Wednesday, August 14, 2013

डबल मास्टेक्टोमी बरास्ता एंजलीना जोली फिर एक बार

अपने को प्रकाशित, प्रचारित करना मेरी फितरत में ज़रा कम है। इसलिए कई बार कुछ ऐसी बातों की जानकारी फैलाने में भी बड़ी देर लग जाती है, जो आत्म-प्रचार लगती हैं, पर उनका सरोकार बहुत से लोगों से है।

ऐसे ही, कोई दो महीने पहले हॉलीवुड स्टार एंजलीना जोली के डबल मास्टेक्टोमी (इसी बहाने मास्टेक्टोमी और डबल मास्टेक्टोमी जैसे टंग-ट्विस्टर, अनजाने कठिन तकनीकी अंग्रेज़ी शब्द जवान -बूढ़े सभी की ज़ुबान पर चढ़ गए।) पर हिंदुस्तानी मीडिया में जबर्दस्त चर्चा छिड़ी, जिसका दरअसल आम हिंदुस्तानी के लिए कोई अर्थ नहीं था। यह रसीली चर्चा इस अर्थ में सकारात्मक रही कि इसके बहाने स्तन कैंसर जैसे आम तौर पर वर्जित विषय पर बातें हुईं, लोगों की जानकारी बढ़ी।

उस हफ्ते में मेरी व्यस्तता भी बढ़ गई थी। विशेषज्ञ मरीज़ के तौर पर कई चैनलों और पत्रिकाओं ने मेरे विचारों को जानने में दिलचस्पी दिखाई।

ऐसा ही एक कार्यक्रम यू-ट्यूब पर अब भी मौजूद है। यह राज्यसभा टीवी पर अमृता राय का कार्यक्रम 'सरोकार' है जिसमें मेरे अलावा कैनसपोर्ट की हरमाला गुप्ता भी हैं। उसका लिंक इधर दे रही हूं।

http://www.youtube.com/watch?v=D-zNDX0QMDg

Thursday, August 1, 2013

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (2)




  • -      ईस्ट्रोजन तो खत्म हो गया। पहले रसायनों से दबाया गया, फिर ओवरीज़ निकाल कर, बकिया दवा से और दबा दिया गया। ज़िंदादिली कहां से आए। जिंदा शरीर और जिंदा दिल के बीच चुनना था। चुनाव कठिन नहीं था। धारा के साथ बह रही हूं। देह को बचाने में डॉक्टरों का साथ दे रही हूं। दिल का क्या है! शरीर रहेगा तो दिल भी थोड़ा-बहुत तो जी लेगा। वरना तो फिर कुछ नहीं है।
  • -      गुस्सा आता है कि दूसरे सहजता से पाते हैं, बिना परवाह किए, बिना जाने। ज़ाहिर है, पाने का शुक्राना भी नहीं देते। और देखती हूं, मेरे पास वह कुछ भी नहीं है जो मेरी उम्र में जीवन का प्राप्य होना था। क्यों का कोई जवाब नहीं है। आधारभूत बात यही है कि मेरे पास से वह सब चला गया, असमय, समय से बहुत पहले। और रह गई यह भावना कि क्यों नहीं खो जाने के पहले ही मैं भरपूर जी ली उन समयों को, रीति-नीति को ताक पर रख कर।
  • -      हार्मोन और दवा की लड़ाई में दवा जीतती है तो मैं बचती हूं। पर हार्मोन जीते तो मेरा दिल बचेगा। क्या करूं? दवा की जीत का समर्थन ही मेरे जीने का उद्देश्य रह गया है। दिल गया भाड़ में।
  • -      शायद कुछ चोरी हो गया है। भविष्य का एक हिस्सा, नीले आकाश का एक टुकड़ा जो पूरा मेरा हो सकता था।
  • -      मरने के पहले अपने जीवन का दुख मना ही लेना होगा। उन सबका जो धीरे-धीरे खोया जा रहा है, छूटता जा रहा है। आत्मविश्वास, मुस्कुराहटें, हंसी के हलके पल, बातों को हलके में लेने का जज़्बा...
  • -      कई बार लगने लगता है कि कैंसर से मेरी दोस्ती हो गई है, समझौता–सा हो गया, शांति स्थापित हो गई। और तभी एक जोरदार वार, सीधे पेट पर।
  • -      बीमार, थके हुए। उम्मीदों का खाली झोला लिए अस्पताल चले हैं डॉक्टरों से सौदा करने। झोले में कुछ प्रिस्क्रिप्शन, कुछ दवाएं, कुछ रिपोर्ट, रेडीमेड जूस का खाली डब्बा और किसी कोने में मुड़ा-तुड़ा अनदेखा-सा पड़ा एक खाली पुर्जा आशा का लिए लौट आते हैं।
  • -      अब तय करना होगा। चाहे जितनी भी छोटी या बड़ी हो, अधूरी हो, इसी से काम चलाना है। जिंदगी को काम पर लगाना है। बेरोजगार ज्यादा गुस्सा करता है, ज्यादा दुखी होता है, ज्यादा तकलीफ महसूस करता है। चलो काम पर लगें।
  • -      काम यानी पढ़ना, पियानो बजाना, किसी के लिए लिखना, सिलना-बुनना, फेसबुक पर सलाह-मशविरे लेना-देना, अस्पताल में मरीजों के साथ अनुभव बांटना, चित्र खींचना, कुछ लिखना जिसे पढ़कर लोग जानें कि क्या है यह ज़िंदगी, क्या करता है कोई इसका और यह क्या कर सकती है किसी का।

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (1)

  • -      मैं अकेली नहीं हूं जिंदगी के बियाबान में। लेकिन भीतर का यह अंधेरा जंगल हर किसी का अपना होता है। साझा तभी होता है जब उसके पेड़ साझा होते हैं, फलों की तलाश साझा होती है, पैरों के नीचे के दलदल की दुश्वारियां एक-सी होती हैं।
  • -      कभी जब लगने लगता है कि सब ठीक-ठाक है, खुशियां आस-पास हैं तभी कभी बेससाख्ता, अप्रत्याशित रुलाई फूट पड़ती है। धीमे-धीमे चलती मेरी देह घूम कर फर्श पर ढह जाती है।
  • -      दस्तरख्वान देखकर रोना आ सकता है कभी, कि इसमें मेरे खाने लायक क्यों कुछ नहीं। और जो है, उसमें से मैं क्या खाऊं, समझ में ही नहीं आता। कभी तो समझ नहीं पाती कि इसके अलावा क्या चाहती हूं। और यही बात मन के मुंह को कस कर बांधे रखने वाली डोरी को एक सिरे से खींच देती है। मुंह खुला और बह गया सब आंखों के रास्ते, एक बार में ही।
  • -      जानती हूं और मानती हूं कि अब रोना मेरा हक बनता है। रोकने की कोई सूरत नहीं, जरूरत भी नहीं। दिमाग कहता है रो लो और जितनी जल्दी हो सके फारिग होकर आगे बढ़ लो। पर मन वहीं कहीं अटका रहना चाहता है, जंगल में या जंगल के विचार में।
  • -      आम बातें, अच्छी बातें- हर बात पर नल खुल जाते हैं। न सिर्फ दर्द और संगीत, बल्कि हंसी और मज़ाक तक रुला देता है। नहीं पता होता कब उबल पड़ेंगे, उफन पड़ेंगे ये दो रिज़रवॉयर।
  • -      शरीर पर काबू कहां रहा। वह फुसफुसाता है कुछ बातें और मैं चुपचाप सुनती हूं।
  • -      इन हालात को खत्म करने की कोई दवा हो तो बताओ यारो।

क्रमशः...

कह दिया जो मन में था, भला-बुरा आप जानिए (2)

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