लैबोरेटरी में जीवों या पेट्री डिश में रखे जीविक ऊतकों पर भी किसी दवा या तकनीक के कारगर होने की खबर जब जोर-शोर से मीडिया में उभारी जाती है तो इन मरीजों को वह दवा या तकनीक जीने की नई रौशनी की तरह दिखाई पड़ती हैं। बेशक, उस अनुसंधान में शामिल मरीजों को तो जीने का एक और मौका मिलने जैसा लगता होगा, लेकिन दूर बैठे देख रहे बाकी लोगों के लिए तो बस एक सपना ही रह जाता है, इस इलाज तक पहुंच पाना।
ऐसे में किसी भी वैज्ञानिक विषय, खास तौर पर लाइलाज-सी या कठिन बीमारियों के नए इलाज के ईजाद की कवरेज के समय पत्रकारों को संयत होकर लिखना जरूरी है ताकि भ्रम न फैलें और पाठक या दर्शक जान सके कि उस इलाज की जमीनी हकीकत क्या है और उसे उससे कितनी उम्मीद रखनी है।
दरअसल इलाज के लिए किसी भी दवा या तकनीक को अनुसंधानों में पहले प्रयोगशाला में पेट्रीडिश में जीवित ऊतकों और फिर जीवों पर आजमाया जाता है। यहां प्री-ट्रायल स्टेज के आंकड़ों के आधार पर उन्हें अगले चरण- मनुष्यों पर ट्रायल के लिए इजाजत मिलती है। स्टेज शून्य में कुछेक चुनिंदा मरीजों को बेहद हल्की डोज़ देकर इनके असर को देखा जाता है। इसके बाद पहले चरण के ट्रायल में 20 से 100 स्वस्थ लोगों पर उसे आजमाया जाता है। इसमें मिले नतीजों के अनुसार ही इसे दूसरे चरण के ट्रायल में लिया जाता है जिसमें 100 से 300 स्वस्थ और बीमार लोगों को शामिल किया जाता है।
इसके बाद तीन सौ से तीन हजार लोगों पर इसे आजमाकर नतीजे देखे जाते हैं। इन सभी चरणों में जाने से पहले तकनीक को कई तरह की मंजूरियों के रोड़े पार करने पड़ते हैं। इसमें भी सफल होने के बाद ही किसी दवा या थेरेपी को आम क्लीनिकल व्यवहार के लिए मंजूरी मिल पाती है। इस पूरी प्रक्रिया में पैसे तो लगते ही हैं, समय भी खूब लगता है। न्यूनतम पांच-सात साल से लेकर दशकों तक। इसमें कोई कटौती नहीं की जा सकती। दवा की बिक्री शुरू होने के बाद भी इसकी मार्केटिंग पर नजर रखी जाती है। इसके बाद भी उस दवा या तकनीक में सुधार-संशोधन के लिए विभिन्न अनुसंधान जारी रहते हैं।
इस बीच विभिन्न शुरुआती चरणों में मिल रही सफलता को भी भुना लेने के लिए उस परियोजना की प्रायोजक कंपनी उसका खूब प्रचार करती है। वैज्ञानिक भी कई बार अपनी सफलताओं से उत्साहित हो जाते हैं। उधर सनसनीखेज खबरों की ताक में बैठे पत्रकार भी इन महत्वपूर्ण लेकिन निचले स्तर की सफलताओं को अपनी खबरों में बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। मानो ये इलाज बस मरीजों तक पहुंचा ही चाहते हैं। और ये महान ब्रेकथ्रू तो जी एकदम सफल हैं। यह कैंसर को जड़ से मिटा देने वाला वंडर ड्रग है...आदि, इत्यादि। इस बीच वे यह भूल जाते हैं कि इन खबरों को गंभीरता से ले रहे पाठक-दर्शक की समझ का क्या होगा। उनमें से कई इस बीमारी से गुजर रहे होंगे और नाउम्मीद हो चुके होंगे।
लगभग मारक, ज्यादातर लोगों के लिए जानलेवा बीमारी कैंसर के मरीज और उससे जुड़े लोग इन अनुसंधानों को बड़ी उम्मीद से देखते हैं। लैबोरेटरी में जीवों या पेट्री डिश में रखे जीविक ऊतकों पर भी किसी दवा या तकनीक के कारगर होने की खबर जब जोर-शोर से मीडिया में उभारी जाती है तो इन मरीजों को वह दवा या तकनीक जीने की नई रौशनी की तरह दिखाई पड़ती हैं। बेशक, उस अनुसंधान में शामिल मरीजों को तो जीने का एक और मौका मिलने जैसा लगता होगा, लेकिन दूर बैठे देख रहे बाकी लोगों के लिए तो बस एक सपना ही रह जाता है, इस इलाज तक पहुंच पाना।
ऐसे में किसी भी वैज्ञानिक विषय, खास तौर पर लाइलाज-सी या कठिन बीमारियों के नए इलाज के ईजाद की कवरेज के समय पत्रकारों को संयत होकर लिखना जरूरी है ताकि भ्रम न फैलें और पाठक या दर्शक जान सके कि उस इलाज की जमीनी हकीकत क्या है और उसे उससे कितनी उम्मीद रखनी है।
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