Thursday, April 8, 2010

मरीज न सही, डॉक्टर तो जानें इस मर्ज को!

महानगरों, खासकर दिल्ली में स्तन कैंसर जिस रफ्तार से बढ़ रहा है, डॉक्टर भी हैरान हैं। कारण कई हैं, जिनमें से एक लाइफ-स्टाइल भी है। सेहतमंद रहने के लिए अच्छा खाने और कसरत करने की नसीहतें तो कई बार दे चुकी हूं। फिलहाल खास तौर, पर दिल्ली की महिलाओं में कैंसर और स्तन से जुड़ी दूसरी समस्याओँ के मूल कारणों की पड़ताल करने की कोशिश कर रही हूं।

सबसे पहली बात है, स्तन की बीमारियों के बारे में जानकारी का पूर्णतः अभाव। स्तनों के बारे में भारतीय महिलाओं में जानकारी का कतई अभाव है। वे इसे बेहद निजी, शर्मिंदा करने वाले अंग के रूप में देखती हैं या फिर पुरुषों को रिझाने और उसी इस्तेमाल के अंग के रूप में सहेजती हैं। कभी हाथ-पैर-सिर में दर्द हो, परेशानी हो तो वह फौरन सबसे चर्चा करती है, पर स्तन में कुछ गंभीर हुआ-सा लगे तो भी किसी से चर्चा तक नहीं करती। मानो वह उसके जीवित शरीर का जीवित हिस्सा हो ही नहीं। स्तनों में गांठ होना, निप्पल से कोई सफेद या रंगीन (पीला, लाल, हरा कोई भी) पानी का निकलना, उसका आकार बेवजह बदलना, दूध पिलाने के समय समस्याएं, स्तनों में सूजन और उनका पक जाना जैसी दसियों समस्याएं महिलाएं आए दिन झेलती हैं, पर बिना किसी से कहे, चुपचाप। यह गलत है। स्कूलों में छोटी उम्र से ही लड़कियों को यह जानकारी मिलनी चाहिए, जो नहीं मिलती। मीडिया में भी कैंसर पर बात करना तो फैशनेबल है, लेकिन स्तन की दूसरी समस्याओं पर बिरले ही कुछ पढ़ने-देखने को मिलता है।

दूसरी समस्या डॉक्टरों से संबंधित है। कोई महिला मरीज सबसे पहले अपने नजदीक के, परिचित डॉक्टर के पास ही पहुंचती है। और उसकी बीमारी का भविष्य उस डॉक्टर की जानकारी और कुशलता पर निर्भर करता है। कई सर्वेक्षणों से बार-बार साबित हो चुका है कि आम फिजीशियन स्तन कैंसर और स्तन की दूसरी बीमारियों के बारे में बहुत कम जानते हैं। आश्चर्य हो सकता है, लेकिन वे भी आम जनता के बराबर ही भ्रम में जीते हैं। वे भी स्तन की गांठ, स्राव, दर्द, बदलाव आदि लक्षणों को नजरअंदाज कर दते हैं या फिर इन्हें संक्रमण जैसी कोई स्थानीय समस्या मानकर एंटीबायोटिक आदि का एक कोर्स तस्कीद कर देते हैं। जबकि इमेजिंग यानी अल्ट्रासाउंड और मेमोग्राफी, बायोप्सी या एफएनएसी जैसी नैदानिक जांचों की तत्काल जरूरत उन्हें महसूस होनी चाहिए। इस तरह बीमारी की पहचान में देर हो जाती है और बीमारी को खतरनाक हद तक बढ़ने का मौका मिल जाता है। दूसरी तरफ कई बार अतिउत्साह में छोटी लड़कियों की भी मेमोग्राफी कर दी जाती है जबकि मेडिकल नियमों के अनुसार 35 साल से कम उम्र की महिला की मेमोग्राफी अपरिहार्य स्थितियों में ही करनी चाहिए।

तीसरी बात है, स्तन कैंसर और स्तन की दूसरी समस्याओं का गलत तरीके से इलाज। यह तथ्य भी डॉक्टरों के बीच सर्वेक्षणों से सामने आया है कि अकुशल और अधूरी जानकारी वाले डॉक्टर स्तन कैंसर, निप्पल से स्राव या स्तन के फोड़े और सूजन का इलाज मनमाने ढंग से कर देते हैं। दूध पिलाने के समय अक्सर महिलाओं को स्तन में सूजन और गांठ यानी मास्टिटिस से जूझना पड़ता है। थोड़े-बहुत घरेलू इलाज के बाद मरीज दर्द से परेशान, डॉक्टर के पास पहुंचता है और डॉक्टर बच्चे का दूध छुड़ा कर स्तन में चीरा लगा देते हैं ताकि जमा हुआ दूध, मवाद निकल जाए। यह तो हुआ डॉक्टर के लिए सरल, मशीनी तरीका, जिसे कोई अंतर्राष्ट्रीय मानक मंजूर नहीं करता। इसके लिए बिना चीरा लगाए सुई से मवाद निकालने और बच्चे को दूध पिलाते रहने का कायदा दुनिया के डॉक्टरों ने मंजूर किया है। लेकिन हमारे यहां कम ही डॉक्टर/सर्जन इसे जानते या मानते हैं।

कई बार बिना मेमोग्राफी, अल्ट्रासाउंड, बायोप्सी आदि के टेढ़ा-मेढ़ा चीरा लगाकर स्तन कैंसर तक का इलाज कर दिया जाता है। बाद का इलाज यानी कीमोथेरेपी, रेडियो थेरेपी आदि किए बिना मरीज को घर भेज दिया जाता है। इसका नतीजा होता है, कुछ महीनों या साल भर बाद बीमारी का फिर उभरना और ज्यादा तेजी से, मारक अंदाज में उभरना। इस समय तक बीमारी भीतर ही भीतर कई अंगों तक फैल चुकी होती है। विशेषज्ञ के लिए ऐसे मरीज का इलाज करना टेढ़ी खीर ही होता है। ऐसे में हजारों रुपए खर्च करने के बावजूद मरीज का इलाज कितना कारगर होगा, इसमें शक ही होता है।

चौथी बात, अगर कोई मरीज शुरुआत में ही विशेषज्ञ के पास जाना चाहे तो उसे कहां मिलता है कोई स्तन विशेषज्ञ? उसे पता ही नहीं चल पाता कि कौन सा डॉक्टर स्तन की बीमारियों को ज्यादा समझता है। कारण यह है कि ऐसे विशेषज्ञों की बेहद कमी है। और यह स्थिति गांव-कस्बे में ही नहीं दिल्ली जैसे महानगर में भी है। और अंत में भीड़-भाड़ वाले बड़े सरकारी अस्पताल या फिर बेहिसाब महंगे 5 सितारा अस्पताल में ही उसे गति दिखती है, जिससे वह हमेशा बचने की कोशिश करता रहा था।

अगर कोई मरीज सौभाग्य से विशेषज्ञ डॉक्टर तक पहुंच भी गया तो अच्छे डॉक्टर का काम होना चाहिए कि वह मरीज को बीमारी और इलाज के बारे में बताए, उसकी प्रक्रिया समझाए, नतीजे बताए और उसे उपलब्ध विकल्पों के बारे में भी जरूर ही बताए। पर ऐसा कब हो पाता है? डॉक्टर लिख देता है और मरीज बिना जाने-समझे बल्कि पढ़े बिना भी (क्योंकि जटिल हस्तलेख में, जटिल भाषा में पर्चा पढ़ना हरेक के बस का नहीं) बस, रोबोट की तरह उन निर्देशों का पालन करता रहता है।

किसी महंगी दवा का सस्ता विकल्प बाजार में उपलब्ध हो तो भी उसके पास ऐसा करने की चॉइस नहीं होती क्योंकि हमारे देश में दवाओं के जेनेरिक नाम यानी रसायन का नाम लिखने के बजाए ब्रांड का नाम लिखने का चलन है, जो मरीज के खिलाफ जाता है। यह वैसा ही हुआ जैसे किसी को जींस खरीदनी हो तो उसके पास डेनिम, कॉटन या कॉर्डरॉय जैसे नहीं बल्कि लीवाइज, रैंगलर या डीज़ल जैसे विकल्प सामने रख दिए जाएं। ऐसे में जानकारी के अभाव में वह गरीब मरीज हर हाल में महंगी दवाएं खरीदने को मजबूर होगा क्योंकि बराबर असर वाली सस्ती दवाओं के बारे में उसे कौन बताए? उसे अपनी जिंदगी, अपने इलाज, अपने शरीर के बारे में इलाज, विकल्पों को जानने का हक कोई डॉक्टर, अस्पताल नहीं देता। क्या यह भी मानवाधिकार हनन का मामला नहीं होना चाहिए?
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