हम सभी को एक-न-एक बार वह फॉरवर्डेड मेल मिली होगी जिसमें कहा जाता है कि ज्यादा सेलफोन इस्तेमाल करने वालों को सिर का ट्यूमर होने का खतरा कई गुना बढ़ जाता है। इसलिए सेलफोन को सिर के पास न यानी कान पर रखें बल्कि ब्लू-टूथ उपकरणों का इस्तेमाल करें।
सेलफोन से ट्यूमर होने की बात सबसे पहले चर्चा में आई जब डेविड रेनार्ड ने 1993 में एक टीवी शो में अपनी पत्नी को ब्रेन ट्यूमर होने का कारण यह माना कि वह सिर से सेलफोन लगाकर काफी देर तक बातें करती थी। इसके समर्थन में कई न्यूरोसर्जन्स भी कह चुके हैं हालांकि वे भी इसका कोई पुख्ता कारण नहीं दे पाए कि यह कैसे होता है।
इसका जवाब मेडीकल साइंस के नहीं, भौतिकी के विशेषज्ञों से आया है। कोलैबोरेशन ऑफ इंटरनैशनल ईएमएफ एक्टिविस्ट्स नाम के इस ग्रुप ने सेलफोन से ब्रेन ट्यूमर होने की संभावना पर एक रपोर्ट जारी की है।
दरअसल कैंसर शरीर में होता है जब कोशिकीय डीएनए में गडबड़ होती है और उसमें म्यूटेशन आ जाता है, यानी उसकी संरचना में बदलाव आ जाता है। रसायनों, रेडएशन या वायरस से होने वाले ट्यूमर सभी में कोशिका में यह बदलाव आता है। सभी प्रकार के रेडएशन में फोटोन होते हैं और रेडिएशन की वेवलेंथ से उस फोटोन की ताकत तय होती है।
भौतिकशास्त्री एक आधारभूत तथ्य देते हैं कि साधारण बल्ब की रौशनी की फ्रीक्वेंसी 5x1014 हर्ट्ज़ होती है जिसमें हमारी कोशिका के डीएनए को तोड़ने या छेड़ने की ताकत नहीं होती, वरना आज हम सब या तो कैंसरों का पुलिंदा बने घूम रहे होते या अंधेरे में जी रहे होते।
इसके मुकाबले सेलफोन की फ्रीक्वेंसी 1 x 109 हर्ट्ज़ होती है और घरेलू इस्तेमाल के माइक्रोवेव ओवन की 2.45 x 1012 हर्ट्ज़। यानी बल्ब के मुकाबले माइक्रोवेव में ऊर्जा एक हजारवां और सेलफोन में दस लाखवां हिस्सा होती है। यानी सेलफोन की ऊर्जा से जीवित शरीर के भीतर किसी कोशिका के डीएनए को तोड़ना वैसा ही है जैसे कागज़ की कैंची से लोहे का तार काटना।
जर्नल ऑफ नैशनल कैंसर इंस्टीट्यूट ने 2001 के अंक में डेनमार्क के 5 लाख सेलफोन इस्तेमाल करने वालों के आंकड़ों का अध्ययन कर रिपोर्ट छापी है जिसमें उन्हें ब्रेन ट्यूमर होने के कोई लक्षण नहीं मिले।
मैरीलैंड विश्वविद्यालय के भौतिकशास्त्री रॉबर्ट एल पार्क का इसी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन ऐसे किसी तथ्य की पुष्टि नहीं करता।
और जहां तक फॉर्वर्डेड मेल्स में यूटू्यूब की सेलफोन से मक्के का पॉपकॉर्न बनने जैसी फिल्मों का सवाल है, तो थोड़ी सी कंप्यूटर कारीगरी से सेलफोन के ऊपर रखे मक्के दानों को नीचे टेबल पर गिरते ही पॉपकॉर्न में बदल देना कोई बड़ी बात नहीं। और यह वीडियो दरअसल एक ब्लू टूथ बनाने वाली कंपन का विज्ञापन है। नीचे बटन पर क्लिक करके देखा जा सकता है।
This blog is of all those whose lives or hearts have been touched by cancer. यह ब्लॉग उन सबका है जिनकी ज़िंदगियों या दिलों के किसी न किसी कोने को कैंसर ने छुआ है।
Sunday, September 13, 2009
Monday, August 17, 2009
‘ऊंची नाक’ के कारण कैंसर से ज्यादा मारे जाते हैं पुरुष?!
कुछ दिनों पहले खबर आई है कि पुरुषों को अपनी अकड़ की कीमत कैंसर से मौत के रुप में भी देनी पड़ रही है। इंग्लैंड में हाल ही में हुए एक अध्ययन के हैरान करने वाले नतीजे निकले हैं। पता लगा है कि स्त्री-पुरुष दोनों को होने वाले कैंसरों से मरने वाले पुरुषों की संख्या महिलाओं के मुकाबले 60 फीसदी ज्यादा होती है। और दिलचस्प बात ये है कि यह अवलोकन बिना किसी अपवाद के इस कैटेगरी के हर तरह के कैंसर पर लागू होता है।
वैज्ञानिकों को इसका कोई बायोलॉजिकल कारण नहीं समझ में आया है।
वैज्ञानकों ने पाया कि पुरुषों के कैंसर से मरने की संभावना महिलाओं से 40 फीसदी तक ज्यादा है। लीड्स मेट्रोपोलिटन विश्वविद्यालय की इस रपोर्ट के लेखकों में से एक प्रो. ऐलन व्हाइट का मानना है कि पुरुषों की जीवनचर्या यानी लाइफ स्टाइल (सिगरेट, मद्यपान, पान मसाला आदि) ही इसका कारण है।
डॉक्टरों का मानना है कि पुरुष जानते हुए भी इस बात को नजरअंदाज करते हैं कि उनके शरीर के बीच के भाग का मोटापा यानी तोंद मोटापे से जुड़े कैंसर और उससे मौत तक होने की संभावना को कई गुना बढ़ा देती है। एक विचार यह भी है कि पुरुष डाक्टर के पास जाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि शायद इसीलिए समय पर निदान और इलाज न होना भी इसका एक कारण हो सकता है।
2006 और 2007 में कैंसर के मामलों और इसकी वजह से जान गंवा चुके लोगों के बारे में इकट्ठे किए गए आंकड़ों पर आधारित इस अध्ययन में पाया गया कि पुरुषों में किसी भी प्रकार का कैंसर होने की संभावना महिलाओं के मुकाबले 16 फीसदी ज्यादा है लेकिन उन्हें दोनों में होने वाले कैंसरों के होने की संभावना 60 फीसदी ज्यादा है।
और जैसा कि अक्सर होता है, इन नतीजों पर भी विवाद शुरू हो गया है। इंग्लैंड के जाने-माने कैंसर विशेषज्ञ कैरोल सिकोरा का मानना है कि पुरुषों में कैंसर से ज्यादा मौतों का कारण वहां की राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना (एन एच एस) का पुरुषों के खिलाफ भेद-भाव है। वे कहते हैं कि वहां एन एच एस बरसों से महिलाओं के हित में काम कर रही है जबकि पुरुषों की सेहत की लगातार अनदेखी होती रही है।
लब्बो-लुबाब ये कि इंग्लैंड में पढ़े-लिखे पुरुषों को भी कैंसर के बारे में पढ़ाने-सिखाने की जरूरत महसूस की जा रही है। महज लाइफस्टाइल में सुधार करके ही करीब 50 फीसदी कैंसरों का होना रोका जा सकता है। मगर चिंता की बात ये है कि इन सलाहों पर कोई कान नहीं दे रहा है।
सबक सीखना हो तो- कैंसर को छुपाना, उसके बारे में बात न करना शुतुरमुर्ग का रेत में चोंच छुपाना है। इससे सामने आया खतरा टल नहीं जाता। बल्कि ज्यादा आक्रामक, ताकतवर होकर हमला करता है। कैंसर पर अंग्रेजी में 30 करोड़ से ज्यादा वेबसाइट हैं। कोई यहां पहुंचे तो सही!
वैज्ञानिकों को इसका कोई बायोलॉजिकल कारण नहीं समझ में आया है।
वैज्ञानकों ने पाया कि पुरुषों के कैंसर से मरने की संभावना महिलाओं से 40 फीसदी तक ज्यादा है। लीड्स मेट्रोपोलिटन विश्वविद्यालय की इस रपोर्ट के लेखकों में से एक प्रो. ऐलन व्हाइट का मानना है कि पुरुषों की जीवनचर्या यानी लाइफ स्टाइल (सिगरेट, मद्यपान, पान मसाला आदि) ही इसका कारण है।
डॉक्टरों का मानना है कि पुरुष जानते हुए भी इस बात को नजरअंदाज करते हैं कि उनके शरीर के बीच के भाग का मोटापा यानी तोंद मोटापे से जुड़े कैंसर और उससे मौत तक होने की संभावना को कई गुना बढ़ा देती है। एक विचार यह भी है कि पुरुष डाक्टर के पास जाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। वैज्ञानिक मान रहे हैं कि शायद इसीलिए समय पर निदान और इलाज न होना भी इसका एक कारण हो सकता है।
2006 और 2007 में कैंसर के मामलों और इसकी वजह से जान गंवा चुके लोगों के बारे में इकट्ठे किए गए आंकड़ों पर आधारित इस अध्ययन में पाया गया कि पुरुषों में किसी भी प्रकार का कैंसर होने की संभावना महिलाओं के मुकाबले 16 फीसदी ज्यादा है लेकिन उन्हें दोनों में होने वाले कैंसरों के होने की संभावना 60 फीसदी ज्यादा है।
और जैसा कि अक्सर होता है, इन नतीजों पर भी विवाद शुरू हो गया है। इंग्लैंड के जाने-माने कैंसर विशेषज्ञ कैरोल सिकोरा का मानना है कि पुरुषों में कैंसर से ज्यादा मौतों का कारण वहां की राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना (एन एच एस) का पुरुषों के खिलाफ भेद-भाव है। वे कहते हैं कि वहां एन एच एस बरसों से महिलाओं के हित में काम कर रही है जबकि पुरुषों की सेहत की लगातार अनदेखी होती रही है।
लब्बो-लुबाब ये कि इंग्लैंड में पढ़े-लिखे पुरुषों को भी कैंसर के बारे में पढ़ाने-सिखाने की जरूरत महसूस की जा रही है। महज लाइफस्टाइल में सुधार करके ही करीब 50 फीसदी कैंसरों का होना रोका जा सकता है। मगर चिंता की बात ये है कि इन सलाहों पर कोई कान नहीं दे रहा है।
सबक सीखना हो तो- कैंसर को छुपाना, उसके बारे में बात न करना शुतुरमुर्ग का रेत में चोंच छुपाना है। इससे सामने आया खतरा टल नहीं जाता। बल्कि ज्यादा आक्रामक, ताकतवर होकर हमला करता है। कैंसर पर अंग्रेजी में 30 करोड़ से ज्यादा वेबसाइट हैं। कोई यहां पहुंचे तो सही!
Sunday, May 31, 2009
इसके बावजूद तंबाकू का सेवन करने वाले, धूम्रपान करने वाले खोपड़ी से खाली हैं....
आज विश्व तंबाकू निषेध दिवस है।


# “पता है, स्मोकिंग दरअसल आप नहीं करते। सिगरेट ही स्मोकिंग करती है। आप तो सिर्फ सिगरेट का छोड़ा हुआ धुंआ पीते हैं।“
# “अब यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि सिगरेट दुनिया में आंकड़ों के होने का एक प्रमुख कारण है।“

तंबाकू पर ज्यादा जानकारी के लिए 18 मई 2008 की पोस्ट देखें- कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू


# “पता है, स्मोकिंग दरअसल आप नहीं करते। सिगरेट ही स्मोकिंग करती है। आप तो सिर्फ सिगरेट का छोड़ा हुआ धुंआ पीते हैं।“
# “अब यह पूरी तरह साबित हो चुका है कि सिगरेट दुनिया में आंकड़ों के होने का एक प्रमुख कारण है।“

तंबाकू पर ज्यादा जानकारी के लिए 18 मई 2008 की पोस्ट देखें- कैंसर की दुनिया का आतंकवादी पत्ता: तंबाकू
Thursday, May 28, 2009
चाहती हूं जीना एक दिन
जिंदगी उतनी लंबी होती है, जितनी आदमी जी लेता है।
उतनी नहीं जितनी आदमी जिंदा रह लेता है।
कोई एक में कई जिंदगियां जी लेता है तो कोई एक दिन भी नहीं जी पाता।
मैं जीना चाहती हूं। एक दिन में कई दिन- चाहती हूं जीना ऐसा एक दिन।
एक शाम- जब मैं जा सकूं साथी के साथ
सान्ता मोनिका पर नए साल के स्वागत के लिए।
कोई दिन- बिना दर्द, जलन, तकलीफ के।
एक दिन- जब मेरे हाथ में हो दिलचस्प किताब,
पास बजता हो मीठा संगीत और साथ हो अच्छा खाना।
दो दिन- जब मैं नताशा के साथ फुर्सत से बैठकर गपशप कर सकूं
बैठे-बैठे उसकी बिटिया को अपनी गोद में सुला सकूं।
दस दिन- जब मैं किसी बच्चे के साथ
जा सकूं एक छोटी सी पहाड़ी पर पर्वतारोहण के लिए।
एक महीना- जब मुझे अस्पताल या पैथोलॉजी लैब का
एक भी चक्कर न लगाना पड़े।
एक मौसम- जिसके हर दिन मैं पकाऊं कुछ नया, पहनूं कुछ नया
जो बनाए मुझे सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा।
एक साल- जिसमें लगा सकूं हर पखवाड़े एक
कैंसर जांच और जागरूकता कैंप दिल्ली भर में
पांच साल- बिना कैंसर की पुनरावृत्ति के।
एक जीवन- जब मैं परिवार और झुरमुटों-झरनों-जुगनुओं के बीच
रहूं दूर पहाड़ी पर कहीं।
मैं ये सारे दिन एक बार जीना चाहती हूं।
इजाजत है?
(PS: रचना ने इस तरफ द्यान खींचा कि बिना संदर्भ के इस कविता कई पाठकों को ठीक से समझ में नहीं आएगी। और संदर्भ इसे ज्यादा प्रभावी बना देगा। अस्तु-
संदर्भ: पिछले ग्यारह साल से हर दिन मेरे लिए कुछ आशंकाएं लिए आता है। मई 1998 में पहली कार मुझे कैंसर होने का पता चला। पूरा इलाज कोई 11 महीने चला। इसके बाद लगातार फॉलो-अप, चेक-अप, ढेरों तरह की जांचें, तय समयों पर और कई बार बिना तय समयों पर भी, जब भी कैंसर के लौट आने की जरा भी आशंका हुई। उसके बाद सारे एहतियात के बाद भी मार्च 2005 में कैंसर का दोबारा उभरना। इन सबके बीच इन छोटी-छोटी मोहलतों की हसरत बनी हुई है, जिनमें से कुछेक पूरी हुईं भी, लेकिन उस इत्मीनान के साथ नहीं, जो मैं दिल से चाहती हूं। इसलिए जिंदगी से इजाजत मांगने का मन है कि क्या कभी हो पाएगा। और मुझे उम्मीद है कि होगा।)
उतनी नहीं जितनी आदमी जिंदा रह लेता है।
कोई एक में कई जिंदगियां जी लेता है तो कोई एक दिन भी नहीं जी पाता।
मैं जीना चाहती हूं। एक दिन में कई दिन- चाहती हूं जीना ऐसा एक दिन।
एक शाम- जब मैं जा सकूं साथी के साथ
सान्ता मोनिका पर नए साल के स्वागत के लिए।
कोई दिन- बिना दर्द, जलन, तकलीफ के।
एक दिन- जब मेरे हाथ में हो दिलचस्प किताब,
पास बजता हो मीठा संगीत और साथ हो अच्छा खाना।
दो दिन- जब मैं नताशा के साथ फुर्सत से बैठकर गपशप कर सकूं
बैठे-बैठे उसकी बिटिया को अपनी गोद में सुला सकूं।
दस दिन- जब मैं किसी बच्चे के साथ
जा सकूं एक छोटी सी पहाड़ी पर पर्वतारोहण के लिए।
एक महीना- जब मुझे अस्पताल या पैथोलॉजी लैब का
एक भी चक्कर न लगाना पड़े।
एक मौसम- जिसके हर दिन मैं पकाऊं कुछ नया, पहनूं कुछ नया
जो बनाए मुझे सदियों पुरानी परंपरा का हिस्सा।
एक साल- जिसमें लगा सकूं हर पखवाड़े एक
कैंसर जांच और जागरूकता कैंप दिल्ली भर में
पांच साल- बिना कैंसर की पुनरावृत्ति के।
एक जीवन- जब मैं परिवार और झुरमुटों-झरनों-जुगनुओं के बीच
रहूं दूर पहाड़ी पर कहीं।
मैं ये सारे दिन एक बार जीना चाहती हूं।
इजाजत है?
(PS: रचना ने इस तरफ द्यान खींचा कि बिना संदर्भ के इस कविता कई पाठकों को ठीक से समझ में नहीं आएगी। और संदर्भ इसे ज्यादा प्रभावी बना देगा। अस्तु-
संदर्भ: पिछले ग्यारह साल से हर दिन मेरे लिए कुछ आशंकाएं लिए आता है। मई 1998 में पहली कार मुझे कैंसर होने का पता चला। पूरा इलाज कोई 11 महीने चला। इसके बाद लगातार फॉलो-अप, चेक-अप, ढेरों तरह की जांचें, तय समयों पर और कई बार बिना तय समयों पर भी, जब भी कैंसर के लौट आने की जरा भी आशंका हुई। उसके बाद सारे एहतियात के बाद भी मार्च 2005 में कैंसर का दोबारा उभरना। इन सबके बीच इन छोटी-छोटी मोहलतों की हसरत बनी हुई है, जिनमें से कुछेक पूरी हुईं भी, लेकिन उस इत्मीनान के साथ नहीं, जो मैं दिल से चाहती हूं। इसलिए जिंदगी से इजाजत मांगने का मन है कि क्या कभी हो पाएगा। और मुझे उम्मीद है कि होगा।)
Monday, April 20, 2009
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-4)
खान-पान और कैंसर
अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को जीवन भर सेहतमंद खान-पान और सामान्य कसरत के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ बोहतर खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यूआईसीसी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।
भोजन के खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।
खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा, दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है तो विकासशील देशों में कुपोषण की। जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता तो शरीर कैंसर का आसान शिकार बन जाता है।
मांसाहार बनाम शाकाहार-
सेहतमंद खानपान की बात हो तो ये मुद्दा आना ही है कि मांसाहार बेहतर है कि शाकाहार। मेरा अपना विवेक शाकाहार के पक्ष में तर्क देता है। नीचे कुछ तथ्य हैं जो मैंने शाकाहार के समर्थन में ढूंढ निकाले हैं। मांसाहार के पक्ष में आपकी राय हो तो जरूर बताएं, चर्चा ज्यादा समृद्ध होगी।
*जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था।
*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतन 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।
* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।
* 2006 में हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1,35,000 लोगों में से अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाने वालों को मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।
शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है-
* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।
* मांस को हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।
* मांस-मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं। थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।
* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं।
* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोशा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते। खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।
* फलों और सब्जियों में एंटी-ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसरकारी रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।
* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल कर बीमारी नहीं पैदा कर पातीं। शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।
अनुमान है कि विभिन्न कैंसरों से होने वाली 30 फीसदी मौतों को जीवन भर सेहतमंद खान-पान और सामान्य कसरत के जरिए रोका जा सकता है। लेकिन कैंसर हो जाने के बाद सिर्फ बोहतर खान-पान के जरिए इसे ठीक नहीं किया जा सकता। इंटरनैशनल यूनियन अगेन्स्ट कैंसर (यूआईसीसी) ने अध्ययनों में पाया कि एक ही जगह पर रहने वाले अलग खान-पान की आदतों वाले समुदायों में कैंसर होने की संभावनाएं अलग-अलग होती हैं। ज्यादा चर्बी खाने वाले समुदायों में स्तन, प्रोस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं।
भोजन के खाद्य तत्वों के अलावा बाहरी तत्व, जैसे- प्रिजर्वेटिव और कीटनाशक रसायन, उसे पकाने का तरीका यानी जलाकर ((ग्रिल), तेज आंच पर देर तक पकाना आदि, और उसमें पैदा हुए फफूंद या जीवाणु यानी बासीपन आदि भी कैंसर को बढ़ावा देते हैं।
खाद्य सुरक्षा और खाने की सुरक्षा, दोनों का ही कैंसर की संभावना से गहरा संबंध है। विकसित देशों में अतिपोषण की समस्या है तो विकासशील देशों में कुपोषण की। जब जरूरी पोषक तत्वों की कमी से शरीर किसी बीमारी से लड़ने में पूरी तरह सक्षम नहीं होता तो शरीर कैंसर का आसान शिकार बन जाता है।
मांसाहार बनाम शाकाहार-
सेहतमंद खानपान की बात हो तो ये मुद्दा आना ही है कि मांसाहार बेहतर है कि शाकाहार। मेरा अपना विवेक शाकाहार के पक्ष में तर्क देता है। नीचे कुछ तथ्य हैं जो मैंने शाकाहार के समर्थन में ढूंढ निकाले हैं। मांसाहार के पक्ष में आपकी राय हो तो जरूर बताएं, चर्चा ज्यादा समृद्ध होगी।
*जर्मनी में 11 साल तक चले एक अध्ययन में पाया गया कि शाकाहारी भोजन खाने वाले 800 लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। कैंसर होने की दर सबसे कम उन लोगों में थी जिन्होंने 20 साल से मांसाहार नहीं खाया था।
*ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में 2007 में छपी रिपोर्ट के मुताबिक 35 हजार महिलाओं पर अपने 7 साल लंबे अध्ययन में पाया गया कि जिन बूढ़ी महिलाओं ने औसतन 50 ग्राम मांस हर दिन खाया, उन्हें, मांस न खाने वालों के मुकाबले स्तन कैंसर का खतरा 56 फीसदी ज्यादा था।
* 34 हजार अमरीकियों पर हुए एक अध्ययन के नतीजे बताते हैं कि मांसाहार छोड़ने वालों को प्रोस्टेट, अंडाषय और मलाशय (कोलोन) का कैंसर का खतरा नाटकीय ढ़ंग से कम हो गया।
* 2006 में हार्वर्ड के अध्ययन में शामिल 1,35,000 लोगों में से अक्सर ग्रिल्ड चिकन खाने वालों को मूत्राशय का कैंसर होने का खतरा 52 फीसदी तक बढ़ गया।
शाकाहार किस तरह कैंसर के लिए उपयुक्त स्थियों को दूर रखता है-
* मांस में सैचुरेटेड फैट अधिक होता है जो शरीर में कोलेस्ट्रॉल को बढ़ाता है। (चर्बी निकाले हुए चिकेन से भी, मिलने वाली ऊर्जा की कम से कम आधी मात्रा चर्बी से ही आती है।) चिकेन और कोलेस्ट्रॉल शरीर में ईस्ट्रोजन हार्मोन को बढ़ाता है जो कि स्तन कैंसर से सीधा संबंधित है। जबकि शाकाहार में मौजूद रेशे शरीर में ईस्ट्रोजन के स्तर को नियंत्रित रखते हैं।
* मांस को हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा समय लगते हैं। ज्यादा देर तक अनपचा खाना पेट में अम्ल और दूसरे जहरीले रसायन बनाता है जिससे कैंसर को बढ़ावा मिलता है।
* मांस-मुर्गे का उत्पादन बढ़ाने के लिए आजकल हार्मोन, डायॉक्सिन, एंटीबायोटिक, कीटनाशकों, भारी धातुओं का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है जो कैंसर को बढ़ावा देते हैं। थोड़ी सी जगह में ढेरों मुर्गों को पालने से वे एक-दूसरे से कई तरह की बीमारियां लेते रहते हैं। ऐसे हालात में उन्हें जिलाए रखने के लिए खूब एंटीबायोटिक्स दी जाती हैं जिनमें आर्सेनिक जैसी कैंसरकारी भारी धातुएं भी होती हैं।
* मांस-मुर्गे में मौजूद परजीवी और सूक्ष्म जीव कुछ तो पकाने पर मर जाते हैं और कुछ हमारे शरीर में बढ़ते हैं और कैंसर और दूसरी बीमारियां पैदा करते हैं, हमारी प्रतिरोधक क्षमता को थका देते हैं।
* शाकाहार में मौजूद रेशे बैक्टीरिया से मिलकर ब्यूटिरेट जैसे रसायन बनाते हैं जो कैंसर कोशा को मरने के लिए प्रेरित करते हैं। दूसरे, रेशों में पानी सोख कर मल का वजन बढ़ाने की क्षमता होती है जिससे जल्दी-जल्दी शौच जाने की जरूरत पड़ती है और मल और उसके रसायन ज्यादा समय तक खाने की नली के संपर्क में नहीं रह पाते। खूब फल और सब्जियां खाने से मुंह, ईसोफेगस, पेट और फेफड़ों के कैंसर की संभावना आधी हो सकती है।
* फलों और सब्जियों में एंटी-ऑक्सीडेंट की प्रचुर मात्रा होते हैं जो शरीर में कैंसरकारी रसायनों को पकड़ कर उन्हें 'आत्महत्या' के लिए प्रेरित करते हैं।
* शाकाहार में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और इस तरह कैंसर कोषाएं फल-फूल कर बीमारी नहीं पैदा कर पातीं। शाकाहार जरूरी लवणों का भी भंडार है।
Saturday, April 18, 2009
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-3)
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-2)
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-1)
फ्री-रैडिकल्स और ऐंटी-ऑक्सीडेंट
ऑक्सीडेशन एक रासायनिक प्रक्रिया है जिससे लोहे में जंग लगती है और हमारे शरीर में भी। हमारे शरीर में मौजूद फ्री-रैडिकल्स ऐसे अणु हैं जिनमें एक इलेक्ट्रॉन कम होता है जिसकी पूर्ति के लिए वे दूसरे अणुओं की ओर जल्द आकर्षित होते हैं और उनके इलेक्ट्रॉन चुरा लेते हैं। अब जिस अणु का इलेक्ट्रॉन चोरी हुआ है वह किसी और का चुराने को उद्धत रहता है इस तरह यह चेन रिऐक्शन चलता रहता है जिससे कोशिका के भीतर कई तरह के अणु, यहां तक कि डीएनए भी प्रभावित होते है।
डीएनए का एक अणु भी अपनी जगह से हिला तो उसके जेनेटिक कोड में बदलाव आ जाता है और कोशिका का काम-काज प्रभावित होता है। तंबाकू, धुंए, रेडिएशन जैसी कई चीजों में फ्री-रैडिकल्स होते हैं जो कोशिका के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर भी पैदा कर सकते हैं।
फ्री-रैडिकल्स के लिए इलेक्ट्रॉन देने में शरीर में मौजूद ऑक्सीजन अव्वल होती है। इसलिए फ्री-रैडिकल्स को इलेक्ट्रॉन की पूर्ति होना ऑक्सिडेशन कहलाता है। जो अणु फ्री-रैडिकल्स के ऑक्सिडेशन को रोकते हैं उन्हें ऐंटी-ऑक्सीडेंट कहा जाता है।
ऐंटी-ऑक्सीडेंट, जैसे विटामिन ई और सी, फ्री रैडिकल्स के साथ रिऐक्शन करके उन्हें काबू में रखते हैं और इस तरह ऑक्सीडेशन की चेन रिऐक्शन को, यानी कैंसर पैदा होने की स्थितियों को रोकते हैं। पेड़-पौधों में ऐंटी-ऑक्सीडेंट काफी होते हैं। ये हमारे शरीर में भी पैदा होते हैं लेकिन काफी कम मात्रा में।
फाइटोकेमिकल्स यानी पौधों से मिलने वाले रसायन जो कैंसर को रोकते हैं, उसकी ग्रोथ को रोकते हैं या उसे ठीक करने में मदद करते हैं। अब तक कोई ऐसा फाइटोकेमिकल नहीं खोजा जा सका है जिससे कैंसर का इलाज हो जाए। हालांकि कैंसर को रोकने में कई फाइटोकेमिकल्स कामयाब पाए गए है।
ऐंथोसायनिन ऐसे रसायन हैं जो सब्जियों, साइट्रस फलों, बेरीज़ आदि को लाल, नीला और जामुनी रंग देते हैं। इनसे बढ़ी उम्र से जुड़ी तकलीफें, दिल की बीमारियां, मोटापे और कैंसर रोकने में मदद करते हैं। ये ऐंटी-ऑक्सीडेंट का काम करके डीएनए को नुकसान से बचाते हैं।
करक्यूमिन हल्दी को पीला रंग देने वाला रसायन है। यह ऐटी-ऑक्सीडेंट के साथ ही कीटीणु-नाशक, विष-नाशक भी है। यह स्वस्थ कोशाओं को छेड़े बिना ट्यूमर की बीमार कोशिकाओं के विकास को धीमा कर देता है।
ईजीसीजी या एपीगैलोकैचिन-3-गैलेट हरी चाय में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो त्वचा, कोलोन, स्तन, पेट, लिवर और पेफड़ों के कैंसर को रोकने में मदद करता है। पानी के बाद सबसे ज्यादा पिया जाने वाला पेय- चाय की पत्ती को जब फर्मेंट या प्रोसेस नहीं किया जाता तो उसके ज्यादातर गुण रह जाते हैं।
लाइकोपीन टमाटरों को लाल रंग देने वाला रसायन है। यह तरबूज़, अंगूर, अमरूद र पपीते में भी थोड़ी-बहुत मात्रा में मिलता है। इसका सेवन करने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा कम हो जाता है। साबित हो चुका है कि ताजे टमाटरों से मिलने वाला लाइकोपीन ज्यादा असरदार होता है, बजाए लाइकोपीन की गोलियों के।
ईस्ट्रोजन हार्मोंन जो मानव शरीर में अपने आप बनता है। इसके समान हार्मोन पौधों में भी होता है- फाइटोईस्ट्रोजन। सोया उत्पादों में यह बड़ी मात्रा में होता है। ईस्ट्रोजन हार्मोंन स्तन, बच्चेदानी की झिल्ली और प्रोस्टेट कैंसर का कारण है। जबकि फाइटोईस्ट्रोजन की मौजूदगी ईस्ट्रोजन के बुरे प्रभाव को कम कर देती है।
पिक्नोजेलोन फ्रांस में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ की छाल से मिलने वाला रसायन है। यह अंगूर और कोकोआ में भी पाया जाता है। इसके ऐंटी-ऑक्सीडेंट प्रभाव की पड़ताल जारी है।
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-1)
फ्री-रैडिकल्स और ऐंटी-ऑक्सीडेंट
ऑक्सीडेशन एक रासायनिक प्रक्रिया है जिससे लोहे में जंग लगती है और हमारे शरीर में भी। हमारे शरीर में मौजूद फ्री-रैडिकल्स ऐसे अणु हैं जिनमें एक इलेक्ट्रॉन कम होता है जिसकी पूर्ति के लिए वे दूसरे अणुओं की ओर जल्द आकर्षित होते हैं और उनके इलेक्ट्रॉन चुरा लेते हैं। अब जिस अणु का इलेक्ट्रॉन चोरी हुआ है वह किसी और का चुराने को उद्धत रहता है इस तरह यह चेन रिऐक्शन चलता रहता है जिससे कोशिका के भीतर कई तरह के अणु, यहां तक कि डीएनए भी प्रभावित होते है।
डीएनए का एक अणु भी अपनी जगह से हिला तो उसके जेनेटिक कोड में बदलाव आ जाता है और कोशिका का काम-काज प्रभावित होता है। तंबाकू, धुंए, रेडिएशन जैसी कई चीजों में फ्री-रैडिकल्स होते हैं जो कोशिका के जेनेटिक कोड में बदलाव लाकर कैंसर भी पैदा कर सकते हैं।
फ्री-रैडिकल्स के लिए इलेक्ट्रॉन देने में शरीर में मौजूद ऑक्सीजन अव्वल होती है। इसलिए फ्री-रैडिकल्स को इलेक्ट्रॉन की पूर्ति होना ऑक्सिडेशन कहलाता है। जो अणु फ्री-रैडिकल्स के ऑक्सिडेशन को रोकते हैं उन्हें ऐंटी-ऑक्सीडेंट कहा जाता है।
ऐंटी-ऑक्सीडेंट, जैसे विटामिन ई और सी, फ्री रैडिकल्स के साथ रिऐक्शन करके उन्हें काबू में रखते हैं और इस तरह ऑक्सीडेशन की चेन रिऐक्शन को, यानी कैंसर पैदा होने की स्थितियों को रोकते हैं। पेड़-पौधों में ऐंटी-ऑक्सीडेंट काफी होते हैं। ये हमारे शरीर में भी पैदा होते हैं लेकिन काफी कम मात्रा में।
फाइटोकेमिकल्स यानी पौधों से मिलने वाले रसायन जो कैंसर को रोकते हैं, उसकी ग्रोथ को रोकते हैं या उसे ठीक करने में मदद करते हैं। अब तक कोई ऐसा फाइटोकेमिकल नहीं खोजा जा सका है जिससे कैंसर का इलाज हो जाए। हालांकि कैंसर को रोकने में कई फाइटोकेमिकल्स कामयाब पाए गए है।
ऐंथोसायनिन ऐसे रसायन हैं जो सब्जियों, साइट्रस फलों, बेरीज़ आदि को लाल, नीला और जामुनी रंग देते हैं। इनसे बढ़ी उम्र से जुड़ी तकलीफें, दिल की बीमारियां, मोटापे और कैंसर रोकने में मदद करते हैं। ये ऐंटी-ऑक्सीडेंट का काम करके डीएनए को नुकसान से बचाते हैं।
करक्यूमिन हल्दी को पीला रंग देने वाला रसायन है। यह ऐटी-ऑक्सीडेंट के साथ ही कीटीणु-नाशक, विष-नाशक भी है। यह स्वस्थ कोशाओं को छेड़े बिना ट्यूमर की बीमार कोशिकाओं के विकास को धीमा कर देता है।
ईजीसीजी या एपीगैलोकैचिन-3-गैलेट हरी चाय में प्रचुर मात्रा में पाया जाता है जो त्वचा, कोलोन, स्तन, पेट, लिवर और पेफड़ों के कैंसर को रोकने में मदद करता है। पानी के बाद सबसे ज्यादा पिया जाने वाला पेय- चाय की पत्ती को जब फर्मेंट या प्रोसेस नहीं किया जाता तो उसके ज्यादातर गुण रह जाते हैं।
लाइकोपीन टमाटरों को लाल रंग देने वाला रसायन है। यह तरबूज़, अंगूर, अमरूद र पपीते में भी थोड़ी-बहुत मात्रा में मिलता है। इसका सेवन करने से प्रोस्टेट कैंसर का खतरा कम हो जाता है। साबित हो चुका है कि ताजे टमाटरों से मिलने वाला लाइकोपीन ज्यादा असरदार होता है, बजाए लाइकोपीन की गोलियों के।
ईस्ट्रोजन हार्मोंन जो मानव शरीर में अपने आप बनता है। इसके समान हार्मोन पौधों में भी होता है- फाइटोईस्ट्रोजन। सोया उत्पादों में यह बड़ी मात्रा में होता है। ईस्ट्रोजन हार्मोंन स्तन, बच्चेदानी की झिल्ली और प्रोस्टेट कैंसर का कारण है। जबकि फाइटोईस्ट्रोजन की मौजूदगी ईस्ट्रोजन के बुरे प्रभाव को कम कर देती है।
पिक्नोजेलोन फ्रांस में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ की छाल से मिलने वाला रसायन है। यह अंगूर और कोकोआ में भी पाया जाता है। इसके ऐंटी-ऑक्सीडेंट प्रभाव की पड़ताल जारी है।
Thursday, April 16, 2009
कैंसर पर जानकारी टुकड़ों में (भाग-2)
इंटरनेट पर कैंसर के बारे में ढेरों जानकारी बिखरी पड़ी है। इनका सार आपके सामने रखने की कोशिश में यह सीरीज दे रही हूं। यह मेरे नवभारत टाइम्स में 6 अप्रैल को जस्ट-जिंदगी पेज पर छपे लेख पर आधारित है।
कैंसर को बढ़ावा देते हैं ये सब
1. तंबाकू का सेवन
हमारे देश में पुरुषों में 48 फीसदी और महिलाओं में 20 फीसदी कैंसर की इकलौती वजह तंबाकू है। अगर आप बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते, लेकिन मजबूरी में उसके धुएं में सांस लेनी पड़ती है तो भी आपको खतरा है। गुटखा (पान मसाला) चाहे तंबाकू वाला हो या बिना तंबाकू वाला, दोनों नुकसान करता है। हां, तंबाकू वाला गुटखा ज्यादा नुकसानदायक है। तंबाकू या पान मसाला चबाने वालों को मुंह का कैंसर ज्यादा होता है।
2. एक-दो पेग से ज्यादा शराब
रोज दो से ज्यादा पेग लेना मुंह, खाने की नली, गले, लिवर और ब्रेस्ट कैंसर को खुला न्योता है। ड्रिंक में अल्कोहल की ज्यादा मात्रा और साथ में तंबाकू का सेवन कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ा देता है। सबसे कम अल्कोहल बियर में, उससे ज्यादा वाइन में और उससे भी ज्यादा अल्कोहल विस्की व रम में होती है। बेस्ट है कि शराब न लें। अगर छोड़ना मुश्किल है तो एक-दो पेग से ज्यादा न लें।
3. ज्यादा चर्बी (फैट) वाला भोजन
तला हुआ खाना या ऊपर से घी-मक्खन लेने से बचना चाहिए। ज्यादा चर्बी खाने वाले लोगों में ब्रेस्ट, प्रॉस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं। अनुमान है कि कैंसर से होनेवाली 30 फीसदी मौतों को सही खानपान के जरिए रोका जा सकता है। प्रेजर्वेटिव वाले प्रॉसेस्ड फूड और तेज आंच पर देर तक पकी चीजें कम खाएं।
4. नॉन-वेज डिशेज
मीट हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा वक्त लगता है। ज्यादा देर तक बिना पचे भोजन से पेट में एसिड व दूसरे जहरीले रसायन बनते हैं जिनसे कैंसर बढ़ता है। जर्मनी में 11 साल तक चली स्टडी में पाया गया कि वेजिटेरियन लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। सब्जियों में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कैंसर सेल्स को बनने से रोकते हैं।
5. बार-बार एक्स-रे कराना
एक्स-रे, सीटी स्कैन आदि की किरणें हमारे शरीर में पहुंचकर सेल्स की रासायनिक गतिविधियां बढ़ा देती हैं जिससे स्किन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए अगर आप अलग-अलग डॉक्टरों से इलाज कराते हैं और हर डॉक्टर अलग एक्सरे कराने के लिए कहे, तो डॉक्टर को जरूर बताएं कि आप पहले कितनी बार एक्सरे करा चुके हैं।
6. हार्मोन थेरपी
हार्मोन थेरपी बहुत जरूरी होने पर ही लें। महिलाओं को मीनोपॉज़ के दौरान होनेवाली तकलीफों से बचने के लिए उन्हें इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टिन हार्मोन थेरपी दी जाती है। हाल की स्टडीज से पता चला है कि मीनोपॉजल हार्मोन थेरपी से ब्रेस्ट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। हार्मोन थेरपी लेने के पहले इसके खतरों पर जरूर गौर कर लेना चाहिए।
7. लगातार धूप में रहना
सूरज से निकलने वाली अल्ट्रावॉयलेट किरणों से स्किन कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। धूप में निकलना हो तो पूरी बाजू के कपड़े, कैप, अल्ट्रावॉयलेट किरणें रोकने वाला चश्मा और कम-से-कम 15 एसपीएफ वाले सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना चाहिए। वैसे, हम भारतीयों की स्किन में मेलानिन पिग्मेंट ज्यादा होता है, जो अल्ट्रावॉयलेट किरणों को रोकता है। इससे स्किन को कैंसर का खतरा कम होता है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं होता।
8. पेनकिलर दवाएं ज्यादा लेना
पेनकिलर और दूसरी दवाएं खुद ही बेवजह खाते रहने की आदत छोड़ें। डॉक्टर की सलाह के बिना दवाएं खाना शरीर के लिए घातक हो सकता है।
कैंसर को बढ़ावा देते हैं ये सब
1. तंबाकू का सेवन
हमारे देश में पुरुषों में 48 फीसदी और महिलाओं में 20 फीसदी कैंसर की इकलौती वजह तंबाकू है। अगर आप बीड़ी-सिगरेट नहीं पीते, लेकिन मजबूरी में उसके धुएं में सांस लेनी पड़ती है तो भी आपको खतरा है। गुटखा (पान मसाला) चाहे तंबाकू वाला हो या बिना तंबाकू वाला, दोनों नुकसान करता है। हां, तंबाकू वाला गुटखा ज्यादा नुकसानदायक है। तंबाकू या पान मसाला चबाने वालों को मुंह का कैंसर ज्यादा होता है।
2. एक-दो पेग से ज्यादा शराब
रोज दो से ज्यादा पेग लेना मुंह, खाने की नली, गले, लिवर और ब्रेस्ट कैंसर को खुला न्योता है। ड्रिंक में अल्कोहल की ज्यादा मात्रा और साथ में तंबाकू का सेवन कैंसर का खतरा कई गुना बढ़ा देता है। सबसे कम अल्कोहल बियर में, उससे ज्यादा वाइन में और उससे भी ज्यादा अल्कोहल विस्की व रम में होती है। बेस्ट है कि शराब न लें। अगर छोड़ना मुश्किल है तो एक-दो पेग से ज्यादा न लें।
3. ज्यादा चर्बी (फैट) वाला भोजन
तला हुआ खाना या ऊपर से घी-मक्खन लेने से बचना चाहिए। ज्यादा चर्बी खाने वाले लोगों में ब्रेस्ट, प्रॉस्टेट, कोलोन और मलाशय (रेक्टम) के कैंसर ज्यादा होते हैं। अनुमान है कि कैंसर से होनेवाली 30 फीसदी मौतों को सही खानपान के जरिए रोका जा सकता है। प्रेजर्वेटिव वाले प्रॉसेस्ड फूड और तेज आंच पर देर तक पकी चीजें कम खाएं।
4. नॉन-वेज डिशेज
मीट हजम करने में ज्यादा एंजाइम और ज्यादा वक्त लगता है। ज्यादा देर तक बिना पचे भोजन से पेट में एसिड व दूसरे जहरीले रसायन बनते हैं जिनसे कैंसर बढ़ता है। जर्मनी में 11 साल तक चली स्टडी में पाया गया कि वेजिटेरियन लोगों को आम लोगों के मुकाबले कैंसर कम हुआ। सब्जियों में मौजूद विविध विटामिन शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाते हैं और कैंसर सेल्स को बनने से रोकते हैं।
5. बार-बार एक्स-रे कराना
एक्स-रे, सीटी स्कैन आदि की किरणें हमारे शरीर में पहुंचकर सेल्स की रासायनिक गतिविधियां बढ़ा देती हैं जिससे स्किन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। इसलिए अगर आप अलग-अलग डॉक्टरों से इलाज कराते हैं और हर डॉक्टर अलग एक्सरे कराने के लिए कहे, तो डॉक्टर को जरूर बताएं कि आप पहले कितनी बार एक्सरे करा चुके हैं।
6. हार्मोन थेरपी
हार्मोन थेरपी बहुत जरूरी होने पर ही लें। महिलाओं को मीनोपॉज़ के दौरान होनेवाली तकलीफों से बचने के लिए उन्हें इस्ट्रोजन और प्रोजेस्टिन हार्मोन थेरपी दी जाती है। हाल की स्टडीज से पता चला है कि मीनोपॉजल हार्मोन थेरपी से ब्रेस्ट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। हार्मोन थेरपी लेने के पहले इसके खतरों पर जरूर गौर कर लेना चाहिए।
7. लगातार धूप में रहना
सूरज से निकलने वाली अल्ट्रावॉयलेट किरणों से स्किन कैंसर होने की आशंका बढ़ जाती है। धूप में निकलना हो तो पूरी बाजू के कपड़े, कैप, अल्ट्रावॉयलेट किरणें रोकने वाला चश्मा और कम-से-कम 15 एसपीएफ वाले सनस्क्रीन का इस्तेमाल करना चाहिए। वैसे, हम भारतीयों की स्किन में मेलानिन पिग्मेंट ज्यादा होता है, जो अल्ट्रावॉयलेट किरणों को रोकता है। इससे स्किन को कैंसर का खतरा कम होता है, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं होता।
8. पेनकिलर दवाएं ज्यादा लेना
पेनकिलर और दूसरी दवाएं खुद ही बेवजह खाते रहने की आदत छोड़ें। डॉक्टर की सलाह के बिना दवाएं खाना शरीर के लिए घातक हो सकता है।
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